Wednesday 11 July 2018

हरयाणा और कीट नाशकों का कहर

हरयाणा  और कीट नाशकों का कहर
रणबीर सिंह दहिया
हरयाणा ज्ञान विज्ञानं समिति
कीट नाशकों के अनियन्त्रित  इस्तेमाल ने हरित क्रांति के दौरान हरयाणा में  जमीन , पशुओं और मानव जाति को लगता है काफी नुकसान पहुंचाया है । विडम्बना यह है कि इन कीटनाशकों  की  ह्यूमन शरीर में जाँच करने की मशीन तक रोहतक  के मैडीकल में नहीं हैं । 
कीटनाशकों के अंधाधुंध प्रयोग से पर्यावरण से लेकर जनजीवन को होने वाले नुकसानों से हम सभी परिचित हैं। पर इसके प्रयोग को लेकर जैसी सावधानी की सरकार से अपेक्षा थी वैसी कहीं देखने में नहीं आ रही है।
परिणाम यह है कि जनस्वास्थ्य के प्रति सतर्क कई विकसित देश तो हमारे फल-सब्जियों के निर्यात पर पाबंदी लगाने जैसे कदम भी उठा रहे हैं। इसके बावजूद हमारे देश में वैसी सतर्कता और चेतना देखने को नहीं मिल रही है जैसी कि इतने संवेदनशील मुद्दे पर अपेक्षित है। क्या है समस्या और कैसे हो इस का हल ? हमें समय रहते चेतना होगा । कीटनाशकों के प्रयोग से मनुष्य कई प्रकार की बीमारियों की चपेट में आ सकता है। सबसे प्रमुख है - इम्यूनोपैथोलोजिकल इफैक्टस-आटो इम्युनिटी,अक्वायरड इम्युनिटी,हाईपर सैंसिविटी के स्तर पर विकार अलग अलग ढंग से, कारसिनोजैनिक इफैक्ट, मुटाजेनिसिटी,टैटराजैनिसिटी, न्यूरोपैथी,हैपेटोटोक्सीयिसटी,रिपरोडक्टिव डिस्आर्डर, रिकरैंट इन्फैक्सन्ज। इन पर यहां विस्तार से चर्चा न करके कुछ बीमारियों के बारे चर्चा की जा रही है। 
1-’तीव्र विषाक्तता (एक्यूट प्वॉयजनिंग)। 
इसमें कीटनाशक प्रयोग करने वाला व्यक्ति ही इसकी चपेट में आ जाता है। हमारे देश में तो यह समस्या काफी देखने में आती है। इसमें सिर दर्द होना, जी मितलाना,चक्कर आना, पेट में दर्द, चमड़ी और आंखों में परेशानी, बेहोश हो जाना व म्ृत्यू तक शामिल हैं। आत्म हत्या के लिए भी इनका बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। इनका इस्तेमाल करने वालों काफी लोगों में इनके इस्तेमाल के वक्त रखी जाने वाली सावधानियों की जानकारी का अभाव पाया गया है।
2-’कीटनाशक के प्रयोग से होने वाली दूसरी बड़ी बीमारियां हैं का्रेनिक डिजिज मसलनः
कैंसर:
        विशेष रूप से खून और त्वचा के कैंसर इस कारण से काफी देखने में आते हैं । इनके प्रभाव में आने वाले लोगों में दिमाग के , स्तनों के, यकृत-जिगर - लीवर के, अग्न्याशया- पैर्न्कियाज के, फेफड़ों-लंग्ज के, कैंसर का रिस्क बढ़ जाता है।  
कैंसर के मरीजों की संख्या बहुत से प्रदेशों में बढ़ रही है।
                                                   मरीज/मौत 
वर्ष 2011 2012 2013 2014 टैंड कमैंटस
उतर प्रदेश 170013/74806 175404/77178 180945/79616 186638/82121
पंजाब 23506/10343 24006/10563 24512/10785 25026/11011
हरियाणा 21539/9477 22122/9734 22721/9998 23336/10268
चण्डीगढ़ 893/393 915/403 937/413 960/423
जम्मू कश्मीर 10668/4703 11052/4863 11428/5028 11815/5198
हिमाचल 5836/2568 5966/2625 6097/2683 6230/2741
उत्तराखंड 8663/3798 8899/3916 9173/4037 9455/4160
स्रोतः  केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की और से लोक सभा  में 11 जुलाई  2014 को पेश की गई रिपोर्ट
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       इसके अलावा श्वांस संबंधी बीमारियां और शरीर के अपने डिफैंस  तंत्र के कमजोर होने की समस्या इसके कारण काफी देखने में आती है। कई बार यह नर्वस प्रणाली को चपेट में ले लेता है। इसी प्रकार चमड़ी की बीमारियां भी इनके प्रभाव के कारण ज्यादा होती हैं। नपुसंकता की संभावना बढ़ जाती है।
       मां की औरनाल के रास्ते गर्भ में बच्चे में ये कीटनाशक प्रवेश पा जाते हैं और जन्म जात विकृतियों का रिस्क बढ़ जाता है खासकर तऩ्ि़त्रका तऩ्त्र -नरवस सिस्टम की। 
      इसी प्रकार पारकिन्सोनिज्म बीमारी का रिस्क 70 प्रतिशत बढ़ जाता है। बच्चों में अग्रेसिवनैस बढ़ने का कारन भी हो सकते हैं। किसानों में आत्म हत्याएं करने की मानसिकता पैदा करने में भी इनके कुप्रभावों की भूमिका हो सकती है। 
      कीटनाशकों के कारखानों, घर में, खाने में, पानी में , पशुओं में मौजूद कीटनाशक हमारे शरीर में पहुंच कर हमारे फैट में , खून में इक्ठ््ठा होते रहते हैं और नुकसान पहुंचाते हैं।स्टॉक होम कन्वैंसन ऑन परसिस्टैंट आरगेनिक पोलुटैंटस के मुताबिक 12 में से 9 खतरनाक और परसिस्टैंट कैमिकल ये कीटनाशक हैं। कई सब्जियों और फलों में धोने के बावजूद कीटनाशकों के अवशेष पाये गये हैं। अंडों में , मीट में, भैंस और गाय के दूध में भी इन कीटनाशकों के अवशेष पाये गये हैं।आज कल के बच्चों में बढ़ता अग्रेसिव एटीच्यूड व किसानों में बढ़ती आत्म हत्या की मानसिकता में भी इन कीटनाशकों के अवशेषों की भूमिका देखी जा रही है।
     लगभग 20 प्रतिशत खाद्य पदार्थों में भारत में कीटनाशकों के अवशेष की मात्रा टोलरैंस लेवल से ज्यादा पाई गई है। जबकि अर्न्तराष्टीय स्तर पर यह 2 प्रतिशत ही है। महज 49 प्रतिशत भारतीय खाद्य पदार्थों में नो डिटैक्टेबल रेजिडयू पाये गये जबकि अर्न्तराष्टीय स्तर पर यह प्रतिशत 80 का था। 
      मेरे तीस पैंतीस साल के अनुभव मुझे यह सोचने पर मजबूर करते रहे कि पेट दर्द की लम्बी बीमारी जहाँ बाकी सभी टेस्ट नार्मल आते   हैं  उन मरीजों  में  पेट दर्द का कारण ये कीटनाशक ही होते हैं  । रिसर्च  के लिये  सुविधा ना होने के कारण मेरा ये मिशन पूरा नहीं हो सका । 

        कीटों और सूक्ष्म जीवों को मारने में प्रयुक्त होने वाला कीटनाशक मूल रूप से यह जहर ही है। अगर कीटनाशकों का दुरूपयोग किया जा रहा है तो इसके बहुत गंभीर परिणाम हो सकते हैं। यह उन सभी के लिए हानिकारक होता है जो कि इसके संपर्क में आता है। किसान, कर्मी, उपभोक्ता, जानवर सभी के लिए यह नुकसानदेह हो सकता है। इसलिए, कीटनाशकों के  इस्तेमाल पर सवालिया निशान खड़े हो गए हैं । उपयोग तभी किया जाना चाहिए जबकि उनकी जरूरत हो। भारत के कुछ क्षेत्रों जैसे हरियाणा ,पंजाब, पश्चिमी उत्तरी प्रदेश, आंध्रप्रदेश से विशेषरूप से कीटनाशकों का अधिक प्रयोग करने की खबरें आ रही  हैं।
       कीटनाशकों के उपयोग का सबसे बेहतर तरीका यह है कि उनका इस्तेमाल ष्इंटीग्रेटिड पेस्ट मैनेजमेंटष् के अंतर्गत किया जाए। अर्थात कीटनाशकों का प्रयोग कीट नियंत्रण के अन्य उपायों के साथ एक उपाय के रूप में किया जाए। एक मात्र उपाय के रूप में नहीं किया जाए। भारत में यह देखने में आता है कि अधिकांश लोग कीट नियंत्रण के लिए कीटनाशकों पर निर्भर हो गए हैं। प्रायरू तब भी कीटनाशकों का छिड़काव कर दिया जाता है जबकि उनकी जरूरत ही न हो। जबकि कीटनाशकों को प्रयोग तब होना चाहिए जबकि ऎसा लगे कि फसल में कीट लगना बढ़ सकता है। इसके साथ ही गैर रासायनिक जैविक कीटनाशकों के प्रयोग को भी प्राथमिकता देने की जरूरत है।
       कीटनाशक के प्रयोग के दौरान, फल-सब्जियों, अनाज और पानी में पहुंच चुके कीटनाशक के माध्यम से तथा कई बार तो दूध के माध्यम से भी। आशय यह कि एक बार कीटनाशक के पर्यावरण में पहुंच जाने के बाद वह कई माध्यमों से मनुष्य तक पहुंच सकता है। इसलिए कीटनाशकों के दुष्प्रभाव से बचने का सबसे अच्छा तरीका यही है कि इसका उपयोग किया ही ना जाये या कम से कम उपयोग किया जाए। इसके प्रयोग में अधिक से अधिक सावधानी बरती जाए। इसमें सरकार के कृषि , स्वास्थ्य और खाद्य निरीक्षण विभाग भी सटीक  भूमिका निभा सकते हैं।
           पिछले कुछ समय से पंजाब की खेती फिर  से सुखिऱ्यों में है। मुख्य कारण यह भी रहा है कि खेती में रासायनिक खादों और कीटनाशकों की खपत बढ़ती गई। यही नहीं, फिर ऐसे कीटनाशक भी इस्तेमाल होने लगे जो ज्यादा घातक थे। पंजाब में यह सबसे अधिक हुआ है और इसके भयावह नुकसान हुए हैं। इन कीटनाशकों के संपर्क और फसलों में आए उनके असर से कैंसर सहित अनेक गंभीर बीमारियां पनपी हैं। हालत यह हो गई कि पंजाब के मालवा क्षेत्र से राजस्थान की ओर जाने वाली एक ट्रेन को इसलिए ‘कैंसर ट्रेन’ के नाम से जाना जाने लगा था, क्योंकि सस्ते इलाज के लिए हर रोज इस बीमारी के शिकार लगभग सौ लोग बीकानेर जाते थे। गनीमत है कि इससे संबंधित खबरों में जब यह तथ्य सामने आने लगा कि कीटनाशकों के बेलगाम इस्तेमाल के कारण ही पंजाब के मालवा क्षेत्र में यह स्थिति बनी है, तो राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने इस पर स्वतरू संज्ञान लेकर राज्य सरकार को जरूरी कार्रवाई करने के निर्देश दिए। नतीजतन पंजाब सरकार ने सेहत के लिए बेहद खतरनाक साबित हो रहे कीटनाशकों के उपयोग, उत्पादन और आयात पर पाबंदी लगा दी है। गौरतलब है कि पिछले कुछ सालों से पंजाब के बठिंडा, फरीदकोट, मोगा, मुक्तसर, फिरोजपुर, संगरूर और मानसा जिलों में बड़ी तादाद में गरीब किसान कैंसर के शिकार हो रहे हैं। सत्तर के दशक में पंजाब में जिस हरित क्रांति की शुरुआत हुई थी, उसकी बहुप्रचारित कामयाबी की कीमत अब बहुत सारे लोगों को चुकानी पड़ रही है। उस दौरान ज्यादा पैदावार देने वाली फसलों की किस्में तैयार करने के लिए रासायनिक खादों और कीटनाशकों का बेलगाम इस्तेमाल होने लगा। किसानों को शायद यह अंदाजा न रहा हो कि इसका नतीजा क्या होने वाला है। लेकिन क्या सरकार और उसकी प्रयोगशालाओं में बैठे विशेषज्ञ भी इस हकीकत से अनजान थे कि ये कीटनाशक तात्कालिक रूप से भले फायदेमंद साबित हों, लेकिन आखिरकार मनुष्य की सेहत के लिए कितने खतरनाक साबित हो सकते हैं? विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र, चंडीगढ़ स्थित पीजीआई और पंजाब विश्वविद्यालय सहित खुद सरकार की ओर से कराए गए अध्ययनों में ये तथ्य उजागर हो चुके हैं कि कीटनाशकों के व्यापक इस्तेमाल के कारण कैंसर का फैलाव खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। लेकिन विचित्र है कि चेतावनी देने वाले ऐसे तमाम अध्ययनों को सरकार ने सिरे से खारिज कर दिया और स्थिति नियंत्रण में होने की बात कही। देर से सही, राज्य सरकार ने इस मसले पर एक सकारात्मक फैसला किया है तो इसका स्वागत किया जाना चाहिए। कीटनाशकों की बाबत किसानों को जागरूक करने के साथ-साथ कैंसर के इलाज को गरीबों के लिए सुलभ बनाने की दिशा में कदम उठाना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है। यह ध्यान रखने की बात है कि कीटनाशक या रासायनिक खाद छिड़कने के जोखिम भरे काम में लगे ज्यादातर लोग दूसरे राज्यों से आए मजदूर होते हैं और उन्हें स्वास्थ्य बीमा या सामाजिक सुरक्षा की किसी और योजना का लाभ नहीं मिल पाता है। पंजाब के अनुभव से सबक लेते हुए देश के दूसरे हिस्सों में भी कीटनाशकों के इस्तेमाल को नियंत्रित करने और खेती के ऐसे तौर-तरीकों को बढ़ावा देने की पहल होनी चाहिए जो सेहत और पर्यावरण के अनुकूल हों.सुना  है कि  असम प्रदेश की सरकार ने भी जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए काफी उपक्रम शुरू किये हैं  और सुना तो ये भी है कि  मोनसेंटो कंपनी में अपने कर्मचारियों के लिए वहां की केन्टीन में भी जैविक उत्पाद ही प्रयुक्त होते हैं . लेकिन  लगता है कि मोनसेंटो और कारगिल जैसी कंपनिया भारत जैसे देश में ये जैविक कृषि के प्रयोग नहीं होने देंगे और  ये तथाकथिक निहित स्वार्थों के चलते  नेता और कुछ कृषि वैज्ञानिक इसे चलने देंगे?
            फसलों में अंधाधुंध प्रयोग किये जा रहे पेस्टीसाइड के कारण दूषित हो रहे खान-पान तथा वातावरण को बचाने के लिए जींद कृषि विभाग में एडीओ के पद पर कार्यरत डॉ. सुरेंद्र दलाल ने वर्ष 2008 में जींद जिले से कीट ज्ञान की क्रांति की शुरूआत की थी। डॉ. सुरेंद्र दलाल ने आस-पास के गांवों के किसानों को कीट ज्ञान का प्रशिक्षण देने के लिए निडाना गांव में किसान खेत पाठशालाओं की शुरूआत की थी। डॉ. दलाल किसानों को प्रेरित करते हुए अकसर इस बात का जिक्र किया करते थे कि किसान जागरूकता के अभाव में अंधाधुंध कीटनाशकों का प्रयोग कर रहे हैं। जबकि कीटों को नियंत्रित करने के लिए कीटनाशकों की जरूरत है ही नहीं, क्योंकि फसल में मौजूद मांसाहारी कीट खुद ही कुदरती कीटनाशी का काम करते हैं। मांसाहारी कीट शाकाहारी कीटों को खाकर नियंत्रित कर लेते हैं। डॉ. दलाल ने किसानों को जागरूक करने के लिए फसल में मौजूद शाकाहारी तथा मांसाहारी कीटों की पहचान करना तथा उनके क्रियाकलापों से फसल पर पडऩे वाले प्रभाव के बारे में बारीकी से जानकारी दी। पुरुष किसानों के साथ-साथ डॉ. दलाल ने वर्ष 2010 में महिला किसान खेत पाठशाला की भी शुरूआत की और महिलाओं को भी कीट ज्ञान की तालीम दी। यह इसी का परिणाम है कि आज जींद जिले में कीटनाशकों की खपत लगभग 50 प्रतिशत कम हो चुकी है और यहां के किसान धीरे-धीरे जागरूक होकर जहरमुक्त खेती की तरफ अपने कदम बढ़ा रहे हैं। आज यहां की महिलाएं भी पुरुष किसानों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर कीट ज्ञान की इस मुहिम को आगे बढ़ा रही हैं। दुर्भाग्यवश वर्ष 2013 में एक गंभीर बीमारी के कारण डॉ. सुरेंद्र दलाल का देहांत हो गया था। इससे उनकी इस मुहिम को बड़ा झटका लगा था लेकिन उनके देहांत के बाद भी यहां के किसान उनकी इस मुहिम को बखुबी आगे बढ़ा रहे हैं। पुरुष तथा महिला किसानों को जागरूक कर उन्हें आत्मनिर्भर बनाने तथा कृषि क्षेत्र में उनके अथक योगदान को देखते हुए हरियाणा किसान आयोग डॉ. सुरेंद्र दलाल के नाम से राज्य स्तरीय पुरस्कार शुरू करने जा रहा है। आयोग द्वारा हर वर्ष एक नवंबर को हरियाणा दिवस पर राज्य स्तरीय कार्यक्रम का आयोजन कर कृषि क्षेत्र में उत्कृष्ट कार्य करने वाले कृषि विभाग के एक एडीओ को यह पुरस्कार दिया जाएगा। आयोग द्वारा पुरस्कार के तौर पर एक प्रशस्ती पत्र और 50 हजार रुपये की राशि ईनाम स्वरूप दी जाएगी। ताकि इस मुहिम को पूरे देश में फैलाने के लिए कृषि विभाग के अन्य अधिकारियों को भी प्रेरित किया जा सके। हरियाणा किसान आयोग के चेयरमैन डॉ. आरएस प्रौधा ने हाल ही में प्रकाशित हुई आयोग की मैगजीन में इस पुरस्कार की घोषणा की है।डाक्टर बलजीत भ्यान ने  हरयाणा विज्ञानं मंच  दूसरे  कृषि वैज्ञानिकों और कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर   अपने गाँव में भी कीट पाठशालाओं का आयोजन पिछले दिनों  किया है । डाक्टर राजेंदर चौधरी ने भी पिछले तीन चार साल से कुदरती खेती पर उल्लेखित  काम किया है । हरयाणा ज्ञान विज्ञानं समिति का प्रयास रहेगा की इन सब प्रयत्नों का संज्ञान लेते हुए इस क्षेत्र के काम को आगे ले जाने में अपनी भूमिका निभाएगी ।
कुछ  साइंस दानों का ख्याल है कि जैविक खेती ही अब एक मात्र रास्ता है । 
रासायनिक खाद और कीटनाशकों से बचाव का सिर्फ यही तरीका है कि हम जैविक खेती अपनाएं। लेकिन सच्चाई यह है कि रसायनिक खेती के लिए सरकार की ओर से तरह-तरह के प्रोत्साहन दिए जाते हैं जबकि जैविक खेती के लिए उतने प्रोत्साहन नहीं हैं। आम आदमी के स्वास्थ्य के लिहाज से हर हाल में बेहतर जैविक खेती इसी असंतुलन की वजह से रसायनिक खेती से पिछड़ी हुई है। सरकार किसानों के लिए रसायनिक खाद पर करीब 70 हजार करोड़ रूपए का अनुदान देती है। दूसरी ओर, देश में होने वाली ज्यादातर अनुसंधान रसायनिक खेती को लेकर ही होते हैं, जैविक खेती को भी अनुसंधान की आवश्यकता होती है। उसे इस तरह का सहयोग नहीं मिल रहा है।


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