Thursday 16 May 2019

मोटापा

मोटापा - एक अविवादित
प्राणघातक बीमारी
डॉ. तवलीन कौर
            आजकल मोटापा दुनिया में मृत्यु के प्रमुख कारणों में से एक बन गया है। चाहे पश्चिमी विकसित देश हों या भारत जैसे विकासशील देश, मोटापे से ग्रस्त लोगों की संख्या भारी मात्रा में बढ़ती जा रही है। अब वो दिन गए जब हमारे पूर्वज शारीरिक कार्यों में बहुत ज्यादा व्यस्त रहकर खुद को तंदुरुस्त रखा करते थे। इसके विपरीत, आज की पीढ़ी अपना अधिकतम समय शारीरिक कार्यों के स्थान पर आसीन कार्यों में व्यतीत करती है।
              मोटापा सेहत की एक ऐसी स्थिति है जिसमें शरीर की अतिरिक्त वसा इस हद तक जमा हो जाती
है कि इससे शरीर पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने लगते हैं, जिसके कारण जीवन प्रत्याशा कम हो जाती है और/या शारीरिक समस्याएं बढ़ जाती हैं। बॉडी मास इंडेक्स ;ठडप्द्ध मोटापे की गणना करने का एक ऐसा आधार है, जिसे किलोग्राम में एक व्यक्ति के भार को मीटर में उसकी लंबाई के वर्ग से विभाजित करके व्यक्त किया जाता है। निम्नलिखित तालिका में लोगों के बी. एम. आई. के अनुसार उनका वर्गीकरण दर्शाया गया हैः
बी.एम.आई. (किग्रा/मी2) वर्गीकरण
ढ 18ण्50 सामान्य से कम वजन
18ण्50दृ24ण्99 सामान्य वजन
25ण्00दृ29ण्99 सामान्य से अधिक वजन
30ण्00दृ34ण्99 श्रेणी प् मोटापा
35ण्00दृ39ण्99 श्रेणी प्प् मोटापा
≥ 40ण्00 श्रेणी प्प्प् मोटापा
कारण
आसीन जीवनशैली
आधुनिक युग में, कार, कंप्यूटर, वाशिंग मशीन,
इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, आदि ने एक आम व्यक्ति
के जीवन को काफी हद तक आसान कर दिया
है। आजकल एक औसत व्यक्ति शायद ही किसी
शारीरिक गतिविधि में व्यस्त होता होगा।
आहार
आधुनिकीकरण और पाश्चात्यीकरण के कारण
अब विशिष्ट खाद्य पदार्थों के स्थान पर बर्गर और
मोटापा - एक अविवादित
प्राणघातक बीमारी
अन्य फास्ट फूड का प्रयोग किया जा रहा है जो
कोलेस्टेरोल और अल्पघनत्व लिपिड से भरे होते हैं।
जिसके परिणामस्वरूप शरीर पर हानिकारक प्रभाव
पड़ते हैं और मोटापा बढ़ता जाता है। इसके अलावा,
संतुलित आहार की कमी भी मोटापे के प्रमुख कारणों
में से एक है।
सामाजिक निर्धारक तत्व
बी.एम.आई. और सामाजिक वर्ग के बीच के संबंध
के लिए आगे कई स्पष्टीकरण दिए गए हैं। ऐसा
माना जाता है कि विकसित देशों में, जहां अमीर
लोग अधिक पौष्टिक भोजन का खर्च वहन करने
में सक्षम होते हैं, वे पतले रहने के लिए
अत्यधिक सामाजिक दबाव में रहते हैं,
और उनके पास शारीरिक तंदुरुस्ती बनाए
रखने के लिए उम्मीदों के साथ.साथ बहुत
से अवसर भी होते हैं। दूसरी ओर, कई
अविकसित देशों में, पहले से चली आ रही
प्रथाओं में योगदान के लिए शारीरिक आकार
बढ़ाने वाले सांस्कृतिक मूल्यों पर विश्वास
किया जाता है। अपने शरीर के भार के
प्रति प्रत्येक व्यक्ति का नजरिया भी मोटापे
में एक भूमिका निभा सकता है। समय
के साथ बी.एम.आई. परिवर्तन का एक सह
संबंध मित्र, भाई.बहन, और पति या पत्नी
के बीच पाया गया है। एक पतले शरीर
के साथ तनाव और कथित निम्न सामाजिक
हैसियत से मोटापे का खतरा बढ़ता हुआ
दिखाई देता है।
आनुवांशिकी
मोटापे के कारणों में आनुवांशिकता एक प्रमुख भूमिका
निभाती है। मोटापा परिवार के साथ चलता रहता
मोटापा - एक अविवादित प्राणघातक बीमारी (पृष्ठ 11 का शेषांश)
मधुमेह एक मूक प्राणघातक है, जो धीरे.धीरे
और क्रमशः शरीर के अंगों के कार्यों को बाधित
करता है जिसके कारण शरीर पर हानिकारक प्रभाव
पड़ते हैं।
अवरोधी निद्रा श्वासरोध रात में अत्यधिक
खर्राटों और नींद की कमी के रूप में प्रकट होता है
जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति नींद के कारण ऊंघता
रहता है और दिन में जरूरत से ज्यादा सोता है। यह
कहने की आवश्यकता नहीं है कि सड़क यातायात
दुर्घटनाएं भी इसी हालत के कारण होती हैं।
अस्थमा से ग्रस्त व्यक्तियों को श्वसनी
मांसपेशियों की ऐंठन के कारण सांस लेने में कठिनाई
होती है। जिसके कारण शरीर की ऑक्सीजन संतृप्ति
में कमी हो जाती है और इसके परिणामस्वरूप स्थायी
फेफड़ों के रोग हो जाते हैं।
प्रबंधन
सच ही कहा है कि ‘रोकथाम इलाज से बेहतर
है’। अतः मोटापे और उससे होने वाले रोगों की
संभावना को कम करने में निम्नलिखित उपाय मदद
करते हैंः
मोटापे का मुख्य उपचार खाने में परहेज और
शारीरिक व्यायाम है। कुछ दवाइयां भी मोटापे को
कम कर सकती हैं। लेकिन कई दवाइयों से जठरांत्र
दुष्प्रभाव और गुर्दे की समस्याएं होती हैं।
शल्य चिकित्सा क्षेत्र में, मोटापा कम करने
के लिए बैरिएट्रिक सर्जरी ;इंतपंजतपब ेनतहमतलद्ध के
लाभदायक प्रभाव पाए गए हैं। गंभीर मोटापे की
सर्जरी लंबी अवधि तक वजन घटाने, मोटापे से
संबंधित स्थितियों में सुधार और समग्र मृत्यु दर में
कमी से जुड़ी हुई है।
इस लेख को समाप्त करने से पहले यह कहना
उचित होगा कि मोटापे और रोगों के इस घातक
संयोजन से खुद को बचाना हमारे अपने हाथों में है।
हम अपने दृष्टिकोण और जीवनशैली में परिवर्तन
लाकर अपनी भावी पीढ़ी के स्वास्थ्य में बड़ा सुधार
ला सकते हैं।
(अनुवादकः विमला भट्ट) द

दबाव असंयति

दबाव असंयति -
अनैच्छिक मूत्रह्नास की लज्जाजनक स्थिति
डॉ. यतीश अग्रवाल
मूत्र असंयति - मूत्राशय का नियंत्रण खो बैठना -
एक आम किस्म की लज्जाजनक स्थिति पैदा करने वाली समस्या है। इस स्थिति की उग्रता कई स्तरों की हो सकती है - कभी.कभार खांसने, छींकने पर पेशाब हो जाने से लेकर मूत्रविसर्जन की प्रबल ज़रूरत का इतना आकस्मिक और तीव्र हो जाना कि मूत्र स्वतः ही शौचालय तक पहुंचने से पहले ही निकल जाए।
यह मर्ज़ कई प्रकार का हो सकता है, जिसमें सबसे आम है - दबाव असंयति। दबाव मूत्र असंयति,
कुछेक शारीरिक गतिविधियों के दौरान, जैसे कि खांसने, छींकने, दौड़ते समय या भारी वस्तु उठाते
समय मूत्राशय पर दबाव पड़ने के कारण होनी संभव है। हालांकि, इस प्रकार की समस्या को ‘स्ट्रेस
इन्कॉन्टिनेंस’ कहा जाता है किंतु इसका मनोवैज्ञानिक तनाव से किसी तरह का संबंध नहीं है।
दबाव असंयति अत्यावश्यकता से उत्प्रेरित मूत्र असंयति से पृथक है। अत्यावश्यकता उत्प्रेरित असंयति, मूत्राशय में पेशाब करने की उत्कट इच्छा के कारण होने वाले संकुचन से होती है। दबाव के कारण होने
वाली असंयति पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में अधिक देखी गई है। दबाव के कारण होने वाली इस समस्या के कारण व्यक्ति शर्मिंदगी महसूस करता है, बेचैन रहता है, समूह से अलग.थलग रहना चाहता है, बाहरी काम और
लोगों से मिलने.जुलने से कतराता है - खासतौर पर व्यायाम से और लंबी अवधि तक चलने वाली मनोरंजक गतिविधियों से। उपचार द्वारा इस परेशानी से राहत मिलनी संभव है और व्यक्ति के जीवन में हर तरह की खुशहाली लाना भी।
दबाव जनित मूत्र असंयति के कारण क्या हैं?
दबाव जनित मूत्र असंयति की परेशानी तब होने लगती है जब श्रोणि प्रदेश की पेशियां - वे पेशियां एवं ऊतक जिनसे मूत्राशय को संबल मिलता है; और साथ ही मूत्र अवरोधनी, या वे पेशियां जिनसे मूत्र विसर्जन का नियमन होता है - कमज़ोर पड़ जाती हैं।
मूत्र एकत्रित हो जाने पर मूत्राशय प्रसारित हो जाता है। सामान्यतः मूत्रमार्ग - छोटी सी नलिका जो मूत्र निकास का काम करती है - की वॉल्व जैसी पेशियां मूत्राशय के प्रसारित होने पर बंद रहती हैं ताकि शौचालय जाने तक मूत्र निकास न हो पाए, किंतु जब यही पेशियां दुर्बल पड़ जाती हैं तब किसी भी ऐसी चेष्टा से जिससे उदर या श्रोणि प्रदेश की पेशियों पर दबाव पड़ता है, मूत्र असंयति की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ऐसी शारीरिक चेष्टाएं हैं - छींक आना, झुकना, भारी चीजें उठाना, जोरों से हंसना आदि। कुछ अन्य बातें भी हैं जो श्रोणिप्रदेश की पेशियों
तथा मूत्र अवरोधिनी की संवहन क्षमता के विरुद्ध जाती हैं और उन्हें दुर्बल कर देती हैं, वे हैंः -
*बार.बार गर्भधारण करना
*कई महिलाओं में, प्रसव के दौरान स्नायु अथवा ऊतक क्षति के कारण भी श्रोणिप्रदेश की पेशियां या मूत्र पथ
अवरोधिनी (स्फिंक्टर) दुर्बल पड़ जाती हैं। इस क्षति के कारण होने वाली दबाव असंयति या तो प्रसव के
तुरंत बाद आरंभ हो जाती है अथवा वर्षों बाद भी उभर सकती है।
*वे महिलाएं इस कष्ट का शिकार अधिक बनती हैं जो कम अंतराल पर बार.बार गर्भधारण करती हैं,
खासतौर पर वे महिलाएं जो प्रसव के तुरंत बाद कामकाज की शारीरिक गतिविधियों में जुट जाती हैं।
प्रोस्टेट सर्जरी
पुरुषों में मूत्र असंयति का सर्वाधिक आम कारण है - ऑपरेशन द्वारा प्रोस्टेट ग्लैण्ड हटा दिया जाना या
प्रोस्टेट के किसी विकार के उपचार हेतु ‘प्रोस्टेटेक्टॅमी’ किया जाना। मूत्र अवरोधिनी (स्फिंक्टर) ठीक पुरस्थ
(प्रोस्टेट) ग्रंथि के नीचे अवस्थित होती है और मूत्रमार्ग को घेरे रहती है - इस कारण ‘प्रोस्टेटेक्टॅमी’ करवाने
के बाद मूत्रपथ अवरोधिनी दुर्बल पड़ जाती है।
दोषी कारकः
कई अन्य ऐसे कारक हैं जिनसे दबाव मूत्र असंयति की शुरुआत हो जाती है या फिर उसमें अधिक विकार आ जाता है, उनमें सम्मिलित हैं -
आयु
हालांकि दबाव मूत्र असंयति का आयुवृद्धि के साथ सीधा जुड़ाव नहीं है किंतु आयु बढ़ने के साथ कुछ शारीरिक बदलाव भी होते हैं, जैसे कि हार्मोन परिवर्तन एवं पेशी दौर्बल्य जिनसे स्त्रियां दबाव मूत्र असंयति का शिकार बन सकती हैं। हालांकि कभी.कभार होने वाली दबाव मूत्र असंयति किसी भी आयु की महिला में होना संभव है।
प्रसव का नैरंतर्य
स्त्रियों में बार.बार सामान्य प्रसव भी कालांतर में होने वाली दबाव मूत्र असंयति की दर में बढ़ोतरी के लिए काफी हद तक जिम्मेदार कहा जा सकता है। कई महिलाएं ऐसी भी होती हैं जिन्हें ‘फॉरसेप्स’ प्रसव कराया जाता है
और वे स्वस्थ शिशु को जन्म भी देती हैं किंतु कालांतर में यही कृत्रिम साधनों से कराया गया प्रसव दबाव मूत्र असंयति का कारण बन जाता है।
मोटापा
अधिक वज़न वाले या मोटे लोगों में भी दबाव मूत्र असंयति होने की काफी आशंका बनी रहती है। वज़न
अधिक होने से भी उदर एवं श्रोणिप्रदेश के अवयवों पर ज़ोर पड़ता है तथा परिणामस्वरूप खांसी या अन्य
किसी चेष्टा का अतिरिक्त दबाव न होने पर भी, मूत्राशय पर दबाव बना रह सकता है। वज़न कम कर
लेने पर समस्या से निज़ात मिलना संभव है।
पूर्व में की गई श्रोणिप्रदेश की सर्जरी
स्त्रियों में हिस्टेरेक्टमी (गर्भाशय हटाना) तथा पुरुषों में ऑपरेशन द्वारा पुरस्थ ग्रंथि हटा देने के बाद, मूत्राशय एवं मूत्रमार्ग को संबल प्रदान करने वाले अवयवों में बदलाव आ जाता है और दबाव मूत्र असंयति होने की आशंका काफी हद तक बढ़ जाती है। ऐसा सर्जरी के तुरंत बाद भी हो सकता है और कुछ समय बीत जाने पर भी।
अन्य रोग
कुछेक बीमारियों में, व्यक्ति की खांसी या छींकें बिगड़ जाने पर व्यक्ति के लिए दबाव मूत्र असंयति का जोख़िम बढ़ जाता है। धूम्रपान करना भी वही काम करता है क्योंकि ऐसा करने पर भी व्यक्ति को बार.बार खांसी उठ आती है।
रोगलक्षणों की पहचान
दबाव मूत्र असंयति होने पर निम्न स्थितियों में असंयत पेशाब निकल जाने पर, व्यक्ति के रोग का संज्ञान संभव हैः
* खांसी उठना
* छींक आना
* हंसना
* बैठी मुद्रा से उठना
* भारी वस्तु उठाना
* किसी वाहन से उतरना
* व्यायाम के बाद
* यौन संसर्ग के पश्चात
ऐसा नहीं है कि उपर्युक्त गतिविधियों के दौरान हर बार स्वतः मूत्र निकल जाता हो लेकिन किसी भी प्रकार की दबावयुक्त गतिविधि से मूत्र असंयति की आशंका बढ़ जाती है, खासतौर पर तब जब इस दौरान मूत्राशय पूरी तरह मूत्र से भर गया हो।
जटिलताएं
सबसे बड़ी वह व्यक्तिगत तकलीफ है जिसका सामना ऐसे रोगी को करना पड़ता है। ऐसी समस्या होने पर व्यक्ति के लिए सामान्य काम.काज निभाना मुश्किल हो जाता है, मन में घुटन होती है और शर्मिंदगी उठानी पड़ती है सो अलग। काम.काज में, सामाजिक गतिविधियों में, व्यक्तिगत संबंधों में और यहां तक कि यौन संबंधों में भी दिक्कत आने लगती है। कई लोगों को इस बात में शर्मिंदगी महसूस होती है कि उन्हें पैड इस्तेमाल करने या डायपर पहनने पड़ते हैं। ऐसा होने पर, त्वचा में विक्षोभ या खुजली भी हो जाती है क्योंकि लगातार मूत्र के संपर्क में रहने से त्वचा छिल जाती है। सावधानी न रखने - जैसे कि नमी सोखने के साधनों या पैड का इस्तेमाल न करने - पर त्वचा की यह तकलीफ अधिक उग्र हो जाती है।
चिकित्सक से कब मिलें?
मूत्र असंयति से दैनंदिन काम.काज में बाधा पहुंचने पर चिकित्सक से मिलने में देर न करें। व्यक्ति को किसी मूत्र विशेषज्ञ (यूरोलॉजिस्ट) से परामर्श लेने का सुझाव दिया जा सकता है जो स्त्री व पुरुषों दोनों के मूत्र संबंधी विकारों
का उपचार करता है अथवा किसी स्त्रियों के मूत्र संबंधी रोगों के विशेषज्ञ (यूरोगायनेकोलॉजिस्ट) चिकित्सक के पास भेजा जाता है। चिकित्सक से मिलने से पूर्व अपने रोगलक्षणों की एक सूची तैयार कर लें।
सभी रोगलक्षण लिखें - सामान्य एवं असंयत रूप से मूत्र निकलने के दौरान होने वाले। डॉक्टर को सही.सही बताएंः कितनी बार मूत्र असंयति होती है; क्या कुछ बूंदें ही निकलती हैं या फिर कपड़े ख़राब हो जाते हैं? क्या ऐसा भी होता है कि पहले से पता लग जाए बस पेशाब निकलने ही वाला है? क्या व्यायाम करते समय मूत्र निकल जाता है? क्या रात में पेशाब करने के लिए उठना पड़ता है? कितनी बार? दिन भर में कितना तरल पदार्थ लेते हैं? क्या कुछ ऐसा है जिससे इस तकलीफ में राहत मिलती हो? किन बातों से तकलीफ बढ़ती है? इस बीमारी के कारण आपको कौन सी समस्या सबसे बड़ी दिखती है? क्या इस तरह मल भी स्वतः निकल जाता है? कितनी बार? क्या इस कारण अपनी गतिविधियों पर अंकुश लगाना पड़ता है? क्या ऐसा लगता है कि योनिमार्ग या
गुदा से कुछ ‘गिर रहा’ है? ये सभी प्रश्न चिकित्सक को रोग का सुसंगत संज्ञान लेने में सहायक हो
सकते हैं।
चिकित्सक द्वारा क्या किया जाना संभव है?
परामर्श के दौरान चिकित्सक यह भी जानने का प्रयास करता है कि क्या कुछ अन्य सहायक कारक भी हैं जो विकार के लिए जिम्मेदार हो सकते हैं। इनमें सम्मिलित हैंः
* व्यक्ति की आरोग्य पृष्ठभूमि
* शारीरिक परीक्षण - खासतौर पर उदरीय एवं योनि तथा गुदा प्रदेश का
* पेशाब का नमूना ताकि किसी प्रकार के संक्रमण, रक्त के अंश या अन्य
अपसामान्यताओं की जांच हो सके
* संक्षिप्त तंत्रिका संबंधी परीक्षण ताकि श्रोणि प्रदेश के स्नायुओं की स्थिति
जानी जा सके
* मूत्र दबाव का परीक्षण - इस दौरान चिकित्सक खांसने या झटका लगने पर असंयत रूप से निकलने वाले मूत्र का प्रेक्षण करते हैं।
चिकित्सक हालांकि व्यक्ति को कुछ विशेष परीक्षण करवाने का भी परामर्श देते हैं किंतु अधिकांश मामलों में विस्तृत आरोग्य पृष्ठभूमि जान लेने एवं सावधानीपूर्वक किए गए शारीरिक परीक्षणों से इस असंयति का संज्ञान संभव है।
मूत्र असंयतिः परीक्षण एवं उपचार
डाक्टर यतीश अग्रवाल
मूत्र असंयति, मूत्राशय का नियंत्रण न रहना, जो कि एक आम और लज्जाजनक स्थिति है - के रोगलक्षण काफी सुस्पष्ट होते हैं और व्यक्ति के खांसने, छींकने या हंसने मात्र से मूत्र निकल जाता है। ऐसी स्थिति में चिकित्सक अनेक यूरोडायनैमिक परीक्षण करवाने का सुझाव दे सकता है ताकि मूत्राशय की कार्यप्रणाली का सुसंगत आकलन संभव हो सके।
यह जान लेना भी जरूरी है कि अधिकांश महिलाओं में मूत्र असंयति
की समस्या होते हुए भी उसके जटिल न होने के कारण इन परीक्षणों की
जरूरत नहीं रहती।
मूत्राशय की कार्यप्रणाली के परीक्षण-----
रिक्ति पश्च (पोस्ट.वॉइड) अवशिष्ट मूत्र का मापन-----
व्यक्ति की, मूत्राशय को पूरी तरह रिक्त कर सकने की क्षमता पर संदेह होने पर, खासतौर पर वृद्ध व्यक्तियों में, मूत्राशय की सर्जरी करवा चुके व्यक्तियों अथवा मधुमेहग्रस्त रोगियों में, इस प्रकार की क्षमता की जांच करने के लिए उक्त परीक्षण की जरूरत पड़ती है।
        पेशाब कर चुकने के बाद बचे हुए मूत्र का मापन करने के लिए विशेषज्ञ मूत्राशय का अल्ट्रासाउंड स्कैन करवाने का परामर्श देते हैं जिसमें ध्वनि तरंगें मूत्राशय एवं उसमें विद्यमान पदार्थ को प्रतिबिंबों में बदल देती है।
मूत्राशय के दबाब का मापन इस प्रकार की समस्या से ग्रस्त कुछ लोगों को सिस्टोमीट्री करवाने की आवश्यकता
पड़ती है जिसके अंतर्गत मूत्राशय और मूत्र संचय के दौरान आसपास के क्षेत्र के दबाब का मापन किया जाता है। प्रक्रिया के अंतर्गत कैथेटर का उपयोग कर मूत्राशय को धीरे.धीरे गर्म जल से भरा जाता है। इसी संभरण के दौरान, दबाब जनित मूत्र असंयति की जांच की जाती है।
उक्त प्रक्रिया को दबाब.प्रवाह के अध्ययन से जोड़ कर यह देखा जाता है कि व्यक्ति के मूत्राशय को पूरी तरह खाली होने के लिए कितना दबाब प्रयुक्त करना पड़ता है।
वॉयडिंग सिस्टो.यूरेथ्रोग्राफी----
मूत्राशय की क्रिया संपादन के दौरान रेडियोलॉजिस्ट प्रतिबिंबन प्रणाली का प्रयोग करते हैं। मूत्राशय के भरने और खाली होने के दौरान वीडियो यूरोडायनेमिक्स द्वारा प्रतिबिंबन विधि से मूत्राशय के चित्र लिए जाते हैं।
प्रक्रिया अत्यंत सरल है। कैथेटर के माध्यम से परिशुद्ध किए गए द्रव को विपरीत रंग के घटक में मिलाकर जो एक्स.रे में दिखाई देता है, व्यक्ति के मूत्राशय में प्रविष्ट कराया जाता है और साथ ही एक्स.रे छवियां रिकार्ड की जाती हैं। ये प्रतिबिंब मूत्राशय भरने पर भी लिए जाते हैं एवं मूत्राशय खाली करने के दौरान भी।
सिस्टोस्कोपी----
इस प्रक्रिया के अंतर्गत एक सूक्ष्मदर्शी यंत्र को मूत्राशय में प्रविष्ट करा कर मूत्राशय एवं मूत्र मार्ग का परीक्षण किया जाता है। यह प्रविधि सामान्यतः प्रयोगशाला में ही संपन्न होती है। रोगी एवं चिकित्सक के बीच परीक्षणों की जरूरत को लेकर चर्चा अवश्य होनी चाहिए और साथ ही उपचार रणनीति पर उनके प्रभाव की भी।
अधिकांश मामलों में रोग की विस्तृत पृष्ठभूमि एवं सतर्क शारीरिक परीक्षण से दबाव मूत्र असंयति का सुस्पष्ट संज्ञान हो जाता है।
स्वयं की जाने योग्य उपचार विधियां----
श्रोणि की पेशियों को सशक्त बनाएं
श्रोणिप्रदेश की पेशियों को बल प्रदान करने वाले सरल व्यायाम (केगल के नाम से व्याख्यायित) करने से श्रोणिप्रदेश की पेशियों एवं मूत्र संवरणी (यूरीनरी स्फिंक्टर) में आश्चर्यजनक लाभ होता है। पारिवारिक चिकित्सक अथवा शरीर विज्ञानी इस संबंध में व्यक्ति की सहायता कर, सही तरीके से व्यायाम करने में सहायता दे सकता
है। अन्य किसी व्यायामचर्या की तरह ही केगल व्यायाम की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि व्यक्ति उन्हें कितनी नियमितता से करता है।
शुरुआत करें------
सही पेशियां पहचानें - श्रोणिप्रदेश की पेशियों की पहचान के लिए मूत्र विसर्जन आधे में रोक लें। यदि ऐसा करने में सफल हों तो समझिए आपने सही पेशियां पहचान ली हैं। एक बार ऐसा हो जाने पर किसी भी स्थिति में व्यायाम करना संभव हो जाता है हालांकि शुरुआत में व्यक्ति लेटकर व्यायाम करने में सहजता महसूस करता है।
व्यायाम तकनीक का कौशल बढ़ाएं - श्रोणिप्रदेश की पेशियां तान लें, संकुचन पांच सेकंड तक रोकें और फिर पांच सेकंड तक शिथिल करें। इस क्रिया को एक बार में चार से पांच बार दोहराएं। कोशिश कर संकुचन अवधि को दस सेकंड तक पहुंचाएं और संकुचनों के बीच दस सेकंड तक ही शिथिल करें।
एकाग्र रहें - परिणाम की बेहतरी के लिए सिर्फ श्रोणिप्रदेश की पेशियों के संकुचन पर ध्यान दें। कोशिश यह रहे कि, उदर, जांघों और नितंब की पेशियों तक खिंचाव न फैले। व्यायाम करते समय सहज भाव से सांस लेते रहें - रोकें नहीं।
दिन में तीन बार दोहराएं - दिन में 10.10 बार किए गए व्यायाम तीन बार दोहराएं।
सावधानी - केवल व्यायाम द्वारा मूत्र प्रवाह को रोकने और छोड़ने की आदत न डालें। पेशाब करते समय केगल व्यायाम विधि अपनाने से दुष्परिणाम स्वरूप पेशाब पूरी तरह निकलने में दिक्कत खड़ी हो सकती है - ऐसा होने पर मूत्र नलिका में संक्रमण संभव है।
जीवनशैली में आरोग्यकारी परिवर्तन लाएं
धूम्रपान छोड़ने, अतिरिक्त वज़न घटाने या बिगड़ी हुई खांसी से निज़ात पा लेने पर दबाव जनित मूत्र असंयति से तो छुटकारा मिलता ही है सामान्य स्वास्थ्य में भी सुधार आता है।
अतिरिक्त वज़न घटाएं
वज़न बढ़ने पर - बॉडी मास इंडेक्स (बी एम आई) 25 या उससे अधिक होने पर - वज़न में कमी लाने से मूत्राशय और श्रोणिप्रदेश की पेशियों पर पड़ने वाला अतिरिक्त दबाव कम होता है। वज़न में सामान्य कमी लाने से ही मूत्र असंयति में फर्क आना शुरू हो जाता है। वज़न घटाने की समस्या में चिकित्सक से परामर्श
किया जाना चाहिए।
रेशेदार (फाइबरयुक्त) आहार अपनाएं
कई बार कब्ज की पुरानी परेशानी भी मूत्र असंयति का कारण बनती है - मल नियमित और मृदु हो जाने से भी श्रोणिप्रदेश पर पड़ने वाला दबाव कम होता है। रेशेदार भोजन अपनाएं - साबुत अनाज, फलियों, फलों और सब्जियों में भरपूर फाइबर होता है जिससे कब्ज में आराम भी मिलता है और उससे बचाव भी होता है।
धूम्रपान त्यागें
धूम्रपान करने से गंभीर किस्म की उग्र खांसी होती है और वह मूत्र असंयति के लक्षणों में इज़ाफा करती है। धूम्रपान के कारण व्यक्ति में ऑक्सीजन ग्रहण करने की क्षमता भी कम हो जाती है। ऐसा माना जाता है कि यह अक्षमता मूत्राशय को अधिक सक्रिय कर देती है। धूम्रपान का संबंध मूत्राशय के कैंसर से भी जोड़ा
जाता है। मूत्र विसर्जन को एक चर्या बना लें चिकित्सक रोगी को यह परामर्श भी दे सकता है कि वह मिश्रित असंयति होने पर पेशाब करने की एक नियमावली बना लें। बार.बार पेशाब कर लेने से दबाव मूत्रअसंयति की स्थितियों में कमी लाई जा सकती है।
तरल पदार्थों के सेवन का नियमन करें
चिकित्सक व्यक्ति द्वारा लिए जाने वाले तरल पदार्थों की मात्रा और समय के संबंध में परामर्श भी दे सकता है।
कैफ़ीनयुक्त एवं अल्कोहलयुक्त पेय पदार्थों को उत्तेजक माना जाता है और व्यक्ति का मूत्राशय भी उससे प्रभावित होकर बार बार पेशाब करने के लिए उत्प्रेरित करता है एवं मूत्र असंयति की आशंका भी बढ़ती है। चिकित्सक इसी कारण ऐसे पदार्थों से बचने की सलाह देते हैं खास तौर पर उन दिनों में जब व्यक्ति मूत्र
असंयति से बचना चाहता हो। ऐसी सावधानी रखने पर मूत्र असंयति की परेशानी में लाभ होना संभव है।
त्वचा की अच्छी देखभाल करें
काफी देर तक गीले कपड़ों में रहने से त्वचा विक्षोभित होती है या छिल जाती है। कपड़े गीले होने पर बदल लें ताकि त्वचा सूखी रहे। यदि गीलेपन से बचाव मुश्किल हो तो किसी त्वचा रक्षक क्रीम का उपयोग करना जरूरी है।
यौन प्रवृत्ति एवं मूत्र असंयति
यौन संपर्क के दौरान पेशाब निकल जाना खासा परेशानी का सबब बन सकता है। किंतु इसे यौन अंतरंगता और आनंद में बाधा बनने देना जरूरी नहीं। अपने संगी से इसकी चर्चा करें। शुरुआत में ऐसा करना मुश्किल होगा पर अपने साथी को रोगलक्षणों के बारे में जरूर बताएं। आपसी समझ और विवेक से इस तरह की
परेशानियों से निपटा जा सकता है।
मूत्र विसर्जन पहले ही कर लें
इस तरह की असंयति से बचने के लिए यौन संपर्क के लगभग एक घंटा पहले से तरल पदार्थ न लें और यौन संबंध से पूर्व पेशाब कर लें।
पृथक मुद्रा अपनाएं
यौन मुद्रा बदलने से मूत्र असंयति की दिक्कतों में कमी लाई जा सकती है। स्त्रियों के लिए ऊपरी स्थिति में रहने की मुद्रा से श्रोणिप्रदेश की पेशियों पर बेहतर नियंत्रण संभव हो पाता है।
केगल व्यायाम करें
श्रोणिप्रदेश की पेशियों के व्यायाम (केगल व्यायाम) करने से श्रोणिप्रदेश की पेशियां मजबूत होती हैं और मूत्र असंयति में कमी आती है।
पूर्व तैयारी रखें
यौन संपर्क से पूर्व मूत्र सोखने के लिए तौलिए तैयार रखने या फिर डिसपोज़ेवल पैड बिस्तर पर रखने से चिंता में कमी हो सकती है और मूत्र असंयति होने पर उसे सोख पाना संभव हो जाता है।
आरोग्य उपचार
यह जरूरी नहीं कि उम्र बढ़ने के साथ मूत्र असंयति की शिकायत होने ही लगे। ऐसे उपचार सुलभ हैं जिनसे मूत्र असंयति से जिंदगी पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों से काफी हद तक बचाव संभव है। दबाव मूत्र असंयति में आम तौर पर सुधार लाया जा सकता है।
              ऐसा चिकित्सक खोजें जो व्यक्ति के साथ सहयोग कर मूत्र असंयति उपचार का सर्वोत्तम तरीका चुनने में मदद कर पाए। चिकित्सक कई उपचारों की मिश्रित रणनीति अपनाकर मूत्र असंयति की स्थितियों में उससे निज़ात दिलाने या फिर कमी लाने में मददगार सिद्ध हो सकते हैं।
उपकरण
कुछ ऐसे उपकरण हैं जो खास तौर पर महिलाओं के लिए तैयार किए गए हैं जिनसे दबावजनित मूत्र असंयति
का नियंत्रण संभव है। इनमें शामिल हैं -
वेजाइनल पेसरी
इस प्रविधि में एक खास तौर पर तैयार की गई मूत्र असंयति पेसरी चिकित्सक द्वारा योनि में सही जगह पर अवस्थित कर दी जाती है। यह पेसरी अंगूठी जैसे आकार की होती है जिसमें दो उभार होते हैं जिन्हें मूत्र
मार्ग के दोनों तरफ टिका दिया जाता है। इस पेसरी से मूत्राशय के आधार को संबल मिलता है और गतिविधियों के दौरान असंयत मूत्र नहीं निकलता, खासतौर पर तब जब मूत्राशय लटक (प्रोलेप्स्ड) गया हो। सर्जरी से बचाव के लिए यह एक अच्छा तरीका है जिसे अपनाया जा सकता है। पेसरी को बीच.बीच में बाहर निकालने और उसकी सफाई करने की जरूरत पड़ती है। पेसरियों को सामान्यतः उन रोगियों में प्रयुक्त किया जाता है जिन्हें श्रोणिप्रदेश के अवयवों के ढलक जाने की भी शिकायत रहती हो।
मूत्रमार्ग में प्रविष्ट कराया जाने वाला उपकरण
मूत्रमार्ग में प्रविष्ट कराया जाने वाला यह उपकरण एक छोटा सा टैम्पून जैसा होता है जो असंयत मूत्र के रिसाव में अवरोधक का काम करता है। वैसे तो इसे किसी खास गतिविधि में प्रयुक्त किया जाता है किंतु इसे दिनभर लगाया जा सकता है। इतना जरूर है कि बहुत कम प्रसंगों में इनकी जरूरत पड़ती है।
सर्जरी
मूत्र असंयति के उपचार में सर्जरी विकल्पों की संरचना का उद्देश्य मूत्रमार्ग के अवरोधक या फिर संवरणी के मुख के संबल रूप में रहता है।
सर्जरी के इन विकल्पों में प्रमुख हैः
इंजेक्शन द्वारा प्रविष्ट कराए जाने वाले ऐसे घटक जो मूत्राशय का आयतन बढ़ाते हैं।
सिंथेटिक पॉलीसेकेराइड्स या जेल को मूत्रमार्ग के ऊपरी भाग के ऊतकों तक इंजेक्शन द्वारा प्रविष्ट कराया जाता है। इस प्रकार के पदार्थ मूत्रमार्ग के आसपास का क्षेत्र बढ़ा देते हैं जिससे संवरणी की अवरोधन क्षमता में सुधार होता है। इस विकल्प में बाहरी सर्जरी की जरूरत न होने के कारण, अन्य सर्जरी विकल्पों से पूर्व इसका चयन किया जा सकता है। हालांकि यह प्रक्रिया समस्या का
स्थायी समाधान नहीं है। अधिकांश लोगों के लिए इस प्रविधि में बहुविध इंजेक्शनों की जरूरत पड़ती है।
रेट्रोप्यूबिक कॉल्पो सस्पेंशन
सर्जरी की यह प्रक्रिया लेप्रोस्कोपिक विधि से या उदर में छिद्र कर, संपन्न की जा सकती है। इसके अंतर्गत मूत्रमार्ग के ऊपरी भाग एवं मूत्राशय के मुख के ऊतकों को संबल देने और उन्हें ऊपर उठाने के लिए स्नायुओं या फिर अस्थियों में टांके लगाए जाते हैं। इस सर्जरी विकल्प का प्रयोग सामान्यतः अन्य प्रक्रियाओं के साथ
संयुक्त रूप में, उन महिलाओं के लिए किया जाता है जिनमें मूत्र असंयति के साथ.साथ मूत्राशय भी नीचे की ओर ढलक गया हो।
स्लिंग प्रक्रिया
अधिकांश प्रसंगों में मूत्र असंयति ग्रस्त महिलाओं के लिए इसी प्रक्रिया का उपयोग किया जाता है। इसके अंतर्गत सर्जन रोगी के स्वयं के ऊतक या सिंथेटिक वस्तु (जाली) की सहायता से एक पाश या लटकन बना देता है जिससे मूत्र मार्ग को संबल मिलने लगता है। स्लिंग प्रक्रिया उन पुरुषों के लिए भी प्रयुक्त की जाती है जिनमें संवरणी से मूत्र निकास की समस्या हो।
(अनुवादः कुंकुम जोशी)
ड्रीम 2047 

Wednesday 15 May 2019

जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम

जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (जे  एस एस के - निःशुल्क डाइगनोस्टिक्स )
सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थाओं में आने वाली सभी गर्भवती महिलाओं तथा बीमार
नवजातों  को  निःशुल्क सेवाएं प्रदान करने के ध्येय  से भारत सरकार द्वारा 1 जून 2011 को
जननी शिशु सुरक्षा कार्यक्रम (जे एस एस के ) शुरू किया गया। स्कीम के तहत पूरे राज्य
की सभी सरकारी स्वास्थ्य संस्थाओं  में गर्भवती महिलाओं को  सामान्य प्रसव एवं सिजेरियन
आपरेशन सहित निःशुल्क कैसलेस सेवाओं की परिकल्पना है । इस कार्यक्रम के तहत
सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा में आने वाली प्रत्येक गर्भवती महिला को उसकी प्रसव पू र्व
देखरेख, प्रसव के दौरान देखरेख तथा प्रसव पश्चात देखरेख की अवधि के लिए निःशुल्क
डायग्नोशिस सेवाएं प्रदान की जा रही हैं ।

हरियाणा के 9 मैडीकल कॉलेज -


1 अग्रोहा मैडीकल कॉलेज हिसार,
2 मुलाना मैडीकल कॉलेज अम्बाला,
3 पी.जी.आई.एम.एस. रोहतक
4 तथा एस जी टी मैडीकल कॉलेज बढेरा गुडगांव,
5 आदेश मेडिकल कॉलेज कुरूक्षेत्र,
6 कल्पना चावला गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज करनाल,
7 शहीद हसन खान मेवाती मेडिकल कॉलेज मेवात,
8 इ0 एस0 आई0 मेडिकल कॉलेज, फरीदाबाद
9 तथा बीपीएस महिला मेडिकल कॉलेज, सोनीपत 

चिकित्सा संस्थाऐं

चिकित्सा संस्थाऐं
राज्य में चिकित्सा संस्थाओं की संख्या 31 मार्च, 2017 को 3503 थी। इन चिकित्सा
संस्थाओं में 59 अस्पताल, 123 सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, 498 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र ्र, 15 जिला
क्षयरोग केन्द्र/क्लीनिक, 125 औषधालय, 37 प्रसवोत्तर केन्द्र, 16 शहरी स्वास्थ्य केन्द्र और 2630 उप
केन्द्र शामिल है। राज्य में सबसे अधिक 295 चिकित्सा संस्थायें  जिला भिवानी में है। हिसार में 268,
सोनीपत 225, जीन्द 210, करनाल 199, सिरसा 200, कैथल 176, फतेहाबाद 172, झज्जर 168, मेवात
167, रोहतक 159, महेन्द्रगढ  160, यमुनानगर 154, कुरूक्षेत्र 148, रेवाड़ी 142, अम्बाला 134, पानीपत
121, पलवल 119, गुड़गाव 106, फरीदाबाद 103, और पंचकु ला में 77 संस्थायें हैं। 

REPORT OF THE HEALTH DEPARTMENT

CRITIQUE OF THE ANNUAL ADMINISTRATIVE REPORT OF THE HEALTH DEPARTMENT FOR THE YEAR 2016-17. During the year 2016-17, 3503 medical institutions including 59 hospitals,123 community Health Centres,498 Primary Health Centres,125 Dispensaries,15 District Tuberculosis Centers/T.B Clinics,37 Post Partum Centres, 16 Urban Health Posts and 2630 Sub Centres were functioning at the end of the year. The number of patients treated in these institutions was 2,40,29,646 New outdoor and 21,46,939 New indoor during the year 2016 (provisional). Under the national Programme for control of blindness,1,13,490 intraocular operations were performed during the year. Under the family welfare programme 64,854 Sterilization operations were performed and 2,20,387 I.U.C.D insertions were done.1,92,64,892 Condom Pieces and 10,08,493 Oral Pill cycles were distributed/registered during the year 2016-17 as against 70,591 sterilization operations 2,33,497 I.U.C.D insertions 1,77,94,186 Condom Pieces and 9,99,260 Oral Pill cycles were distributed/registered during the year 2015-16. The overall performance remained satisfactory. It is expected that in future too, the Health department will maintain the tempo of progress in providing medical facilities of the public in the state. Dated, (R. R. JOWEL ) Additional Chief Secretary to Government Haryana Health Department

Review of the Annual Administrative Report

Review of the Annual Administrative Report of the Health Department,Haryana for the year2016-17. The Annual Administrative report of the Health Department, Haryana contains information of medical and health facilities provided to the public in Haryana state by the Health department. The details of various public health programmes like control of communicable diseases, National Vector Borne Disease control Programme, Control of Blindness Programme, Control of T.B, Family Welfare Programme etc. have been incorporated. There were 3503 medical institutions functioning in the state as on 31 March 2017.These medical institutions include hospitals, community health centres, primary health centre sub centres of the allopathic system. During the year 2016, 7866 malaria were reported which has 18.3% lower than compared to 2015. Under than family welfare programme,64,854, Sterilization operations were performed 2,20,387 I.U.C.D.s (Intra Utrine Conraceptive Device) were inserted and 1,92,64,892 Condom Pieces and10,08,493 Oral Pill cycles were distributed/registered during the year 2016-17 as against 1,77,94,186 Condom Pieces and 9,99,260 Oral pill cycles distributed/registered during the year 2015- 16. Instead on the basis of information received. Reproductive & Child Health Programme Phase II under the banner of National Rural Health Mission was launched in Haryana State on 2nd April, 2005. The Mission lays emphasis ASHA as Link Volunteers, First Referral Unit operationalization and components of Janani Suraksha Yojna, Referral Transport, Strengthening Programme Management. Unit at State and district level with particular emphasis on improved financial management system, Strengthening of training institutions, Logistic Management and Public Private partnerships to provide quantifiable services for institutional delivery and family planning services, immunization. Fort this purpose during the year 2016- 17 a plan of worth Rs. 498.27 crore was sanctioned under the Programme. A sum of Rs. 482.73 crore was spent against it. The expenditure has been incurred on RCH flexipool, Infrastructure Strengthening, routine immunization, United funds if sub-centres, IEC activities etc. During the year 2016-17, 2 new appointments were made in the Health Department which belongs to ESM category. Dated, (R. R. JOWEL ) Additional Chief Secretary to Government Haryana, Health Department.

स्वास्थ्य विभाग हरियाणा की वर्ष 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट की समालोचना

स्वास्थ्य विभाग हरियाणा की वर्ष 2016-17 की वार्षिक रिपोर्ट  की समालोचना

वर्ष 2016-17 में 3503 चिकित्सा संस्थाओं, जिनमें 59 अस्पताल, 123 सामुदायिक स्वास्थ्य
केंद्र , 498 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, 125 ओषधालय, 15 क्षयरोग केंद्र/क्षयरोग क्लीनिक, 37 पोस्ट
पार्टम केन्द्र, 16 शहरी स्वास्थ्य चौकिया और 2630 उप केन्द्र राज्य में कार्य कर रहे थे।
इन संस्थाओं  में वर्ष 2016 (अस्थायी) के  दौरान 2,40,29,646 नये बहिरंग तथा 21,46,939
नये अन्तंरग रोगियों का उपचार किया गया ।
राष्टीय अन्धापन नियन्त्रण कार्यक्रम  के  अन्तर्गत 1,13,490 आखों का आप्रेशन किये गये।
परिवार कल्याण कार्यक्रम  के  अन्तर्गत वर्ष 2016-2017 क े दौरान 64,854 बन्धीकरण के
आप्रेशन किये गये, 2,20,387 महिलाओं को आई0यू0सी0डी0 कापर टी लगाये गये, 1,92,64,892 निरोध
तथा 10,08,493 गर्भ निरोधक गोंलियों का वितरण दर्ज  किया गया जबकि वर्ष 2015-16 में इनकी
संख्या क्रमशः 70,591 बन्धीकरण आप्रेशन, 2,33,497 आई0यू0सी0डी0, 1,77,94,186 निरोध तथा 9,99,260
गर्भ निरोधक गोलियों का वितरण दर्ज  किया गया था।
समूचे स्तर पर प्रगति सन्तोषजनक रही है। यह आशा की जाती है कि भविष्य में भी स्वास्थ्य विभाग राज्य की जनता को चिकित्सा सुविधाऐं प्रदान करने की गति कायम रखेगा।
दिनांक, (आर0 आर0 जोवल)
 अतिरिक्त मुख्य सचिव, हरियाणा सरकार
 स्वास्थ्य विभाग

स्वास्थ्य विभाग हरियाणा की वर्ष 2016-17 की वार्षिक प्रशासनिक रिपोर्ट की समीक्षा



स्वास्थ्य विभाग हरियाणा की इस वार्षिक रिपोर्ट  में चिकित्सा संस्थानों तथा जनता को दी गई स्वास्थ्य सुविधाओं का वर्णन है जो कि हरियाणा राज्य में स्वास्थ्य विभाग ने  प्रदान की है। इस रिपोर्ट  में विभिन्न जन स्वास्थ्य कार्यक्रमों जैसे संक्रामक रोगों का कार्यक्रम  मलेरिया, अंधापन नियंत्रण, टी0बी0 रोग नियन्त्रण, परिवार कल्याण कार्यक्रम आदि का विस्तृत  समावेश है।
31 मार्च, 2017 को राज्य में 3503 चिकित्सा संस्थाओं कार्य कर रही थी। इन चिकित्सा संस्थाओं में  एलोपैथिक चिकित्सा पद्वति के  अस्पताल, सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र, औषधालय ,जिला क्षयरोग केंद्र  एवं उप केन्द्र एवं आदि सम्मिलित हैं।
*वर्ष 2016 के दौरान मलेरिया के  7866 क केस रिपोर्ट किये गये, जो वर्ष 2015 की अपेक्षा 18.
3 प्रतिशत  कम है।
*वर्ष 2016-2017 के  दौरान परिवार कल्याण कार्यक्रम के अन्तर्गत 64,854 बन्धीकरण के
आप्रेशन किये गये, 2,20,387 महिलोओं को आई0यू0सी0डी0 (कापर टी) लगायी गयी और 1,92,64,892
निरोध तथा 10,08,493 गर्भ निरोधक गोलियों का वितरण दर्ज किया गया जबकि पूर्ववर्ती वर्ष 2015-16
में 70,591 बन्धीकरण के  आप्रेशन तथा 2,33,497 महिलाओं को आई0यू0सी0डी0 (कापर टी) लगाये गये
थे। 1,77,94,186 निरोध तथा 9,99,260 गर्भ निरोधक के  स्थान पर जिलों से प्राप्त विवरण अनुसार
कार्यभार निर्धारित किया जाता है।
*राज्य में राष्टीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के  अंतर्गत प्रजनन एवं शिशु स्वास्थ्य कार्यक्रम द्वितीय चरण को 2 अप्रैल 2005 से लागू किया गया। इसके अंतर्गत आशा, लिंक वोलैन्टीयरस, प्रथम
रैफरल  यूनिट को सुदृढ़  करना, जननी सुरक्षा योजना, रैफरल टांसपोर्ट  सुविधा, वित प्रबंध प्रक्रिया  में
सुधार के  लिये राज्य एवं जिला स्तर की कार्यक्रम प्रबन्धन यूनिटों का सुदृढ़ीकरण, प्रशिक्षण संस्थानों का
सुदृढ़ीकरण, आवश्यक उपकरणों का उचित प्रबन्ध एवं संस्थानिक डिलीवरी, परिवार नियोजन सेवाओं,
टीकाकरण आदि कार्यक्रमों  में निजि क्षेत्रो की भागीदारी कराके  उचित स्वास्थ्य सेवायें उपलब्ध करवाना।
इन सुविधाओं को प्रदान करने के  उदेश्य से इस कार्यक्रम के अन्तर्गत वर्ष 2016-17 में 498.27 करोड़
रूपये की योजना की स्वीकृति भारत सरकार से प्राप्त हुई है। जिस में से 482.73 करोड़ रूपये व्यय
किए गए जो इस कार्यक्रम के  अन्तर्गत आर0सी0एच0 फ्लैक्सीपुल, इन्फ्रास्टरक्चर  स्ट्रेंगथनिंग , रूटीन
ईमूनाइजेशन, अन टाइड फन्डस फार सब-सैन्टर, आई0ई0सी0 आदि गतिविधियों पर व्यय की गई है।
वर्ष 2016-17 के  दौरान स्वास्थ्य विभाग द्वारा केवल 2 नई नियुक्तियां की गई जो कि पुर्व सैनिेक (ESM) से संबंधित थी।
(आर0 आर0 जोवल)
दिनांक, अतिरिक्त मुख्य सचिव, हरियाणा सरकार
 स्वास्थ्य विभाग।

Tuesday 14 May 2019

अंतरालीय फुफ्फुस रोगः फेफड़ों में दाग

अंतरालीय फुफ्फुस रोगः फेफड़ों में दाग
यतीश  अग्रवाल email dryatish@yahoo.com
हमारे फेफड़े दिन रात जीवनदायी ऑक्सीजन ग्रहण करते और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहते हैं। यह आदान.प्रदान हमारे फेफड़ों के भीतर छोटे.छोटे वायु के थैलों जो एलवियोली कहलाते हैं, में चलता रहता है। एलवियोली ऊतकों की लेस जैसी जाली से संबल पाते हैं, जिन्हें ‘इंटरस्टिसियम’ कहा जाता है। इंटरस्टिसियम में छोटी.छोटी रुधिर वाहिकाएं विद्यमान रहती हैं जो वायु से फेफड़ों में ऑक्सीजन भरती हैं और उसे रुधिर संचार के माध्यम से शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाती हैं। कुछ लोगों में विभिन्न कारणों से यह इंटरस्टिसियम क्षतिग्रस्त हो जाता है और उसमें शोथ आ जाता है। ऐसा होने पर एलवियोली (वायु कोश) एवं रुधिर संचार के बीच ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का सहज प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है - परिणामस्वरूप सांस फूलने लगती है। रोग की जड़ में इंटरस्टिसियम होने के कारण ही इस व्याधि को इंटरस्टिसियल लंग डिजीज़ (अंतरालीय फुफ्फुस रोग) कहा जाता है।
फेफड़ों के अनेक रोगों का व्यंजक यह रोग उपचार की दृष्टि से कठिन है। शुरुआत में, रोग से संबल देने वाले ऊतकों में क्षति होती रहती है और अंततः यह व्यक्ति की श्वसन क्षमता को भी प्रभावित कर देता है तथा साथ ही रुधिर संचार में ऑक्सीजन की आपूर्ति को भी।
इंटरस्टिसियल लंग डिजीज़ -
जिसे अक्सर संक्षिप्त नाम आइ. एल. डी. भी कह दिया जाता है - लंबे समय तक घातक पदार्थों जैसे एसबेस्टॉस के संपर्क में रहने से होना संभव है। प्रतिरक्षा प्रणाली से संबंधित कुछ रोगों जैसे कि र्ह्यूमेटॉयड आर्थराइटिस से भी फेफड़े विक्षत हो सकते हैं, हालांकि अधिकांश मामलों में रोग का कारण पता लग पाना संभव नहीं होता।
फेफड़ों की इस व्याधि के कुछ प्रकार थोड़े समय तक ही रहते हैं; अन्य जीर्ण रोग में बदल जाते हैं और उन्हें सामान्य अवस्था में लौटा पाना संभव नहीं हो पाता। वस्तुतः एक बार फेफड़ों के दागी हो जाने के बाद वह स्थिति सामान्यतः स्थायी हो जाती है। औषधियां इस क्षति को मंद अवश्य कर सकती हैं किंतु कई लोग अपने
फेफड़ों का पूरा इस्तेमाल कर पाने में कभी सक्षम नहीं हो पाते। फुफ्फुस प्रत्यारोपण, ऐसे कुछ रोगियों को कष्ट से निजात दिलाने का विकल्प हो सकता है।
रोग होता क्यों है?
ऐसा प्रतीत होता है कि अंतरालीय फुफ्फुस रोग फेफड़ों को क्षति पहुँचने पर स्वास्थ्य लाभ की अपसामान्य प्रतिक्रिया से जन्म लेता है। सामान्यतः व्यक्ति का शरीर क्षतिपूर्ति के लिए सुसंगत अनुपात में ऊतकों का उपयोग करता है किंतु इस रोग में सुधार प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है तथा वायु कोशों (एलवियोली) के आस.पास के ऊतक विक्षत होकर कड़े पड़ जाते हैं - ऐसा होने पर रुधिर संचार के अंतर्गत ऑक्सीजन प्रसारित होने में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। अंतरालीय फुफ्फुस रोग के आरंभिक रोगलक्षण एवं संकेत इसी बदलाव से जुड़े हैं, और विश्राम की स्थिति में भी सांस फूलने अथवा शारीरिक परिश्रम से और भी उग्र होने तथा सूखी खांसी के रूप में प्रकट होते हैं।
अंतराली फुफ्फुस रोग के विभिन्न प्रकार जिन स्थितियों और जिन चीज़ों से यह रोग होता है उनकी फेहरिस्त काफी लंबी है, साथ ही अधिकांश मामलों में मूल कारण का पता ही नहीं चल पाता। जिन विकारों के कारण का संज्ञान नहीं हो पाता उन्हें ‘इडियोपैथिक इंटरस्टिसियल निमोनिया वर्ग’ के अंतर्गत स्वीकार कर लिया जाता है। इस वर्ग के रोगों में सर्वाधिक सामान्य एवं घातक स्थिति है ‘इडियोपैथिक पल्मोनरी फ़ाइब्रोसिस’ (अज्ञान हेतुक फुफ्फुस तंतुमयता)।
अनेक ऐसी स्थितियां हैं जो वायु कोश के कड़े पड़ जाने का कारण बनती हैं और अंतरालीय फुफ्फुस रोग को जन्म देती हैं। यह कड़ापन, सूजन से क्षतिग्रस्त होने से या फिर अतिरिक्त द्रव (एडीमा) के कारण हो सकता है। अंतरालीय फुफ्फुस रोग के आम प्रकार निम्न हैंः
इंटरस्टिसियल न्यूमोनिया-----
फेफड़ों के वायु कोश, जीवाणु, वायरसों या फफूंद के कारण संक्रमित हो जाते हैं। ‘मायकोप्लाज़्मा न्यूमोनिया’ नामक जीवाणु इंटरस्टिसियल न्यूमोनिया का मुख्य कारक है।
इडियोपैथिक पल्मोनरी फायब्रोसिस------
यह वायु कोश की जीर्ण एवं वर्द्धमान विक्षत अवस्था है। इस रोग का कारण अज्ञात है।
नॉनस्पेसिफिक इंटरस्टिसियल न्यूमोनाइटिस-----
यह कष्ट व्यक्ति को सामान्यतः प्रतिरक्षा प्रणाली से संबंधित रोग जैसे कि र्ह्यूमेटॉयड आर्थराइटिस या स्क्लेरोडर्मा (त्वचा काठिन्य) ग्रस्त होने पर होता है।
हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस-------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग का यह प्रकार निरंतर धूल, फफूंदी या अन्य विक्षोभकों के संपर्क में रहने पर हो जाता है।
क्रिप्टोजेनिक ऑर्गेनाइज़िंग न्यूमोनिया (COP )-----
यह रोग अंतरालीय फुफ्फुस रोग के समान ही होता है किंतु किसी संक्रमण के कारण नहीं। क्रिप्टोजेनिक ऑर्गेनाइज़िंग न्यूमोनिया (COP ) को ब्रांकियोलाइटिस ऑव्लिटरेंस विद ऑर्गेनाइज़िंग न्यूमोनिया (BOOP)  भी कहा जाता है।
एक्यूट इंटरस्टिसियल न्यूमोनाइटिस------
इस प्रकार का अंतरालीय फुफ्फुस रोग धूम्रपान के कारण हो जाता है।
सार्काइडोसिस--------
ऐसा अंतरालीय फुफ्फुस रोग जिसमें लसिका पर्वों (लिम्फ़ नोड्स) में सूजन आ जाती है तथा कभी.कभी हृदय, त्वचा, स्नायु या आंखें भी प्रभावित हो जाती हैं।
एस्बेस्टॉसिस--------
एस्बेस्टॉस के संपर्क में काफी समय रहने से भी अंतरालीय फुफ्फुस रोग हो
जाता है।
रोग के विविध उद्दीपक:::
कुछेक ऐसे कारक हैं जो व्यक्ति को रोगग्रस्त करने के कारण बन जाते हैंः
आयु*
सामान्यतः अंतरालीय फुफ्फुस रोग वयस्क लोगों को ही प्रभावित करता है किंतु कभी.कभार शिशु एवं किशोर भी इसकी चपेट में आ जाते हैं।
गैस्ट्रो इसोफ़ेगस रिफ्लक्स डिजीज़-----
व्यक्ति का पाचनतंत्र ठीक न होने या फिर अनियंत्रित अम्ल प्रतिवाह (एसिड रिफ्लक्स) की शिकायत रहने पर भी अंतरालीय फुफ्फुस रोग होने की आशंका बनी रहती है।
धूम्रपान*
पूर्व में धूम्रपान करते रहे लोगों को धूम्रपान त्याग देने के बाद भी अंतरालीय फुफ्फुस रोग होने की आशंका बनी रहती है और वर्तमान में धूम्रपान के अभ्यस्त लोगों की स्थिति तो और भी बदतर होती है, खास तौर पर तब जब साथ में वातस्फीति (एम्फ़ीसेमा) भी हो।

ऑक्सीजन
बहुत उच्च स्तरीय निरंतर ऑक्सीजन, रोगी को दिए जाने पर भी फेफड़ों को नुकसान पहुँच सकता है।
व्यावसायिक एवं पर्यावरण संबंधी विषाक्तताओं का संपर्क खनन, खेती बाड़ी या फिर भवन, इत्यादि निर्माण कार्यों में लगे हुए लोगों या फिर किसी अन्य कारण वश ऐसे प्रदूषण उत्पन्न करने वाली स्थितियों के संपर्क में बने रहने वाले व्यक्तियों में अंतरालीय फुफ्फुस रोग का खतरा बढ़ जाता है। लंबे समय तक व्यवसाय या पर्यावरण संबंधी आविषों (टॉक्सिनों) और प्रदूषणजनक स्थितियों के संपर्क में रहने पर भी फेफड़ों को नुकसान पहुँचता है, इनमें सम्मिलित हैं - सिलिका धूल, एस्बेस्टॉस के रेशे, चिड़ियों और पशुओं का मल और घर के गुसलख़ानों के हॉट टब।
आरोग्य संबंधी स्थितियां--------
सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथेमेटॉसस (दैहिक ल्यूपस त्वगशक्तिमा), र्ह्यूमेटॉयड आर्थराइटिस, स्क्लेरोडर्मा (त्वचा काठिन्य) तथा सार्काइडोसिस (मांसार्बुद) जैसे रोग होने पर भी फेफड़ों को नुकसान पहुँच सकता है जो अंततः अंतरालीय फुफ्फुस रोग में बदल जाता है।
औषधियां---------
इस प्रकार के अनेक औषधि.उपचार भी हैं जिनसे फेफड़ों को क्षति पहंुचती है, जिनमें
निम्न विशेष रूप से उत्तरदाई हैंः
कैंसर रोधी दवाएं:
कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए दी जाने वाली दवाएं भी फेफड़ों के ऊतकों के लिए घातक होती हैं, जैसे कि - मेथोट्रैक्सेट एवं साइक्लोफॉस्फेमाइड।
हृदय रोग की औषधियां: ----
हृदय की अनियमित धड़कनों के उपचार के लिए दी जाने वाली दवाएं फेफड़ों के ऊतकों को नुकसान पहुंचाने में सक्षम हैं, जैसे कि - एमियोडेरोन या प्रौपेनोलोल।
एंटीबॉयोटिक्सः---
कुछ एंटीबॉयोटिक्स भी फेफड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं, जैसे
कि - नाइट्रोफ्यूरेंटोनिन तथा सल्फ़ासेलेज़ाइन।
रेडियोथेरैपी उपचार----
कुछ लोगों के फेफड़ों या वक्ष के कैंसर में रेडियोथेरैपी की जाती है और उन्हें कई बार प्रारंभिक उपचार के महीनों या वर्षों बाद भी फेफड़ों के क्षतिग्रस्त होने की शिकायत हो जाती है। क्षति की गंभीरता इस बात पर निर्भर करती है कि फेफड़ों का कितना भाग रेडिएशन के संपर्क में आया था, कितनी मात्रा में रेडिएशन किया गया, उपचार से पूर्व क्या फेफड़ों का रोग था, जिसकी पहचान नहीं की गई थी और क्या साथ में कीमोथेरैपी भी हुई थी।
जटिलताएं---------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कारण अनेक प्राणघातक जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं,
जिनमें सम्मिलित हैं-
फेफड़ों का उच्च रक्तचाप (पल्मोनरी हाइपरटेंशन)----
सिस्टेमिक उच्च रक्तचाप के विपरीत इस स्थिति में केवल फेफड़ों की धमनियां प्रभावित होती हैं। इसकी शुरुआत ऊतकों की क्षति या ऑक्सीजन स्तर की कमी से, सबसे छोटी रुधिर वाहिकाओं के अवरूद्ध होने पर होती है, जिससे फेफड़ों तक पूरा रुधिर प्रवाह नहीं हो पाता। इसी वजह से पल्मोनरी धमनियों में रक्तदाब बढ़ जाता है। यह एक गंभीर रोग है जो आगे चलकर घातक रूप ले लेता है।
दाहिने हिस्से का हृदयाघात (कॉर पल्मोनेल)------
 यह गंभीर स्थिति तब जन्म लेती है जब हृदय का निचला दाहिना प्रकोष्ठ (दायां निलय) जो बाएं की अपेक्षा कम पेशीयुक्त होता है - अवरुद्ध फुफ्फुसी धमनियों से रुधिर संचार के लिए सामान्य स्थितियों की अपेक्षा अधिक परिश्रम से रुधिर पंप करने लगता है। अंततः यह दाहिना निलय अतिरिक्त परिश्रम से पस्त पड़ जाता है। ऐसा प्रायः फुफ्फुसी रक्तदाब के परिणामस्वरूप ही होता है
श्वासगति बंद हो जाना------
जीर्ण अंतरालीय फुफ्फुस रोग की अंतिम अवस्था में, ऑक्सीजन वायु का स्तर अत्यंत निम्न हो जाता है और साथ ही फुफ्फुसी धमनियों एवं दाहिने निलय का रक्तदाब बढ़ जाता है - यही स्थिति श्वासगति रुक जाने के रूप में बदल जाती है। रोगलक्षणों की पहचान अंतरालीय फुफ्फुस रोगों के सभी प्रकारों का सामान्य रोगलक्षण है - सांस फूलना। लगभग ऐसे सभी रोगी सांस फूलने की शिकायत करते हैं जो समय के साथ बदतर
हो जाती है।
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के अन्य लक्षण हैंः
* खांसी जो आमतौर पर सूखी और बलगम रहित होती है।
* वज़न में कमी, खासतौर पर COP  या BOOP के रोगियों में।
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के अधिकांश प्रकारों में सांस फूलने की शिकायत धीरे.धीरे, आमतौर पर महीनों में, बढ़ती है।  अंतरालीय न्यूमोनिया या उग्र अंतरालीय न्यूमोनाइटिस में अलबत्ता रोगलक्षण त्वरित रूप में कुछ घंटों या दिनों में उभर आते हैं।
चिकित्सक से परामर्श----------
आमतौर पर रोगलक्षणों के उभर पाने तक फेफड़ों की क्षति हो चुकी होती है, फिर भी जैसे ही सांस की समस्या दिखाई दे तुरंत चिकित्सक से परामर्श किया जाना चाहिए। सही उपचार के लिए शुरुआत में ही सुस्पष्ट रोगनिदान किया जाना ज़रूरी है। आमतौर पर ऐसी स्थितियों में लोग पहले अपने पारिवारिक चिकित्सक की ही सलाह लेते हैं। चिकित्सक उन्हें ‘पल्मोनोलॉजिस्ट’ - फेफड़ों से संबंधित विशेषज्ञ -  के पास जाने की सलाह देता है। विशेषज्ञ द्वारा उन्हें कई प्रकार के परीक्षण करवाने का परामर्श दिया जाता है, जैसे - रुधिर से संबद्ध परीक्षण, वक्ष का एक्स.रे, छाती की सी.टी. स्कैन एवं फुफ्फुसीय कार्य प्रणाली आदि।
परीक्षण एवं स्कैन--------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कारणों का संज्ञान अत्यधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है। पहली बात, अनेक असामान्य विकार इस बृहत श्रेणी के अंतर्गत सम्मिलित हैं। दूसरे, ऐसे रोगों की फेहरिस्त काफी लंबी है जिनमें अंतरालीय फुफ्फुस रोग जैसे ही लक्षण व्यक्त होते हैं। इसीलिए चिकित्सक पहले अन्य सभी संबंधित रोगों की वर्जना कर लेते हैं ताकि रोग का सुनिश्चित निदान संभव हो सके।
निम्न परीक्षण रोगनिदान में सहायक होते हैंः
ऑक्ज़ीमीट्री------
यह सरल परीक्षण, एक छोटे से उपकरण को रोगी की किसी अंगुली में लगाकर, रुधिर में ऑक्सीजन सांद्रता के मापन के लिए किया जाता है। ऑक्ज़ीमीट्री रोग की स्थिति जांचने की एक सरल विधि है जो कई बार वक्ष के एक्स.रे से भी अधिक सटीक सिद्ध होती है।
स्पाइरोमीट्री एवं विस्तारण क्षमताः इस परीक्षण के अंतर्गत, व्यक्ति को मशीन से जुड़ी एक नलिका के माध्यम से, तेजी से जोर लगाकर सांस लेने को कहा जाता है। मशीन व्यक्ति द्वारा ली जाने वाली सांस का मापन कर फेफड़ों की क्षमता निर्धारित करती है, साथ ही यह भी कि व्यक्ति कितनी शीघ्रता से फेफड़ों से सांस निष्कासित कर पाता है। इस प्रक्रिया में यह भी देखा जाता है कि व्यक्ति के फेफड़ों से ऑक्सीजन कितनी शीघ्रता से रुधिर प्रवाह में पहुंच जाता है।
इमेजिंग (प्रतिबिंबन) परीक्षण------
वक्ष का एक्स.रेः छाती का एक्स.रे लेने पर अंतरालीय फुफ्फुस रोग के विभिन्न प्रकारों के कारण होने वाली फेफड़ों की क्षति अभिलक्षणीय प्रतिरूपों में दिखाई देती है। इस प्रकार का एक्स.रे रोग की प्रगति को भी दर्शाता है। फेफड़ों के विशेषज्ञ (पल्मोनोलोजिस्ट) के पास जाने से पूर्व यदि एक्स.रे लिया गया हो तो उसे ले जाना चाहिए। एक्स.रे देख कर और नया एक्स.रे लेने पर विशेषज्ञ रोग का सही निदान करने में सक्षम हो पाता है। विशेषज्ञ के लिए एक्स.रे के साथ दी गई रिपोर्ट ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक महत्वपूर्ण वास्तविक एक्स.रे होता है।
कंप्यूटराइज़ड टोमोग्राफी (सी.टी.) स्कैन परीक्षणः सी.टी. स्कैन करते समय कंप्यूटर की सहायता से, विभिन्न कोणों से लिए एक्स.रे प्रतिबिंबों का संयोजन किया जाता है और शरीर के अवयवों की आंतरिक संरचना के अंतर्विभागीय प्रतिबिंब तैयार किए जाते हैं। एक उच्च स्तरीय वियोजित सी. टी. स्कैन, अंतरालीय फुफ्फुस रोग
में फेफड़ों की क्षति सुनिश्चित करने में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होता है। इस प्रकार के प्रतिबिंबों में तंतु आर्ति (फायब्रोसिस) की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है और रोगनिदान सुनिश्चित कर पाना संभव होता है।
इकोकार्डियोग्रामः इकोकार्डियोग्राम, हृदय का सोनो ग्राम है जिसमें ध्वनि तरंगों का उपयोग कर हृदय की जांच की जाती है। इस तकनीक में हृदय की संरचना के स्थिर प्रतिबिंब भी लिए जाते हैं तथा हृदय की कार्यप्रणाली के वीडियो भी बनाए जा सकते हैं। इस परीक्षण से हृदय के दाहिने हिस्से के दाब का आकलन संभव है।
फेफड़ों का ऊतक विश्लेषण सामान्यतः फुफ्फुसीय फायब्रोसिस का सुनिश्चित निदान, प्रयोगशाला में, फेफड़ों के
ऊतकों के छोटे से अंश की बायोप्सी द्वारा किया जाता है। ऐसे ऊतक निम्न तरीकों से प्राप्त किए जा सकते हैंः
ब्रांकोस्कोपीःइस प्रक्रिया के अंतर्गत, चिकित्सक एक छोटी सी, आमतौर पर पिन के सिरे जितनी, लचीली नलिका (ब्रांकोस्कोप) को रोगी के मुख या नाक के माध्यम से प्रविष्ट कराके फेफड़ों का बहुत छोटा ऊतक का नमूना निकाल लिया जाता है। ब्रांकोस्कोपी के जोख़िम काफी कम हैं - गले में अस्थायी खराश और ब्रोंकोस्कोप
के कारण भारी आवाज़ - पर कभी.कभार निकाले गए ऊतक इतने छोटे होते हैं कि सुसंगत रोगनिदान में कठिनाई होती है। ब्रोंकोएल्वियोलर लावेजः इस प्रक्रिया के अंतर्गत, चिकित्सक लगभग एक बड़ा चम्मच लवणयुक्त जल ब्रोंकोस्कोप के माध्यम से फेफड़ों के एक हिस्से तक इंजेक्शन द्वारा पहुंचाता है और फिर तुरंत ही उसे वापस निकाल लेता है। बाहर निकाले गए द्रव के साथ वायुकोशों के ऊतक भी होते हैं। हालांकि ब्रोंकोएल्वियोलर लावेज अन्य पद्धतियों की अपेक्षा फेफड़ों के पर्याप्त विस्तृत भाग के नमूने लेने में सक्षम होता है
किंतु इस प्रविधि द्वारा प्राप्त जानकारी पल्मोनरी फायब्रोसिस के सुस्पष्ट रोगनिदान के लिए पर्याप्त नहीं होती।
सर्जिकल बायोप्सीः हालांकि यह प्रक्रिया सर्जरी द्वारा संपादित की जाती है और इसमें काफी जटिलताएं रहती हैं, किंतु यही एकमात्र ऐसी प्रविधि है जिसमें सुसंगत रोगनिदान के लिए पर्याप्त बड़ा, ऊतकों का नमूना ले सकना संभव होता है। इस प्रक्रिया में सामान्य एनेस्थेसिया दिया जाता है एवं सर्जरी के उपकरणों की तथा एक छोटे कैमरा की जरूरत पड़ती है। यह कैमरा, पसलियों के बीच दो या तीन छोटे से छिद्र कर फेफड़ों में प्रविष्ट करा दिया जाता है। कैमरे के माध्यम से सर्जन एक वीडियो मॉनीटर पर फेफड़ों की स्थिति जांचता है और साथ ही उनसे जरूरत के मुताबिक ऊतक बाहर निकाल लेता है।
स्वयं क्या करें ------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के साथ जीने के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति अपने उपचार के प्रति सक्रिय व सजग हो तथा यथासंभव स्वस्थ रहने का प्रयास करे। इसके लिए जरूरी हैः
धूम्रपान त्यागेंः फेफड़ों से संबंधित रोग होने पर धूम्रपान त्याग देना पहला कदम है। इस संबंध में विकल्प चयन हेतु चिकित्सक की राय लें - विकल्प में धूम्रपान मुक्ति कार्यक्रम भी सम्मिलित हैं जिनमें धूम्रपान त्यागने की कई प्रविधियां समझाई जाती हैं। धूम्रपान करने वाले लोगों के साथ से भी बचें क्योंकि वह उतना ही नुकसानदेह
है जितना स्वयं धूम्रपान करना।
पौष्टिक आहार अपनाएंः फेफड़ों के रोगियों का वज़न प्रायः गिरने लगता है - एक तो वे आराम से भोजन नहीं कर पाते, दूसरे उन्हें सांस लेने में कष्ट होता है। ऐसे लोगों को पौष्टिक आहार लेने की जरूरत होती है जिसमें पर्याप्त कैलोरीज़ हों। आहार विशेषज्ञ की इस संदर्भ में राय ली जानी चाहिए। 
समय पर टीका लगवाएंः अंतरालीय फुफ्फुस रोग में श्वास नली का संक्रमण इसे और अधिक घातक बना सकता है। ध्यान रखें कि समय पर न्यूमोनिया का टीका और हर साल फ्लू का टीका लगवा लें।
हिम्मत से सामना करेंः फेफड़ों की पुरानी तकलीफ़ के साथ जीना एक बड़ी भावनात्मक और शारीरिक चुनौती बन जाता है। व्यक्ति को, दिनचर्या और रोजमर्रा के कामकाज के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है, कभी.कभी तो आमूल बदलाव लाना पड़ जाता है, क्योंकि सांस की बढ़ती तकलीफ़ या फेफड़ों की गिरती हालत में सेहत की देखभाल प्राथमिकता बन जाती है। ऐसे में, डर, गुस्सा या उदासी की भावनाएं उभरना स्वाभाविक है क्योंकि व्यक्ति अपनी पिछली स्वस्थ जिंदगी छूट जाने से खिन्न रहता है और साथ ही अपने व परिजनों के भविष्य के लिए चिंतित भी। अपनी भावनाएं नज़दीकी लोगों से भी बांटें और चिकित्सक से भी। खुलकर बात करने से रोग की भावनापरक तकलीफों से राहत मिलती है और उनका सामना करने की ताकत भी।
आरोग्यपरक उपचार-----
कुछ उपचारों द्वारा अस्थायी रूप से रोगलक्षणों में सुधार लाया जा सकता है या फिर रोग वृद्धि की गति मंद करना भी संभव हो पाता है। अन्य कुछ उपचार जीवन की गुणवत्ता बढ़ाते हैं। चिकित्सक द्वारा निम्न उपचार पद्धतियों में से चयन करना संभव है, जिनके विविध परिणाम हैंः
कॉर्टेकॉस्टेरॉयड्सः अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कुछ प्रकारों में लगातार रहने वाले शोथ से फेफड़ों को नुकसान पहहुँचता है और वे विक्षत हो जाते हैं। प्रेड्नीज़ोन तथा मिथाइलप्रेड़नीज़ोलोन जैसी कॉर्टेकॉस्टेरॉयड दवाएं प्रतिरक्षा प्रणाली पर अंकुश बनाए रखती हैं। ऐसा होने पर फेफड़ों और पूरे शरीर की सूजन कम होती है।
एन. ऐसिटाइलसिस्टीनः यह सशक्त एंटी.ऑक्सीडेंट, अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कुछ प्रकारों में फुफ्फुस.ह्रास को मंद कर देता है, किंतु रोग से व्यक्ति का पूर्णतः बचाव करने में सक्षम नहीं होता।
एज़ाथियोप्रीनः यह औषधि प्रतिरक्षा प्रणाली को शमित करती है। अंतरालीय फुफ्फुस रोग के उपचार में यह प्रभावी सिद्ध नहीं हो सकी है किंतु कुछ अध्ययनों के अनुसार यह कारगर हो सकती है।
ऑक्सीजन थेरैपी:
ऑक्सीजन का आठों पहर उपचार लाभकारी हो सकता है। ऑक्सीजन, बाहरी माध्यम से रोगी को दिया जाना, हालांकि फेफड़ों की क्षति को रोक नहीं पाता किंतु ऐसा करने पर निम्न प्रभाव मिल सकते हैंः
* सांस लेना और श्रमयुक्त गतिविधियों में मदद मिल जाती है।
* शरीर में ऑक्सीजन स्तर कम होने की स्थिति में जटिलताओं से बचाव होता है या वे कम हो जाती हैं।
* हृदय के दाहिने निलय में रक्तदाब नहीं बढ़ता
नींद में सुधार होता है और व्यक्ति स्वस्थ महसूस करता है।
पल्मोनरी रिहैबिलिटेशन (फुफ्फुसीय पुनर्स्थापन)-----
फुफ्फुसीय पुनर्स्थापन से दैनंदिन कार्यकलापों में ही सुधार नहीं आता बल्कि ऐसे रोगी पूर्ण संतुष्ट जीवन जीना सीखते हैं। ऐसे पुनर्स्थापन कार्यक्रमों में लक्ष्य प्राप्ति के लिए निम्न विधियां अपनाई जाती हैंः
~ शारीरिक व्यायाम ताकि व्यक्ति की सहनशक्ति बढ़ सके।
~ श्वासविधियां जिनसे फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है।
~ भावनात्मक संबल
~ पोषण संबंधी हिदायतें
सर्जरी-----
अंतरालीय फुफ्फुस रोग की बढ़ी हुई अवस्था जिसमें गंभीर स्तर पर नुकसान हो चुका होता है, फेफड़ों का ट्रांसप्लांट करवाना अंतिम श्रेष्ठ उपाय है। ऐसा आपरेशन करवाने वाले रोगियों की जीवन की गुणवत्ता में भी बहुत सुधार होता है और कार्यक्षमता में भी.
अनुवाद ---कुंकुम जोशी
साभार --ड्रीम 2047

Monday 13 May 2019

सर्पदंश

सर्पदंश - प्रथम उपचार तथा निगरानी 
डॉ. यतीश अग्रवाल
सर्पदंश के कारण मानव जीवन की हानि को बहुत हद तक कम किया जा सकता है अगर इस घटना के तुरंत बाद व्यर्थ के वैकल्पिक उपचारों में समय व्यर्थ न किया जाए। पीड़ित को नजदीकी स्वास्थ्य सुविधा केंद्र पर पहुंचना जरूरी होता है। वहां पर चिकित्सक पीड़ित की हालत की जांच करके आगे की उपयुक्त चिकित्सा
शुरू कर सकता है।
सर्पदंश से भारत में प्रति वर्ष 50,000 व्यक्तियों की जान जाती है। अगर पारम्परिक, परन्तु अनुपयोगी तरीकों में समय व्यर्थ न गंवाया जाए तथा पीड़ितों को समय रहते उचित उपचार उपलब्ध कराया जाए, तो उनमें से कई लोगों की जान बचाई जा सकती है। एक डॉक्टर ही पीड़ित की स्वास्थ्य स्थिति का आकलन कर उसके अनुरूप उपचार विधि तय कर सकता है। कई मामलों में सर्पदंश से जीवन को हानि नहीं हो सकती। आंकड़ों के मुताबिक सर्पदंश के 70 प्रतिशत मामले विषहीन सांपों द्वारा होते हैं। विषैले सांपों में भी सिर्फ 50 प्रतिशत मामलों में ही
पीड़ित की जान जाने का खतरा होता है। उपचार विधि स्वास्थ्य की स्थिति के आधार पर निर्भर करती है। अगर सांप का काटा गंभीर नहीं है, तो डॉक्टर सिर्फ घाव की सफाई कर टाइटेनस रोधी टीका दे सकते हैं। इसके विपरीत अगर स्थिति जानलेवा है तो डॉक्टर विषरोधी दवा देने के बारे में विचार कर सकते हैं। विषरोधी दवा सांप के विष की प्रतिरोधी दवा होती है। इसे तैयार करना काफी मशक्कत भरा काम होता है, जिसमें सर्पदंश को
जानवरों, विशेषकर घोड़ों में इंजेक्शन द्वारा डालकर, जानवर के प्रतिरक्षा तंत्र में पैदा हुए प्रतिरक्षी को निकाल कर इसे तैयार किया जाता है। जानवरों के खून में विष मिलने के करीब आठ से दस हफ्ते बाद विषरोधी दवा तैयार होती है। इसे निकालने के लिए जानवरों के शरीर से खून निकाला जाता है और उसे पेचीदी प्रक्रिया द्वारा साफ किया जाता है। विषरोधी दवाएं काफी कीमती होती हैं, लिहाजा उनका प्रयोग सोच.समझकर करना चाहिए। अगर विषरोधी दवा उचित तरीके से और समय रहते दी जाए, तो ये जिंदगी बचाने में मददगार हो सकती है। जिन हालात में इन्हें देना आवश्यक है, वहां जितनी जल्दी इन्हें दिया जाए, उतने ही अच्छे परिणाम मिलते हैं। अगर स्थिति बेकाबू न हो, तो जिन स्वास्थ्य केन्द्रों या अस्पतालों में विषरोधी दवा उपलब्ध है, वे इन गंभीर परिस्थितियों का सफलतापूर्वक सामना कर सकते हैं। विवेकपूर्ण प्रथम उपचार विधि अगर आपके परिवार के किसी सदस्य, पड़ोसी या किसी परिचित को सर्पदंश का शिकार होना पड तो जितनी जल्दी हो सके निकटवर्ती स्वास्थ्य केन्द्र में आपातकालीन उपचार आवश्यक है। 
अगर सांप काटे के स्थल का रंग परिवर्तित होने लगे, सूजन आ जाए, या दर्द हो, तो आपातकालीन उपचार अनिवार्य है। जब तक मुकम्मल उपचार शुरु नहीं होता, तब तक निम्नलिखित उपाय किये जाने चाहिएः
धीरज रखें
धीरज रखें और जिस स्थल पर सांप ने काटा है, वहां से पीड़ित को दूर हटाएं। पीड़ित को धीरज बंधाएं, और उसकी व्यग्रता दूर करने की कोशिश करें। उसे ये बताएं कि अधिकांश सांप विषहीन होते हैं। डर, तनाव तथा उत्तेजना से दिल की धड़कन और रक्त प्रवाह तेज होते हैं। ऐसा होने पर विष शरीर में तेजी से फैलता है। 
समय नोट करें
सांप के काटने का समय नोट करें। ये छोटी सी सूचना इलाज में डॉक्टर के लिए काफी महत्त्वपूर्ण साबित हो सकती है।
सांप का पीछा न करें
सांप को पकड़ने, मारने या उसका पीछा करने में समय बर्बाद न करें। हो सके, तो सांप की तस्वीर ले लें। या उसका रंग और आकार याद कर लें, जिसे डॉक्टर को बताया जा सके। अगर कोई सांप को मार भी देता है, तो उसे भी अस्पताल ले जाएं। इससे डॉक्टर को सांप का प्रकार पहचानकर उसके अनुरूप उपचार विधि सुनिश्चित करने में आसानी होगी। सभी तरह की शारीरिक क्रिया बंद कर दें आदर्श तो ये होता है कि सर्पदंश के शिकार
व्यक्ति को बिलकुल शांत बैठना चाहिए। उसे टहलना नहीं चाहिए। अगर सुरक्षित हो तो फर्श पर सीधा लेट जाना चाहिए तथा इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि शरीर के काटे हुए हिस्से को छाती से ऊपर न ले
जाएं, अन्यथा विष तेजी से शरीर में फैलने लगेगा। पीड़ित को किसी वाहन में निकटवर्ती स्वास्थ्य केन्द्र में ले जाना चाहिए। पीड़ित के शरीर में किसी भी प्रकार की गतिशीलता से विष शरीर में तेजी से फैलेगा।
घाव मत धोएं
अक्सर काटे गए अंग की सतह से विष हटाने के लिए पीड़ित व्यक्ति, परिवार का सदस्य या मददगार पहले घाव को धोने के विषय में सोचता है। ये घातक है। इससे शरीर में विष फैलने की प्रक्रिया तेज होती है। लिहाजा ऐसा करने से परहेज करना चाहिए।
चुस्त कपड़े और गहने हटाएं
अगर सांप के काटने के स्थल पर चुस्त कपड़े, जूते, अंगूठी, घड़ी या आभूषण हैं तो सूजन से पहले ही उन्हें हटा लेने की कोशिश करें। सांप के काटने के कारण आसपास की जगह में सूजन हो सकती है और ये वस्तुएं रक्त प्रवाह अवरुद्ध कर सकती हैं।
पीड़ित अंग को गतिहीन बनाएं
शरीर के जिस अंग में सांप ने काटा है, उसे तख्ती (स्प्लिंट) या गल.पट्टी (स्लिंग) बांधकर गतिहीन बनाएं। इसके लिए पट्टी या कपड़े का प्रयोग कर सकते हैं। लेकिन ये सावधानी बरतनी चाहिए कि इससे काटे हुए अंग पर दबाव न पड़े और रक्त प्रवाह न रुके। चुस्त बंधन द्वारा किसी तरह का दबाव न बनाएं। इससे कोई लाभ नहीं होता, उल्टे हानि हो सकती है। स्प्लिंट के प्रयोग का उद्देश्य गति तथा मांसपेशियों में संकुचन रोकना है। क्योंकि इससे रक्त और लसीका तंत्र में विष का घुलना बढ़ सकता है।
काटे हुए अंग को न बांधें
काटे हुए अंग के आसपास बांधकर रक्त प्रवाह को न रोकें। पारम्परिक तरीकों में लोग सांप के विष
को शरीर के दूसरे हिस्सों में फैलने से रोकने के लिए काटे हुए अंग के आसपास रस्सी, बेल्ट, सुतली या
कपड़ा बांध देते हैं। उपचार के ऐसे पारम्परिक तरीके के प्रयोग की अनुमति नहीं दी जाती। इससे कोई लाभ नहीं होता। अक्सर ये विष को फैलने से रोकने में नाकाम रहते हैं। दूसरी बात, कि इससे पीड़ित और उसके परिजनों में सुरक्षा की झूठी भावना घर करती है, जिससे अस्पताल पहुंचने में देरी होती है। तीसरी बात, कि इस प्रक्रिया में कई तरह के जोखिम और पेचीदगी का भय होता है। अगर पट्टी को अधिक कसकर बांधा गया तो प्रभावित अंग में रक्त प्रवाह पूरी तरह बंद हो सकता है, जिससे वह अंग गल सकता है। भारत में सर्पदंश के मामलों में ये बात
अक्सर होती है। सबसे बुरा तो तब होता है, जब चुस्त बंधन को ढीला किया जाता है। विष मिले हुए तेज रक्त प्रवाह से तंत्रिका पक्षाघात हो सकता है, रक्त दाब कम हो सकता है या रक्त का थक्का जम सकता है दृप्रभाव की विशिष्टता विष के प्रकार के अनुसार होती है।
काटी हुई जगह पर बर्फ के प्रयोग से परहेज
काटी हुई जगह को ठंडा करने के लिए बर्फ का प्रयोग न करें।
विष दूर करने की कोशिश न करें
सांप के काटे हुए स्थल पर कट न लगाएं और मुंह से चूसकर विष निकालने की कोशिश न करें। चूषण कार्य के लिए पम्प का भी इस्तेमाल न करें। पहले सांप का जहर निकालने के लिए चूषण विधि का प्रयोग किया जाता था, लेकिन ये उपयोगी नहीं है और इस विधि से लाभ के बजाय नुकसान हो सकता है। पीड़ित के दंश प्रभावित अंग में कट लगाने से रक्तस्राव बढ़ सकता है और विष के कारण रक्त का थक्का जमने की सामान्य प्रक्रिया रुक सकती है। साथ ही कट लगाने से पीड़ित में संक्रमण का खतरा बढ़ जाता है।
कैफीन या अल्कोहल से परहेज
पीड़ित को चाय, कॉफी या एल्कोहल का पान नहीं करना चाहिए। इससे शरीर में विष फैलने की प्रक्रिया तेज हो सकती है।
पारम्परिक उपचारक लाभदायक
नहीं हो सकते
पारम्परिक उपचारकों पर वक्त बर्बाद करने का कोई लाभ नहीं है। उन उपचारों का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। उनके क्रियाकलाप मनोवैज्ञानिक स्तर पर लाभदायक हो सकते हैं, लिहाजा विषहीन सांपों के काटे जाने पर वो कारगर साबित हो सकते हैं।
बेवजह दवाएं न लें
पीड़ित को बिना डॉक्टर के निर्देश के कोई दवा न दें। जब तक डॉक्टर न कहें, तब तक पीड़ित को कोई दवा न दें। घरेलू तथा पारम्परिक दवाएं संक्रमण बढ़ा सकती हैं और इलाज के रास्ते में भी परेशानियां खड़ी कर सकती हैं।
निकटवर्ती अस्पताल पहुंचें
जिस व्यक्ति को सांप ने काटा है उसे तुरंत निकटवर्ती सामुदायिक स्वास्थ्य केन्द्र या अस्पताल पहुंचाना चाहिए।पारम्परिक दवाएं देने में समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। सर्पदंश के उपचार में वे लाभदायक साबित नहीं हुए हैं और प्रभावशाली उपचार में बिला वजह विलम्ब खतरनाक साबित हो सकता है।
अस्पताल ले जाते समय मरीज पर नजर रखें
जिस समय मरीज को निकटवर्ती अस्पताल ले जाया जा रहा हो, उसकी शारीरिक गतिविधियों पर लगातार नजर बनाए रखें। अगर उसके शरीर में कोई नया लक्षण दिखे, जैसे पलकें बंद होना, तो अस्पताल पहुंचने पर तुरंत उसके बारे में डॉक्टर को बताएं। अस्पताल के रास्ते में मरीज को अगर सदमा पहुंचने का संकेत मिलता है तो स्वास्थ्य कार्यकर्ता उसे जिन्दा रखने के लिए प्रथम उपचार की मदद ले सकते हैं। एक बात याद रखनी चाहिए कि जितनी जल्दी हो सके अस्पताल पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए। व्यर्थ बिताए गए हर पल से वांछित परिणाम
प्राप्त करने में परेशानी बढ़ेगी। सर्पदंश से होने वाली कई मौतें स्वास्थ्य केन्द्र पहुंचने में देरी की वजह से होती हैं।
निरीक्षण करना -
इन लक्षणों पर निगाह रखें
परिदृश्य 1ः जब शरीर में विष नहीं पहुंचा हो कुछ लोगों को शक होता है या वे कल्पना कर लेते हैं कि उन्हें सांप ने काट खाया है, या उन्हें वास्तव में सांप ने काटा हो, तो उनमें कुछ विशेष लक्षण दिख सकते हैं, इसके बावजूद कि उनके शरीर में विष नहीं गया हो।
भय तथा उत्तेजना के कारण दिखने वाले लक्षण
अधिक उत्तेजना के कारण मरीज तेज सांस लेने लगता है। चरम स्थिति में उसे सुई चुभोने सरीखा महसूस होता है, हाथों और पैरों में अकड़न होती है, और आंखें उनींदी होने लगती हैं। कुछ मरीजों को वैसोवेगल सदमा हो सकता है, जिसके कारण उन्हें चक्कर आने लगता है और दिल की धड़कन बहुत धीमी होने के कारण बेहोशी छा जाती है। कुछ मरीजों में झुंझलाहट पैदा होती है, जिसके कारण भ्रामक लक्षण दिख सकते हैं। रक्त दबाव और
स्पंदन दर बढ़ सकती है, जिसके कारण पसीना होना तथा सिहरन हो सकती है। ये लक्षण विशुद्ध रूप से
उस भय के कारण पैदा होते हैं, कि एक विषैले सांप ने काट खाया है।
गलत प्रथम उपचार तथा पारम्परिक इलाज के कारण उत्पन्न होने वाले लक्षण----
गलत प्रथम उपचार तथा पारम्परिक इलाज के कारण भी महत्त्वपूर्ण लक्षण पैदा हो सकते हैं। पट्टी या तख्ती के दबाव के कारण दर्द तथा सूजन पैदा हो सकती है एवं रक्त प्रवाह रुक सकता है। आयुर्वेदिक दवाएं खाने से उल्टियां हो सकती हैं। पौधों का रस आंख में डालने पर नेत्र.शोथ की बीमारी हो सकती है। श्वसन नलिका में जबरदस्ती तेल प्रवाहित करने से न्यूमोनिया या ब्रोन्कोस्पाज्म हो सकते हैं, कानों के ड्रम को नुकसान पहुंच सकता है और न्यूमोथ्रैक्स हो सकता है। काटने, दागने, गर्म तरल में डुबोने और आग पर सेंकने के कारण भयानक जख्म हो सकता है।
परिदृश्य 2ः 
जब शरीर में विष का प्रवेश हुआ हो
प्रारम्भिक लक्षण
सर्पदंश से त्वचा पर तुरंत दर्द शुरु हो सकता है, जिसके बाद सर्पदंश की जगह जलन, दरार और तेज दर्द हो सकते हैं। सर्पदंश की जगह सूज सकती है, जो धीरे.धीरे बढ़कर दूसरे अंगों में भी फैल सकती है । दर्द भरी सूजन से लसिका पर्व यानि लिम्फ नोड में गांठ पड़ सकती है। हालांकि करैत, समुद्री सांप और कोबरा के कुछ प्रकारों के सर्पदंश में दर्द नहीं भी हो सकता है तथा सर्पदंश की जगह सूजन भी काफी कम हो सकती है। अक्सर करैत के काटने पर सोया हुआ व्यक्ति नींद से जागता भी नहीं और हो सकता है कि सर्पदंश के स्थान पर काटे का कोई निशान भी न दिखे।
विष फैलने के लक्षण------
सांपों की प्रजाति तथा शरीर में गए विष केआधार पर सर्पदंश के लक्षण भिन्न हो सकते हैं। कभी.कभार मृत सांप की जांच कर उनकी पहचान कर ली जाती है। मरीज के दिये विवरण, या सर्पदंश की परिस्थितियों अथवा उस सांप की प्रजाति के विष की जानकारी होने से भी कुछ अंदाजा लग सकता है।
काटने वाले सांप के बारे में दी गई सूचना-------
डॉक्टर के लिए सही विषरोधी दवा चुनने में मददगार साबित हो सकती है। वह आगामी परिस्थितियों का आकलन कर सकता है, तथा उसके आधार पर उपचार विधि सुनिश्चित कर सकता है। अगर काटने वाले सांप के बारे में जानकारी नहीं मिलती, तो मरीज और उसके लक्षणों की गहन निगरानी की जानी चाहिए तथा प्रयोगशाला में जांच के नतीजों का आकलन करना चाहिए। इन परिणामों को दूसरे सबूतों के साथ संयोग कर अनुमान लगाया
जा सकता है कि सांप की किस प्रजाति ने काटा है।
काटी गई जगह पर स्थानीय लक्षण------
- दंत छिद्र का निशान
- काटे गए अंग पर दर्द 
- काटे गए स्थान से रक्तस्राव तथा जलन
- लसिका वाहिनी शोथ या लिम्फैन्जाइटिस (काटे
गए अंग पर लाल धारी बनना)
- लिम्फ नोड में सूजन
- सूजन, लाल पड़ना, जलन
स तेज दर्द, संक्रमण, पस बनना तथा उतकों का
गलना
सामान्यीकृत लक्षण और चिह्न-------
सामान्य।--
उबकाई आना, उल्टी होना, बेचौनी, पेट में दर्द,
कमजोरी, उनींदापन, तथा खिन्नता।
परिसंचारी लक्षण---
वाइपराइड प्रजाति के विषैले सांप के काटने से
देखने में परेशानी, धुंधलापन, चक्कर आना, बेहोशी छाना, सदमा पहुंचना, रक्त दाब कम होना, दिल की धड़कन में अनियमितता, फेफड़ों में पानी भरना और आंखों का लाल होकर सूजना जैसे लक्षण दिखते हैं। 
 रक्त स्राव और थक्का जमने में परेशानी---
वाइपराइड प्रजाति के विषैले सांपों के काटने पर सर्पदंश के स्थान से लगातार रक्तस्राव होता है, नसें कट जाती हैं, और अगर पुराने घाव हों तो उनसे भी रक्तस्राव शुरु हो जाता है। इनके अलावा पीड़ित के मसूड़ों से नियमित
रूप से खून आ सकता है, नाक बह सकती है, दिमाग और फेफड़ों से रक्तस्राव हो सकता है, खून की उल्टियां हो सकती हैं, गुदा से खून आ सकता है, रक्तमेह हो सकता है, योनि से खून आ सकता है, आंखों, त्वचा तथा रेटिना में भी खून आ सकता है।
वेस्टर्न रशेल वाइपर या डैबोइरसली के काटने पर कभी.कभी दिमाग की धमनी जाम हो जाती है।
तंत्रिका लक्षण---
विषैले सांपों, जैसे एलापिडा प्रजाति के कोबरा और रशेल वाइपर के काटने पर तंत्रिका से जुड़ी परेशानियां उत्पन्न हो सकती हैं, जैसे उनींदापन, अकड़न तथा सिहरन, स्वाद तथा गंध में अनियमितता, आंखों में भारीपन, पुतलियों का गिरना, पुतलियों की बाहरी मांसपेशियों में पक्षाघात, चेहरे की मांसपेशियों में पक्षाघात, कपाल की नसों से संचालित मांसपेशियों में पक्षाघात, नाक से आवाज निकलना, बोलने में परेशानी, नाक से पानी बहना, स्राव निगलने में परेशानी, सांस लेने में परेशानी तथा शिथिलता।
कंकालीय मांसपेशियों के लक्षण----
समुद्री विषैले सांप तथा करैत की कुछ प्रजातियों जैसे बंगरास्नाइगर और बी कैंडिडस, वेस्टर्न रशेल वाइपर दबोइआ रसेली के काटने पर मांसपेशियों पर गंभीर प्रभाव पड़ सकते हैं। तेज दर्द हो सकता है, मांसपेशियों में कभी अकड़न तो कभी शिथिलता हो सकती है, जबड़ों में अकड़न हो सकती है, मूत्र में मायोग्लोबिन आ सकता है, रक्त में पोटैशियम का अनुपात सामान्य से काफी अधिक हो सकता है, हृदय गति रुक सकती है तथा गुर्दा काम करना बंद कर सकता है।
गुर्दे से जुड़े लक्षण----
वाइपराइड प्रजाति या समुद्री सांप के काटने पर पीठ में दर्द हो सकता है, मूत्र में खून आ सकता है, मूत्र में हीमोग्लोबिन बढ़ सकता है, मूत्र में मायोग्लोबिन आ सकता है, मूत्र बनना बंद हो सकता है तथा गुर्दे की प्रक्रिया बंद होने के लक्षण देखने को मिलते हैं। इनमें पीड़ित को अम्लता की शिकायत, सांस लेने में परेशानी, हिचकी आना, नाक बहना और छाती में दर्द की शिकायत हो सकती है। अंतरूस्रावी लक्षण रशेल वाइपर के काटने पर कफ ग्रंथि और गुर्दे की कार्यक्षमता कम हो जाती है। गंभीर स्थिति में सदमा लग सकता है तथा रक्त शर्करा में अत्यधिक  कमी आ सकती है। सर्पदंश के महीनों और सालों बाद तक पीड़ित को कमजोरी, पशम बालों का झड़ना, नपुंसकता, मासिक धर्म में अनियमितता, अंडकोष का आकार घटना तथा हायपोथायरायडिज्म की शिकायत रहती है।
सर्पदंश का उपचार----------
सर्पदंश के शिकार व्यक्ति का विस्तृत नैदानिक आकलन और जांच के पश्चात डॉक्टरों की टीम उपचार का सर्वश्रेष्ठ उपाय सुनिश्चित कर सकती है। कुछ जहरीले सांपों का काटना जानलेवा नहीं होता। सर्पदंश की गंभीरता काटे गए अंग, शरीर में विष की मात्रा, उम्र तथा पीड़ित के स्वास्थ्य पर निर्भर करती है।
अगर स्थिति जान लेने जैसी गंभीर हो, तो डॉक्टर विषरोधी दवा दे सकते हैं। विषरोधी उपचार से विष के फैलने से रुकने तथा शरीर के अन्य अंगों के प्रभावित होने से बचने के कारण स्वास्थ्यलाभ की उम्मीद की जाती है। हालांकि इस प्रक्रिया म समय लगता है तथा सांप के जहर से गंभीर रूप से पीड़ित व्यक्ति को जीवन समर्थक प्रणाली, जैसे सदमे का उपचार, वेंटिलेशन की सहायता, तथा गुर्दे का डायलिसिस जैसी प्रक्रियाओं की उस समय तक मदद लेनी पड़ सकती है, जब तक प्रभावित अंगों का नुकसान दूर नहीं हो जाता।
सर्पदंश के शिकार व्यक्ति का बाहरी अवलोकन------
सर्पदंश के शिकार व्यक्ति का बाहरी अवलोकन परिवर्तनीय होता है। विषहीन सांपों के काटने पर बाहरी अवलोकन में कोई अन्तर नहीं आता, अगर घाव की सफाई कर उसका उचित इलाज किया जाता है। जहरीले सांप के काटने पर भी बाहरी अवलोकन ठीक रह सकता है, अगर पीड़ित को सर्पदंश के तुरंत बाद आपात उपचार उपलब्ध कराया जाए। बच्चों, कमजोर प्रतिरोधी क्षमता वाले व्यक्तियों और गहराई तक दंश का शिकार होने वालों की तुलना में सर्पदंश का हलका शिकार होन वाले, स्वस्थ वयस्कों का बाहरी अवलोकन बेहतर रहता है।
सर्पदंश से बचाव----
कई मामलों में सर्पदंश से बचा जा सकता है। बीहड़ स्थल में सांपों के करीब नहीं आना चाहिए तथा उन्हें नहीं छेड़ना चाहिए। जिन जगहों पर सांपों के होने की आशंका हो, वहां जाने से बचना चाहिए, जैसे लम्बी घास से भरे मैदान, पत्तियों का जमावड़ा, चट्टान और लकड़ियों के गट्ठर इत्यादि। फिर भी सामने सांप आ जाएं तो उन्हें निकलने के लिए जगह देनी चाहिए और उन्हें छिपने देना चाहिए। सांपों की प्रकृति इंसानों से दूर रहने की होती है। जब घर के बाहर कार्य करना पड़े, जहां सांपों के छिपे होने की संभावना हो, तो ऊंचे जूते, पूरी लम्बाई की पैंट और चमड़े के दस्ताने पहनें। रात में गर्मियों में घर के बाहर काम करने से बचें, क्योंकि यही वो समय है, जब सांप सर्वाधिक सक्रिय होते हैं।
(अनुवादः अगस्त्य अरूणाचल) 


ध्यान दो मोदीजी


प्रभा साक्षी 

जरा स्वास्थ्य सेवाओं पर भी ध्यान दो मोदीजी, हजारों लोग जान गंवा रहे हैं

By देवेन्द्रराज सुथार | Publish Date: Jun 2 2018 2:10PM
किसी भी देश में स्वास्थ्य का अधिकार जनता का सबसे पहला बुनियादी अधिकार होता है। लेकिन भारत में बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में रोज़ाना हजारों लोग अपनी जान गंवा देते हैं। भारत स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में बांग्लादेश, चीन, भूटान और श्रीलंका समेत अपने कई पड़ोसी देशों से पीछे है। इसका खुलासा शोध एजेंसी 'लैंसेट' ने अपने 'ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज' नामक अध्ययन में किया है। इसके अनुसार, भारत स्वास्थ्य देखभाल, गुणवत्ता व पहुंच के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है।
विडंबना है कि आजादी के सात दशक बाद भी हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार नहीं हो सका है। सरकारी अस्पतालों का तो भगवान ही मालिक है ! ऐसे हालातों में निजी अस्पतालों का खुलाव तो कुकरमुत्ते की भांति सर्वत्र देखने को मिल रहा है। इन अस्पतालों का उद्देश्य लोगों की सेवा करना नहीं है बल्कि सेवा की आड़ में मेवा अर्जित करना है। लूट के अड्डे बन चुके इन अस्पतालों में इलाज करवाना इतना महंगा है कि मरीज को अपना घर, जमीन व खेत गिरवी रखने के बाद भी बैंक से लोन लेने की तक़लीफ़ उठानी पड़ती है। अभी कुछ महीनों पहले घटित गुरुग्राम के फोर्टिस अस्पताल का ताजा उदाहरण हमारे सामने है। जहां डेंगू पीड़ित सात साल की बच्ची के करीब 15 दिनों तक चले इलाज का बिल 16 लाख बताया गया। इसके बाद भी बच्ची की जान नहीं बच सकी। सोचनीय है क्या भारत में विकास का पैमाना यह है कि एक गरीब को अपनी बेटी का इलाज करवाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाना पड़े। अपना सब कुछ गंवाने के बाद भी बेटी के प्राण न बच सके। ऐसे में उन अभिभावकों पर क्या गुजरती होगी? दरअसल हमारे देश का संविधान समस्त नागरिकों को जीवन की रक्षा का अधिकार तो देता हैं लेकिन, जमीनी हकीकत बिलकुल इसके विपरीत है। हमारे देश में स्वास्थ्य सेवा की ऐसी लचर स्थिति है कि सरकारी अस्पतालों में चिकित्सकों की कमी व उत्तम सुविधाओं का अभाव होने के कारण मरीजों को अंतिम विकल्प के तौर पर निजी अस्पतालों का सहारा लेना पड़ता है। देश में स्वास्थ्य जैसी अतिमहत्वपूर्ण सेवाएं बिना किसी विजन व नीति के चल रही हैं। ऐसे हालातों में गरीब के लिए इलाज करवाना अपनी पहुंच से बाहर होता जा रहा है। 
 
ग़ौरतलब है कि हम स्वास्थ्य सेवाओं पर सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी को सबसे कम खर्च करने वाले देशों में शुमार हैं। आंकड़ों के मुताबिक, भारत स्वास्थ्य सेवाओं में जीडीपी का महज़ 1.3 प्रतिशत खर्च करता है, जबकि ब्राजील स्वास्थ्य सेवा पर लगभग 8.3 प्रतिशत, रूस 7.1 प्रतिशत और दक्षिण अफ्रीका लगभग 8.8 प्रतिशत खर्च करता है। दक्षेस देशों में, अफगानिस्तान 8.2 प्रतिशत, मालदीव 13.7 प्रतिशत और नेपाल 5.8 प्रतिशत खर्च करता है। भारत स्वास्थ्य सेवाओं पर अपने पड़ोसी देशों चीन, बांग्लादेश और पाकिस्तान से भी कम खर्च करता है। 2015-16 और 2016-17 में स्वास्थ्य बजट में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी, लेकिन मंत्रालय से जारी बजट में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के हिस्से में गिरावट आई और यह मात्र 48 प्रतिशत रहा। परिवार नियोजन में 2013-14 और 2016-17 में स्वास्थ्य मंत्रालय के कुल बजट का 2 प्रतिशत रहा। सरकार की इसी उदासीनता का फायदा निजी चिकित्सा संस्थान उठा रहे हैं। नेपाल और पाकिस्तान जैसे देशों से भी हम पीछे हैं, यह शर्म की बात है।


 
देश में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों के आधार पर जहां प्रति एक हजार आबादी पर एक डॉक्टर होना चाहिए, वहां भारत में सात हजार की आबादी पर एक डॉक्टर है। दीगर, ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के काम नहीं करने की अलग समस्या है। यह भी सच है कि भारत में बड़ी तेज गति से स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ है। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में निजी अस्पतालों की संख्या 8 प्रतिशत थी, जो अब बढ़कर 93 प्रतिशत हो गई है। वहीं स्वास्थ्य सेवाओं में निजी निवेश 75 प्रतिशत तक बढ़ गया है। इन निजी अस्पतालों का लक्ष्य मुनाफा बटोरना रह गया है। दवा निर्माता कंपनी के साथ सांठ-गांठ करके महंगी से महंगी व कम लाभकारी दवा देकर मरीजों से पैसे ऐंठना अब इनके लिए रोज़ का काम बन चुका है। यह समझ से परे है कि भारत जैसे देश में आज भी लोग आर्थिक पिछड़ेपन के शिकार हैं। वहां चिकित्सा एवं स्वास्थ्य जैसी सेवाओं को निजी हाथों में सौंपना कितना उचित है? एक अध्ययन के अनुसार स्वास्थ्य सेवाओं के महंगे खर्च के कारण भारत में प्रतिवर्ष चार करोड़ लोग गरीबी रेखा से नीचे चले जाते हैं। रिसर्च एजेंसी 'अर्न्स्ट एंड यंग' द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 80 फीसदी शहरी और करीब 90 फीसदी ग्रामीण नागरिक अपने सालाना घरेलू खर्च का आधे से अधिक हिस्सा स्वास्थ्य सुविधाओं पर खर्च कर देते हैं। 
 
भारत में बीमारी के इस बड़े और अनुचित वितरित बोझ का महत्वपूर्ण कारण शहरीकरण, साफ पानी का अभाव, साफ-सफाई, खाद्य असुरक्षा, पर्यावरण क्षरण और व्यापक जाति व्यवस्था जैसे सामाजिक निर्धारकों को पारंपरिक स्वास्थ्य सेवा वितरण से परे ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। भारत की मौजूदा स्वास्थ्य व्यवस्था को सही करने की जरुरत है। ख़ास तौर से कमजोर प्राथमिक स्वास्थ्य प्रणाली, कुशल मानव संसाधन की कमी से निपटना, निजी क्षेत्र के बेहतर विनियमन, स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च में वृद्धि, स्वास्थ्य सूचना प्रणाली में सुधार और जवाबदेही के मुद्दे से निपटने की प्रमुख चुनौतियां हैं। इन हालातों में भारत में सभी के लिए स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के लिए स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली में क्रांतिकारी परिवर्तन की जरूरत है। पिछले एक दशक में प्रमुख स्वास्थ्य संकेतकों पर भारत की प्रगति और कई कमियों को अध्ययन में दस्तावेज किया गया है। यह शोध स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली के साथ संरचनात्मक समस्याओं की पहचान करता है और साथ ही पिछले विशेषज्ञ समूहों की बातों को साबित करता है कि भारत की स्वास्थ्य सेवा वितरण प्रणाली के लिए एक नई क्रांतिकारी दृष्टिकोण की जरूरत है। भारत को स्वास्थ्य जैसी बुनियादी व जरूरतमंद सेवाओं के लिए सकल घरेलू उत्पाद की दर में बढ़ोत्तरी करनी होगी। सरकार को निःशुल्क दवाइयों के नाम पर केवल खानापूर्ति करने से बाज आना होगा। साथ ही, यह ध्यान रखना होगा कि एंबुलेंस के अभाव में किसी मरीज को अपने प्राण नहीं गंवाने पड़े। इसके लिए मजबूत जनबल की जरूरत है। जनता को ऐसे प्रतिनिधि को चुनना होगा, जो स्वास्थ्य सेवा जैसी सुविधाओं को आमजन तक पहुंचाने का वायदा करे। 
 


-देवेन्द्रराज सुथार


आयुष्मान भारतः पूरी योजना में छेद ही छेद

आयुष्मान भारतः पूरी योजना में छेद ही छेद, इलाज और भुगतान की प्रक्रिया में भ्रम से बिना इलाज दम तोड़ रहे हैं मरीज

अधूरी तैयारी और प्रक्रिया पर भ्रम के कारण शोर-शराबे के साथ शुरू की गई मोदी सरकार की आयुष्मान भारत योजना का फायदा लोगों तक नहीं पहुंच रहा है। इलाज और इलाज के बाद भुगतान की प्रक्रिया को लेकर तमाम भ्रम हैं, जिसके कारण निजी अस्पताल मरीजों से कन्नी काट रहे हैं।

केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने बीते साल काफी शोर-शराबे के साथ आयुष्मान भारत योजना लॉंच की थी। ‘मोदी केयर’ के नाम से चर्चित इस योजना का भी वही हाल हुआ जो मोदी सरकार की दूसरी तमाम योजनाओं का हुआ है। आधी-अधूरी तैयारी और पूरी प्रक्रिया पर भ्रम के कारण इसका असल फायदा लोगों तक नहीं पहुंच रहा है। इलाज और इलाज के बाद भुगतान कैसे होगा, इसकी प्रक्रिया को लेकर तमाम भ्रम हैं, जिसके कारण निजी अस्पताल मरीजों के इलाज से कन्नी काट रहे हैं। नवजीवन देशभर में इस योजना की स्थिति पर एक विशेष रिपोर्ट की श्रंखला चला रहा है, जिसकी अंतिम कड़ी में आज हरियाणा और हिमाचल प्रदेश में इस योजना की जमीनी हकीकत से हम पाठकों को रूबरू करा रहे हैं।
हरियाणाः कार्ड बनवाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं बीपीएल परिवार
हरियाणा में आयुष्मान भारत योजना खुद बीमार सी लगती है। मोदी केयर के नाम से भी जानी जाने वाली इस स्वास्थ्य बीमा योजना के तहत पांच लाख तक का हेल्थकवर लेने के लिए बीपीएल परिवार दर-दर भटक रहे हैं। मोदी सरकार के लिए गेम चेंजर मानी जा रही इस योजना के तहत अभी तक हरियाणा में महज 25 सौ लोगों को ही लाभ मिलना इस बात की तस्दीक कर रहा है कि यह योजना नाकामयाबी की इबारत लिख रही है।
2.53 करोड़ की आबादी वाले हरियाणा में पहली जनवरी 2019 तक 15 लाख 51 हजार परिवारों के इस योजना के तहत कवर होने का दावा है। यह जानकारी आयुष्मान योजना के राज्य नोडल अधिकारी डॉ. विमल ने दी। साथ ही उन्होंने बताया कि पूरे राज्य में पहली जनवरी तक 25 सौ लोग आयुष्मान योजना के तहत कैशलेस इलाज की सुविधा का लाभ ले चुके हैं। ढाई करोड़ की आबादी में अभी तक महज 25 सौ लोगों को ही फायदा मिल पाना इस योजना की विफलता बयां करती है।
हरियाणा की सियासी राजधानी कहे जाने वाले शहर हिसार के आयुष्मान योजना के नोडल अधिकारी डॉ. जितेंद्र शर्मा ने बताया कि यहां करीब 84 हजार कार्ड जारी किए गए हैं। वहीं अंबाला के नोडल अधिकारी डॉ. अरविंदर जीत सिंह ने बताया कि यहां करीब 88,000 परिवार इस योजना के तहत कवर किए जा चुके हैं, जबकि 45,000 गोल्डन कार्ड जारी किए हैं। पर असली कहानी यह है कि अभी तक इस योजना के तहत अंबाला जिले में इलाज करवाने वाले महज 145 लोग हैं। वहीं पंचकूला के नोडल अधिकारी डॉ. अनुज ने बताया कि24,000 परिवार यहां अभी तक कवर किए जा चुके हैं। डॉ. अनुज के मुताबिक 80-85 लोगों की सर्जरी अभी तक आयुष्मान योजना के तहत यहां हो चुकी है।
हरियाणा की सबसे ज्यादा आबादी वाले जिले फरीदाबाद के नोडल अधिकारी डॉ. रमेशचंदर के मुताबिक यहां अब तक एक लाख चौंतीस हजार परिवार इस योजना के तहत कवर हो चुके हैं। 15 हजार गोल्डन कार्ड बनाए गए हैं, लेकिन इस योजना के तहत इलाज करीब सवा दो सौ लोगों का ही हुआ है। करीब 20 लाख की आबादी वाले शहर में तकरीबन सवा दो सौ लोगों का इलाज कराना योजना की विफलता ही है। डॉ. रमेश ने यह भी बताया कि फरीदाबाद में इस योजना के लिए पैनल में पांच सरकारी और 14 निजी अस्पताल हैं।
हरियाणा के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री राव नरेंद्र सिंह का कहना है कि उनके पास बीपीएल परिवारों के रोजाना एक या दो लोग आ रहे हैं, जो उनसे मदद मांगते हैं। कोई उनकी सुनने वाला नहीं है। उनका कहना है कि इस योजना के लिए हुए सर्वे का तरीका ही गलत है। गोहाना से विधायक जगबीर सिंह मलिक का कहना है कि आयुष्मान योजना भ्रष्टाचार का एक और पिटारा है। इस योजना का हाल भी मोदी सरकार की अन्य योजनाओं की तरह ही है। शोर ज्यादा है, लेकिन जमीन पर कुछ नहीं है।
जुलाना से विधायक परमिंदर ढुल ने एक उदाहरण के जरिये इस योजना की हकीकत बताई। ढुल ने बताया कि उनके पास एक शमशेर नाम का युवक मदद के लिए आया, जिसका ऑपरेशन दिल्ली के गंगाराम अस्पताल में होना था। हमने सरकार से उस व्यक्ति की मदद की गुजारिश की तो जवाब मिला कि वह बीपीएल के तहत नहीं आता। ढुल का कहना है कि हरियाणा की ग्रामीण आबादी को इस योजना की समझ नहीं है और न उनमें इस बारे में कोई जागरुकता लाने की कोशिश हो रही है।
रोहतक की रहने वाली ओमवती घरों में कामकर गुजारा करती हैं। दस साल पहले पति की मृत्यु हो चुकी है। दो बटियां हैं स्वीटी और रेखा। इनके नाम गरीबी रेखा से नीचे के लोगों की सूची में शामिल हैं और पीला कार्ड भी बना हुआ है। ये दो-तीन बार आयुष्मान भारत का कार्ड बनवाने गईं, लेकिन बताया गया कि लाभार्थियों की सूची में इनका नाम नहीं है। ऐसे तमाम वाकये हैं जब जरूरतमंद लोगों के कार्ड नहीं बनाए गए। ऐसे में योजना के मकसद पर ही सवाल खड़े होते हैं।
गोहाना में सरकारी अस्पताल के एक डॉक्टर ने बताया कि इस योजना के तकनीकी पहलू सामान्य आदमी की समझ से बाहर हैं, जिसकी वजह से लोग भटकते रहते हैं। उन्होंने बताया कि पैनल में सरकारी और निजी, दोनों तरह के अस्पताल हैं। उदाहरण के तौर पर उन्होंने बताया कि सामान्य बुखार का इलाज सरकारी अस्पताल में मिलेगा, जबकि अगर किसी को दिमागी बुखार है तो उसे निजी अस्पताल जाना पड़ेगा। ठीक इसी तरह किसी को अगर हार्ट अटैक हुआ है और उसे स्टंट डालना है, जिसका खर्च 60-70 हजार रुपये आता है तो इसका पहले ही अप्रूवल लेना पड़ता है। मरीज की एंजियोग्राफी निजी अस्पताल से करवाने पर खर्च 7-10 हजार रुपये आता है। अब मान लीजिये उस मरीज की रिपोर्ट सामान्य आ गई और स्टंट डालने की जरूरत नहीं पड़ी तो ऐसे में एंजियोग्राफी पर किया गया 7-10 हजार के खर्च का भुगतान आखिर कौन करेगा?
हिमाचल प्रदेश में आयुष्मान भारत का हालः इलाज नहीं हो पाने से लोग परेशान
आयुष्मान भारत के रथ पर सवार होकर 2019 के लोकसभा चुनाव में फतह का सपना पाले मोदी सरकार की इस योजना का राज्य में परिणाम उत्साहजनक नहीं है। अब तक महज 25 सौ लोगों का इस योजना के तहत इलाज होना हैरानी की बात है।
शिमला स्थित हिमाचल स्वास्थ्य निदेशालय के एक अधिकारी ने बताया कि प्रदेश में अभी तक 22 लाख परिवार इसके तहत कवर किए जा चुके हैं। 1.10 लाख गोल्डन कार्ड जारी हो चुके हैं। उस अधिकारी के मुताबिक 25 सौ लोग इस योजनाके तहत इलाज करवा चुके हैं, जो नाकाफी है। हिमाचल के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री ठाकुर कौल सिंह का कहना है कि सरकार के ये आंकड़े भी झूठे हैं। जमीनी हालात अलग हैं। उन्होंने कहा कि 5 लाख का कवर देने के नाम पर धोखा हुआ है। बीपीएल परिवार भटक रहे हैं। मदद की आस के साथ रोजाना लोग उनके पास आते हैं।
कौल सिंह कहते हैं कि उनकी सरकार के समय एक योजना शुरू की गई थी, जिसमें पौने दो लाख तक का इलाज मुफ्त होता था। वह योजना भी बीजेपी की सरकार ने बंद कर दी। पूर्व मंत्री और सोलन से विधायक धनीराम शांडिल का कहना है कि विभाग की तरफ से बताए आंकड़े से ही इनकी पोल खुल गई है। इतने जोर-शोर से शुरू की गई योजना के तहत अब तक महज 2500 लोगों का इलाज होना अपने आप में योजना की कलई खोल रहा है। उन्होंने कहा कि बीजेपी के सभी नेता झूठ बोलते हैं।
आयुष्मान भारत योजना में छेद ही छेद, इलाज और भुगतान की प्रक्रिया को लेकर भ्रम
मोदी सरकार ने जिस तरह बड़ी-बड़ी बातों के साथ आयुष्मान भारत योजना शुरू की, व्यवहार में वैसा नहीं रहा। सबसे बड़ी बाधा खर्च होने वाली मोटी धनराशि तो है ही, इसके साथ ही ज्यादातर राज्यों में हिचकिचाहट है। जाहिर है, योजना को लेकर काफी भ्रम है।
केंद्र सरकार ने इस योजना के लिए 2,000 करोड़ की व्यवस्था की है, लेकिन यह ऊंट के मुंह में जीरे की तरह है। अगर यह योजना ठीक तरह से चलती है तो दावा भुगतान के रूप में पहले साल ही इसपर तकरीबन 50 हजार करोड़ रुपये खर्च आएगा। गिनती के राज्यों को छोड़ ज्यादातर ने ‘ट्रस्ट’ या ‘हाइब्रिड’ मॉडल को चुना है। सामान्य बीमा मॉडल में प्रतिबीमित व्यक्ति पांच लाख तक के दावों को सेटल करने की जिम्मेदारी बीमा कंपनी पर होती है। जबकि ‘ट्रस्ट’ मॉडल में यह संबद्ध राज्य सरकार को और ‘हाइब्रिड’ मॉडल में दावे के एक हिस्से का भुगतान बीमा कंपनी को करना होता है और शेष की जिम्मेदारी राज्य सरकार की होती है।
इस योजना में केंद्र 60 फीसदी का बोझ उठाएगा और शेष 40 फीसदी का भार राज्य को उठाना होगा। राज्यों की माली हालत खस्ता है और तमाम योजनाओं के लिए वे केंद्र का मुंह ताकते हैं। इसी कारण ज्यादातर राज्यों ने हाइब्रिड मॉडल को चुना है। इसमें 50 हजार तक के दावों के भुगतान बीमा कंपनी करती है और शेष राज्य सरकार। राज्यों ने यह मानते हुए इसे चुना कि ज्यादातर दावे 50 हजार में निपट जाएंगे। लेकिन सबसे बड़े सवाल ये है कि अगर इस सीमा में ज्यादातर लोगों का इलाज नहीं हो सका तो क्या होगा?
अस्पताल में एक आयुष्मान मित्र की तैनाती की गई है, लेकिन सभी मरीजों की जरूरतों को पूरा करना एक अकेले आदमी के बस की बात नहीं। नगालैंड पहला राज्य है जिसने निविदाएं मंगाईं और यहां निजी क्षेत्र की अपोलो म्यूनिक को ठेका मिला। अपोलो प्रति परिवार 444 रुपये के प्रीमियम पर हर परिवार को पांच लाख तक का बीमा उपलब्ध करा रही है। ओरियंटल इंश्योरेंस कंपनी ने हाइब्रिड मॉडल के तहत गुजरात में 50 हजार तक के दावों का ठेका लिया है। प्रीमियम है 361 रु. प्रति परिवार। विशेषज्ञों का कहना है कि यह तो समय ही बताएगा कि कितने दावे आते हैं और इससे कंपनी कैसे निपटती है, क्योंकि ओरियंटल इंश्योरेंस की माली हालत पहले से ठीक नहीं चल रही है।
(कुमुद दास और हरियाणा से धीरेंद्र अवस्थी की रिपोर्ट)


हरयाणा में स्वास्थय सेवाओं की खस्ता हालत


अमर उजाला

हरियाणा के अस्पतालां का हाल देख ल्यो सरकार, 10 हजार पर एक डॉक्टर

हरियाणा में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाएं दयनीय हालत में हैं। अगर मुख्यमंत्री साहब इस रिपोर्ट को पढ़ लेंगे तो यकीं नहीं कर पाएंगे कि ऐसा है। प्रदेश में जहां एक मंत्री का दांत ठीक करने 12 सरकारी डाक्टरों की टीम जुट जाती है, वहां आम आदमी के लिए डाक्टरों की इतनी कमी है कि प्रसव के मामले भी ठीक से अटेंड न कर लौटा दिए जाते हैं और ऑटो में डिलीवरी हो जाती है। आंकड़ों की बात करें तो हरियाणा में प्रति दस हजार लोगों पर केवल एक सरकारी डाक्टर ही उपलब्ध है।
हालांकि प्राइवेट डाक्टरों के दम पर सरकार हर 1700 की आबादी पर एक डाक्टर होने का दावा करती है। फिर भी यह विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के मानक प्रति हजार एक डाक्टर के लक्ष्य से काफी कम है। जिलों में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की हालत कितनी बदतर है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जिलों में डाक्टरों के 50 से लेकर 135 तक पद खाली पड़े हैं।

2500 डाक्टर कार्यरत
हरियाणा सिविल मेडिकल सर्विस संगठन का दावा है कि प्रदेश में काफी पहले डॉक्टरों के 3250 पद स्वीकृत किए गए थे। अब आबादी ढाई करोड़ से ज्यादा है। लेकिन डाक्टरों के नए पद सृजित करना तो दूर, ये मंजूरशुदा पद भी पूरे नहीं भरे जा रहेे। फिलहाल 2500 के करीब डाक्टर ही कार्यरत हैं। इनमें मेडिकल अफसर और सीनियर मेडिकल अफसर भी शामिल हैं। इसके अलावा कई डाक्टर लंबे समय से एजुकेशन लीव पर हैं तो कुछ अन्य कारणों से अनुपस्थित रहते हैं। अमर उजाला की टीम के 79 सदस्यों ने पिछले दिनों 17 जिलों के सरकारी अस्पतालों का जायजा लिया तो पाया कि रोज औसतन 120 डाक्टर ओपीडी में समय पर नहीं पहुंचते या अनुपस्थित रहते हैं।

प्राइवेट प्रैक्टिस में मोटी कमाई

नए डाक्टर सरकारी सेवा में आने में बहुत कम रुचि दिखा रहे हैं। गुड़गांव फोर्टिस से जुड़े आद्या प्रकरण से यह साबित हुआ है कि प्राइवेट प्रैक्टिस में मोटी कमाई की जा सकती है। यही वजह है कि अनुभवी डाक्टरों में सरकारी सेवा में आने की इच्छा कम हो रही है।

हाल ही में फतेहाबाद में 29 डाक्टरों के ज्वाइन करने की सूची जारी हुई थी, लेकिन अभी तक सिर्फ 10 ने ही ज्वाइन किया है। फिर बड़े प्राइवेट अस्पतालों की तुलना में सरकारी वेतन भी कम मिलता है। एक मेडिकल अफसर (एमओ) को नई ज्वाइनिंग पर मासिक 70 से 80 हजार रुपये ही मिलते हैं। वहीं बड़े प्राइवेट अस्पताल में डेढ़ से दो लाख मासिक के पैकेज के साथ शुरुआत होती है।
 
सेवा शर्तें लगती हैं कठिन
सरकारी सेवा में नई ज्वाइनिंग के साथ ही ग्रामीण क्षेत्रों में कार्य करने की अनिवार्यता है। प्रमोशन पॉलिसी भी सही नहीं है। इन्हीं डाक्टरों की सरकारी योजनाओं को देखने की भी ड्यूटी लगती है। उन्हें कई तरह के क्लेरिकल काम करने पड़ते हैं। इसके अलावा वीवीआईपी ड्यूटी, पोस्टमार्टम ड्यूटी और आपातकालीन विभाग को चलाने की भी जिम्मेदारी रहती है। कई जिलों में तो जेल में बंद कैदियों के उपचार का जिम्मा भी स्वास्थ्य विभाग के पास ही होता है।

एक उदाहरण से समझें - बहुत कुछ समझ आएगा

पानीपत में नौ डाक्टर ऐसे हैं, जो वर्षों से गैर हाजिर चल रहे हैं। कोई एजुकेशन लीव पर है, किसी ने अपना अस्पताल बना लिया है तो कोई विदेश या दूसरे संस्थानों में जाकर नौकरी कर रहा है। मगर उनका रिकॉर्ड भी स्वास्थ्य विभाग में दर्ज हो रहा है।

एमएस डॉक्टर आलोक जैन के अनुसार डॉ. रमेेंदर सिंह जुलाई 2004, डॉ. जतेंद्र कौर जून 2006, डॉ. तरुण नारंग जुलाई 2013, डॉ. सुमित सिंघल अक्टूूबर 2013, डॉ. नीति प्रवेश मई 2014, डॉ. विशाल राजन शर्मा जनवरी 2015, डॉ. दिव्या सारासवर जनवरी 2015 और डॉ. सुनैना पिछले एक साल से लगातार गैर हाजिर चल रही हैं। एमएस की ओर से विभाग को इनके संबंध में सूचना दी जाती है। कार्रवाई का अधिकार एमएस के पास नहीं है। कार्रवाई डायरेक्टर हेल्थ को ही करनी होती है।

जब हरियाणा बना तो उस समय की आबादी को देखते हुए डॉक्टरों के 3250 पद स्वीकृत किए गए थे। यह संख्या आज भी पूरी नहीं हो पाई है। जबकि पंजाब में छह हजार के करीब डॉक्टर काम कर रहे हैं और हरियाणा में 2500 से 2600 डॉक्टर ही हैं। नए डॉक्टर एचसीएमएस को ज्वाइन ही नहीं करना चाहते। क्योंकि यहां पीजी सीट के लिए आरक्षित कोटा भी अब नहीं है।
- डॉ. जसबीर परमार, राज्य प्रधान, हरियाणा सिविल मेडिकल सर्विस, स्वास्थ्य विभाग