Monday, 13 October 2025

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गुमनाम वीरांगनाएँ

आदिवासी नंगेलीः जो 'स्तन कर' के खिलाफ लड़ी

(हमारे इतिहास में बहुत सी गुमनाम महिलाएं हैं जिन्होंने अपने समय और सदी में अपने तरीके से इतिहास बदला।
लेकिन नंगेली की कहानी सबसे अलग जान पड़ती है। ये वो साहसिक आदिवासी महिला थी जिस ने केरल की निचली जनजाति की महिलाओं को स्तन ना ढाकने देने के क्रूर नियम को हटवाने के लिए सत्ता में बैठे लोगों के खिलाफ आवाज उठाई और अपनी जान की कुर्बानी दी।)

यह करीब 150 साल से भी पुरानी घटना है। उस समय केरल के बड़े भाग में त्रावण कोर के राजा का शासन था। यह वो दौर था जब जातिवाद समाज पर बुरी तरह हावी था। निचली जातियां शोषित थीं और उच्च जाति वाले खुद को उनका मालिक समझते थे। छुआ-छूत, सामाजिक बहिष्कार जैसी चीजें आम थी। इसी जातिगत भेदभाव के तहत निचली जाति की महिलाओं को स्तन ढकने का अधिकार नहीं था। यानि उस क्षेत्र में उच्च वर्ग की महिलाएं ही स्तन ढक सकती थीं, निचली जाति की महिलाओं को सार्वजनिक स्थलों पर भी स्तन ढके बिना ही काम करना होता था। यह नियम कई तरह के आदिवासी समूहों और जनजातियों के लिए बनाया गया था। अगर निचली जाति की महिलाए अपना स्तन ढकने की इच्छा रखती थीं तो उन्हें राजा को टैक्स के रूप मे कुछ रुपये देने पड़ते थे, जिसे 'स्तन कर' या 'मुल्लकरम' कहा जाता था। यह कर क्षेत्रीय आर्थिक विकास के मामले देखने वाले अधिकारी के पास जमा करवाना जरूरी था। यह कर न दे पाने की स्थिति मे इन महिलाओं को स्तन ढाकने की इजाजत नहीं थी। हम जिस दौर की बात कर रहे हैं, उसमें निचला वर्ग बहुत गरीब था इसलिए इस वर्ग की महिलाओं ने इज्जत को दाव पर रखकर स्तन ढके बिना ही जीना स्वीकार किया।




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बहिना बाईः भारत की पहली आत्मकथा लेखिका


(प्रायः विद्वानों ने भारतीय आत्मकथाओं के विकास का क्रम सन 1900 के बाद निर्धारित किया है। किन्तु गांधी युग से कई साल पहले 1700 में मूल मराठी भाषा में लिखी गयी बहिना बाई की आत्मकथा को भारतीय भाषाओं की पहली आत्मकथा माना जा सकता है। उस समय जबकि भारतीय स्त्री में खुद के बारे में सोचने की चेतना नहीं के बराबर थी. बहिना बाई ने शब्दो के माध्यम से अपनी बातों को अनजाने ही लोगों तक पहुंचाने का प्रयात्त किया। उन्होंने अपनी गृहस्थी की घुटन और अपनी लगन द्वारा ज्ञान प्राप्ति की छटपटाहट को सीधे-सीधे सरल शब्दों में बाधा। मूल मराठी भाषा में लिखी गयी यह आत्मकथा सन् 1914 तक पाण्डुलिपि के रूप में ही रही। सन 1914 में इसे प्रकाशित किया। आत्मकथा हाथों-हाथ विक गयी। सन् 1926 में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। मराठी जगने वाले अंग्रेज पादरी जस्टीन अबोट ने आत्मकथा का अंग्रेजी में अनुवाद किया और 1929 में ॐ यह रचना प्रकाशित हुई। अंग्रेजी संस्करण के प्रथम 1 पृष्ठों में बहिनाबाई की आत्मकया है पुस्तक के उत्तरार्दध में उनके द्वारा रचित अभंगों का अंग्रेजी अनुवाद है तथा अतिम भाग में बहिना बाई द्वारा मूल मराठी में लिखी गई आत्मकथा दी गई है।)
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गुमनाम वीरांगनाएँ

पार्वती बाई अठावलेः जो विधवाओं के हक के लिए लड़ी

(हमारे भारतीय समाज में ऐसी अनेक महिलाए हुई हैं जिन्होंने अपने जीवन की अधेरी राहों को तो रोशन किया ही, पूरे समाज की महिलाओं को भी प्रकाश का रास्ता दिखाया। ऐसी ही गुमनाम वीरागनाओं में पार्वतीबाई अठावले का नाम अगली कतार में आता है. जिन्होंने मराठी भाषा में अपनी आत्मकथा लिखी जिसका अंग्रेजी अनुवाद 1923 में 'द ऑटोबायोग्राफी ऑफ एन इण्डियन विडो' शीर्षक से प्रकाशित हुआ तथा 1986 में 'हिन्दू विडो-एन ऑटोबायोग्राफी शीर्षक से पुनः प्रकाशित हुआ। इस हृदय विदारक आत्मकथा का अनुवाद मराठी का ज्ञान रखने वाले एक अंग्रेज पादरी 'जस्टीन अबोट ने किया।)

      पार्वती बाई का जन्म सन् 1870 में कोंकण के रत्नागिरि जिले के देवरुख गाँव में हुआ। 14 वर्ष की अल्पआयु में उनका विवाह गोवा में सरकारी नौकरी करने वाले अठावले से हुआ। 20 वर्ष की उम्र में ही उनके पति की मृत्यु हो गई। उस समय वे एक वर्ष के शिशु की माँ बन चुकी थी। अठावले के निधन से उन पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा क्योंकि वे अपने पीछे पार्वती की जीविका के लिए कोई आधार नहीं छोड गये थे। उन्हें मजबूरन अपने मायके लौटना पड़ा, वह मायका, जहाँ उनकी दो बड़ी बहनें पहले से ही वैधव्य का दुःखद जीवन जी रही थीं। परम्परागत हिन्दू विधवाओं का अभिशप्त जीवन जीते हुए भी वे अपने एकाकीपन और दुःख को मन की गहराइयों में छिपाकर बनावटी मुस्कान ओढ़े रहती थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है 'माता-पिता की उपस्थिति में मैं हमेशा खुद को खुश दिखाने की कोशिश करती।' पार्वती बाई के बड़े भाई, नरहर पत, सुधारवादी विचारों के समर्थक थे। उन्होंने अपनी एक बाल विधवा बहन, बाया को, मुंबई पढ़ने भेजा था। नरहर पत के घनिष्ठ मित्र थे आचार्य 'कर्वे' जिनसे बाया के पुनर्विवाह के लिए किसी विधुर वर की तलाश के लिए पत ने आग्रह किया। कर्वे स्वय इस कार्य के लिए तैयार हो गये। विवाह के बाद इस दंपत्ति ने पार्वती बाई को पूना में रखकर पढ़ाने का विचार किया। पार्वती बाई की सास को इस पर सख्त ऐतराज था क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि उनकी बहू पर भी सुधारवाद की छाया पड़े।


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फातिमा शेखः प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका

(फातिमा शेख एक भारतीय शिक्षिका थी, जिन्होंने 19 वीं शताब्दी मे समाज सुधारक ज्योतिबा फुले और सवित्रीबाई फुले के साथ शिक्षा के काम को आगे बढ़ाया। फातिमा शेख मियां उस्मान शेख की बहन थी, जिनके घर में ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले ने उस समय शरण ली थी. जब फुले के पिता ने दलितों और महिलाओं के उत्थान के लिए किए जा रहे उनके कामों की वजह से उन्हें घर से निकाल दिया था। उस्मान शेख ने फुले दम्पत्ती को अपने घर में रहने की पेशकश की और परिसर में एक स्कूल चलाने पर भी सहमति व्यक्त की। फातिमा ने हर संभव तरीके से ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ साथ, अन्य कई तरीकों से समाज सुधार आदोलन में साथ दिया।)

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