Saturday 20 July 2019

नवउदारवाद के पच्चीस साल

नवउदारवाद के पच्चीस साल --अमीर मालामाल, पब्लिक बेहाल
नवउदारवादी दृष्टि -- बड़े पैमाने पर जनता रहे स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित
अमित सेनगुप्त
अब से पच्चीस साल पहले जब भारत में कोई बच्चा पैदा होता था, उसके बचे रहने की संभावनाएं पड़ौसी नेपाल तथा बांग्लादेश के मुकाबले में काफी ज्यादा हुआ करती थीं। पच्चीस साल बाद, 1991 से भारत में शुरू  हुए नवउदारवाद पर अमल तथा नवउदारवादी सुधारों के बाद, नेपाल और बांग्लादेश, दोनों में ही शिशु मृत्यु दर भारत से कम है यानी इन देशों में पैदा होने वाले बच्चे के बचे रहने की संभावनाएं, भारत में पैदा होने वाले बच्चे के मुकाबले ठीक-ठाक ज्यादा हैं। यह सूत्र रूप में इसका बयान कर देता है कि भारत में नवउदारवादी सुधारों ने क्या किया है और जनता के स्वास्थ्य पर उसका क्या असर पड़ा है। यह तब है जबकि भारत को नवउदारवादी सुधारों के प्रचार-उदाहरण के तौर पर पेश किया जाता है और आर्थिक वृद्घि दर के आंकड़ों के यह दर्शाने का दावा किया जाता है कि भारत सारी दुनिया की सबसे तेजी से तरक्की कर रही अर्थव्यवस्था बन गया है। वृद्धि  दर के दावे अपनी जगह, भारत की जनता के जीवन पर इसका शायद ही कोई असर पड़ा है और आज महत्वपूर्ण मानव विकास सूचकांकों के मामले में भारत, पड़ौसी नेपाल तथा बांग्लादेश जैसे अनेक सबसे कम विकसित देशों से भी पीछे चला गया है।
विश्व बैंक के नुस्खों पर टिके सुधार
          इन पच्चीस वर्षों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत में जो भी सुधार हुए हैं, विश्व बैंक जैसी एजेसिंयों द्वारा सुझाए गए कदमों के अनुसार ही हुए हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए इन एजेंसियों द्वारा पेश किए गए नुस्खों में निम्रलिखित कदम शामिल रहे हैं: सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्चों की हदबंदी करना; सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थाओं में लागत उगाही (उपयोक्ता शुल्क) करना; स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली को अलग-अलग खानों में बांटना (गरीबों के लिए 'बेसिक- स्वास्थ्य सेवा और अमीरों के लिए निजी स्वास्थ्य सेवा); और, निजी क्षेत्र के लिए विभिन्न कामों की आउटसोर्सिंग करना। जैसाकि हम आगे देखेंगे, भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र में 1991 से किए गए सुधार, बड़ी मुस्तैदी से इन नुस्खों का अनुसरण करते थे।
          यह दर्ज करने वाली बात है कि भारत में स्वास्थ्य के क्षेत्र की उपेक्षा की शुरूआत कोई 1991 से नहीं हुई थी। भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था ऐतिहासिक रूप से कम फंड दिए जाने तथा आम तौर पर उपेक्षा की शिकार रही है। इस सिलसिले की शुरूआत 1950 के दशक में ही हो गयी थी। 1980 के  दशक के मध्य की एक छोटी सी अवधि को छोड़कर, जब सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्चे में बढ़ोतरी हुई थी (भले ही यह बढ़ोतरी थोड़ी ही थी), यह खर्चा बराबर सकल घरेलू उत्पाद के 1 फीसद के स्तर पर या उससे भी कम ही बना रहा है। इस सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को, जो पहले ही फंड की भारी कमी की मारी हुई थी, 1991 में नवउदारवादी सुधारों की शुरूआत के साथ बहुत भारी कटौतियों की मार झेलनी पड़ी। मिसाल के तौर पर 1992-93 के केंद्रीय बजट में स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए आवंटन में करीब 40 फीसद की कटौती कर दी गयी। इतना ही नहीं राज्यों के बजटों पर भी 'राजकोषीय अनुशासन" का मंत्र थोप दिया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि 1990 के दशक के आखिर तक आते-आते देश के विभिन्न राज्यों की सरकारों को इस क्षेत्र में कमखर्ची के कदम थोपने पड़े। इसने केद्रीय बजट में हो रही कटौतियों के असर को और कई गुना कर दिया क्योंकि स्वास्थ्य रक्षा पर होने वाले कुल सार्वजनिक खर्च का 70 फीसद से ज्यादा हिस्सा राज्य सरकारों से ही आ रहा था।
निजी स्वास्थ्य सुविधाएं : पैसा ज्यादा उपचार कम
          इस तरह, पहले ही बीमार सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को घुटनों पर ही गिरा दिया गया और निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के लिए इस क्षेत्र में और ज्यादा घुसपैठ करने के लिए रास्ता तैयार कर दिया गया। भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्चे के बहुत ही निचले स्तर पर रहने का नतीजा यह हुआ है कि इससे परिवारों पर बहुत भारी बोझ आ पड़ा है। 2004-05 तक आते-आते स्वास्थ्य पर प्रतिव्यक्ति सार्वजनिक खर्च 242 रु0 ही रह गया, जबकि निजी खर्चा इसका करीब चार गुना हो गया यानी प्रतिव्यक्ति 959 रु0। (ये आंकड़े राष्ट्रीय  स्वास्थ्य एकांउट्स से उपलब्ध, पृथक्कृत आंकड़ों पर आधारित हैं।) इसके नतीजे में खुद सरकार द्वारा परिभाषित गरीबी की रेखा के नीचे धकेल दिए गए लोगों की संख्या बहुत बढ़ गयी क्योंकि स्वास्थ्य के लिए अपनी जेब से (ओओपी) किए जा रहे खर्चे में भारी बढ़ोतरी हो रही थी। स्वास्थ्य पर जेब से खर्च के चलते गरीबी की रेखा के नीचे धकेले गए लोगों की संख्या जहां 1993-94 में करीब 2 करोड़ 60 लाख थी, 2004-05 तक यह संख्या बढ़कर 3 करोड़ 90 लाख हो गयी और 2012-13 तक आते-आते 7 से 9 करोड़ के बीच। इसमें भी ग्रामीण परिवारों को अपनी पारिवारिक आय का, शहरी परिवारों के मुकाबले कहीं ज्यादा बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य रक्षा पर खर्च करना पड़ रहा था क्योंकि गांव के लोगों को स्वास्थ्य सुविधाओं तक और भी कम पहुंच हासिल थी।
          साक्ष्य यह भी दिखाते हैं कि मरीजों की बड़ी संख्या के उपचार ही नहीं कराने के पीछे मुख्य कारण, स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच न होना और स्वास्थ्य रक्षा पर खर्च करने के लिए पैसा नहीं होना ही है। 2004-05 में ग्रामीण इलाकों में 12 फीसद से ज्यादा लोगों ने बताया कि उन्होंने स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच ही नहीं होने के चलते उपचार नहीं कराया था, जबकि 25 फीसद ने उपचार न कराने के लिए आर्थिक तंगी को कारण बताया। याद रहे कि 1986-87 में पैसे की तंगी के कारण इलाज न कराने वालों का अनुपात 15 फीसद ही था।
          आज, बाहर रहकर उपचार कराने वालों में से करीब 20 फीसद और अस्पताल में भर्ती होकर इलाज कराने वालों में 40 फीसद से कम का इलाज, सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में होता है। शेष मरीज निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के रहमो-करम पर है, जिनका उपचार अक्सर महंगा होता है और ऊटपटांग। यूपीए सरकार के राज में एक बहुत ही कमजोर क्लीनिकल एस्टब्लिशमेंट्स एक्ट पारित किया गया था, कि वह तमाम स्वास्थ्य रक्षा सुविधाओं के नियम की जिम्मेदारी संभालेगा। लेकिन, ज्यादातर राज्यों में तो अब तक इस इस ढीले-ढाले कानून के बहुत ही सीमित प्रावधानों को भी अधिसूचित ही नहीं किया गया है।
          आज भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था दुनिया की सबसे ज्यादा निजीकृत स्वास्थ्य व्यवस्थाओं में से है और स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्चे दुनियाभर में सबसे निचले स्तर पर हैं। भारत में स्वास्थ्य पर होने वाले कुल खर्च में से सिर्फ 36 फीसद सार्वजनिक खर्चा होता है। विश्व बैंक के डॅाटा बेस के अनुसार, इस मामले में भारत दुनिया के 190 देशों में सबसे नीचे से 16वें नंबर पर है। सिएरा लोन, अफगानिस्ता, हैती और गिनी जैसे देश उसके आस-पास हैं। सकल घरेलू उत्पाद के हिस्से के तौर पर स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्चे के पहलू से तो भारत का रिकार्ड और भी खराब है। स्वास्थ्य रक्षा पर अपने सकल घरेलू उत्पाद का सिर्फ 1.3 फीसद खर्च करने के चलते भारत दुनिया के तमाम देशों में नीचे से 12वें स्थान पर है, जहां उसके आस-पास हैं म्यांमार, हैती, दक्षिणी सूडान, तिमूर-लेस्टे तथा पाकिस्तान जैसे देश।
दवाएं सब के लिए या
दवाएं मुनाफे के लिए
          यह विडंबनापूर्ण है कि हालांकि भारत दुनिया का दवाओं का तीसरा सबसे बड़ा विनिर्माता है और दवाओं के अपने उत्पादन के करीब आधे का निर्यात कर रहा है, स्वास्थ्य पर औसत परिवार द्वारा अपनी जेब से किए जाने वाले खर्चे में सबसे बड़ा हिस्सा दवाओं के खर्च का ही होता है। भारत में ही दुनिया भर में ऐसे सबसे ज्यादा लोग रहते हैं (यह हिस्सा आबादी के 50 से 70 फीसद तक होने का अनुमान है), जो जरूरत पडऩे पर पूरी जरूरी दवाएं भी हासिल नहीं कर सकते हैं। इसके बावजूद, हमारे देश में दवाओं के कुल उपभोग में दवाओं की सार्वजनिक खरीद तथा वितरण से आने वाला हिस्सा बहुत थोड़ा है, कुल का करीब 10 फीसद।
          यूपीए सरकार ने अपने पहले कार्यकाल के दौरान राज्यों में दवाओं की इक_ïी खरीद की व्यवस्थाओं के लिए, केंद्रीय फंड में से सहायता की व्यवस्था करने पर चर्चा शुरू की थी। वास्तव में एक तमिलनाडु ही है जहां दवाओं की सार्वजनिक खरीद की व्यवस्था वाकई काम कर रही है। दवाओं की इक_ïी खरीद पर आधारित यह व्यवस्था वहां 1990 के दशक से चल रही है। इस तरह, सार्वजनिक क्षेत्र में दवाओं की कीमतों पर अंकुश लगाने और आवश्यक दवाओं के स्टॉक में अनुपलब्ध होने के प्रकरणों को खत्म करने कम से कम तमिलनाडु का अनुभव मौजूद था। इस राज्य में इस व्यवस्था के जरिए करीब-करीब 400 दवाओं तथा चिकित्सकीय उपकरणों का वितरण किया जाता है। बहहरहाल, केंद्रीय सहायता के जरिए इस मामले में तमिलनाडु के अनुभव को और आगे बढ़ाने का विचार अजन्मा ही खत्म हो गया। इसके बजाए यूपीए सरकार ने ऐसी योजनाएं अपनाने का जिम्मा राज्यों पर ही डाल दिया। वर्तमान एनडीए सरकार ने भी इस मामले से हाथ ही खींचे रखने की नीति अपनायी है। फिर भी अनेक राज्यों ने 'मुफ्त दवा योजनाÓ के नाम से ऐसी ही योजनाओं का अपनाना शुरू कर दिया है, जिनके तहत एक विशेष सूची में आने वाली आवश्यक दवाएं, सभी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में मुफ्त मुहैया करायी जा रही हैं।
          वास्तव में कांग्रेस की पिछली सरकार के राज में राजस्थान में, विभिन्न राज्यों में चल रही 'मुफ्त दवा योजनाओं ' में से सबसे सबसे मुकम्मल तथा सबसे कारगर, दवा वितरण योजना की शुरूआत की गयी थी। लेकिन, यह दिलचस्प तथ्य है कि जब उसकी जगह पर भाजपा की सरकार सत्ता में आयी, इस योजना को ठप्प करने की कोशिशें भी की गयीं। लेकिन, जनसमर्थन ने राजस्थान में इस मुफ्त दवा वितरण योजना को कायम रखा है।
दवाओं के मूल्य पर नियंत्रण
          बहरहाल, अगर ऐसी मुफ्त दवा योजनाओं को पर्याप्त रूप से भी राज्यों में लागू किया जा रहा हो (जाहिर है कि कम से कम अब तक दूर-दूर तक ऐसा होने के आसार नहीं हैं) तब भी ''मुफ्त दवा" योजनाओं की एक बड़ी सीमा यह रहेगी कि दवाओं का प्रचंड रूप से बड़ा हिस्सा तो फिर भी सीधे मरीजों द्वारा ही खरीदा जा रहा होगा। अगर हमारे देश में रोगियों का बड़ा हिस्सा दवाओं से वंचित रह जाता है, तो ऐसा दवाओं के उपलब्ध न होने के चलते उतना नहीं होता है, जितना कि दवाओं के दाम बहुत ज्यादा होने के चलते। इसीलिए, दवाओं के मूल्य के नियंत्रण का मुद्दा भारत में एक बड़ा मुद्दा है।
          पहला चौतरफा दवा मूल्य नियंत्रण आदेश (डीपीसीओ) तो 1978 में ही जारी किया गया था, जिसके जरिए 343 दवाओं के दाम की अधिकतम सीमा तय कर दी गयी था। उसके बाद से, 1987 तथा 1994 में जारी दवा मूल्य नियंत्रण आदेशों ने, पहले वाले आदेश के प्रावधानों को कमजोर ही करने का काम किया। 1994 के डीपीसीओ में मूल्य नियंत्रण के दायरे में आने वाली दवाओं की संख्या घटाकर 74 कर दी। बाद में एक जनहित याचिका के जरिए, डीपीसीओ के प्रावधानों के लगातार कमजोर किए जाने को अदालत में चुनौती दी गयी और इस याचिका पर अपने निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने तत्कालीन यूपीए सरकार को निर्देश दिया था कि सभी आवश्यक दवाओं (संख्या लगभग 350) के लिए अधिकतम दाम तय करे।
          लेकिन, तत्कालीन यूपीए सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का जैसे मखौल ही बनाते हुए, दवाओं के अधिकतम दाम तय करने के तरीके को ही पूरी तरह से बदल डाला। जहां पहले दवाओं के विनिर्माण की वास्तविक लागत को आधार बनाकर अधितकतम मूल्य तय किया जाता था, यूपीए सरकार ने 2012 में एक नया डीपीसीओ जारी किया, जिसमें सभी आवश्यक दवाओं को मूल्य नियंत्रण के दायरे में लाने की खाना-पूरी तो कर दी गयी, लेकिन अधिकतम मूल्य दवाओं के तत्कालीन बाजार भाव के हिसाब से तय करने की व्यवस्था शुरू कर दी। चूंकि दवाओं के मौजूदा बाजार भाव, दवा कंपनियों ने पहले ही बढ़ा दिए थे, 2012 के डीपीसीओ के लागू होने से दवाओं के दाम में कुल मिलाकर मुश्किल से 10 फीसद की कमी ही हो सकी। अगर दवाओं का अधिकतम मूल्य, उनकी वास्तविक उत्पादन लागत के आधार पर तय करने का पहले वाला फार्मूला ही लागू होता, तो इस डीपीसीओ से दवाओं के दाम में 30 से 40 फीसद की या उससे भी ज्यादा कमी हुई होती। विचित्र बात यह है कि अब वर्तमान एनडीए सरकार इस नये डीपीसीओ को लागू कराने का श्रेय लेना चाहती है और इस सचाई की ओर से पूरी तरह से आंखें ही बंद किए रखना चाहती है कि 2012 का डीपीसीओ वास्तव में एक धोखा था, जो यूपीए की पिछली सरकार ने दवा कंपनियों को बचाने के लिए किया था।
उदारीकरण के दौर में
          1995 में विश्व व्यापार संगठन समझौते पर दस्तखत करने के बाद, भारत को 1970 के पेटेंट कानून के अतर्गत लंबे अर्से से हासिल संरक्षण को 2005 में त्यागना पड़ा। इसका नतीजा यह हुआ कि इससे पहले तक जो हो रहा था उसके विपरीत, अब जेनरिक दवा कंपनियां के लिए नयी दवाओं के सस्ते जेनरिक रूप निर्मित करने के रास्ते बंद हो गए और बहुराष्ट्रीय  कंपनियों ने कई नई दवाएं ऐसे ऊंचे दामों पर बेचनी शुरू कर दीं, जिन दामों पर भारतीय मरीज इन दवाओं को खरीद ही नहीं सकते थे। उसके बाद से एक के बाद एक आयी सरकारें, देश के पेटेंट कानून में मौजूद अनिवार्य लाइसेंसिंग के प्रावधान का सहारा लेकर, जो सरकार को इसकी इजाजत देता है कि स्थानीय कपंनियों का पेटेंटशुदा दवाओं के निर्माण तथा बिक्री का लाइसेंस मुहैया कराए, इन नयी दवाओं को कहीं सस्ते दाम पर उपलब्ध कराने से इंकार करती आयी हैं। याद रहे कि सारी दुनिया का अनुभव यही दिखाता है कि अनिवार्य लाइसेंसिंग के प्रावधान के प्रयोग के जरिए, पेटेंटशुदा दवाओं के दाम में 90 से 95 फीसद तक की कमी की जा सकती है।
          2000 के दशक के मध्य से इस देश में स्वास्थ्य रक्षा सेवाएं मुहैया कराने के मामले में दो महत्वपूर्ण पहलें सामने आयी हैं। इनमें पहली तो 2005 में राष्टï्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) की शुरूआत ही है। यह नवउदारवादी सुधारों के लागू किए जाने के बाद से सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के करीब-करीब पूरी तरह से ही बैठ जाने की स्थिति से निपटने की आंशिक कोशिश थी। बेशक, एनएचआरएम की सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करने तथा उन्नत बनाने की महत्वाकांक्षा अपने आप में प्रशंसनीय ही मानी जाएगी। एनआरएचएम (या अब उसके नये रूप राष्ट्रीय  स्वास्थ्य मिशन) के चलते, बेशक सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में कुछ सुधार आया है। लेकिन, इसकी वृहत्तर महत्वाकांक्षाएं शायद ही पूरी हो सकी हों क्योंकि इस योजना को लगातार फंड की कमी झेलना पड़ी है। राष्ट्रीय  स्वास्थ्य मिशन के लिए फंड के इस अभाव को, राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में की गयी इस टिप्पणी की रौशनी में देखा जाना चाहिए कि, '(राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के लिए) हासिल हुआ बजट और उसके तहत हुआ खर्चा, एनआरएचएम के खाके में पूरी तरह से नयी जान डालने के लिए जितने की कल्पना की गयी थी, उसका 40 फीसद ही था।
स्वास्थ्य बीमा को कारोबार को बढ़ावा देने का खेल
          दूसरी महत्वपूर्ण पहल, सार्वजनिक धन से संचालित बीमा योजनाओं की थी। इसकी शुरूआत 2007 से हुई, राज्य  और केंद्र, दोनों के ही स्तरों पर। राज्यों के स्तर पर ऐसी पहली योजना, आरोग्यश्री के नाम से आंध्र प्रदेश में शुरू की गयी और केंद्रीय स्तर पर राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना की शुरूआत की गयी, जिसे अब राष्टï्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना में तब्दील कर दिया गया है। ये योजनाएं, स्वास्थ्य रक्षा के लिए वित्त जुटाने और स्वास्थ्य रक्षा सेवाएं मुहैया कराने को स्पष्ट रूप से अलग करती हैं। ये योजनाएं, लाभार्थियों को आधिकारिक रूप से मान्यताप्राप्त स्वास्थ्य रक्षा सुविधाओं से स्वास्थ्य सेवा हालिस करने की इजाजत देती हैं। इनमें निजी और सरकारी, दोनों ही तरह की स्वास्थ्य सुविधाएं हो सकती हैं। लेकिन, व्यवहार में इस तरह मान्यता हासिल करने वाली स्वास्थ्य सेवा संस्थाओं में प्रचंड बहुमत निजी क्षेत्र की संस्थाओं का ही रहता है। वास्तव में ये स्वास्थ्य बीमा योजनाएं (जिन्हें दुनिया भर में स्वास्थ्य के क्षेत्र में नवउदारवादी सुधारों की निशानी ही कहा जा सकता है) सार्वजनिक वित्त के सहारे, निजी स्वास्थ्य सेवाओं को और ताकत देने का ही काम करती हैं। पुन: ये योजनाएं सिर्फ अस्पताल में भर्ती होने पर स्वास्थ्य सेवा की भरपाई करती हैं, जबकि स्वास्थ्य पर निजी खर्च का ज्यादा बड़ा हिस्सा तो अस्पताल में भर्ती हुए बिना उपचार कराने वालों से ही आता है। लेकिन, समस्या सिर्फ इन स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के स्वास्थ्य संबंधी सभी जरूरतें पूरी न करने की ही नहीं है। समस्या यह भी है कि बेईमान स्वास्थ्य सेवा प्रदाता अनुुचित मुनाफे बटोरने के लिहहह इस व्यवस्था का गलत तरीके से दोहन करते हैं। इन योजनाओं को, जो बहुत हद तक निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं के साथ साझेदारी में ही चलायी जा रही हैं, अनेक राज्यों में समूचे स्वास्थ्य व्यवस्था को ही सैकड़ों करोड़ रु0 का चूना लगाते पाया गया है। इसके लिए अंधाधुंध तथा बिना जरूरत के ही आपरेशन किए गए हैं, मिसाल के तौर पर कुछ इलाकों असामान्य रूप से बड़ी संख्या में बिना किसी जरूरत के ही, गर्भाशय निकालने के ऑपरेशन कर दिए गए हैं। इन योजनाओं से बेहतर स्वास्थ्य परिणाम हासिल करने में कोई मदद नहीं मिली है।
भाजपा की दृष्टि के अनुरूप नवउदारवादी सुधारों में तेजी
        मौजूदा भाजपा सरकार के सत्ता में आने के कुछ ही महीनों में, 2014 के आखिर तक ही नये शासन के इरादों को साफ करते हुए, स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए पहले ही आवंटन का जो वादा किया जा चुका था उसमें से, 20 फीसद की कटौती की जा चुकी थी। 2016-17 के बजट ने साफ कर दिया कि  यह सरकार उत्तरोत्तर सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए संसाधन कम करने जा रही है और स्वास्थ्य रक्षा का काम मुनाफे संचालित निजी क्षेत्र के ही हाथों में आउट-सोर्स करने जा रही है। कुल मिलाकर स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय के लिए आवंटन में, 2015-16 के संशोधित अनुमान के  32,819 करोड़ रु0 के मुकाबले रु0 में मामूली बढ़ोतरी हुई और यह आवंटन 37,061 करोड़ रु0 हो गया। मुद्रास्फीति को हिसाब मेें लिया जाए तो यह प्रतिव्यक्ति आवंटन में सिर्फ 5 फीसद की बढ़ोतरी दिखाता है।
          हाल ही जारी की गयी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में बहुत कम करने के बावजूद, यह आकांक्षा जतायी गयी है कि स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 फीसद खर्च किया जाना चाहिए। इसके लिए वर्तमान खर्चे को दोगुना करना होगा। मोटा-मोटा हिसाब लगाएं तब भी हर साल प्रतिव्यक्ति आवंटन में 25-30 फीसद की बढ़ोतरी जितना आवंटन करने के जरिए ही, स्वास्थ्य रक्षा संबंधी खर्चा अगले पांच साल में सकल घरेलू उत्पाद के 2.5 फीसद के लक्ष्य तक पहुंच सकता है। विशेष रूप से चिंतित करने वाली बात यह है कि राष्ट्रीय स्वास्थ मिशन के लिए फंड की तंगी का रुझान अब भी बना हुआ है। राष्टï्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए आवंटन में बहुत ही मामूली बढ़ोतरी हुई है और यह 2015-16 के 19,135 करोड़ 37 लाख रु0 से बढ़कर, 2016-17 में 19,437 करोड़ रु0 तक ही पहुंच पाया है। मुद्रास्फीति और वास्तविक आबादी में बढ़ोतरी को हिसाब में लिया जाए तो यह, राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए प्रतिव्यक्ति आवंटन में 6-7 फीसद की कमी का ही मामला बैठेगा।
          एक ओर तो राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के जरिए, सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए उपलब्ध फंड को कम करने का स्पष्टï और सोचा-समझा खेल चल रहा था और दूसरी ओर वित्त मंत्री के उसी बजट भाषण की सुर्खियों में यह एलान किया जा रहा था कि सार्वजनिक धन से संचालित स्वास्थ्य बीमा योजना का विस्तार किया जाएगा। बीमा आधारित स्वास्थ्य रक्षा व्यवस्था को बढ़ावा देने के आग्रह से भाजपा सरकार के ग्रस्त होने को, इस बात के बढ़ते साक्ष्यों की रौशनी में देखा जाना चाहिए कि मौजूदा राष्ट्रीय तथा राज्यस्तरीय स्वास्थ्य बीमा योजनाएं, गरीबों पर पडऩे वाले स्वास्थ्य रक्षा खर्चे के सत्यानाशी बोझ पर अंकुश लगाने में विफल ही रही हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के ताजातरीन आंकड़े यही दिखाते हैं कि इस तरह की स्वास्थ्य बीमा योजनाओं का कवरेज, ग्रामीण क्षेत्र में 13 फीसद और शहरी क्षेत्र में 12 फीसद से ज्यादा नहीं है।
स्वाथ्य बीमा के जरिए निजी क्षेत्र को बढ़ावा
          सरकार निजी स्वास्थ्य बीमा को भी आक्रामक तरीके से आगे बढ़ाने में लगी हुई है और 2015-16 के बजट में इस स्पष्ट रूप से बढ़ावा देते हुए, निजी स्वास्थ्य बीमा खरीदने वालों के लिए कर राहत का एलान किया गया था। इसके साथ ही साथ राजस्थान तथा मध्य प्रदेश जैसे राज्य वर्तमान ग्रामीण स्वास्थ्य सुविधाएं ही पट्टïे पर निजी क्षेत्र के हवाले करने की तैयारियां कर रही हैं।
          इन तमाम नीतियों का असर स्पष्टï रूप से दिखाई देने लगा है। अनेक राज्यों में राष्टï्रीय स्वास्थ्य  मिशन की गतिविधियां लडख़ड़ा रही हैं और कुछ राज्यों में तो ये गतिविधियां ठप्प ही हो गयी हैं। वास्तव में केंद्र में नयी सरकार बनने के छ: महीने के अंदर-अंदर ही फंड के सोखे जाने में कमी शुरू हो गयी थी और वित्त वर्ष 2014-15 के पहले छ: महीने में राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के लिए आवंटित फंड का सिर्फ 42 फीसद खर्चे किया जा सका था। सरकार के अपने आंकड़े ( सालाना ग्रामीण स्वास्थ्य आंकड़ों में प्रकाशित) कुछ बहुत ही चिंताजनक रुझानों की ओर इशारा करते हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली में काम कर रही ऑक्जिलरी नर्स मिडवाइफों (एएनएम) की संख्या में 2014 तथा 2015 के बीच वास्तव में गिरावट ही दर्ज हुई थी। यही स्थिति सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में काम करने वाले विशेषज्ञों की संख्या की थी। 2015 के मार्च में, ग्रामीण सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में विशेषज्ञों के अनुमोदित पदों में से सिर्फ 18.8 फीसद भरे जा सके थे। राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के जरिए, स्वास्थ्य रक्षा के बुनियादी ढांचे के निर्माण की गति भी धीमी पड़ रही है। 2014-15 में सिर्फ 228 नये प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा 33 नये सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र खोले जा सके थे, जबकि 2013-14 में इतनी ही अवधि में क्रमश: 573 तथा 176 ऐसे स्वास्थ्य केंद्र खोले गए थे। सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में दवा आदि, उपभोग से खत्म होने वाली चीजों की और मानव संसाधनों की भारी तंगियां पैदा हो गयी हैं। समय-समय पर एचआइवी तथा टीबी उन्मूलन कार्यक्रमों की दवाएं तक खत्म ही हो जाने की चोंकाने वाली खबरें भी आती रही हैं।
          स्वास्थ्य रक्षा के संबंध में भाजपा की जो दृष्टि  है उसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की शायद ही कोई भूमिका है। उनके तथाकथित 'स्वास्थ्य आश्वस्ति' मॉडल की धुरी, स्वास्थ्य बीमा की व्यवस्था है न कि स्वास्थ्य रक्षा का सार्वजनिक क्षेत्र में प्रावधान करना। आने वाले दिनों में हम इस परिकल्पना का और खुलकर अमल में उतारा जाना देखेंगे, जिसकी एक पहचान यह है कि सिर्फ प्राथमिक स्वास्थ्य रक्षा के स्तर पर, बुनियादी स्वास्थ्य रक्षा की व्यवस्था रहेगी न कि सार्वजनिक चौतरफा स्वास्थ्य व्यवस्था। भाजपा के सिद्धांतकार  बेशक इससे खुश होंगे कि इस तरह से निजी चिकित्सा सहायता का ताना-बाना और बढ़ेगा और इसमें भी निजी अस्पतालों की कार्पोरेट कंपनियों द्वारा संचालित शृंखलाएं खूब फल-फूल रही होंगी।      

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