आबादी के हिसाब से दुनिया के दूसरे सबसे बड़े देश भारत में स्वास्थ्य सेवाएं भयावह रूप से लचर हैं और यह लगभग अराजकता की स्थिति में पहुंच चुकी है। भारत उन देशों में अग्रणीय है जिन्होंने अपने सावर्जनिक स्वास्थ्य का तेजी से निजीकरण किया है और सेहत पर सबसे कम खर्च करने वाले देशो की सूची में बहुत ऊपर है।
इधर, दूसरी तरफ ‘‘विश्व स्वास्थ्य संगठन” के मानकों के अनुसार प्रति 1000 आबादी पर एक डॉक्टर होने चाहिए, लेकिन भारत इस अनुपात को हासिल करने में बहुत पीछे है और यह अनुपात 2.5 के मुकाबले मात्र 0.65 ही है। पिछले 10 सालों में यह कमी तीन गुना तक बढ़ी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जे.पी. नड्ढा ने फरवरी 2015 को राज्यसभा में बताया था कि देश भर में 14 लाख डॉक्टरों की कमी है और प्रतिवर्ष लगभग 5500 डॉक्टर ही तैयार हो पाते हैं।’’ विशेषज्ञ डॉक्टरों के मामले में तो स्थिति और भी बदतर है।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन की हालिया रिपोर्ट के अनुसार सर्जरी, स्त्री रोग और शिशु रोग जैसे चिकित्सा के बुनियादी क्षेत्रों में 50 फीसदी डॉक्टरों की कमी है। ग्रामीण इलाकों में तो यह आंकड़ा 82 फीसदी तक पहुंच जाता है। यानी कुल मिलाकर हमारा देश ही बहुत बुनियादी क्षेत्रों में भी डॉक्टरों की कमी से जूझ रहा है। यह स्थिति एक चेतावनी की तरह है।
शायद इसी को ध्यान में रखते हुए केंद्र सरकार ने अगस्त 2015 में यह फैसला लिया था कि वह विदेशों में पढ़ाई करने वाले डाक्टरों को 'नो ऑब्लिगेशन टू रिटर्न टू इंडिया (एनओआरआई)' सर्टिफिकेट जारी नहीं करेगी, जिससे वो हमेशा के लिए विदेशों में रह सकते थे।
इसके बाद महाराष्ट्र के रेजिडेंट डॉक्टर्स एसोसिएशन ने सरकार के इस फैसले को मानवीय अधिकार और जीने के अधिकार का उल्लंघन बताकर हाईकोर्ट में फैसले के खिलाफ याचिका दायर की थी। एसोसिएशन द्वारा दायर की गई इसी याचिका के जवाब में स्वास्थ मंत्रालय हलफनामा दायर कर कहा है कि 'देश खुद डॉक्टरों की भारी कमी का सामना कर रहा है। ऐसे में सरकार से उम्मीद नहीं की जा सकती है कि डॉक्टरों को विदेश में बसने की अनुमति दे और यह सर्टिफाई करेगी कि देश को उनकी सेवा की जरूरत नहीं है।
भू-मंडलीकरण के बाद विदेश जाकर पढ़ने वाले भारतीयों की तादाद भी बढ़ी है। चीन के बाद भारत से ही सबसे ज्यादा लोग पढ़ने के लिए विदेश जाते हैं। एसोचैम के अनुसार हर साल करीब चार लाख से ज्यादा भारतीय विदेशों में पढ़ाई के लिए जा रहे हैं। उनका मकसद केवलविदेशों से डिग्री लेकर लेना ही नहीं, बल्कि डिग्री मिलने के बाद उनकी प्राथमिकता दुनिया के किसी भी हिस्से में ज्यादा पैकेज और चमकीले कॅरियर की होती है।
सरकार का यह निर्णय देश से प्रतिभा पलायन 2012 में लिए गए नीतिगत फैसले की एक कड़ी है, एक अनुमान के मुताबिक देश के करीब32% इंजीनियर, 28% डॉक्टर और 5% वैज्ञानिक विदेशों में काम कर रहे हैं। भारत दुनिया के प्रमुख देशों, को सबसे अधिक डॉक्टरों की आपूर्ति करता है। ‘इंटरनैशनल माइग्रेशन आऊटलुक (2015)’ के अनुसार विदेशों में कार्यरत भारतीय डॉक्टरों की संख्या साल 2000 में56,000 थी, जो 2010 में 55 प्रतिशत बढ़कर 86,680 हो गई। इनमें से 60 प्रतिशत भारतीय डाक्टर अकेले अमेरिका में ही कार्यरत हैं।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय डॉक्टरों की कमी को देखते हुए अपने इस फैसले से विदेशों में बसने वाले डॉक्टरों पर रोक लगाना चाहती थी, लेकिन डॉक्टरों की कमी का एक मात्र कारण यह नहीं है। एक अनुमान के मुताबिक देश में इस समय 412 मेडिकल कॉलेज हैं। इनमें से 45 प्रतिशत सरकारी क्षेत्र में और 55 प्रतिशत निजी क्षेत्र में हैं। हमारे देश के कुल 640 जिलों में से मात्र 193 जिलों में ही मेडिकल कॉलेज हैं और शेष 447 जिलों में चिकित्सा अध्ययन की कोई व्यवस्था ही नहीं है।
इधर, मौजूदा समय में डॉक्टर बनना बहुत महंगा सौदा हो गया है, और एक तरह से यह आम आदमी की पहुंच से बाहर ही हो गया है। सीमित सरकारी कालेजों में एडमीशन पाना एवेरस्ट पर चढ़ने के बराबर हो गया है और प्राइवेट संस्थानों में दाखिले के लिए डोनेशन करोड़ों तक चुकाया गया है, ऐसे में अगर कोई कर्ज लेकर पढ़ाई पूरी कर भी लेता है, तो वह इस पर हुए खर्चे को ब्याज सहित वसूलने की जल्दी में रहता है। यह एक तरह से निजीकरण को भी बढ़ावा देता है, क्योंकि इस वसूली में उसे दवा कंपनियां पूरी मदद करती हैं, डॉक्टरों को लालच दिया जाता है या उन्हें मजबूर किया जाता है कि कि महंगी और गैर-जरूरी दवाईया और जांच लिखें।
निजी अस्पतालों के क्या सरोकार हैं, उसे पिछले दिनों हुई एक खबर से समझा जा सकता है, घटना बिलासपुर की है, जहां इसी साल मार्च में तीरंदाजी की राष्ट्रीय खिलाड़ी शांति घांघी की मौत के बाद उनका शव एक मशहूर अस्पताल ने इसलिए देने से मना कर दिया था, क्योंकि उनके इलाज में खर्च हुए 2 लाख रुपये का बिल बकाया था। दुर्भाग्य से भारत के नीति निर्माताओं ने स्वास्थ्य सेवाओं को इन्हें मुनाफा पसंदों के हवाले कर दिया है।
हमारे देश में आजादी के बाद के दौर में निजी अस्पताल संख्या के लिहाज से 8 से बढ़कर 93 फीसदी हो गई है, चूंकि सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं पर्याप्त नहीं हैं या अक्षम बना दी गई हैं, इसलिए आज ग्रामीण इलाकों में कम से कम 58 फीसदी और शहरी इलाकों में 68 फीसदी भारतीय निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सुविधाओं पर निर्भर है। आंकड़े बताते हैं कि स्वास्थ्य सुविधाओं पर बढ़ते खर्च की वजह से हर साल 3.9 करोड़ लोग वापस गरीबी में पहुंच जाते हैं।
सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था भारत की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है, फिर भी इसके बजट में कटौती की जाती है। केंद्र सरकार द्वारा अपने मौजूदा बजट में स्वास्थ्य में 20 फीसदी की कटौती की है। जानकार बताते हैं कि इस कटौती से नये डॉक्टरों की नियुक्ति करना और स्वास्थ्य केंद्रों को बेहतर सुविधाओं कराने जैसे कामों पर असर पड़ेगा।
विदेशों में कार्यरत भारतीय मूल के डॉक्टरों को वापस लाना एक अच्छा कदम हो सकता है लेकिन यह कोई हल नहीं है। बुनियादी समस्याओं पर ध्यान रखना होगा और यह देखना होगा कि समस्या की असली जड़ कहां पर है? भारत का स्वास्थ्य क्षेत्र पर्याप्त और अच्छी चिकित्सा सुविधाओं की उपलब्धता के मामले में गहरे संकट के दौर से गुजर रहा है।
अभी तक कोई ऐसी सरकार नहीं आई है जिसके प्राथमिकताओं में सावर्जनिक स्वास्थ्य का क्षेत्र हो, आने वाली सरकारों को जरूरत के मुताबिक नए मेडिकल कॉलेजों में सार्वजनिक निवेश करके इनकी संख्या बढ़ाकर नये डॉक्टर तैयार करने वाली व्यवस्था का विस्तार करना होगा। निजी मेडिकल और अस्पतालों को भी किसी ऐसे व्यवस्था के अंतर्गत लाना होगा जिससे उन पर नियंत्रण रखा जा सके।
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