Friday, 21 September 2018

ग़रीबों के स्वास्थ्य ki देखभाल

ग़रीबों के स्वास्थ्य देखभाल की हालत दयनीय, इससे असमानता बढ़ती है: संसदीय ​समिति

दवाओं पर प्रतिबंध

सेरिडॉन और कोरेक्स जैसी 328 दवाओं पर प्रतिबंध

फार्मा कंपनियों

फार्मा कंपनियों द्वारा ड्रग ट्रायल नियंत्रित करने के लिए नियम बनाएं केंद्र: सुप्रीम कोर्ट

/thewirehindi.com/

फार्मा कंपनियों द्वारा मनुष्यों पर ड्रग ट्रायल के ख़िलाफ़ दायर याचिका में याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि देश में अनेक राज्यों में दवा कंपनियां मनमाने तरीके से दवाओं के परीक्षण कर रही हैं, जिनमें अनेक मौतें हो चुकी हैं.


Clinical Trial Reuters
प्रतीकात्मक फोटो: रॉयटर्स
नई दिल्ली: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को केंद्र को निर्देश दिया कि दवा कंपनियों द्वारा मनुष्यों पर दवाओं के क्लीनिकल परीक्षणों को नियंत्रित करने के लिये नियम बनायें क्योंकि इनसे लोगों की सेहत पर गंभीर असर पड़ेगा.
केंद्र ने शीर्ष अदालत से कहा कि उसने इस साल फरवरी में क्लीनिकल परीक्षणों के बारे में नियमों का मसौदा जारी किया था जिसमें ऐसे परीक्षणों के पीड़ितों को पांच से 75 लाख रुपये तक मुआवजा देना भी शामिल था और इस पर आपत्तियां तथा सुझाव देने के लिये 45 दिन का समय दिया गया था.
जस्टिस मदन बी लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ ने याचिकाकर्ताओं से कहा कि वे नियमों के मसौदे पर अपनी आपत्तियां और सुझाव सरकार को दें ताकि उन पर विचार किया जा सके.
याचिकाकर्ताओं का आरोप है कि अनेक दवा निर्माता फर्म देश भर में बड़े पैमाने पर मनुष्यों पर दवाओं का क्लीनिकल परीक्षण कर रही हैं और इनमें अनेक मृत्यु हो चुकी हैं.
याचिकाकर्ताओं का यह भी आरोप है कि देश के अनेक राज्यों में दवा निर्माता कंपनियां मनमाने तरीके से दवाओं के परीक्षण कर रही हैं.
केंद्र के वकील ने पीठ से कहा कि वे नियमों के मसौदे पर आपत्तियां और सुझाव मंगाते हुये नोटिस जारी करेंगे और इन्हें दाखिल करने वालों को सुनेंगे.
जब वकील ने कहा कि करीब एक सौ व्यक्तियों ने नियमों के मसौदे पर अपनी आपत्तियां और सुझाव दिये हैं, तो पीठ ने टिप्पणी की कि इससे देश के लोगों पर इसका गंभीर असर होगा. आप इन व्यक्तियों को बुलायें और उनसे बात करें.
एक याचिकाकर्ता के वकील संजय पारिख ने कहा कि दवाओं के क्लीनिकल परीक्षण के मुद्दे को नियंत्रित करने के लिये नियम तैयार किये गये हैं क्योंकि इस प्रक्रिया के दौरान लोगों को महज एक ‘विषय’ के रूप में लिया जा रहा है.
उन्होंने कहा कि इन परीक्षणों की वजह से होने वाली मौत के सवाल को कोई भी गंभीर से नहीं ले रहा है. उन्होंने कहा कि पहले तो लोगों को जानकारी दिये बगैर ही उन पर ये परीक्षण किये जा रहे थे.
इस पर पीठ ने कहा कि अंतत: केंद्र और राज्य सरकारों को ही नियमन और अमल करना होगा. हम तो सिर्फ निर्देश ही दे सकते हैं परंतु यह किसी तरह से मददगार नहीं होगा.
एक अन्य याचिकाकर्ता की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कोलिन गोंजाल्विस ने कहा कि राज्य सरकारें कानून का सरासर उल्लंघन कर रही हैं और इस तरह के क्लीनिकल परीक्षणों की वजह से अनेक लोग जान गंवा चुके हैं.
इस संबंध में उन्होंने संसदीय समिति की 2012 और 2013 की रिपोर्ट का भी हवाला दिया.
गोंजाल्विस ने कहा कि इस काम में लगी मल्टीनेशनल कंपनियों को क्लीनिकल परीक्षण के पीड़ितों को मुआवजा देने से बाहर रखा जाता है और जो इन फर्मों से ठेकेदार के रूप में जुड़े होते हैं,उन्हें मुआवजे के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है.
उन्होंने यह भी कहा कि इसके लिए किसी तरह की सज़ा नहीं है और निजी अस्पताल भी इस तरह के क्लीनिकल ट्रायल की निगरानी के लिए एथिक्स कमेटी बना सकते हैं.
इस पर पीठ ने याचिकाकर्ताओं से कहा कि उन्हें  नियम बनाने के लिए अपनी आपत्तियां और सुझाव केंद्र सरकार देने चाहिए

Thursday, 20 September 2018

स्वास्थ्य बीमा योजना

सरकारों द्वारा अपने फायदे के लिए खेल-खेला जाता है। हेल्थ बीमा के उपयोग के लिए सरकारी हॉस्पिटलों को कम और प्राइवेट हॉस्पिटलों को अधिक से अधिक मान्यता दी जाती है I           "25 सितम्बर से पूरे देश में  प्रधानमंत्री जन आरोग्य अभियान लॉन्च कर दिया जाएगा।  इसका परिणाम ये होने वाला है कि देश के गरीब व्यक्ति को अब बिमारी के संकट से जूझना नहीं पड़ेगा उसको साहूकार से पैसा ब्याज पर नहीं लेना पड़ेगा।  उसका परिवार तबाह नहीं होगा। '' यह मुक्तिदायी शब्द प्रधानमंत्री के भाषण के हैं। उस भाषण के हैं, जिसे लालकिले के प्राचीर से इस पंद्रह अगस्त को पूरे भारत में आजादी का एहसास पैदा करने के लिए दिया गया था। 
आरोग्य भारत योजना के तहत 10 करोड़ परिवार यानी कि 50 करोड़ लोगों को बीमा दिया जाना है। इन परिवारों को सालाना 5 लाख का हेल्थ कवरेज देने की बात है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ पूरी सरकार यह दमखम के साथ कह रही है कि आरोग्य भारत योजना दुनिया के इतिहास में लागू की जा रही, हेल्थ के क्षेत्र में पहली ऐसी योजना होगी, जिससे एक साथ तकरीबन 50 करोड़ लोगों को हेल्थ सम्बन्धी परेशानियों से मुक्ति मिल जाएगी।जबकि सच्चाई यह है कि जिनकी राजनीति परम्परागत होती है उनकी नीतियों और योजनाओं में ऐतिहासिक कुछ भी नहीं होता,सबकी जड़ें पहले से ही मौजूद होती है। इस आधार पर एक बार आरोग्य जैसी बीमा कवर योजनाओं का इतिहास देखने की कोशिश करते हैं।  
साल 2009 में केंद्र सरकार ने पूरे भारत के लिए राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना की शुरुआत की थी। इसका मेनडेट पूरे भारत में दर्दनाक हालत में पहुँच चुके मरीजों का सहयोग करना था ताकि उनके हॉस्टिपल खर्चों को कम किया जा सके। इस योजना का आधार आंध्र प्रदेश में लागू राजीव आरोग्य श्री योजना थी। केंद्र सरकार के आलावा राज्य सरकार द्वारा भी बीमा योजनाएं चलाई जाती है। साल 2010 तक तकरीबन 25 करोड़ यानी कि देश की एक चौथाई आबादी बीमा कवर के अंतर्गत आ चुकी थी और इसके बाद भी कम या अधिक दर से इसमें इजाफा ही हुआ है।  बीमा के प्रीमियम का भुगतान केंद्र और राज्य सरकार द्वारा मिलकर उठाया जाता है।  इस राशि के उपयोग के लिए सरकारी और प्राइवेट हॉस्पिटलों  को सरकारी मान्यता दी जाती है। यहीं पर पेंच है। और यहीं पर सरकारों द्वारा अपने फायदे के लिए  खेल-खेला जाता है। हेल्थ बीमा के उपयोग के लिए सरकारी हॉस्पिटलों को कम और प्राइवेट हॉस्पिटलों को अधिक से अधिक मान्यता दी जाती है। उदाहरण के तौर पर 2007 से 2013 के बीच आंध्रा में आरोग्य श्री योजना के तहत तकरीबन 47 बिलियन राशि का भुगतान किया गया।  इसमें से तकरीबन 11 बिलियन राशि का भुगतान सरकारी सुविधा प्रदाताओं और 37 बिलियन राशि का भुगतान प्राइवेट सुविधा प्रदाताओं को किया गया। इस लिहाज से ऐसी कई संभावनाएं पनपती है जिससे गरीबों को मुक्ति देने के नाम पर चलाई जा रही यह योजना गऱीबों तक नहीं पहुँच पाती है। जैसे कि अगर भारत के सुदूर इलाकों में जहां सौ - दो सौ किलोमीटर की दूरी पर अमूमन  1 या 2 सरकारी हॉस्पिटल हो तो हो सकता है कि बीमा कवर का इन्हें कोई फायदा नहीं मिले। हो सकता है कि भारत के सुदूर इलाकों में बसने वाले भयावह गरीबी से इनका पाला न पड़े। 
इन योजनाओं के तहत कुछ विशिष्ट तरह की बीमारियों के इलाज के लिए ही बीमा कवर का नियम होता है। और यह बीमारियां अधिकांशतः हेल्थ सेक्टर के द्वितीय और तृतीय स्तर के हॉस्पिटलों से ही जुड़ी होती हैं। इसके बाद भी बीमा कवर से इन बीमारियों से जुड़े पूरे खर्चे को हासिल करने का नियम नहीं होता है।  इसकी पहले से ही बनी बनाई एक लिमिट होती है। इस लिमिट से ज्यादा खर्चा होने पर बीमा कवर का साथ नहीं मिलता है। इसकी अलावा  टीवी ,मधुमेह, ह्रदय रोग,कैंसर जैसी अधिकांश बीमारीयां सरकारी सहयोग से अछूती रह जाती है। ऐसा केवल इसलिए होता है कि इन बीमारियों में हॉस्पिटल में भर्ती हुए बिना लम्बें समय तक इलाज चलता रहता है। इसलिए इन बीमारियों से जूझ रहे गरीब मरीजों का कोई सरकारी माई बाप नहीं होता। उदाहरण के तौर पर  आंध्र प्रदेश की आरोग्य श्री योजना के तहत खर्च 25 फीसदी राशि से बीमारियों के भार का केवल 2 फीसदी कवर हो पाया। इस तरह की संकीर्ण नीति से पूरा हेल्थ सिस्टम  चरमरा गयाऔर सरकारी धन का उपयोग पहले से ही मजबूत कॉर्पोरेट हेल्थ सेक्टर में  ही हो पाया। 
सिद्धांततः एक बेहतर हेल्थ सिस्टम एक पिरामिड की तरह काम करता है। स्तर बढ़ने के साथ मरीजों की संख्या कम होती जाती है। पहले स्तर पर सबसे अधिक मरीज होते हैं। यह स्थानीय स्तर होता है । यहां पर इलाज न हो पाने के हालत में दूसरे स्तर की तरफ बढ़ना होता है। दूसरा स्तर सामुदायिक केंद्रों से जुड़ा होता है। यह पहले से ज्यादा  विशिष्ट होता है। यहां न इलाज हो पाने के हालत में तीसरे स्तर की तरफ बढ़ा जाता है। यह सबसे अधिक विशिष्ट होता है। यहां पर बहुत कम लोग पहुँचते हैं। लेकिन यह स्तिथि  तभी सम्भव है ,जब हेल्थ सिस्टम के तीनों स्तर मजबूत हों। स्वास्थ्य बीमा तंत्र ने इस पिरामिड को उल्टा कर दिया है।सरकारी बीमा तंत्र की वजह से केवल तीसरे स्तर के हेल्थ सेक्टर को फायदा पहुँचता है। पहले स्तर का हेल्थ सेक्टर पैसे की कमी की वजह से मरता है। जिसका परिणाम यह होता है कि अधिक से अधिक लोग जबरन महंगे अस्पतालों की तरफ बढ़ते हैं।  
सबसे अधिक परेशान करने वाली बात  यह है कि प्राइवेट लोगों के साथ साझदारी कर लागू किये जाने वाले इन स्वास्थ्य बीमा योजनाओं ने कई तरह के भ्रष्टाचार भी पैदा कियें  है। इस तरह के भ्रष्टाचारों के किस्मों की सम्भवनाएँ अनंत है। साल 2010 तक ही तकरीबन 25 करोड़ लोग पहले से चल रहे बीमा योजनाओं के तहत कवर हैं। इसलिए पहला भ्रष्टाचार तो इस वक्तव्य से ही निकल जाता है कि यह एक ऐतिहासिक योजना है  जिसमें तकरीबन 50 करोड़ लोग शामिल होंगे। ऐसा इसलिए है क्योंकी जिन राज्यों में पहले से ऐसी बीमा योजनाएं चल रही हैं,वह केंद्र सरकार के साथ जुड़ने से हिचकिचा रही हैं जैसे कि बंगाल। इसके बाद चूँकि बीमा राशि के उपयोग के लिए मान्यता देने की शक्ति केंद्र सरकार के पास है,इसलिए मिलीभगत की संभावनाएं अनंत है। नौकरशाही से लेकर सरकार तक इन मिलिभगतों में शामिल रहती है। यह भी हो सकता है कि चुनावों में जो हैलीकॉप्टर उड़ते हैं ,उनके खर्चे  इन योजनाओं को बनाकर पूँजीपत्तियों से निकाले जाते हो और स्वास्थ्य क्षेत्र की बदतर हालत में सुधार की संभावनाएं केवल कागजी रह जाती हों।
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एम्स,

अस्पताल, जैसे दिल्ली में एम्स, इस पर एक अजीब कशमकश कीं स्थि
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा अनौपचारिक रूप से लॉन्च करने के दौरान प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेई) के रूप में उसके पुनरुत्थान करने और राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना, आयुषमान भारत को इससे जोड़ने के बाद देश भर में 10 करोड़ गरीब परिवारों के उद्धारकर्ता के रूप में प्रचारित किया था, जिसके लिए गरीबों के लिए बीमा कवर अस्पताल में भर्ती के समय 5 लाख रुपये तक दिया गया है लेकिन इस बहुत प्रचारित बीमा योजना के खर्च के संबंध में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली और भुवनेश्वर जैसे कई प्रमुख अस्पतालों को एक अजीब सी स्थिति में ला दिया है, जिसके परिणामस्वरूप इसमें मरीजों को शामिल नहीं किया जा सकता है, खासतौर पर उन लोगों को जो अन्य राज्यों से हैं। उदाहरण के लिए, बिहार से आने वाले मरीजों को इलाज के लिए मुश्किल हो सकती है क्योंकि भुगतान का सवाल हैं: उनके इलाज के लिए, बिहार सरकार या राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसी इनमें से कौन भुगतान करेगा? संयोग से, एम्स में दिल्ली से बाहर के रोगियों की संख्या आधे से ज्यादा होती है।
एम्स (दिल्ली और भुवनेश्वर) दोनों ने दिल्ली के बाहर आने वाले मरीजों को दी गई सेवाओं के लिए खर्च पर स्पष्टीकरण मांगने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को लिखा है। अस्पताल के अधिकारियों का कहना है कि "सिद्धांत रूप में" वे इस योजना में शामिल होंगे लेकिन प्रावधानों को भी उनके हितों पर विचार करना चाहिए।
एम्स दिल्ली के निदेशक राकेश गुलेरिया ने कहा कि संस्थान को एमओयू की शर्तों पर बातचीत करने की स्वतंत्रता होनी चाहिए। "एमओयू को इन चिंताओं को शामिल करना होगा। अस्पताल आने वाले पीएमजेए लाभार्थी को अन्य मरीजों के साथ अपनी बारी का इंतजार करना होगा, वह कतार को कूद नहीं सकते इसलिए कि वे पीएमजे लाभार्थी है। अन्य चिंताए भी हैं - जैसे कि हम सामान्य प्रसव नहीं करवाते हैं, केवल जटिल मामले देखते हैं। यह बदल नहीं सकता है। हमें इंडियन एक्सप्रेस द्वारा उद्धृत किया गया था, "हमें चुनने में सक्षम होना चाहिए कि पीएमजेई के तहत कौन सी प्रक्रियाएं और कौन से पैकेज पेश किए जाएंगे।"
ओडिशा और दिल्ली ने अभी भी इस योजना को लागू करने के लिए नोडल एजेंसी नेशनल हेल्थ एजेंसी के साथ एमओयू पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं। इस योजना के प्रावधानों से सावधान, ओडिशा ने पूरे राज्य में 70 लाख परिवारों की रक्षा के लिए अपनी योजना, बिजू स्वास्थ्य कल्याण योजना की घोषणा की है।

पूर्ण योजना 2011 में आयोजित सामाजिक-आर्थिक जनगणना के आधार पर लागू की जानी चाहिए जो कई कमजोर परिवारों की पहचान करने में नाकाम रही थी। यहां पर, स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि एनएचपीएस पहले ही कमियों की शिकार है और इससे केवल हालात बदतर होंगे। साथ ही, इस तरह की एक बड़ी योजना के कार्यान्वयन के लिए एक सक्षम बुनियादी ढाल भी होनी चाहिए, और स्वास्थ्य क्षेत्र में कोई निवेश नहीं होने की वजह से, व्यापक कवरेज एक दूर के सपने को ही दिखाता है।

प्रमुख स्वास्थ्य विशेषज्ञ, इंद्रनील चटर्जी ने कहा कि दिल्ली के मरीजों की तो पहले से ही राज्य सरकार और नगर पालिका अस्पतालों तक पहुंच है। उन्होंने कहा, "एनएचपीएस निजी बीमा कंपनियों के माध्यम से कवरेज जरूरी बनाता है। ऐसी योजनाओं का बुरा अनुभव पहले ही स्थापित हो चुका है कि वे ग्रामीण इलाकों में हाशिए वाले परिवारों के बड़े हिस्से को बीमा कवरेज प्रदान करने में बुरी तरह विफल रहे हैं।"
उन्होंने कहा, "सरकार ने निवेश और विनियमन के सवाल को संबोधित नहीं किया है। मुझे लगता है कि इन सवालों पर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।"
स्टेलेमेट राष्ट्रीय राजधानी में राम मनोहर लोहिया और लेडी हार्डिंग जैसे अन्य अस्पतालों को भी घेरने की संभावना रखता है। ति में हैं कि बाहिय रोगियों का खर्च कौन उठाएगा।

'गुणवत्ता' ---हेल्थकेयर

यहां तक बिल तथा मिलिंदा गेट्स फउंडेशन द्वारा वित्त पोषित अध्ययन स्वास्थ्य बीमा मॉडल को लागू करना चाहता है, वहीं विशेषज्ञों ने 'गुणवत्ता' के पक्ष को संदिग्ध बताया है।
मेडिकल जर्नल द लांसेट में प्रकाशित एक नए अध्ययन में दावा किया गया है कि ज़्यादातर भारतीय हेल्थकेयर तक पहुंच अर्थात स्वास्थ्य सेवा का लाभ लाने की तुलना में हेल्थकेयर की ख़राब गुणवत्ता के चलते मर जाते हैं।
अध्ययन में 2016 के ग्लोबल बर्डेन ऑफ डिजीज स्टडी से आंकड़ों का इस्तेमाल किया गया है। इस अध्ययन में "उत्तरदायी मौत"- का विश्लेषण किया गया है ऐसी मौत जिसे एक अवस्था के बाद हेल्थकेयर से रोका जा सकता था। इसका विश्लेषण 137 निम्न आय तथा मध्यम आय वाले देशों (एलएमआईसी)में किया गया।
इसका अनुमान है कि हेल्थकेयर द्वारा लगाए जा सकने वाले शर्तों के कारण साल 2016 में भारत में 2.4 मिलियन से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। अध्ययन किए गए देशों में सबसे ज्यादा "उत्तरदायी मौतकी संख्या है।
अध्ययन में कहा गया है कि इनमें से 1.6 मिलियन यानी 66% लोगों की मौत स्वास्थ्य सेवाओं की खराब गुणवत्ता के कारण हुईजबकि 8,38,000 लोगों की मौत हेल्थकेयर सेवाओं की सुविधा न मिलने के कारण हुई।
जननी सुरक्षा योजना के उदाहरण का हवाला देते हुए अध्ययन में कहा गया है: "निम्न आय वाले देशों में सबूत उभर रहे हैं कि हेल्थकेयर कवरेज का विस्तार करने पर भी बेहतर परिणाम नहीं होते हैंयहां तक कि चिकित्सा देखभाल के लिए अत्यधिक उत्तरदायी परिस्थितियों के बाद भी। भारत में 13 साल पहले लागू किए गए जननी सुरक्षा योजना नामक एक बड़े कार्यक्रम ने महिलाओं को अस्पतालों में बच्चों को जन्म देने के लिए नक़द प्रोत्साहन दिए गए हैं और 50 मिलियन से अधिक महिलाओं के लिए प्रसव सुविधा के कवरेज में वृद्धि की हैलेकिन इन प्रोत्साहनों ने मातृत्व या नवजात शिशुओं की ज़िंदगी को बेहतर नहीं किया है।"


उपर दिए गए उदाहरण से पता चलता है कि ये अध्ययन "कवरेजके साथ "पहुंचको मिश्रित कर रहा है।


वैश्विक स्तर पर एलएमआईसी में लगभग 8.6 मिलियन मौतों को उत्तरदायी के रूप में गिना जाता है जिनमें से मिलियन खराब गुणवत्ता के कारण थे,जबकि शेष पहुंच की कमी के कारण थे। ये अध्ययन पहली बार इंडियास्पेंड द्वारा रिपोर्ट किया गया था।

लेकिन ये अध्ययनबिल एंड मेलिंदा गेट्स फाउंडेशन द्वारा दिया गया फंड और इसका नियमन जिसकी पहुंच ज़्यादा प्रमुख समस्या नहीं है जो संपूर्ण भारत के सर्वे और रिपोर्ट की अधिकता का विरोध करता है जो यह स्पष्ट करता है कि स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बिल्कुल ही ख़राब है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि यह शोध यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज (यूएचसीके संदर्भ में किया गया। यूएचसी स्वास्थ्य बीमा है जिसे विश्व बैंक जैसे अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसे अंतर्राष्ट्रीय स्वास्थ्य एजेंसियों द्वारा विकासशील देशों में तेज़ी से आगे बढ़ाया जा रहा है।
यूएचसी के पीछे का विचार इन देशों में स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेने के लिए लोगों पर वित्तीय बोझ को कम करना है जहां सार्वजनिक रूप से वित्त पोषित स्वास्थ्य सेवा सेवाओं को ख़त्म (इसी तरह के अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा यूएचसी को आगे बढ़ाया जा रहा हैकिया जा रहा है और जहां चिकित्सा और हेल्थकेयर पारिस्थितिक तंत्र का स्थान निजीकरण और निगमीकरण तेज़ी से ले रहा है।

ज़ाहिर है सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के निजीकरण का मतलब है कि स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ लेने के लिए लागत बढ़ा है या बढ़ रहा है चूंकि निजी कंपनियां अधिकतम लाभ के उद्देश्य से काम करती हैंऔर विकासशील देशों में स्वास्थ्य बड़ा व्यवसाय है जिसने आबादी के चलते बड़े पैमाने पर संभावित बाजार का बड़ा आकार दिया है।

उदाहरण स्वरूप साल 2016 में भारतीय हेल्थकेयर बाज़ार क़रीब 100 बिलियन डॉलर का था और साल 2020 तक इसके 280 बिलियन डॉलर तक बढ़ने की उम्मीद है।
लेकिन अगर उपभोक्ताओं या संभावित उपभोक्ताओंदूसरे शब्दों में इन देशों के नागरिक की बड़ी आबादी आरंभ में स्वास्थ्य सेवाओं पर ख़र्च करने में असमर्थ हैं तो बाज़ार विफल हो जाएगा।

इसलिए ज़ाहिर हैउन्हें यह सुनिश्चित करने के लिए वित्तीय बीमा योजनाओं (बेशक निश्चित रूप से निजी बीमा कंपनियों द्वारा दिया जाना चाहिएकी आवश्यकता है कि सबसे ग़रीब लोग भी इन महंगी सेवाओं का इस्तेमाल करने के लिए प्रेरित किए जाते हैं।

इस अध्ययन से पता चलता है कि यूएचसी बेहतर कवरेज को बेहतर करने और वित्तीय जोखिम को कम करने के बावजूद मृत्यु दर और बीमारी को कम नहीं करता है क्योंकि बीमा द्वारा स्वास्थ्य सेवा सेवाओं का कवरेज सेवाओं की गुणवत्ता की गारंटी नहीं देता है।
रिपोर्ट में कहा गया है, "यूएचसी पर वैश्विक चर्चा में गुणवत्ता की केंद्रीय भूमिका को अभी तक पर्याप्त रूप से मान्यता नहीं मिली है और कई देशों में इसका मूल्यांकन किया जा रही है।"
इसलिएलाभ लेना अब प्राथमिक चिंता नहीं हैबल्कि यदि यूएचसी सफल होना है तो केंद्र बिंदु को "स्वास्थ्य प्रणाली की गुणवत्ता में सुधारमें बदलाव करना चाहिए।
यह भारत के लिए विशेष रूप से प्रासंगिक है कि नरेंद्र मोदी सरकार अपने महत्वाकांक्षी स्वास्थ्य बीमा योजनाआयु्ष्मान भारत-राष्ट्रीय स्वास्थ्य संरक्षण योजना की घोषणा की है जो इस महीने के अंत तक आरंभ होने की संभावना है।
लेकिन हेल्थकेयर का लाभ लेने का क्या मतलब है?
सेवा का लाभ लेने में सामर्थ्यताउपलब्धता के साथ-साथ गुणवत्ता भी शामिल है। इसका मतलब है कि लोगकिसी देश में उनकी आर्थिक स्थिति या भौगोलिक स्थिति के निरपेक्ष – हेल्थकेयर सेवाओं का लाभ आसानी से उठा सकें जो बेहतर है। उदाहरण के लिए यूनाइटेड किंगडम की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा(एनएचएस)


यदि स्वास्थ्य सेवा का लाभ लेना अब प्राथमिक मुद्दा नहीं था तो 2004 और 2014 के बीच हेल्थ केयर पर क्षमता से अधिक खर्च के कारण भारत में50.6 मिलियन लोगों को ग़रीबी रेखा से नीचे नहीं धकेला जाता।


बेशकगुणवत्ता महत्वपूर्ण है लेकिन गुणवत्ता वित्त पोषण और संसाधनों का एक कार्य है। आप अपने हेल्थकेयर इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार करनेहेल्थकेयर सेवा देने वालों को प्रशिक्षण देनेनवीनतम तकनीक प्राप्त करने और अस्पतालों और दवाखानों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के नेटवर्क का विस्तार करने के लिए जितना अधिक खर्च करेंगे उतना ही बेहतर आप हेल्थकेयर सेवाओं की गुणवत्ता प्राप्त करेंगे।

लेकिन भारत स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में से एक है। सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हमारा खर्च हमारे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपीका लगभग 1.3% है जो वैश्विक औसत 6% काफी कम है। यहां तक कि डब्ल्यूएचओ जीडीपी के कम से कम 5% को सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्च की सिफारिश करता है।


इस तरह ज़ाहिर है भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था गड़बड़ है। और निजी सेवाएंजो पहुंच से बाहर हैलोगों को ग़ैर ज़रूरी प्रक्रियाओं में उलझा कर लाभ कमाने में जुटी है जिससे लोगों की जान को ख़तरा होता है।

लेकिन यह कहना ग़लत है कि लाभ लेना अब मुख्य मुद्दा नहीं हैक्योंकि विशेषज्ञों ने न्यूज़क्लिक को बताया कि यूएचसी लाभ लेने का ख्याल रखता है और अब बड़ा सवाल गुणवत्ता को लेकर हैक्योंकि यह अध्ययन कहता है।
उदाहरण के लिएनेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2017 के आंकड़ों से पता चलता है प्रत्येक 10,189 लोगों के लिए केवल एक सरकारी एलोपैथिक डॉक्टर है, 2,046 लोगों के लिए एक सरकारी अस्पताल बेड और 90,343 लोगों के लिए एक सरकारी अस्पताल है। वास्तव मेंइस अध्ययन में कहा गया है कि भारत में 1.3 बिलियन लोगों के लिए मिलियन से थोड़ा अधिक एलोपैथिक डॉक्टर हैं जिनमें से सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में लगभग 10% काम करते हैं।

न्यूजक्लिक से बात करते हुए जन स्वास्थ्य अभियान (पीपुल्स हेल्थ मूवमेंटके डॉ अमित सेनगुप्ता ने कहा, "ग्राउंड से पर्याप्त रिपोर्टें हैं जो बताती हैं कि लोगों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच नहीं है। सिर्फ नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएसके आंकड़े या नेशलन सेंपल सर्वे ऑफिस (एनएसएसओके आंकड़ों पर ही नज़र डालें।"

उन्होंने कहा, "जहां तक निजी सेवाओं की बात है तो निजी सेवा उन स्थानों पर मौजूद नहीं है जहां वैसे लोग मौजूद नहीं हैं। निजी कंपनियां वहां तभी जाती हैं जहां वे पैसे कमा सकती हैं। इस तरह दूरस्थपिछड़े और या सेवा विहीन क्षेत्रों में निजी कंपनियों को संचालित करने के लिए कोई प्रलोभन नहीं है। बड़ी संख्या में ऐसे क्षेत्र हैं जहां सार्वजनिक और निजी दोनों सुविधाएं मौजूद नहीं हैंइसलिए किसी सेवाओं का लाभ नहीं मिलता है।”

"एक तरफ तो पर्याप्त सरकारी अस्पताल नहीं हैं और अधिकांश सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा सरकार द्वारा निवेश की कमी के कारण ठीक से काम नहीं करती है। लेकिन निजी प्रणाली में लोगों को भुगतान करना पड़ता है और इस तरह लाभ लेने में असमर्थ हैं। और गुणवत्ता बेहद संदिग्ध है।"

उन्होंने कहा, "इस अध्ययन में कहा गया है कि इस बिंदु पर केवल अफ्रीकी देशों में स्वास्थ्य सेवा का लाभ लेना सबसे बड़ी समस्या हैजबकि भारत जैसे दक्षिण एशियाई देशों में यह मुद्दा सेवाओं की गुणवत्ता का हैजो सच नहीं है।"
आयुष्मान भारत स्वास्थ्य बीमा योजना के संबंध मेंविशेष रूप से और सामान्य रूप से सरकारी वित्त पोषित स्वास्थ्य सेवाओं के स्थान पर सरकारी वित्त पोषित स्वास्थ्य बीमा योजनाएंन्यूजक्लिक ने कई बार इसे प्रकाशित किया है कि यह भारत के हेल्थकेयर की आवश्यकताओं का जवाब किस तरह नहीं है।
कई दस्तावेज़ और रिपोर्टें बताती हैं कि अतीत में मौजूदा सरकार-संचालित बीमा योजनाओं ने न केवल लोगों की बढती क्षमता से अधिक व्यय को समाप्त कर दिया है बल्कि वास्तव में इस बीमा योजना के ज़रिए ज़्यादा से ज़्यादा पैसे हासिल करने के लिए अनावश्यक प्रक्रियाएं करने और अधिक जांच करने के लिए निजी अस्पतालों का नेतृ्त्व किया है।

यहां तक कि स्वास्थ्य तथा परिवार कल्याण पर संसदीय स्थायी समिति की एक हालिया रिपोर्ट में बताया गया है कि आयुष्मान भारत जिसका लक्ष्य सेकेंडरी तथा टर्शियरी हॉस्पिटल में भर्ती के लिए दस करोड़ परिवारों के लिए प्रत्येक वर्ष प्रति परिवार लाख रुपए (लगभग 50 करोड़ लाभार्थीदेने का लक्ष्य है मौजूदा बीमा योजनाओं से ज़्यादा "लाभदेने वाला नहीं है।


तब बेशक मूल समस्या है कि सामान्य रूप से बीमा योजनाएंऔर विशेष रूप से आयुष्मान भारतकेवल सेकेंडरी तथा टर्शियरी हॉस्पिटल में भर्ती (इनपेशेंट केयरको कवर करता हैभले ही अधिकांश स्वास्थ्य खर्च प्राइमरी या प्रिवेंटिव केयर पर होता है।

जैसा कि स्वास्थ्य अर्थशास्त्री इंद्रनील मुखर्जी ने न्यूज़क्लिक को पहले बताया था, "हेल्थकेयर सेवाओं पर लोगों से 100 रुपए खर्च का मतलब है, 60प्रतिशत बाह्य रोगी और प्रिवेंटिव केयर परजबकि केवल 40 प्रतिशत ही रोगी की देख रेख या अस्पताल में भर्ती पर खर्च होता है।"इसके अलावायह व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है कि सशक्त प्राइमरी केयर एक मजबूत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की नींव है।न्यूज़क्लिक रिपोर्ट

13 Sep 2018

जनजातीय जनसँख्या की स्वास्थ्य

जनजातीय उप योजना निधि का इस्तेमाल नहीं होता और उस पर जनजातीय समुदायों के बीच बढ़ते स्वास्थ्य संकट को सुधारने के लिए केंद्र सरकार की कोई व्यापक योजना नहीं है।  
18 Sep 2018
जनजातीय स्वास्थ्य पर एक विशेषज्ञ समिति ने यह निष्कर्ष निकाला है कि इनकी जनसँख्या का एक बहुत बड़ा भाग स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानियाँ झेल रहा हैI ऐसा इनकी स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुँच और उसकी गुणवत्ता की वजह से है।
2013 में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय और जनजातीय कार्य मंत्रालय द्वारा गठित समिति द्वारा हाल ही में जारी की गई रिपोर्ट के मुताबिक देश की जनजातीय जनसँख्या सबसे अधिक बीमारियों का बोझ झेल रही है। मलेरिया और तपेदिक जैसे कुपोषण और संक्रमणीय बीमारियाँ तो इनमें काफी पायी ही जाति हैं, लेकिन मधुमेह, उच्च रक्तचाप और कैंसर के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं,  विशेष रूप से नशे की लत जैसी  गैर-संक्रमणीय बीमारियाँ भी आदिवासियों में बढ़ी हैं।
‘Tribal health in India - Bridging the gap and a roadmap for the future’ (भारत में जनजातीय जनसँख्या का स्वास्थ्य- खाई कम करने की कोशिश और भविष्य के कार्यक्रमों की रूपरेखा) नाम की रिपोर्ट राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन, नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ रिसर्च इन ट्राइबल हेल्थ (एनआईआरटीएच), सिविल द्वारा किए गए अध्ययनों के आधार पर तैयार की गयी हैI यह एक जनजातीय जनसँख्या के स्वास्थ्य सम्बन्धी परिस्थितियों का एक विस्तृत ख़ाका प्रस्तुत करती हैI इसे डॉ. अभय बैंग की अध्यक्षता में प्रमुख शिक्षाविदों, नागरिक समाज के सदस्यों और नीति निर्माताओं वाली एक 12 सदसीय समिति ने तैयार किया है।
रिपोर्ट में बताया गया है कि सरकार के पास स्वास्थ्य सहित जनजातीय आबादी के विकास के लिए कोई व्यापक योजना नहीं है। आधिकारिक आँकड़ों के अनुसार जनजातीय आबादी का लगभग 90 प्रतिशत ग्रामीण इलाकों में रहता है और देश में 50 प्रतिशत  से अधिक जनजातीय आबादी वाले 90 ज़िले या 809 ब्लॉक हैं, और ये देश की अनुसूचित जनजातीय (एसटी) आबादी का लगभग 45 प्रतिशत हिस्सा है। उनमें से दो तिहाई प्राथमिक क्षेत्र में काम कर रहे हैं यानी ये मुख्यतः कृषि पर निर्भर हैं, या तो किसान हैं या कृषि मज़दूर हैं।
इन समुदायों की खराब आर्थिक स्थिति का खुलासा करते हुए, रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में गैर-जनजातीय आबादी का 20.5 प्रतिशत के मुकाबले एसटी आबादी का कुल 40.6 प्रतिशत गरीबी रेखा से नीचे रहता है। इसके अलावा, इन समुदायों के बीच बुनियादी सुविधाएँ भी कम पहुँच रही हैं– गैर-अनुसूचित जनजातियों के 28.5 प्रतिशत के मुकाबले जनजातीय आबादी के केवल 10.7 प्रतिशत को नल से पानी तक पहुँचता है और लगभग 74.7 प्रतिशत जनजातीय आबादी अब भी खुले में शौच करती है।
समिति ने दस विशेष स्वास्थ्य समस्याओं की पहचान की जो आदिवासियों में ग़ैर-आदिवासियों के मुकाबले ज़्यादा पायी जाती है। वे हैं: मलेरिया, कुपोषण, शिशु मृत्यु दर, मातृ स्वास्थ्य, परिवार नियोजन की कमी, नशे की लत, सिकल सेल रोग, पशु द्वारा काटने की घटनाएँ और दुर्घटनाएँ, स्वास्थ्य निरक्षरता और आश्रम-शालाओं में बच्चों के स्वास्थ्य में गिरावट।
स्वास्थ्य देखभाल
वर्तमान मानदंडों के अनुसार, जनजातीय और पहाड़ी इलाकों में प्रति 3,000 लोगों के लिए एक स्वास्थ्य उप-केंद्र होना चाहिए, प्रति 20,000 लोगों के लिए एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 80,000 लोगों के लिए एक समुदाय स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए। जबकि समिति ने पाया कि लगभग आधे राज्यों में, वर्तमान मानदंडों के आधार पर, जनजातीय क्षेत्रों में स्वास्थ्य संस्थानों की संख्या 27 से 40 प्रतिशत कम थी। ये आँकड़ें खतरनाक हैं क्योंकि करीब 50 प्रतिशत जनजातीय आबादी बाह्य रोगी के तौर पर सार्वजनिक अस्पतालों में जाती है और जनजातीय आबादी का दो तिहाई हिस्सा सरकारी अस्पतालों में ही दाखिल होता है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि "अनुसूचित क्षेत्रों में जनजातीय आबादी मुख्यतः सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली पर ही निर्भर है इसके बावजूद, यहाँ लगातार देखा जा रहा है कि स्वास्थ्य सुविधा प्रणाली की प्राथमिकताएँ इनती गलत हैं कि यहाँ इनका इस्तेमाल कम होता है, इनकी गुणवत्ता भी कम है और इनसे जिन परिणामों की आकांक्षा रखी जाती है वह भी पूरे नहीं होतेI इसलिए केंद्र और राज्यों, दोनों स्तरों पर परिवार एवं स्वास्थ्य कल्याण मंत्रालयों की प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की पुन:संरचना और मज़बूती की ओर ध्यान दिया जायेI” 
जनजातीय उप-योजना को दिए जाने वाला धन एसटी आबादी को मुख्य्धारा में शामिल करने के एक हथियार हैI लेकिन इसके आलावा एक और समस्या की ओर रिपोर्ट में चर्चा की गयी है कि इसके तहत किये गये व्यय को केवल बहीखाते में ब्यौरा देने की खानापूर्ति के रूप में देखा जाता हैI क्योंकि तमाम मंत्रालय इसके तहत अधिकतर उन सामान्य सुविधाओं का ज़िक्र करते हैं जो उन्हें वैसे भी आदिवासी इलाकों में देनी ही होती हैं, लेकिन उप-योजना के अनुसार इन क्षेत्रों में जो अतिरिक्त खर्च किया जाना आवश्यक है उसका ब्यौरा कहीं नहीं होताI      
समिति ने जनजातीय स्वास्थ्य के लिए धन देने के लिए तीन अनिवार्यताओं की सिफारिश की:
जनजातीय उप-योजना के निर्देशों को सख्ती से लागू किया जाये और यह सुनिश्चित किया जाये कि केंद्र और राज्यों दोनों के स्वास्थ्य मंत्रालय जनजातीय क्षेत्रों की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली ले लिए अलग से धन आबंटित और खर्च करें, यह आबंटन एसटी जनसख्याँ के अनुपात में होनी चाहिए यानी कुल 15,676 रूपये और यह भी सुनिश्चित किया जाये कि इसका 70 प्रतिशत सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च किया जाये, जनजातीय आबादी के स्वास्थ्य पर प्रति कैपिटा खर्च को बढ़ाकर 2,447 रूपये किया जायेI इससे यह 2016 की नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के लक्ष्य यानी राष्ट्रीय जीडीपी का 2.5 प्रतिशत हो जायेगा; इसके अलावा एक बेहतर प्रणाली का निर्माण होना चाहिए ताकि सरकार की तरफ से आबंटित धन राशी का सदुपयोग किया जा सके, और आँकड़ों की विश्वसनीयता बढ़ाई जायेI