Saturday, 20 July 2019

बच्चों में मोटापे के परिणाम

बच्चों में मोटापे के परिणाम
ज्योति शर्मा एवं सार्थक शर्मा( साभार --ड्रीम 2047 अप्रैल 2018 )
बच्चे आजकल बहुत तेजी से शारीरिक स्तर पर निष्क्रिय जीवन शैली को अपना रहे हैं। अधिक मात्रा में ऊर्जा-घनित पोषण-रहित खाना खा रहे हैं। जिसकी वजह से आजकल बच्चों में मस्तिष्क वाहिकीय रोगों (स्ट्रोक्स) के अलावा कैंसर, टाइप-2 मधुमेह, आस्टियोआर्थराइटिस, हाइपरटेंशन और हाई कोलेस्ट्राल जैसी बीमारियाँ पाई जा रही हैं। भारतीय बच्चे अपने दैनिक भोजन में उचित मात्रा में फल या सब्जियाँ नहीं खाते हैं, जितनी उन्हें उनकी उम्र के अनुसार खानी चाहिए। ये सभी कारक उनके जीवन स्तर और भविष्य के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

              अग्रवाल परिवार ने डॉक्टर को दिखाने का निर्णय लिया क्योंकि आजकल उनका बेटा अनुज बहुत ही थका-थका और मानसिक रूप से अवसाद में दिख रहा था। उनके परिवार ने यह भी महसूस किया कि उसके अधिकांश दोस्त उसे उसकी उदास जीवनशैली की वजह से कॉमन पार्टियों में आमंत्रित नहीं करते हैं और उससे दूर ही रहते है। लेकिन उन्होंने ये कभी नहीं सोचा था कि उनका 14 साल का बेटा टाइप-2 मधुमेह से ग्रसित है जिसके बारे में उन्हें डॉक्टर ने बताया। डॉक्टर ने बताया कि अनुज का वजन ज्यादा होना ही टाइप-2 मधुमेह का प्रमुख कारण है। अनुज के परिवार ने कभी इस बात पर ध्यान ही नहीं दिया कि उसका वजन पिछले केवल पाँच वर्षों मे ही 45 से बढ़कर अब 94 तक पहुँच चुका है। उसके वजन बढ्ने के संभावित कारण थे उसका पिज्जा, बर्गर, मसालेदार चिकन, तली हुई चीजें और वातित पेय के प्रति मोह। हालांकि डॉक्टर ने परिवार को बताया कि अतिरिक्त वजन को दूर करके खाने पीने की आदतों में सुधार करके और अकर्मण्य जीवनशैली को छोड़कर बच्चों में टाइप 2 मधुमेह को टाला जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता लगता है कि भारत में करीब 14. 4 मिलियन बच्चे ऐसे हैं जिनका वजन अपेक्षा से अधिक (ओवरवेट) है। 2013 मे हुए एक अध्ययन “ग्लोबल बर्डन ऑफ डिसीज” या “रोगों का वैश्विक बोझ” की रिपोर्ट के अनुसार यह कहा गया है कि 2025 तक भारत में करीब 17 मिलियन बच्चे मोटापे से ग्रस्त हो जाएंगे और भारत की स्थिति चीन के बाद 184 देशों में से दूसरे नंबर पर होगी। इस तरह के बच्चे हमेशा स्वास्थ्य के बुरे परिणामों की आशंका से घिरे रहते हैं जिसमंे शारिरिक एवं मानसिक दोनों ही तरह की परेशानियाँ शामिल हैं। यह पूरी तरह से स्थापित एवं प्रमाणित हो चुका है कि ज्यादा वजन और मोटापे से ग्रसित बच्चों में कई भयंकर बीमारिया जैसे टाइप-2 डायबिटीज मेलिटस, हाइपरटेंशन और मस्तिष्क वाहिकाओं से संबन्धित रोगों के होने का खतरा बढ़ जाता है। बॉडी मास इंडेक्स ( BMI)  शरीर के फैट (वसा) का मापक होता है जो शारीरिक ऊंचाई के अनुपात में शारीरिक वजन पर आधारित होता है। यह एक प्राथमिक तरीका होता है जिससे पता लगता है कि व्यक्ति का वजन सामान्य से कम है, ज्यादा है या वह मोटा यानि ओबीस है। इसके अलावा यदि बीएमआई अधिक होता है तो इससे मृत्यु का खतरा भी अधिक हो जाता है। सामान्य रूप से स्वीकृत बीएमआई की सीमा हैः कम वजन
( 18.5 कि.ग्रा. /मी 2, सामान्य वजन: 18.5-25 किग्रा. अधिक; वजन (ओवर वेट): 25-30 कि. ग्रा. और
ओबीस 30 कि. ग्रा. से अधिक। ओबेसिटी यानि मोटापा तभी बढ़ता है जब ऊर्जा का शरीर में प्रवेश उसे खर्च करने से अधिक होता है। शारीरिक वजन का निर्धारण कई वंशानुगत और वायुमंडलीय कारकों के बीच पारस्परिक क्रिया द्वारा होता है। यह अनुमान लगाया गया है कि 40-70%  तक बीएमआई में होने वाले उतार चढ़ाव आनुवांशिक होते हैं जबकि अन्य 30% का निर्धारण जीवनशैली के आधार पर होता है। चित्र-1 में यह भी दिखाया गया है कि केवल चीनी या वसा ही आजकल मोटापे के मामलों में हुई वृद्धि का कारण नहीं हैं बल्कि
जीन, वातावरण और भावनात्मक कारक, खाने की मात्रा और मानसिक स्तर को प्रभावित करते हैं; अक्सर देखा जाता है कि जब विपरीत भावनात्मक परिस्थितियाँ सामने आती हैं तब व्यक्ति स्वाद के लिए ज्यादा खाना खाता है। इस तरह बार-बार आराम से बैठकर कार्बोहाइड्रेट्स, वसा और शर्करायुक्त खाना खाते रहने से ही मोटापा बढ़ता है। मोटापा हमारे मूड को नियंत्रित करता है जिससे हमारे मस्तिष्क की गतिविधियां विचलित हो जाती हैं, जिसके परिणामस्वरूप मूड, खाना और मोटापे के बीच एक द्वि-दिशीय चक्र स्थापित हो जाता है। 
मोटापे से पोषक तत्वों का संबंध
शोधों से अभी तक ये पता नहीं लग पाया है
कि मोटापे के लिए वास्तव में कौन जिम्मेदार है।
आजकल पश्चिमी और विकासशील देशों दोनों तरफ
ही मुख्य भोजन के रूप में प्रसंसाधित (प्रोसेस्ड)
एवं अस्वास्थ्यकर खाद्य पदार्थों को शामिल किया
जा रहा है। विज्ञापनों में कम वसायुक्त खाद्य को
प्रचारित किया जाता है, फलतः कंपनियाँ अधिक
शर्करा युक्त खाद्य पदार्थों का प्रयोग करती हैं।
हाइपरटेंशन, मधुमेह और मोटापा (ओबेसिटी) के
मामले सबसे पहले (इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी) में पाये
गए वो स्थान है, जहां लोगों को सबसे पहले चीनी
या शर्करा खाने को मिली। इससे चीनी खाने और
मोटापे का आपसी संबंध स्थापित होता है। इसके
अलावा विकासशील देशों में चीनी की शुरुआत से
उन देशों में भी आगे चलकर मोटापे और हृदय रोग
के मामले देखे जाने लगे।
हाई फ्रूक्टोज कॉर्न सिरप (एचएफसीएस) एक
मीठा तरल पदार्थ है जो कॉर्न या मक्के के
स्टार्च से बनता है जिसकी रासायनिक बनावट
(ग्लूकोज और फ्रूक्टोज) सामान्य शर्करा या
चीनी की तरह ही होती है, जो कि सुक्रोज
(प्राकृतिक रूप से कई वनस्पतियों एवं इनके
अंशों में पाया जाने वाला कार्बोहाइड्रेट)
कहलाता है। एचएफसीएस खाद्य पदार्थों से
जुड़े उद्योगों की प्रमुख पसंद है क्योंकि यह
अधिक समय तक सुरक्षित रखा जा सकता
है, अधिक स्वादिष्ट होता है तथा चीनी की
अपेक्षा इसका मूल्य काफी कम होता है।
चीनी या टेबल शुगर और एचएफसीएस
का संयोजन मिठास की खपत में अतिरिक्त
30ः की बढ़त करता है और यही मोटापा
या ओबेसिटी तथा कार्डियोवस्कूलर रोगों के
खतरे से जुड़े खतरनाक घटकों में से प्रमुख
है। ग्लूकोज की तुलना में फ्रूक्टोज की  इंसुलिन और लेप्टिन हारमोन स्राव करने की क्षमता
काफी कम या न के बराबर होती है जिससे घ्रेलीन
का उत्पादन रुक जाता है। ये सभी कारक हमारे
मस्तिष्क के संतृप्ति केंद्र को प्रभावित करते हैं।
इंसुलिन हमारे शरीर में रक्त के ग्लूकोज स्तर को
नियंत्रित करने के लिए जिम्मेदार होता है। लेप्टिन
फैट सैल्स से बना होता है जो भूख को कम करता
है और घ्रेलीन से हमारी भूख बढ़ती है जिससे हमारे
शरीर का वजन भी बढ़ता है।
फ्रूक्टोज की खपत से किडनी की कार्य क्षमता
भी प्रभावित होती है। फ्रूक्टोज एकमात्र ऐसी शर्करा
होती है जो यूरिक एसिड और घनत्व को बढ़ाती है,
यह गाउट के लिए संभावित खतरा माना जाता है
(गाउट एक ऐसा रोग है जो यूरिक अम्ल के दोषपूर्ण
उपापचय के कारण आर्थराइटिस या गठिया को
जन्म देता है)।
उच्च कार्बोहाइड्रेटयुक्त खाद्य भी ओबेसिटी के
कई कारणो में से एक हैं। कम कार्बोहाइड्रेटयुक्त
आहार लेने का एक सामान्य औचित्य यह है कि
मानव शरीर में कार्बोहाइड्रेट्स को संचित करने की
क्षमता बहुत ही सीमित है और जो कार्बोहाइड्रेट्स
हमारे शरीर में संचित नहीं हो पाते, वे सीधे वसा
में बदल जाते हैं। स्रोतके आधार पर स्टार्च में
समान्यतः 20-25ः एमाइलोज और 75-80ः
एमायलोपेक्टिन होता है जो पाचन क्रिया के दौरान
एंजाइमों द्वारा मोनोसेक्राइड्स में टूट जाता है। यह
अस्थाई रूप से लीवर तथा कंकलीय मांसपेशियों
में ग्लाइकोजेन के रूप में संचित होता है और
धीमे-धीमे यह लिपिड में परिवर्तित होता है जो
अधिक मात्रा में लेने से एडिपोज ऊतक में जमा
हो जाता है।
ये लिपिड ऊर्जा संचय एवं जैवरासायनिक
प्रक्रियाओं के लिए अहम होते हैं और कोशिका
झिल्ली के संरचनात्मक घटकों का कार्य करते हैं।
ट्राइग्लिसराइड ऊर्जा संचय का प्रमुख रूप हैं जो
एडिपोज ऊतक (ढीले संयोजी ऊतक जो वसा के
रूप मे ऊर्जा संचय करते हैं) में स्थित
रहते हैं। कार्बोहाइड्रेट्स की तुलना में वसा
दुगुनी कैलोरी प्रति ग्राम प्रदान करते हैं।
संतृप्त वसा एक प्रकार की वसा है जो
मूल रूप से हमारी धमनियों में रुकावट
लाने और कोलेस्ट्ररॉल के स्तर को बढ़ाने
के लिए जिम्मेदार होती है। आजकल
खाद्य उद्योग हाइड्रोजीनेटेड या ट्रांस फैट
का प्रयोग कर रहे हैं जो उनके खाद्य
प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग) की जरूरतों को
पूरा करता है। ट्रांस फैट का प्रयोग बहुत
आसान है, उत्पादन सस्ता है और इसे कई
बार व्यावसायिक फ्राएर्स में (तलने के लिए)
इस्तेमाल किया जा सकता है।
ये खाने को एक वांछित स्वाद और
स्वरूप प्रदान करते हैं और इनका प्रयोग
अधिकांश फास्ट फूड और फ्राइड फूड  जैसे फ्रेंच फ्राइज, डोनट्स, केक्स, पाई क्रस्ट्स,
बिस्किट, फ्रोजन पिज्जा, कुकीज, क्रैकर्स और
स्टिक मारग्रेन्स में होता है। नकली ट्रांस फैट (या
ट्रांस फैटी एसिड) एक औद्योगिक प्रक्रिया द्वारा
बनाए जाते हैं जिसमें लिक्विड वेजीटेबल ऑइल में
हाइड्रोजन मिलाया जाता है ताकि उन्हें अधिक ठोस
बनाया जा सके।ये ट्रांस फैट अधिक खतरनाक
होते हैं एवं हृदय को बहुत नुकसान पहुँचाते हैं। ये
खराब कोलेस्ट्ररॉल (एलडीएस) के स्तर को बढ़ाते
हैं और अच्छे कोलेस्ट्ररॉल (एचडीएल) के स्तर को
घटाते हैं। उच्च वसायुक्त खाद्य पदार्थ से एडीपोज
ऊतकों के जमा होने में बदलाव आता है और ये
ओबेसिटी या मोटापे के कारणों में एक महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते हैं। व्यायाम और अधिक मात्रा में
संतृप्त वसायुक्त पदार्थों को लेना (जो अधिकतर
वनस्पति तेलों में पाई जाती है), मोटापे को घटाने
में या मोटापा प्रबंधन में अत्यंत महत्वपूर्ण है।
प्रोटीनों की आवश्यकता नई कोशिकाओं और
ऊतक निर्माण में होती है, जो एमिनो अम्ल में
टूट जाते हैं। प्रोटीन मांसपेशियों तथा अंग प्रत्यंगों
को ढांचा प्रदान करता है। प्रोटीन रोग प्रतिरोधी
कोशिकाओं, रक्त कोशिकाओं और हार्मोन्स के लिए
आधारभूत घटक होते हैं। खाद्य प्रोटीन की मात्रा
में वृद्धि होने से शरीर का वजन नियंत्रित होता है,
क्योंकि इसका सीधा असर संतृप्ति, शारीरिक ताप
को नियमित रखने और इंसुलिन के उत्पादन एवं
गतिविधि पर पड़ता है। जब कम वसायुक्त आहार
में प्रोटीन से कार्बोहाइड्रेट को प्रतिस्थापित कर दिया
जाता है तो यह ग्लूकोज की उपस्थिति को घटाने
और रक्त में इंसुलिन के अत्यंत उच्च घनत्व को
कम करने में मदद करता है। जबकि साथ-साथ
यह वसा आक्सीकरण को बढ़ाता है।
खाद्य मनोविज्ञानः खाद्य
पारितोषिक, आदतें और मोटापा
हमारे मनोभाव, भावनात्मक स्थिति और खाने
के स्वभाव बहुत जटिल होते हैं और ये माना
गया है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी भावनाओं एवं
मनोदशा को खाने की पसंद और मात्रा के अनुसार
नियंत्रित करता है। कृतज्ञता या भावुकतावश अधिक
खाना खाने के कारण कुछ रसायन जिन्हे हार्मोन्स
कहा जाता है हमारे मस्तिष्क मे जाकर आनंद केंद्र
विकसित कर देते है जिससे इसी तरह का खाना
खाने की आदत या लत लग जाती हैं जिससे हमारा
वजन बढ़ता है और मोटापा भी।
खाने की प्रक्रिया में कई न्यूरो ट्रांसमीटर
प्रणालियां होती हैं, जैसे, सिरोटोनिन, डोपामाइन,
ओपिओड्स और गाम्मा एमिनोब्यूटरीक एसिड,
जिनमे से सिरोटोनिन और डोपामाइन बड़े नजदीक
से खाने के स्वभाव के साथ जुड़े होते है। इनमें
चाहत या चाहना या इच्छा करना और पसंद करना   या खुश होकर या आनंद के साथ खाने के बीच
डोपामाइन मध्यस्थ की भूमिका निभाता है।
जीवनशैली
बच्चे आजकल तेजी से शारीरिक रूप से निष्क्रिय
जीवन शैली अपना रहे है और वे अपनी आरामतलबी,
टेलीविजन, कंप्यूटर तथा मोबाइल फोनों पर बढ़ती
निर्भरता, फास्ट और प्रोसेस्ड फूड की उपलब्धता,
मशीनी जिंदगी, आधुनिकीकरण इत्यादि कारणों कि
वजह से अधिक ऊर्जा-घनत्व, कम पोषकतत्वों वाला
खाना खा रहे हैं। इन सबकी वजह से भारतीय बच्चों
मे जहां एक ओर मस्तिष्क वाहिकीयरोगों (स्ट्रोक्स)
का खतरा बढ़ा है वहीं कैंसर, टाइप-प्प् मधुमेह,
ओस्टियो- अर्थराइटिस, हाइपरटेंशन और उच्च
कोलेस्ट्रॉल के मामले काफी बढ़े हैं जिनका मूल
कारण है अपनी रोजमर्रा की जिंदगी में उचित मात्रा
में फलों और सब्जियों का सेवन ना करना। इन सभी
कारकों का उनके जीवन स्तर एवं भविष्य के स्वास्थ्य
पर गहरा प्रभाव पड़ता है।
सारांश
वर्तमान आलेख यह इशारा करता है कि भारतीय
बच्चों और किशोरों मे सामान्य मोटापा या ओबेसिटी
का बोझ कुछ ज्यादा ही है जिसमें सामाजिक-आर्थिक
अंतर भी निश्चित रूप से परिलक्षित होता है। विश्व
स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एशिया की जनसंख्या
के लोगों में मोटापे का स्तर और मोटापे का वितरण
कौकासियन जनसंख्या की अपेक्षा बहुत अलग पाया
गया है। एशियाई-भारतीय बच्चे प्रतिकूल शारीरिक
संरचना तथा क्षेत्रीय विविधता से अधिक प्रभावित     होते हैं। मोटापा ग्रस्त भारतीय बच्चे युवा आयु में ही
सामान्य बच्चों की तुलना में कई भयंकर बीमारियों
का बोझ झेल रहे हैं। अभी तक हुए अनुसंधानों
से पता लगता है कि भारत में कम उम्र में ही
लाखों लोग टाइप-2 मधुमेह के शिकार होते जा रहे
हैं। ये कारक भारत में मधुमेह जैसी महामारी और
बच्चों मे होने वाला मोटापे के बीच एक सीधा संपर्क
दर्शाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार एशिया
महाद्वीप के वे लोग जिन्हें टाइप-2 मधुमेह और हृदय
सबंधित रोगों का खतरा अधिक होता है, का अनुपात
ॅभ्व् के अतिभार (ओवर वेट) वर्तमान कटऑफ
पॉइंट (बीएमआई 25 से ज्यादा) से नीचे क स्तर पर
भी बहुत अधिक है।
आधुनिक चिकित्सा के जनक हिप्पोक्रेटिस के
अनुसार “आपका भोजन ही आपकी दवा ही और
आपकी दवा आपका भोजन है। ‘‘आधुनिक समाज में
आनुवांशिक और जनसांख्यिकीय कारकों के अलावा
मोटापे का प्रमुख कारण है अक्रिय जीवनशैली जिसमें
शारीरिक गतिविधियों की कमी और खाने की प्रचुरता
है जिससे डोपामाइन आकर्षी केंद्र अधिक सक्रिय
हो जाते हैं। मूड परिवर्तन के अलावा, उच्च वसा
भोजन से भार में वृद्धि, कमर का घेरा बढ़ना, और
हृदय रोगों से मृत्यु दर में वृद्धि हो सकती है। इन
परिवर्तनों से हुई न्यूरो-बायोलोजिकल गड़बड़ी के
कारण मूड में बिगाड़ आ जाता है जैसे अवसाद या
चिंता या तनाव का बढ़ना, जिसे फल स्वरुप फिर से
ज्यादा भोजन करने और मोटापे की वृत्ति बढ़ती है।
परिष्कृत या रिफाइंड कार्बोहाइड्रेट्स और शर्करा की
मात्रा की अधिकता वाला भोजन उच्चवसायुक्त आहार
की तरह ही अस्वास्थ्यकारी हो सकता है, क्योंकि
यह भी मधुमेह और हृदय संबन्धित रोगों के खतरे
को बढ़ाता है।
जीवन शैली में किए जाने जाले समग्र प्रयासों
में शामिल हैं- शारीरिक गतिविधि, उचित भोजन
मानसिक और मनोवैज्ञानिक युक्तियां इच्छा शक्ति,
प्रेरणात्मक बातचीत और संग्यानात्मक व्यवहारपरक
चिकित्सा। खाने की पसंद को प्रभावित करने वाले
कारकों में शामिल है, भूख, खाने की इच्छा, स्वाद,
लागत, आय और भोजन की उपलब्धता। स्वस्थ्य
जीवन के लिए आवश्यक है एक संतुलित आहार,
नियमित व्यायाम और तनाव प्रबंधन।
मोटापे के प्रबंधन के लिए नीतियाँ भी बराबर
महत्वपूर्ण हैं। कुपोषण के अलावा सरकार को
ओबेसिटी पर भी उतना ही ध्यान देना चाहिए। इससे
भविष्य की पीढ़ियों को अपने भविष्य में आने वाले
रोगों से बचाव में मदद मिलेगी। स्कूल भी मोटापे
जैसी महामारी की रोकथाम में अहम भूमिका निभा
सकते हैं जिसमें स्कूल की कैन्टीन मे प्रोसेस्ड फूड
की बिक्री को बंद करना, गैस युक्त पेय पदार्थों
की बिक्री पर रोक लगाना और नियमित रूप से
बच्चों के साथ बातचीत करना शामिल होने चाहिए।
विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ‘‘असंक्रामक रोगों की
रोकथाम एवं नियंत्रण के लिए वैश्विक क्रिया योजना
2013-2020‘‘ तैयार की है जिसमें शामिल है 2010
की दरों को लक्ष्य करके वैश्विक मोटापे में हो रही
वृद्धि को रोकना।
(अनुवादः संगीता चतुर्वेदी)


भारत में मधुमेह संबंधी शिक्षाः


समय की मांग------रिचा सक्सेना(साभार ड्रीम 2047 मई 2018 )

मधुमेह के रोगी को न केवल उपचार ओर अपनी इंसुलिन की मात्रा के समायोजन के लिए मधुमेह विशेषज्ञ के पास जाना होता है, बल्कि उसे अन्य विशेषज्ञों के पास भी जाना पड़ता है, जैसे कि हृदयरोग विशेषज्ञ (अगर वह हृदयरोग का रोगी है), मधुमेह नेत्र रोग या रेटिनोपैथी के लिए नेत्र विशेषज्ञ, गुर्दे के रोग के लिए गुर्दारोग विशेषज्ञ और मधुमेह फुट रोग के लिए पोडियाट्रिस्ट आदि। एक ही स्थान पर मधुमेह शिक्षा कार्यक्रमों को लागू करने और मेडिकल सेवाएं मिलने से बहुत से रोगियों को रोग का बेहतर प्रबंधन करने में सहायता मिलेगी। हमारे देश में मधुमेह के बढ़ते रोगियों के साथ, मधुमेह शिक्षा कार्यक्रमों की शुरूआत समय की महती आवश्यकता है।

               चिकित्सक द्वारा प्रस्तावित मधुमेह की दवाइयां और इंसुलिन के इंजेक्शन लेने के बावजूद, अब
भी मधुमेह से पीड़ित लोग कमजोर स्वास्थ्य और तेजी से बढ़ती जीवन के लिए घातक मधुमेह जनित बीमारियों के चलते रक्त शर्करा के स्तर को नियंत्रित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। मधुमेह मेलिटस, जुकाम और फ्लु जैसा रोग नहीं है जिसे केवल गोलियां खाकर ठीक किया जा सके। यह ऐसा रोग है जो जीवन भर रहता है और इसके
लिए सही शिक्षा और क्षमता विकास की आवश्यकता होती है। देश भर में मधुमेह शिक्षा कार्यक्रम आरंभ करके
इस बढ़ती स्वास्थ्य समस्या का सामना करने के लिए सरकार और नीति निर्माताओं को संवेदनशील बनाने की जरूरत है। मधुमेह शिक्षा के महत्व को बहुत से चिकित्सकों और सरकार ने अभी भी नहीं समझा है। 
                भारत के अधिकतर भागों में अच्छी गुणवत्ता की चिकित्सा सेवाओं तक लोगों पहुंच न होने के कारण मधुमेह के रोगी अपने रोग की देखभालठीक से नहीं कर पाते, जो केवल बड़े मेट्रों शहरों में रहने वालों को उपलब्ध होती हैं। मधुमेह शिक्षा कार्यक्रम का कार्यान्वयन और चिकित्सा सेवाएं एक ही जगह घर प्रदान किए जाने की जरूरत है क्योंकि मधुमेह के रोगियों को मधुमेह से संबंधित बीमारियों के लिए एक से अधिक विशेषज्ञों के पास जाना होता है। उदाहरण के लिए, मधुमेह के रोगी को न केवल उपचार और इंसुलिन की मात्रा के समायोजन के लिए मधुमेह विशेषज्ञ के पास जाना होता है बल्कि उसे अन्य विशेषज्ञों के पास भी जाना पड़ता है, जैसे कि हृदयरोग विशेषज्ञ, अगर वह हृदयरोग का रोगी है, मधुमेह नेत्र रोग या रेटिनोपैथी के लिए नेत्र विशेषज्ञ, गुर्दे के रोग के लिए गुर्दारोग विशेषज्ञ और मधुमेह फुट रोग के लिए पोडियाट्रिस्ट आदि। 
                  प्रतिवर्ष मधुमेह के रोगियों में अक्षतिज फुट विच्छेदन की बढ़ती संख्या  को देखते हुए मधुमेह फुट क्लीनिक के महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता। मधुमेह फुट की समस्याओं की जागरूकता न होने के कारण या उस क्षेत्र में पोडियाट्रिस्ट या फुट चिकित्सा विशेषज्ञ उपलब्ध न होने के कारण, मधुमेह के रोगी अकसर पैरों की गंभीर बीमारियों से पीड़ित होते हैं जो एक छोटे से जख्म से शुरू होती हैं और कभी न भरने वाले फुट अल्सर/घाव में बदल जाती हैं, जिसे अगर अनुपचारित छोड़ दिया जाए तो विच्छेदन भी करना पड़ता  है। विभिन्न विशेषज्ञों के पास जाने की भाग दौड़ मधुमेह के रोगियों को काफी परेशान करती है क्योंकि विभिन्न बीमारियों के लिए अनेक विशेषज्ञों के पास जाने में उन्हें काफी समय और पैसा लगाना पड़ता है। अगर ये सभी सेवाएं एक ही जगह पर मिलेंगी, तो इससे निश्चित रूप से उपचार के अनुपालन में सहायता मिलेगी और चिकित्सकों को भी नियमित रूप से दिखाना सुनिश्चित होगा।
          इसके अतिरिक्त, मधुमेह के रोगी अपनी अवस्था को संभवतः अधिक गंभीरता से लेंगे, अगर उन्हें डॉक्टर के पास जाने के दौरान मधुमेह और इसकी जटिलताओं के बारे में बताया जाएगा। इससे समय और अन्य संसाधनों की काफी बचत होगी क्योंकि उसे चिकित्सक से मिलने के दौरान मधुमेह की काफी जानकारी मिल चुकी होगी। मधुमेह प्रबंधन के खर्च से रोगी पर काफी वित्तीय बोझ पड़ता है। फलस्वरूप यह रोगी को अपनी अवस्था को गंभीरता से न लेने के लिए निरुत्साहित करता है, विशेष रूप से उन्हें जो निम्न सामाजिक.आर्थिक वर्ग के होते हैं क्योंकि वे महंगी दवाइयां, इंसुलिन के इंजेक्शन और रक्त.ग्लूकोज मॉनीटरिंग स्ट्रिप्स खरीदना वहन नहीं कर सकते। सरकार द्वारा बेहतर वहनीयता सुनिश्चित करने के लिए सस्ती दरों पर मधुमेह की दवाइयां और अन्य आपूर्तियां प्रदान करने के लिए कदम उठाना जरूरी है।

                              समय की कमी और आने जाने की समस्या से बढ़ता तनाव, रोगियों को डाक्टर से नियमित रूप से मिलने से निरुत्साहित करता है। मधुमेह के स्वप्रबंधन के बारे में जागरूकता की कमी के कारण, डॉक्टर के नुस्खे का अनुसरण करने के बावजूद, मधुमेह का नियंत्रण नहीं हो पाता। इससे डॉक्टर की रोग का उपचार करने की क्षमता पर रोगी का विश्वास कम हो जाता है और हताशा बढ़ने के साथ रोग के प्रबंधन की अभिप्रेरणा में भी कमी आ जाती है।
            दूसरी ओर, मधुमेह से पीड़ित कुछ लोग अपने रोग की अवस्था के प्रबंधन के लिए चिंतित तो होते हैं, लेकिन ज्ञान की कमी के कारण असहाय और अनभिज्ञ रह जाते हैं और ऐसे किसी व्यक्ति की ओर देखते हैं जो मधुमेह के रोजाना के जटिल निर्णय लेने में उनकी सहायता कर सके। यहां, मधुमेह के रोगियों के व्यवहार को बदलने और दैनिक आधार पर मधुमेह के प्रबंधन की आवश्यक क्षमता विकसित कर उन्हें सशक्त बनाने में मधुमेह शिक्षक की प्रमुख भूमिका होती है। मधुमेह शिक्षक न केवल रोगी को बेहतर मधुमेह नियंत्रण के लिए मार्ग दर्शन करता है बल्कि भावनात्मक सहयोग भी प्रदान करता है क्योंकि मधुमेह के रोगी अकसर अवसाद और मनोवैज्ञानिक समस्याओं से ग्रस्त रहते हैं जो चिकित्सक की व्यस्तता के कारण अनसुलझी ही रह जाती हैं।
            मधुमेह के रोगियों की मनोवैज्ञानिक काउंसिलिंग एक महत्वपूर्ण पक्ष है क्योंकि इससे बेहतर अनुपालन
होता है और रोगी के स्वास्थ्य में सुधार होता है। मधुमेह के रोगियों में अवसाद की स्क्रीनिंग, समय से अवसाद
के उपचार में सहायक होती है जो मधुमेह के प्रबंधन को बहुत ज्यादा प्रभावित कर सकती है। जिस रोगी को मधुमेह का पूरा ज्ञान होता है, मधुमेह के कारण उत्पन्न होने वाली घातक स्थितियों को संभालने में बेहतर सक्षम होता है। उदाहरण के लिए, इंसुलिन द्वारा उपचार किए जाने वाले रोगियों में अकसर हाइपोग्लीसीमिया या रक्त शर्करा में कमी देखी जाती है। अगर रोगी को पता होगा कि हाइपोग्लीसीमिया के लक्षण क्या होते हैं, उसका उपचार कैसे किया जाता है और यह वास्तव में कब होती है, तब वह इस समस्या से अपने जीवन को बचाने में सक्षम होगा, जिसका कि अगर उपचार न हो तो यह जीवन के लिए संभावित रूप से घातक हो सकता है। इसके
अतिरिक्त, मधुमेह की तीव्र समस्याओं का समय से पता लगने और उपचार होने से अस्पताल में भरती होने से बचा जा सकता है, फलतः स्वास्थ्य सेवाओं में काफी बचत हो सकती है।

मधुमेह शिक्षा के लाभ
1. बेहतर जीवन।
2. रोगी की मधुमेह के गंभीर तनाव को सहने की
क्षमता को बढ़ाती है।
3. रोगी को रोग की गहनता का पता चलता ह 
4. बेहतर ग्लूकोज नियंत्रण के कारण बेहतर ।1
ब्
स्तर (रक्त में ग्लूकोज की औसत मात्रा का
सूचक)।
5. स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च में महत्वपूर्ण बचत
से चिकित्सा खर्च में कमी।
6. मधुमेह के कारण होने वाली दीर्घ अवधि बीमारियों को रोक या कम कर सकती है।
                मधुमेह शिक्षा के सत्रों के दौरान, मधुमेह पर परस्पर बातचीत के कई लाभ होते हैं। रोगी अपने अनुभवों को परस्पर बांट कर बहुत कुछ सीखते हैं और एक दूसरे को भावनात्मक सहयोग प्रदान करते हैं। इससे मधुमेह प्रबंधन में सक्रिय भागीदारी को प्रोत्साहन मिलता है, समस्याओं को हल करने में सहायता मिलती है और अनेक रोगी अग्रसक्रिय ढंग से मधुमेह के नियंत्रण के लिए प्रेरित होते हैं जब वे उन मधुमेह के रोगियों की सफलता की कहानियां सुनते हैं जो पूरी जानकारी रखते हैं और निपुण होते हैं।
              मधुमेह प्रबंधन चिकित्सक को दिखाने तक ही सीमित नहीं होना चाहिए, बल्कि रोगी को स्वयं की
देख.रेख करके मधुमेह के प्रबंधन में सक्रिय रूप से शामिल होना चाहिए। मधुमेह के प्रत्येक रोगी को अपने स्वास्थ्य की देखभाल का दायित्व लेना चाहिए। यह केवल तब ही संभव है जब रोगी मधुमेह प्रबंधन की योजना में शामिल हो और मधुमेह शिक्षक रोगी को स्वयं की देख.रेख के बारे में शिक्षित करने का काम करे, जैसे किः
           इंसुलिन को शरीर में सही ढंग से अंतर्वेशित करना सीखना - इंसुलिन लेना जल्दी प्रारंभ करने
से मधुमेह नियंत्रण बेहतर होता है। 
               मधुमेह के रोगी अकसर इंसुलिन लेना प्रारंभ करने से डरते हैं। वे अपने आपको मधुमेह प्रबंधन में सक्षम न होने के लिए दंडित अनुभव करते हैं और जब उन्हें इंसुलिन उपचार आरंभ करने को कहा जाता है तो उनमें विफलता की भावना आ सकती है। आत्मविश्वास की कमी भी अनेक रोगियों को इंसुलिन लेने से रोकती है
क्योंकि इंसुलिन का इंजेक्शन लेने के लिए सही मार्ग दर्शन और अभ्यास की जरूरत होती है। मधुमेह की शिक्षा रोगियों को सही ढंग से इंसुलिन इंजेक्ट करना सिखाने में सहायक होती है और इंसुलिन इंजेक्शन को लेकर उनके किसी भी भय को दूर करती है।
                       ग्लूकोमीटर का प्रयोग कर घर पर ही रक्त ग्लूकोज को मॉनीटर करना- घर पर ही रक्त ग्लूकोज
को मॉनीटर करना न केवल मधुमेह की घातक समस्याओं के कारण होने वाली आपदाओं जैसे कि रक्त शर्करा का कम होना और कीटोएसीडोसिस को रोकने में सहायक होता है, बल्कि रक्त शर्करा के वांछित स्तर को प्राप्त करने में भी रोगी की सहायता करता है।
              भविष्य के संदर्भ के लिए लॉगबुक में रक्त शर्करा की रीडिंग रिकॉर्ड करना - दिन में अलग अलग
समय पर रक्त शर्करा की रीडिंग लेने से स्पष्ट हो जाता है कि कोई व्यक्ति कितनी अच्छी तरह अपनी मधुमेह को प्रबंधित कर रहा है। लॉगबुक में रिकॉर्ड की गई रीडिंग रोगी के साथ साथ हेल्थकेयर टीम (डॉक्टर, नर्स, डायटिशियन और मधुमेह शिक्षक) को भी मधुमेह के उपचार की योजना में आवश्यक परिवर्तन करने में सक्षम बनाती हैं।
                  इंसुलिन की मात्रा के समायोजन के लिए रक्त शर्करा की रीडिंग की विवेचना करना सीखना - जब
तक रोगी को रक्त शर्करा की रीडिंग की विवेचना करना सिखाया नहीं जाता, रोगी शर्करा की रीडिंग को रिकार्ड करने और जांच करने के लिए प्रेरित नहीं होगा। एक बार जब रोगी रक्त शर्करा की रीडिंग के अनुसार इंसुलिन की मात्रा को समायोजित करना सीख जाता है, वह इंसुलिन की गलत मात्रा के कारण रक्त शर्करा के स्तर में होने वाले उतार चढ़ाव को रोकने में सक्षम होगा।
           रक्त शर्करा के प्रबंधन के लिए आहार और गतिविधियों में संतुलन बनाना - रक्त शर्करा को   घर पर मॉनीटर करना वास्तव में आहार और
गतिविधियों का रक्त शर्करा के स्तर पर प्रभाव
देखने में रोगी की सहायता करता है। रोगी प्रतिदिन
के आधार पर घटने.बढ़ने वाली गतिविधियों के
अनुसार आहार अंतर्ग्रहण को घटा बढ़ा सकता है।
अधिक गतिविधियों वाले दिनों में, आहार अंतर्ग्रहण
को बढ़ाया जा सकता है या रक्त में शर्करा की
मात्रा को कम होने से रोकने के लिए इंसुलिन की
मात्रा को कम किया जा सकता है। रक्त शर्करा
की मॉनीटरिंग से खाने की मात्रा के नियंत्रण में भी
सहायता मिलती है जिससे रोगी को अपने आहार में
कई प्रकार के खाने का आनंद उठाने की स्वतंत्रता
मिलती है जिनका स्वाद वह कभी कभी लेता है।
अस्पताल में भर्ती होने से बचने के लिए
मधुमेह की घातक समस्याओं का उपचार -
हाइपोग्लीसीमिया और कीटोएसीडोसिस जैसी मध्
ाुमेह मेलिटस की घातक समस्याओं को अगर
अनदेखा कर अनुपचारित छोड़ दिया जाए तो
जीवन के लिए खतरा हो सकता है और अस्पताल
में भर्ती होने की जरूरत होती है। रोगी शिक्षा के
जरिए, लक्षणों को समझना और समय पर अवस्था
का उपचार करना सीख सकता है और अस्पताल
जाने से बच सकता है।
लक्षित रक्त शर्करा स्तर प्राप्त करके मधुमेह की
दीर्घ अवधि समस्याओं को रोकना - अनुकूलतम
रक्त शर्करा स्तरों से, कोई भी मधुमेह की दीर्घ
अवधि समस्याओं (कार्डिओवैस्कुलर रोग, रेटिनोपैथी,    न्यूरोपैथी और नैफ्रोपैथी) को विलंबित कर सकता
है या रोक सकता है, विशेष रूप से जब मधुमेह के
रोगी को निदान के तुरंत बाद मधुमेह स्वप्रबंधन की
शिक्षा दी जाए। जिन्हें लंबे समय से मधुमेह होती है
और बहुत सी समस्याएं विकसित हो गयी हों, उन्हें
भी लक्षित रक्त शर्करा स्तर प्राप्त करने से लाभ
होता है क्योंकि यह रोग की समस्याओं को आगे
बढ़ने से रोकता है।
अस्वस्थ दिनों में प्रबंधन - मधुमेह के रोगियों
को जुकाम, फ्लु या डायरिया जैसी बीमारियों के
दौरान मधुमेह की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। रक्त
शर्करा की मॉनीटरिंग बीमारी के दौरान भी बहुत
महत्वपूर्ण है क्योंकि तेज बुखार के दौरान रक्त
शर्करा का स्तर बढ़ जाता है। लंबे समय तक
डायरिया से रक्त शर्करा का स्तर कम हो सकता
है, इसलिए अनुपचारित डायरिया के कारण कम
होने वाले रक्त शर्करा के स्तर और निर्जलीकरण
को रोकने के लिए सही आहारीय प्रबंधन और
रक्त शर्करा की मॉनीटरिंग की जरूरत होती है।
इसलिए, मधुमेह के रोगियों को अस्वस्थ दिवस
प्रबंधन के नियमों का भी ज्ञान होना जरूरी है
क्योंकि बीमारी के दौरान अनदेखी से मधुमेह की
घातक समस्याएं हो सकती हैं।
विश्व भर में सबसे अधिक डायबिटज पीड़ित
भारत में हैं लेकिन मधुमेह की शिक्षा में हम सबसे
पीछे हैं। हमारे देश में मधुमेह पीड़ितों की बढ़ती
संख्या के साथ, मधुमेह शिक्षा कार्यक्रम आरंभ करना   समय की सबसे बड़ी जरूरत है। चूंकि मधुमेह
मेलिटस लाइलाज है, रोगी को उपचार प्लान में
सक्रिय रूप से शामिल करके, इसे सफलतापूर्वक
प्रबंधन करना होगा। यह केवल तब ही संभव है जब
रोगी को मधुमेह के बारे में पूरा ज्ञान हो और उसे
स्वयं देख.रेख व्यवहार के जरिए अपनी मधुमेह का
ध्यान रखने के लिए प्रेरित किया जाए।
इस प्रकार, मधुमेह प्रबंधन का रोगी.केंद्रित
अभिगम, जीवित रहने की आवश्यक क्षमताओं के
साथ रोगी को सशक्त बनाता है और मधुमेह के
प्रबधन के बारे में निर्णय लेने में सक्षम बनाता
है क्योंकि वह दैनिक आधार पर निर्णय लेने की
प्रक्रिया में अपनी समझ का प्रयोग करना सीख लेता
है। चूंकि प्रत्येक रोगी की जरूरतें अलग होती हैं,
मधुमेह केयर टीम के साथ रोगी की सहायता से
एक अत्यंत वैयक्तिक मधुमेह प्रबंधन प्लान बनाने
की जरूरत होती है। इससे न केवल वह बेहतर ढंग
से मधुमेह को नियंत्रित करने में सक्षम होंगे बल्कि
खराब मधुमेह नियंत्रण के कारण होने वाली दीर्घ
अवधि समस्याओं को रोकने में भी इससे सहायता
मिलेगी। भारत में मधुमेह शिक्षा कार्यक्रमों का
कार्यान्वयन, मधुमेह को प्रबंधित करने में प्रभावी रूप
से सहायक होगा जिससे स्वास्थ्य की देखभाल पर
होने वाला खर्च काफी कम होगा और उत्पादकता
बढ़ने से आर्थिक वृद्धि बेहतर होगी।
(अनुवादः डॉ. विनीता सिंघल) द


  

स्वस्थ आहार

स्वस्थ आहार

परिचय

 

स्वस्थ और सक्रिय जीवन के लिए मनुष्य को उचित एवं पर्याप्त पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है। शरीर की आहार संबंधी आवश्यकताओं के तहत पोषक तत्वों की प्राप्ति के लिए अच्छा पोषण या उचित आहार सेवन महत्वपूर्ण है। नियमित शारीरिक गतिविधियों के साथ पर्याप्त, उचित एवं संतुलित आहार अच्छे स्वास्थ्य का आधार है। ख़राब पोषण से रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो जाती है और रोग के प्रति संवेदनशीलता बढ़ जाती है तथा शारीरिक एवं मानसिक विकास बाधित होता है तथा उत्पादकता कम हो जाती है।
संपूर्ण जीवन में स्वस्थ आहार उपभोग अपने सभी रूपों में कुपोषण रोकने के साथ-साथ गैर-संचारी रोगों (एनसीडी) तथा अन्य स्थितियां रोकने में भी मदद करता है, लेकिन तेजी से बढ़ते शहरीकरण/वैश्वीकरण, प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के उपभोग और बदलती जीवनशैली के कारण आहार संहिता में महत्वपूर्ण बदलाव हुआ है।
लोग अधिक ऊर्जा, वसा, शर्करा या नमक/सोडियम से भरपूर खाद्य पदार्थों का सेवन कर रहे हैं तथा पर्याप्त फल एवं सब्जी तथा रेशा युक्त आहार जैसे कि साबुत अनाज का सेवन नहीं करते हैं। इसलिए, ये सभी कारक असंतुलित आहार में योगदान करते हैं। संतुलित और स्वस्थ आहार विभिन्न ज़रूरतों (जैसे कि उम्र, लिंग, जीवन शैली और शारीरिक गतिविधियों), सांस्कृतिक, स्थानीय उपलब्ध खाद्य पदार्थों और आहारीय रीति-रिवाजों (खानपान के संस्कार) के आधार पर अलग होता है, लेकिन स्वस्थ आहार का गठन करने वाले मूल सिद्धांत समान रहते हैं।
संतुलित आहार वह होता है, जिसमें प्रचुर और उचित मात्रा में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ शामिल होते है, जिससे संपूर्ण स्वास्थ्य, जीवन शक्ति और तंदुरूस्ती/आरोग्यता बनाए रखने के लिए सभी आवश्यक पोषक तत्व पर्याप्त रूप से मिलते हैं तथा संपूरक पोषक तत्व कम अवधि की कमजोरी दूर करने की एक न्यून व्यवस्था है।
आहार संबंधी मुख्य समस्या अपर्याप्त/असंतुलित आहार का सेवन है। भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य महत्व की सबसे सामान्य पोषण संबंधी समस्याओं में से एक जन्म के समय कम वज़न, बच्चों में प्रोटीन-कैलोरी (ऊर्जा) कुपोषण, वयस्कों में चिरकालिक ऊर्जा की कमी, सूक्ष्म पोषक कुपोषण और आहार संबंधी गैर-संचारी रोग हैं। देश में मानव संसाधनों के विकास के लिए स्वास्थ्य और पोषण सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी कारक हैं।
स्वस्थ आहार पद्धति जीवन में जल्दी शुरू होती है। हालिया प्रमाण दर्शाते है, कि गर्भाशय में पोषण की कमी, बाद के जीवन में आहार संबंधी चिरकालिक रोगों के लिए भावभूमि निर्मित करती है। स्तनपान स्वस्थ विकास में वृद्धि करता है और संज्ञानात्मक विकास में सुधार करता है तथा उससे लंबे समय तक का स्वास्थ्य लाभ होता है। यह अधिक वज़न या मोटापा और बाद के जीवन में एनसीडी होने का ज़ोखिम कम करता है।
यद्यपि स्वस्थ आहार में विभिन्न प्रकार के खाद्य पदार्थ शामिल होते हैं, इसलिए ‘प्रमुखता’ खाद्य आधारित दृष्टिकोण से पोषक नवाचार पर स्थानांतरित हो गयी है।

खाद्य पदार्थों को निम्नलिखित के अनुसार वर्गीकृत किया जा सकता है-
  • ऊर्जा से भरपूर खाद्य पदार्थ (कार्बोहाइड्रेट और वसा)- साबुत अनाज, बाजरा, वनस्पति तेल, घी, मेवा, तिलहन और शर्करा।
  • हड्डियां मज़बूत करने वाला आहार (बॉडी बिल्‍डिंग फ़ूड)- दलहन, मेवा, तिलहन, दुग्ध और दुग्ध उत्पाद, मांस, मछली और मुर्गी (पोल्ट्री)।
  • सुरक्षात्मक खाद्य पदार्थ (विटामिन और खनिज)- इसमें हरी पत्तेदार सब्जियां, अन्य सब्जियां, फल, अंडा, दुग्ध और दुग्ध उत्पाद और मांसाहारी खाद्य पदार्थ शामिल है।
जीवन के विभिन्न चरणों में आहार योजना
पोषण सब के लिए आवश्यक है। हालांकि, हर व्यक्ति के लिए आवश्यकता अलग-अलग होती है, जिसमें एक शिशु, बढ़ता हुआ बच्चा, गर्भवती/धात्री/स्तनपान कराने वाली महिलाएं और बुजुर्ग लोग शामिल हो सकते हैं। आहार विभिन्न कारकों जैसे कि उम्र, लिंग, शारीरिक गतिविधि और विभिन्न शारीरिक चरणों में पोषण की आवश्यकता तथा अन्य कई कारकों पर निर्भर करता है। बच्चों की शारीरिक लंबाई और वज़न उनकी शारीरिक वृद्धि और विकास दर्शाता हैं, जबकि वयस्कों की लंबाई और वज़न अच्छे स्वास्थ्य की दिशा के उठाए गए चरण दर्शाता हैं।
शिशु के लिए आहार:
यदि आपके पास कोई शिशु या बच्चा है, तो सुनिश्चित करें, कि उसे उसकी बढ़ती उम्र के अनुसार पर्याप्त पोषण मिलता है। शिशु को जीवन के पहले छह महीनों तक केवल स्तनपान कराया जाना चाहिए। प्रसव के बाद, एक घंटे के भीतर स्तनपान कराना शुरू किया जाना चाहिए तथा पहले दूध (कोलोस्ट्रम) को त्यागना नहीं चाहिए, क्योंकि यह शिशु की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाता है तथा उसे कई संक्रमणों से भी बचाता है। स्तनपान, शिशु के लिए सुरक्षित पोषण सुनिश्चित करता है, जिससे संक्रमण का ख़तरा कम होता है तथा यह उसके संपूर्ण विकास में भी मदद करता है। शिशुओं की वृद्धि और स्वस्थ विकास के लिए स्तनपान सबसे अच्छा प्राकृतिक और पौष्टिक आहार है। स्तनपान करने वाले शिशुओं को अतिरिक्त पानी की आवश्यकता नहीं होती है। छह महीने के बाद आप स्तनपान कराने के साथ-साथ अपने बच्चे को अनुपूरक आहार खिला सकते हैं। अनुपूरक आहार पोषक तत्वों से भरपूर होना चाहिए। ये अनुपूरक आहार सामान्यत: घर पर उपयोग किए जाने वाले खाद्य पदार्थों जैसे कि अनाज (गेहूं, चावल, ज्वार, बाजरा आदि) दाल (चना/दाल), मेवा तथा तिलहन (मूंगफली, तिल आदि), तेल (मूंगफली का तेल, तिल का तेल आदि), चीनी और गुड़ से तैयार किए जा सकते हैं। आप अपने बच्चे को विभिन्न प्रकार के नरम/अर्ध ठोस खाद्य पदार्थ जैसे कि आलू, दलिया, अनाज या अंडे भी खिला सकते हैं।
डब्ल्यूएचओ के अनुसार-
  • शिशुओं को जीवन के पहले छह महीनों के दौरान केवल स्तनपान कराया जाना चाहिए।
  • शिशुओं को दो वर्ष की आयु और उसके बाद तक अनुपूरक आहार के साथ लगातार स्तनपान कराया जाना चाहिए।
  • छह महीने की उम्र के बाद पर्याप्त, सुरक्षित और पोषक तत्वों से भरपूर विभिन्न प्रकार के अनुपूरक खाद्य पदार्थों के साथ स्तनपान’ कराया जाना चाहिए।
शिशु एक समय में अधिक मात्रा में भोजन नहीं कर सकता हैं, इसलिए उसे निरंतर अंतराल पर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में (दिन में तीन से चार बार) आहार खिलाया जाना चाहिए। इसके अलावा, आहार अर्ध-ठोस और गाढ़ा होना चाहिए, ताकि शिशु इसे आसानी से निगल सकें। संतुलित आहार आपके बच्चे को पोषण संबंधी कमियों से बचाने की कुंजी है। प्रोटीन ऊर्जा (कैलोरी) कुपोषण छह महीने से लेकर पांच वर्ष के बच्चों को अधिक प्रभावित करता है। कुपोषण को "अपर्याप्त या असंतुलित आहार के कारण खराब पोषण की स्थिति" के रूप में परिभाषित किया गया है।
स्मरण योग्य तथ्य
  • प्रसव के बाद एक घंटे के भीतर स्तनपान कराना शुरू करें तथा कोलोस्ट्रम को न त्यागें।
  • छह महीने तक केवल (पानी भी नहीं) स्तनपान कराएं।
  • पोषक तत्वों से भरपूर अनुपूरक खाद्य पदार्थों के साथ अच्छा होगा कि दो वर्ष तक स्तनपान कराना जारी रखें।
  • छह महीने की उम्र के बाद शिशुओं के लिए केवल माँ का दूध पर्याप्त नहीं होता है। छह महीने की उम्र के बाद स्तनपान कराने के साथ-साथ अनुपूरक आहार दिया जाना चाहिए।
  • कम लागतपरक घर पर बनाए जाने वाली कैलोरी और पोषक तत्वों से भरपूर अनुपूरक आहार खिलाएं।
  • शिशुओं के लिए अनुपूरक आहार तैयार करते और खिलाते समय स्वच्छता पद्धति का पालन करें।
  • बच्चों के आहार पर लगे पोषण संबंधी लेबल को ध्यान से पढ़ें, क्योंकि बच्चों को संक्रमण का ख़तरा सबसे अधिक होता है।
  • जंक फूड से बचें।
बढ़ते बच्चों के लिए आहार:
संतुलित आहार खाने वाले बच्चे ‘स्वस्थ और सक्रिय जीवनशैली’ की नींव रखते हैं। इससे दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याओं का ज़ोखिम कम होता है। ‘बाल्यावस्था’ वृद्धि के साथ-साथ मस्तिष्क विकास और संक्रमण से लड़ने का महत्वपूर्ण समय होता है। इसलिए, यह बहुत आवश्यक है, कि बच्चों को ऊर्जा, प्रोटीन, विटामिन और खनिजों की अच्छी खुराक मिलें। बच्चों के लिए अनुपूरक भोजन तैयार करते और खिलाते समय स्वच्छता पद्धतियों का पालन करना बेहद महत्वपूर्ण है; अन्यथा यह कमी डायरिया/दस्त/अतिसार उत्पन्न कर सकती है। बच्चों और किशोरों के सर्वोत्तम विकास और उनकी प्रतिरक्षा को बढ़ावा देने के लिए उचित तरीके से बनाया गया संतुलित आहार परम आवश्यक है। बच्चे के बाहर खेलने, शारीरिक गतिविधि, सर्वोत्तम शारीरिक संरचना, बाद के जीवन में आहार संबंधी चिरकालिक रोगों की स्थितियों और किसी भी प्रकार के विटामिन की कमी के ज़ोखिम को रोकने के लिए भी संतुलित आहार आवश्यक हैं। किशोरावस्था में इसके साथ कई अन्य कारक जैसे कि लंबाई और वज़न में त्वरित वृद्धि, हार्मोनल परिवर्तन और स्वभाव जुड़ें हैं।
इस अवधि के दौरान हड्डियों (बोन मास) का विकास होता है, इसलिए कैल्शियम युक्त खाद्य पदार्थ जैसे कि दुग्ध उत्पाद (दूध, पनीर, दही) और पालक, ब्रोकली एवं सेलरी/अजवाइन खाना ज़रूरी हैं, क्योंकि इनमें कैल्शियम भरपूर मात्रा में होता हैं।
बच्चों को ऊर्जा (कैलोरी) के लिए अधिक मात्रा में कार्बोहाइड्रेट और वसा की आवश्यकता होती है। इसलिए, उनके लिए ऊर्जा (कैलोरी) से भरपूर खाद्य पदार्थों जैसे कि साबुत अनाज (गेहूं, भूरा चावल/ब्राउन राइस), मेवा, वनस्पति तेल, फल एवं सब्जियों जैसे कि केला एवं आलू, शकरकंद का प्रतिदिन सेवन आवश्यक है।
बच्चों के मामले में प्रोटीन’ मांसपेशियों के निर्माण, मरम्मत और विकास तथा एंटीबॉडी निर्माण के लिए आवश्यक हैं। इसलिए उन्हें ऐसा आहार दें, जिसमें मांस, अंडा, मछली और दुग्ध उत्पाद शामिल हों।
बच्चे के शरीर की अच्छी शारीरिक प्रक्रिया और प्रतिरक्षा प्रणाली बढ़ाने के लिए विटामिन की आवश्यकता होती है। बच्चे के आहार में विभिन्न रंगों के फलों और सब्जियों को शामिल किया जाना चाहिए। दृष्टि/आंखों की रोशनी के लिए विटामिन ‘ए’ आवश्यक है तथा उसकी कमी से रतौंधी (रात में देखने में कठिनाई) होती है। गहरी हरी पत्तेदार सब्जियां, पीले, नारंगी रंग की सब्जियां एवं फल (जैसे कि गाजर, पपीता, आम) विटामिन ‘ए’ के अच्छे स्रोत हैं।
विटामिन ‘डी’ हड्डियों की वृद्धि और विकास में मदद करता है तथा यह कैल्शियम के अवशोषण के लिए आवश्यक है। बच्चे अधिकांशत: विटामिन ‘डी’ धूप से प्राप्त करते है तथा थोड़ी मात्रा में कुछ खाद्य पदार्थों (मछली के तेल, वसायुक्त मछली, मशरूम, पनीर और अंडे की जर्दी) से प्राप्त करते हैं।
मासिक धर्म की शुरुआत (रजोधर्म) के कारण किशोरियां, किशोरों की तुलना में अधिक शारीरिक परिवर्तन और मनोवैज्ञानिक तनाव महसूस करती है। इसलिए, किशोरियों को ऐसा आहार दिया जाना चाहिए, जिसमें एनीमिया रोकने के लिए विटामिन और खनिज दोनों भरपूर मात्रा में हों।
आजकल बच्चों का झुकाव जंक फूड की ओर अधिक हो गया है, लेकिन आपके लिए अपने बच्चे को पोषण से भरपूर खाद्य पदार्थ खाने के लिए प्रेरित करना बेहद ज़रूरी है। अधिकांश बच्चों में खाने की ख़राब/गलत आदतें होती हैं। ये आदतें विभिन्न दीर्घकालिक स्वास्थ्य जटिलताएं उत्पन्न करती हैं, जैसे कि मोटापा, हृदय रोग, मधुमेह टाइप 2 और ऑस्टियोपोरोसिस। एक अभिभावक के तौर पर प्रतिदिन एक तरह के आहार की नीरसता (बोरियत) से बचने के लिए अपनी आहार संहिता (मेनू) में लगातार बदलाव करते रहें। किशोरावस्था खराब/गलत आहार की आदतों के साथ-साथ धूम्रपान, चबाने वाले तंबाकू या अल्कोहल जैसी बुरी आदतों के लिए सबसे कमजोर समय होता है। इनसे बचा जाना चाहिए। पौष्टिक तत्वों से भरपूर संतुलित आहार के अलावा, स्वस्थ जीवन शैली पद्धति और क्रीड़ा/खेल जैसी बाहरी गतिविधियों में भागीदारी के लिए बच्चों और किशोरों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। नियमित ‘शारीरिक व्यायाम’ मज़बूती और आंतरिक बल बढ़ाता हैं। ये अच्छे स्वास्थ्य और तंदुरूस्ती के लिए आवश्यक हैं।
स्मरण योग्य तथ्य
  • शिशुओं को खिलाते समय अतिरिक्त सावधानी बरतें और उनके आहार में नरम पकी हुई सब्जियां एवं मौसमी फल शामिल करें।
  • बच्चों और किशोरों को दूध और दूध से भरपूर उत्पाद दें, क्योंकि वृद्धि और हड्डियों के विकास के लिए उन्हें कैल्शियम की आवश्यकता होती है।
  • अपने बच्चे को बाहरी गतिविधियों और भोजन से पहले अपने हाथ धोने तथा दिन में दो बार अपने दांत ब्रश से साफ़ करने जैसी स्वस्थ जीवन शैली पद्धति अपनाने के लिए प्रोत्साहित करें। ये कुछ स्वच्छता पद्धति है।
  • एक बार भोजन के दौरान अधिक खाने से बचें। लगातार अंतराल पर खाएं।
  • सूर्य के प्रकाश के संपर्क में आने से विटामिन ‘डी’ को बनाए रखने में मदद मिलती है, जो कि कैल्शियम के अवशोषण में भी मदद करता है।
  • बच्चे को कभी भूखा न रखें। दूध और मसली हुई सब्जियों के साथ ऊर्जा (कैलोरी) दायक अनाज-दाल युक्त आहार खिलाएं।
  • रोग के दौरान पर्याप्त मात्रा में तरल पदार्थ दें। उचित पोषण की स्थिति बनाए रखने के लिए संक्रमण की अवधि के दौरान और बाद में बच्चे को अधिक खाने की ज़रूरत होती है।
  • दस्त/अतिसार/डायरिया की अवधि के दौरान निर्जलीकरण रोकने और नियंत्रित करने के लिए जिंक टैबलेट के साथ-साथ ओरल रिहाइड्रेशन साल्ट्स (ओआरएस) का उपयोग करें।
  • शरीर को हाइड्रेट (जलयोजित) करने के लिए 2-2.5 लीटर पानी पिएं। शीतल पेय और अन्य पैकेज्ड ड्रिंक के बजाए पानी/छाछ/लस्सी/फलों के रस/नारियल पानी को प्राथमिकता दें।
गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माँ/धात्री के लिए आहार:
मातृत्व (माँ बनना) हर महिलाओं के जीवन में शारीरिक और मानसिक के साथ-साथ पोषण की दृष्टि से एक परीक्षणात्मक चरण होता है। यदि आप गर्भवती हैं या आपके परिवार में कोई बच्चे की उम्मीद कर रहा है, तो यह सुनिश्चित करें, कि वे अच्छी तरह से खाती हों। गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान संपूरक आहार और अधिक ध्यान देने की आवश्यकता होती है। आपके गर्भ में बच्चे की पोषण संबंधी आवश्यकता को पूरा करने के लिए संपूरक आहार की आवश्यकता होती है। गर्भावस्था में वज़न बढ़ने (आमतौर पर दस से बारह किलोग्राम) और शिशुओं का जन्म वज़न (लगभग 2.5 किलोग्राम से 3 किलोग्राम) के लिए संपूरक आहार की आवश्यकता होती है। एक गर्भवती महिला की पोषण संबंधी आवश्यकता गर्भावस्था की विभिन्न तिमाहियों के आधार पर बदलती है। कुछ मामलों के अंतर्गत बच्चे में विकृतियों के ज़ोखिम को कम करने और बच्चे का ‘जन्म वज़न’ बढ़ाने और माँ में होने वाला एनीमिया रोकने के लिए सूक्ष्मपोषक तत्व (जैसे कि फोलिक एसिड/आयरन की गोलियां) अधिक ख़ुराक की आवश्यकता होती हैं।
गर्भावस्था की उम्मीद करने वाली महिला और स्तनपान कराने वाली माँ/धात्री में ऑस्टियोपोरोसिस रोकने और कैल्शियम से भरपूर स्तन-दूध स्राव एवं बच्चे की हड्डियों और दांतों के उचित गठन के लिए गर्भावस्था के दौरान और स्तनपान चरण में कैल्शियम की अधिक ख़ुराक की आवश्यकता होती है। इसलिए उनके आहार में कैल्शियम युक्त खाद्य पदार्थ जैसे कि दूध...

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