वर्तमान-एलोपैथी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली..एक समीक्षा
रणबीर सिंह दहिया
जन स्वास्थ्य अभियान हरियाणा
9812139001
आज हमारे देश में चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने के बाद जो डाक्टर बनता है वह कहीं भी देश की आवश्यकताओं के अनुरुप नहीं बैठता है। प्रत्यक्ष में चिकित्सा प्रणाली के तीनों पक्षों- कंटैंट ,मैथड तथा भाषा को ही इसका कसूर जाता है। लेकिन यह कसूर चिकित्सा प्रणाली से आगे सामान्य शिक्षा प्रणाली से जा जुड़ता है और उससे भी आगे हमारी समाज व्यवस्था से जुड़ जाता है। वास्तव में हमारी चिकित्सा शिक्षा और सामान्य शिक्षा दोनों आज की हमारी बाजारी समाज व्यवस्था के मातहत ही फल फूल रही हैं। मौजूदा शिक्षा सिर्फ ट्रेनिंग देने की एक ऐसी प्रक्रिया नहीं जिससे कि एक खास काम लिया जा सके बल्कि यह एक व्यक्ति को एक खास तरह का अपेक्षित रोल अदा करने से रोकने की प्रक्रिया भी है।
आज के दिन हमारे देश में 4 6 0 के लगभग चिकित्सा शिक्षा संस्थान हैं-सरकारी और प्राईवेट जिनको एम सी आई ने स्वीकृति दी हुई है । और इनमें 6 3 9 8 5 विद्यार्थियों के लिए सीटें हैं | इस सारे फैलाव के बावजूद सच्चाई यह है कि कमोबेश सभी डाक्टर अरबन बेसड हैं और भिन्न भिन्न राज्यों में इनकी संख्या का अनुपात भी अलग अलग है। एक छात्र के एम.बी. बी.एस. डाक्टर बनाने पर सरकार का एक करोड़ बीस हजार के लगभग धन खर्च होता है। छात्र को भी सरकारी कालेज में 52070 रूपये प्रति वर्ष फीस देनी पड़ती है और हॉस्टल का खर्च अलग | प्राईवेट कालेज में सालाना फीस 18 से 25 लाख के लगभग हैं | एम डी ,एम एस की डिग्री प्राइवेट कालेज में लगभग 2 करोड़ की है | यह भी कहा जा सकता है कि कुछ कालेजों में बढ़िया चिकित्सा तथा बढ़िया इलाज देने की महारथ हांसिल कर ली है परन्तु किस कीमत पर? नीट की परीक्षा में कुल एंड 720 थे | ऐसा फार्मूला पर्सेंटाइल का लगाया कि 96 अंक यानि 13 . 4 प्रतिशत नंबर वाले विद्यार्थी भी एलिजिबल हैं | हो सकता है सीटें खाली रहने पर यह और भी नीचे चली जाये | सोचा जा सकता है कि आने वाले वक्तों में डाक्टरों की गुणवत्ता का स्तर क्या होगा ? " मैरिट इज इक्वल टू मनी "| चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य ढांचा दोनों अलग अलग दिशाओं में जा रहे हैं। आज एक फिजिसियन की भूमिका में और समाज की आवश्यकताओं में बहुत कम तालमेल बचा है। मैडीकल शिक्षा में तथा स्वास्थ्य की देख रेख करने वाले ढांचे में कोई सामंजस्य नहीं रहा है। आज भी हमारे देश में चिकित्सा को विज्ञान और तकनीक के दायरे में ही देखा जाता है तथा इसे समाज की आवश्यकताओं से आाजाद करके ऐतिहासिक संदर्भों से काटकर समझा जाता है। एक वक्त भारत सरकार द्वारा गठित मैडीकल एजूकेशन कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक यह आलोचना बिल्कुल सही है कि ‘ वर्तमान चिकित्सा शिक्षा का असल में इस देश के बहुत बड़े हिस्से पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।
चिकित्सा शिक्षा को इस प्रकार की दिशा दी गई कि जिससे हमारे समाज की जो मौजूदा सामाजिक सांस्कृतिक व आर्थिक हालत है इसे छिपाया जा सके जो कि आजकल के शासक वर्ग द्वारा खास वर्गों के हितों के लिए बनाई गई है। आज की हमारी यह सामाजिक आर्थिक संरचना बहुत सी बीमारियों की जड़ है।
बहुत सी बीमारियां हैं जो कि कम खुराक, कम कपड़ों, साफ पानी की उपलब्धता की कमी, ठीक मकान न होने, ठीक मलमूत्र त्याग की सुविधा न होने , साफ सुथरे वातावरण की कमी की वजह से तथा इसके साथ ही कमजोर स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधाएं होने के कारण पनपती हैं। इसका असर ग्रामीण भारत में और भी ज्यादा देखने को मिलता है।
दूसरा ग्रूप ऐसी बीमारियों का है जो बाजार व्यव्स्था के समाज में रहन सहन की देन हैं। मसलन मानसिक तनाव, साइकोसोमेटिक डिस्आरडर, नशा , हिंसा व ऐक्सीडैंटस।
तीसरा ग्रूप है जो कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की परिस्थितियों का नतीजा हैं। इनमें ज्यादा मुनाफा कम से कम खर्च में कमाने की प्रवृति काम करती है। नतीजतन काम करने के खराब हालात की वजह से भी बीमारियां हो जाती हैं, वातावरण के प्रदूषण से कई बीमारियां जन्म लेती हैं, कीटनाशक दवाओं के दुष्प्रभाव तथा मिलावट कई प्राणघातक बीमारियां पैदा करती है।
चौथा ग्रूप उन बीमारियों का है जो शोसक वर्गों और उनकी सरकारों द्वारा अपना प्रभुत्व करोडों करोड़ लोगों पर अपने निहित स्वार्थों के कायम रखने के दौरान पैदा होती हैं मसलन युद्ध के लिए किये गये प्रयोगों के नतीजे के तौर पर तथा वास्तविक युद्धों में कैमीकल, बायोलॉजिकल या न्यूक्लीयर हथियारों के इस्तेमाल परिणाम स्वरुप बहुत सी बीमारियां सामने आई हैं। स्थिति यहां तक जा पहुची है कि मनुष्य तो क्या कोई भी जीव इसकी मार से नहीं बचेगा। लेकिन वर्तमान चिकित्सा प्रणाली में और चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में पूरे जोर शोर से कोशिश की जाती है कि इन सच्चाईयों को छिपाया जाए और इन बीमारियों का मूल कारण दूसरे या तीसरे कारणों को बताया जाए।
वर्तमान चिकित्सा शिक्षा विद्यार्थियों में इस प्रकार की भावनाएं जाग्रत करने की कोशिश करती है जो कि इस बाजारी समाज व्यवस्था के शोसन करने के स्वरुप को बरकरार रखें। मिसाल के तौर पर इस चिकित्सा शिक्षा के ग्रहण करने के बाद व्यक्ति या वह डाक्टर यह देख पाने में और समझ पाने में असमर्थ रहता है कि जो स्वास्थ्य सेवाएं कल्बों द्वारा दी जाती है जैसे कि रोटरी कल्ब या लायन्ज कल्ब उनका वास्तविक स्वरुप क्या है? इन कल्बों और संस्थाओं के सरगना कई वही लोग होते हैं जो समाज की सारी बुराईयों के लिए जिम्मेदार हैं जिसमें बीमारियां भी शामिल हैं मगर यही लोग हैं जो चालाकी से सफलतापूर्वक अपने आपको लोगों का असली सेवक तथा रक्षक बनाने का ढोंग इस स्वाथ्थ्य सेवा के माध्यम से करते हैं। यहां तक कि पूर्ण रुपेण जन विरोधी सरकारें भी इन स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से अपने आपको जन हितैषी साबित करने में सफल रहती हैं। और इसी संदर्भ में हमारे देश में समय समय पर हुए स्वास्थ्य ढांचे के ग्रामीन व शहरी विस्तार को देखना ज्यादा सही होगा।
हमारी वर्तमान चिकित्सा शिक्षा डाक्टर को औजारों और दवाओं के उद्योगों का एक सेल्जमैन बनाने का भरपूर प्रयास करती है इसके लिए तरह तरह के कार्यक्रम प्रायोजित करके डाक्टरों को शामिल किया जाता है। ऐसी नीतियां बनाई जाती हैं जहां पैसे वालों के लिए और सरकारी कर्मचारियों के लिए अपोलो और फोरटिस और बाकियों के लिए डिलिवरी हट और आशा वर्कर। हमारे जैसे पिछडे़ हुए औद्योगिक देश में जहां लेबर बड़ी सस्ती है, बेषुमार बेरोजगारी है, लेबर फोर्स असंगठित है, नौकरी की सुरक्षा कतई नहीं है और अनपढ़ता इस हद तक है कि बीमारी के दौरान भरपूर और जल्द स्वास्थ्य सुविधा की जरुरत ही नहीं समझी जाती। हमारे समाज में चिकित्सा सुविधा तक पहुंच इन बातों पर निर्भर करती है कि किसी की पैसा खर्च करने की ताकत कितनी है, उसकी षाशक वर्ग से कितनी नजदीकी है और उसकी चेतना का स्तर क्या है? ऐसे विकसित देषों में जहां पूंजी की स्वतन्त्रता महत्वपूर्ण भूमिका में है वहां चिकित्सा षिक्षा के और स्वास्थ्य सेवाओं के उद्येष्य समान हैं। बीमार आदमी की देखभाल का स्तर और गुणवता काफी उंचे पैमाने के हैं और वहां सरकार का स्वास्थ्य पर खर्च भी काफी है,नतीजतन वहां पर लेबर बहुत म्हंगी है और जब लेबर बीमार होती है तो उसका विकल्प जल्दी से नहीं मिल पाता और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लेबर फोर्स संगठित है। वहां की लेबर फोर्स को जल्दी व आसानी से नौकरी से बाहर नहीं फैंका जा सकता। वहां साक्षरता दर काफी उंची है।
एक तरह से देखें तो भारतवर्श में यह कहना पूर्ण रुप से ठीक नहीं है कि हमारे देश का वर्तमान चिकित्सा शिक्षा का ढांचा गलत दिशा में जा रहा है। यह तो असल में उसी दिशा में जा रहा है जिस दिशा में हमारे नीति निर्धारक इसे ले जा रहे हैं और वह दिशा इस परिधारणा पर आधारित है कि स्वास्थ्य एक खरीदी जाने वाली वस्तु -कमोडिटी - है जिसके पास पैसा है वह खरीद सकता है। खरीदने की ताकत पैसे वाले के पास है तो उसी की सेहत ठीक रखने की दिशा भी बनती रही है। विरोधाभाष यहां पर यह है कि इस दिशा के चलते वह गरीब का इलाज कैसे करेगा? शायद दिखावा ही किया जा सकता है। यहां पर यह भी कहना जरुरी है कि विद्यार्थियों , अध्यापकों या सलेबस को यदि इस सबके लिए दोषी मानेंगे तो यह ज्यादती होगी क्योंकि इन सब को आज के वर्तमान वर्ग शक्तियों का जो संतुलन है उससे अलग करके नहीं देखा जा सकता और इसलिए चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में बदलावों के मूल भूत प्रयासों को एकांगीपन के साथ आगे नहीं बढ़ाया जा सकता इसे भी समाज के दूसरे हिस्सों में परिवर्तन कारी संघर्शों व समाज सुधार के आन्दोलनों के साथ मिलकर ही एक नया समाज बनाने की व्यापक प्रक्रिया के हिस्से के रुप में ही देखा जाना चाहिये। मगर इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह एक बहुत कठिन काम है क्योंकि इसके लिए वैचारिक विमर्ष की तीव्र आवश्यकता है जो कि अभी तक बहुत कम रहा है। सिर्फ इतना ही काफी नहीं है कि आपने ज्ञान और हुनर हासिल कर लिया और मरीज का इलाज कर देंगे और बीमारी का खात्मा कर देंगे। इसके साथ जो ‘वैल्यू सिस्टम’ व आचरण की नैतिकता भावी डाक्टर के अन्दर पैदा किये जा रहे हैं वह भी उसका विश्व दृष्टिकोण बनाने में बड़ी भूमिका अदा करते हैं। वर्तमान चिकित्सा शिक्षा का वैल्यू सिस्टम विद्यार्थी को लोगों से दूर और अधिक दूर ले जा रहा है और यह व्यवहार-एटीच्यूड- सिर्फ चिकित्सा शिक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह तो स्कूल से ही आरम्भ हो जाता है और नतीजा यह होता है कि डाक्टर बनने के पीछे ‘ मोटिव फोर्स ’ पैसा , पै्रक्टिस , ईजी कैरीयर आदि बन जाते हैं और विश्व दृष्टि भी काफी खण्डित हो जाती है। किसी रिसर्च पर चर्चा के विद्वान कहते हैं कि हमारा काम रिसर्च करना है उसके सामाजिक पक्ष पर सोचना हमारा काम नहीं है। हो सकता है इनमें से बहुत से डाक्टर ईमानदारी से किसी भी वर्ग के साथ अपनी पक्षधरता के इच्छुक ना हों और ‘क्लास न्यूट्रल’ रहने के पक्षधर हों। मगर ऐसा करते हुए भी अर्थात न्यूट्रल रहते हुए भी वास्तव में वे ताकत वर वर्गों या शासक वर्गों के दृष्टिकोण या पक्ष को ही मदद कर रहे होते हैं। वर्ग विभाजित समाज में ‘क्लास न्यूट्रलिटी’ नाम की कोई चीज नहीं होती ।
जब हम कहते हैं कि चिकित्सा शिक्षा जरूरत के हिसाब से ओरियेंटिड नहीं है , यह भी आधी सच्चाई है। जब नीति बनाई जाती है तो वह बहुसंख्यक लोगों के हितों को ध्यान में रखकर बनाने की बात की जाती है। जबकि पूरी सच्चाई यही है कि यह शिक्षा अल्पसंख्यक शासक वर्ग के हितों के हिसाब से ही व्यवहार में उतरती है। चिकित्सा शिक्षा के कंटैंट और मैथड की इस ढंग से योजना बनाई जाती है कि एक ऐसा डाक्टर बने जो नौकर शाही पूर्ण तथा हाई आरकिक स्वास्थ्य के ढांचे को चलाए । इस ढांचे में बहुत ही केन्द्रित ढंग से विश्व बैंक के दबाव में केन्द्रिय सरकार द्वारा फैंसले लिए जाते हैं। हमारी वर्तमान एलोपैथी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में ग्रामीण भारत को ध्यान में रखकर बहुत स्तरों पर बदलाव लाने की आवश्यकता नजर आती है।
रणबीर सिेह दहिया
रणबीर सिंह दहिया
जन स्वास्थ्य अभियान हरियाणा
9812139001
आज हमारे देश में चिकित्सा शिक्षा प्राप्त करने के बाद जो डाक्टर बनता है वह कहीं भी देश की आवश्यकताओं के अनुरुप नहीं बैठता है। प्रत्यक्ष में चिकित्सा प्रणाली के तीनों पक्षों- कंटैंट ,मैथड तथा भाषा को ही इसका कसूर जाता है। लेकिन यह कसूर चिकित्सा प्रणाली से आगे सामान्य शिक्षा प्रणाली से जा जुड़ता है और उससे भी आगे हमारी समाज व्यवस्था से जुड़ जाता है। वास्तव में हमारी चिकित्सा शिक्षा और सामान्य शिक्षा दोनों आज की हमारी बाजारी समाज व्यवस्था के मातहत ही फल फूल रही हैं। मौजूदा शिक्षा सिर्फ ट्रेनिंग देने की एक ऐसी प्रक्रिया नहीं जिससे कि एक खास काम लिया जा सके बल्कि यह एक व्यक्ति को एक खास तरह का अपेक्षित रोल अदा करने से रोकने की प्रक्रिया भी है।
आज के दिन हमारे देश में 4 6 0 के लगभग चिकित्सा शिक्षा संस्थान हैं-सरकारी और प्राईवेट जिनको एम सी आई ने स्वीकृति दी हुई है । और इनमें 6 3 9 8 5 विद्यार्थियों के लिए सीटें हैं | इस सारे फैलाव के बावजूद सच्चाई यह है कि कमोबेश सभी डाक्टर अरबन बेसड हैं और भिन्न भिन्न राज्यों में इनकी संख्या का अनुपात भी अलग अलग है। एक छात्र के एम.बी. बी.एस. डाक्टर बनाने पर सरकार का एक करोड़ बीस हजार के लगभग धन खर्च होता है। छात्र को भी सरकारी कालेज में 52070 रूपये प्रति वर्ष फीस देनी पड़ती है और हॉस्टल का खर्च अलग | प्राईवेट कालेज में सालाना फीस 18 से 25 लाख के लगभग हैं | एम डी ,एम एस की डिग्री प्राइवेट कालेज में लगभग 2 करोड़ की है | यह भी कहा जा सकता है कि कुछ कालेजों में बढ़िया चिकित्सा तथा बढ़िया इलाज देने की महारथ हांसिल कर ली है परन्तु किस कीमत पर? नीट की परीक्षा में कुल एंड 720 थे | ऐसा फार्मूला पर्सेंटाइल का लगाया कि 96 अंक यानि 13 . 4 प्रतिशत नंबर वाले विद्यार्थी भी एलिजिबल हैं | हो सकता है सीटें खाली रहने पर यह और भी नीचे चली जाये | सोचा जा सकता है कि आने वाले वक्तों में डाक्टरों की गुणवत्ता का स्तर क्या होगा ? " मैरिट इज इक्वल टू मनी "| चिकित्सा शिक्षा और स्वास्थ्य ढांचा दोनों अलग अलग दिशाओं में जा रहे हैं। आज एक फिजिसियन की भूमिका में और समाज की आवश्यकताओं में बहुत कम तालमेल बचा है। मैडीकल शिक्षा में तथा स्वास्थ्य की देख रेख करने वाले ढांचे में कोई सामंजस्य नहीं रहा है। आज भी हमारे देश में चिकित्सा को विज्ञान और तकनीक के दायरे में ही देखा जाता है तथा इसे समाज की आवश्यकताओं से आाजाद करके ऐतिहासिक संदर्भों से काटकर समझा जाता है। एक वक्त भारत सरकार द्वारा गठित मैडीकल एजूकेशन कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक यह आलोचना बिल्कुल सही है कि ‘ वर्तमान चिकित्सा शिक्षा का असल में इस देश के बहुत बड़े हिस्से पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है।
चिकित्सा शिक्षा को इस प्रकार की दिशा दी गई कि जिससे हमारे समाज की जो मौजूदा सामाजिक सांस्कृतिक व आर्थिक हालत है इसे छिपाया जा सके जो कि आजकल के शासक वर्ग द्वारा खास वर्गों के हितों के लिए बनाई गई है। आज की हमारी यह सामाजिक आर्थिक संरचना बहुत सी बीमारियों की जड़ है।
बहुत सी बीमारियां हैं जो कि कम खुराक, कम कपड़ों, साफ पानी की उपलब्धता की कमी, ठीक मकान न होने, ठीक मलमूत्र त्याग की सुविधा न होने , साफ सुथरे वातावरण की कमी की वजह से तथा इसके साथ ही कमजोर स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधाएं होने के कारण पनपती हैं। इसका असर ग्रामीण भारत में और भी ज्यादा देखने को मिलता है।
दूसरा ग्रूप ऐसी बीमारियों का है जो बाजार व्यव्स्था के समाज में रहन सहन की देन हैं। मसलन मानसिक तनाव, साइकोसोमेटिक डिस्आरडर, नशा , हिंसा व ऐक्सीडैंटस।
तीसरा ग्रूप है जो कि ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने की परिस्थितियों का नतीजा हैं। इनमें ज्यादा मुनाफा कम से कम खर्च में कमाने की प्रवृति काम करती है। नतीजतन काम करने के खराब हालात की वजह से भी बीमारियां हो जाती हैं, वातावरण के प्रदूषण से कई बीमारियां जन्म लेती हैं, कीटनाशक दवाओं के दुष्प्रभाव तथा मिलावट कई प्राणघातक बीमारियां पैदा करती है।
चौथा ग्रूप उन बीमारियों का है जो शोसक वर्गों और उनकी सरकारों द्वारा अपना प्रभुत्व करोडों करोड़ लोगों पर अपने निहित स्वार्थों के कायम रखने के दौरान पैदा होती हैं मसलन युद्ध के लिए किये गये प्रयोगों के नतीजे के तौर पर तथा वास्तविक युद्धों में कैमीकल, बायोलॉजिकल या न्यूक्लीयर हथियारों के इस्तेमाल परिणाम स्वरुप बहुत सी बीमारियां सामने आई हैं। स्थिति यहां तक जा पहुची है कि मनुष्य तो क्या कोई भी जीव इसकी मार से नहीं बचेगा। लेकिन वर्तमान चिकित्सा प्रणाली में और चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में पूरे जोर शोर से कोशिश की जाती है कि इन सच्चाईयों को छिपाया जाए और इन बीमारियों का मूल कारण दूसरे या तीसरे कारणों को बताया जाए।
वर्तमान चिकित्सा शिक्षा विद्यार्थियों में इस प्रकार की भावनाएं जाग्रत करने की कोशिश करती है जो कि इस बाजारी समाज व्यवस्था के शोसन करने के स्वरुप को बरकरार रखें। मिसाल के तौर पर इस चिकित्सा शिक्षा के ग्रहण करने के बाद व्यक्ति या वह डाक्टर यह देख पाने में और समझ पाने में असमर्थ रहता है कि जो स्वास्थ्य सेवाएं कल्बों द्वारा दी जाती है जैसे कि रोटरी कल्ब या लायन्ज कल्ब उनका वास्तविक स्वरुप क्या है? इन कल्बों और संस्थाओं के सरगना कई वही लोग होते हैं जो समाज की सारी बुराईयों के लिए जिम्मेदार हैं जिसमें बीमारियां भी शामिल हैं मगर यही लोग हैं जो चालाकी से सफलतापूर्वक अपने आपको लोगों का असली सेवक तथा रक्षक बनाने का ढोंग इस स्वाथ्थ्य सेवा के माध्यम से करते हैं। यहां तक कि पूर्ण रुपेण जन विरोधी सरकारें भी इन स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से अपने आपको जन हितैषी साबित करने में सफल रहती हैं। और इसी संदर्भ में हमारे देश में समय समय पर हुए स्वास्थ्य ढांचे के ग्रामीन व शहरी विस्तार को देखना ज्यादा सही होगा।
हमारी वर्तमान चिकित्सा शिक्षा डाक्टर को औजारों और दवाओं के उद्योगों का एक सेल्जमैन बनाने का भरपूर प्रयास करती है इसके लिए तरह तरह के कार्यक्रम प्रायोजित करके डाक्टरों को शामिल किया जाता है। ऐसी नीतियां बनाई जाती हैं जहां पैसे वालों के लिए और सरकारी कर्मचारियों के लिए अपोलो और फोरटिस और बाकियों के लिए डिलिवरी हट और आशा वर्कर। हमारे जैसे पिछडे़ हुए औद्योगिक देश में जहां लेबर बड़ी सस्ती है, बेषुमार बेरोजगारी है, लेबर फोर्स असंगठित है, नौकरी की सुरक्षा कतई नहीं है और अनपढ़ता इस हद तक है कि बीमारी के दौरान भरपूर और जल्द स्वास्थ्य सुविधा की जरुरत ही नहीं समझी जाती। हमारे समाज में चिकित्सा सुविधा तक पहुंच इन बातों पर निर्भर करती है कि किसी की पैसा खर्च करने की ताकत कितनी है, उसकी षाशक वर्ग से कितनी नजदीकी है और उसकी चेतना का स्तर क्या है? ऐसे विकसित देषों में जहां पूंजी की स्वतन्त्रता महत्वपूर्ण भूमिका में है वहां चिकित्सा षिक्षा के और स्वास्थ्य सेवाओं के उद्येष्य समान हैं। बीमार आदमी की देखभाल का स्तर और गुणवता काफी उंचे पैमाने के हैं और वहां सरकार का स्वास्थ्य पर खर्च भी काफी है,नतीजतन वहां पर लेबर बहुत म्हंगी है और जब लेबर बीमार होती है तो उसका विकल्प जल्दी से नहीं मिल पाता और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि लेबर फोर्स संगठित है। वहां की लेबर फोर्स को जल्दी व आसानी से नौकरी से बाहर नहीं फैंका जा सकता। वहां साक्षरता दर काफी उंची है।
एक तरह से देखें तो भारतवर्श में यह कहना पूर्ण रुप से ठीक नहीं है कि हमारे देश का वर्तमान चिकित्सा शिक्षा का ढांचा गलत दिशा में जा रहा है। यह तो असल में उसी दिशा में जा रहा है जिस दिशा में हमारे नीति निर्धारक इसे ले जा रहे हैं और वह दिशा इस परिधारणा पर आधारित है कि स्वास्थ्य एक खरीदी जाने वाली वस्तु -कमोडिटी - है जिसके पास पैसा है वह खरीद सकता है। खरीदने की ताकत पैसे वाले के पास है तो उसी की सेहत ठीक रखने की दिशा भी बनती रही है। विरोधाभाष यहां पर यह है कि इस दिशा के चलते वह गरीब का इलाज कैसे करेगा? शायद दिखावा ही किया जा सकता है। यहां पर यह भी कहना जरुरी है कि विद्यार्थियों , अध्यापकों या सलेबस को यदि इस सबके लिए दोषी मानेंगे तो यह ज्यादती होगी क्योंकि इन सब को आज के वर्तमान वर्ग शक्तियों का जो संतुलन है उससे अलग करके नहीं देखा जा सकता और इसलिए चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में बदलावों के मूल भूत प्रयासों को एकांगीपन के साथ आगे नहीं बढ़ाया जा सकता इसे भी समाज के दूसरे हिस्सों में परिवर्तन कारी संघर्शों व समाज सुधार के आन्दोलनों के साथ मिलकर ही एक नया समाज बनाने की व्यापक प्रक्रिया के हिस्से के रुप में ही देखा जाना चाहिये। मगर इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह एक बहुत कठिन काम है क्योंकि इसके लिए वैचारिक विमर्ष की तीव्र आवश्यकता है जो कि अभी तक बहुत कम रहा है। सिर्फ इतना ही काफी नहीं है कि आपने ज्ञान और हुनर हासिल कर लिया और मरीज का इलाज कर देंगे और बीमारी का खात्मा कर देंगे। इसके साथ जो ‘वैल्यू सिस्टम’ व आचरण की नैतिकता भावी डाक्टर के अन्दर पैदा किये जा रहे हैं वह भी उसका विश्व दृष्टिकोण बनाने में बड़ी भूमिका अदा करते हैं। वर्तमान चिकित्सा शिक्षा का वैल्यू सिस्टम विद्यार्थी को लोगों से दूर और अधिक दूर ले जा रहा है और यह व्यवहार-एटीच्यूड- सिर्फ चिकित्सा शिक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि यह तो स्कूल से ही आरम्भ हो जाता है और नतीजा यह होता है कि डाक्टर बनने के पीछे ‘ मोटिव फोर्स ’ पैसा , पै्रक्टिस , ईजी कैरीयर आदि बन जाते हैं और विश्व दृष्टि भी काफी खण्डित हो जाती है। किसी रिसर्च पर चर्चा के विद्वान कहते हैं कि हमारा काम रिसर्च करना है उसके सामाजिक पक्ष पर सोचना हमारा काम नहीं है। हो सकता है इनमें से बहुत से डाक्टर ईमानदारी से किसी भी वर्ग के साथ अपनी पक्षधरता के इच्छुक ना हों और ‘क्लास न्यूट्रल’ रहने के पक्षधर हों। मगर ऐसा करते हुए भी अर्थात न्यूट्रल रहते हुए भी वास्तव में वे ताकत वर वर्गों या शासक वर्गों के दृष्टिकोण या पक्ष को ही मदद कर रहे होते हैं। वर्ग विभाजित समाज में ‘क्लास न्यूट्रलिटी’ नाम की कोई चीज नहीं होती ।
जब हम कहते हैं कि चिकित्सा शिक्षा जरूरत के हिसाब से ओरियेंटिड नहीं है , यह भी आधी सच्चाई है। जब नीति बनाई जाती है तो वह बहुसंख्यक लोगों के हितों को ध्यान में रखकर बनाने की बात की जाती है। जबकि पूरी सच्चाई यही है कि यह शिक्षा अल्पसंख्यक शासक वर्ग के हितों के हिसाब से ही व्यवहार में उतरती है। चिकित्सा शिक्षा के कंटैंट और मैथड की इस ढंग से योजना बनाई जाती है कि एक ऐसा डाक्टर बने जो नौकर शाही पूर्ण तथा हाई आरकिक स्वास्थ्य के ढांचे को चलाए । इस ढांचे में बहुत ही केन्द्रित ढंग से विश्व बैंक के दबाव में केन्द्रिय सरकार द्वारा फैंसले लिए जाते हैं। हमारी वर्तमान एलोपैथी चिकित्सा शिक्षा प्रणाली में ग्रामीण भारत को ध्यान में रखकर बहुत स्तरों पर बदलाव लाने की आवश्यकता नजर आती है।
रणबीर सिेह दहिया
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