जनहित में नहीं है मैडिकल कमीशन कानून 2019
डा0 रणबीर सिंह दहिया
वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा हाल में चल रहे संसद के सत्र के दौरान मेडीकल एन.एम.सी. विधेयक पारित हो
गया। जिसका मुख्य उद्देश्य ‘‘भ्रष्टाचार का खात्मा और नियमनकारी मुद्दों से जुड़े कामों को और चिकित्सकीय
नैतिकता बनाए रखने के कामों को, एक-दूसरे से अलग करना‘‘ बताया जा रहा है। लेकिन सच्चाई तो ये है कि
मैडिकल कॉउसिल ऑफ इण्डिया(एम.सी.आई.) में भ्रष्टाचार का प्रमुख स्रोत 1990 के बाद से भारत में लागू
की जा रही मैडिकल शिक्षा के तेजी से निजीकरण की नीतियों के साथ जुड़ा हुआ है। वर्तमान में केन्द्र सरकार
द्वारा पारित किये गये इस कानून के प्रावधान तो वास्तव में भ्रष्टाचार, केन्द्रीयकरण और निजीकरण को और ज्यादा
प्रोत्साहन देने वाले ही हैं। 1980 में देशभर में 100 सरकारी तथा कुल 12 निजी मैडिकल कॉलेज थे, जिनमें क्रमशः
16570 तथा 1770 अंडर ग्रेजुएट सीटें थीं। 2016 तक आते-आते यह अनुपात लगभग पूरी तरह से उलट चुका था,
जहां 205 सरकारी मैडिकल कॉलेजों में 27490 सीटें थी, वहीं 221 निजी मैडिकल कॉलेजों में 24480 अंडर ग्रैजुएट
सीटें थी। मैडिकल शिक्षा पर सरकारी खर्च में भारी बढ़ोतरी किए जाने की सिफारिश करने की बजाय एन.एम.सी.
विधेयक नियमनकारी कदमों में ही ढील देने का प्रस्ताव करता है जो यह सुनिश्चित करते हैं कि मैडीकल कालेज
इन अधिसूचित मानकों का पालन करें। इसमें मुख्यतः लाभ मिलेगा निजी मैडीकल कालेजों को, जिनमें से अनेक
का तो भ्रष्ट तौर तरीके अपनाने का पुराना इतिहास रहा है। नेशनल मैडिकल कमिशन विधेयक 2017, जिसका
केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पिछले ही दिनों अनुमोदन कर दिया था और अब यह राज्य सभा के एक दो सुझावों के साथ
लोक सभा ने पास कर दिया है।यह बिल 1956 के इंडियन मैडिकल काउंसिल कानून की जगह लेने के लिए बनाया
है। भ्रष्टाचार की रिपोर्टों के चलते यह बिल इंडियन मैडिकल काउंसिल को लेकर पिछले एक दशक के दौरान
सामने आए अनेक घोटालों की पृष्ठभूमि में तैयार किया गया है। इन घोटालों में 2010 में सीबीआई द्वारा मैडिकल
कॉउसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ केतन देसाई की एक निजी मैडिकल कॉलेजों के
अनुमोदन के मामले में रिश्वतखोरी के गंभीर आरोपों में गिरफ्तारी भी शामिल थी। इसी पृष्ठभूमि में, स्वास्थ्य व
परिवार कल्याण से संबंधित स्थायी समिति की एक रिपोर्ट में (रिपोर्ट सं-82, जो 8 मार्च 2016 को राज्यसभा में पेश
की गई थी) यह सिफारिश की गई थी कि चिकित्सकीय नैतिकता तथा मैडिकल शिक्षा के नियमन (जो एमसीआई
के जुड़वा काम हैं) की व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव किया जाए। रिपोर्ट में यह दर्ज किया गया था कि कमेटी
एमसीआई के अध्यक्ष के यह कबूल करने पर गौर करती है कि जहां तक मैडिकल कालेजों का अनुमोदन करने या
मैडिकल सीटें बढ़ाने या घटाने का सवाल है, उनमें भ्रष्टाचार है। पुनः यह रिपोर्ट कहती है कि ‘‘ऐसा लगता है
एमसीआई, जनहित में अपनी इमानदारी से संचालित होने के बजाय, निजी वाणिज्यिक हितों की बंधक हो गयी है।‘‘
एमसीआई के बहुत ही कलंकित अतीत को देखते हुए वर्तमान स्थिति में इस संस्था का कोई बचाव नहीं कर
सकता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह देश की सबसे बड़ी भ्रष्ट नियमनकारी संस्थाओं में से एक है।
पिछले अनेक वर्षों में एमसीआई भ्रष्टाचार का अड्डा बन गई है और इस पर निजी डॉक्टरी करने वालों की एक छोटी
सी लॉबी का कब्जा हो गया है। आला दर्जे के प्रोफेसनलों को अपनी और खींच पाने के बजाय, एमसीआई का
संचालन एक छोटे से गुट के हाथ में चला गया, जो इस भरोसे के आधार पर काम करता आया है कि राजनीतिज्ञ
तथा नौकरशाह उसे बचा लेंगे। दावा किया जा रहा है कि 2017 के एनएमसी विधेयक के कुछ प्रमुख प्रावधान 1956
के इंडियन मैडिकल काउंसिल कानून में ही निहित खामियों को दूर करते हैं। इसमें यह प्रस्ताव किया गया है कि
एमसीआई के जो जुड़वां भाग काम रहे हैं- जिनमें एक, मैडिकल शिक्षा का नियमन तथा दूसरा, मैडिकल नैतिकता
का नियमन, उन्हें एक दूसरे से अलग कर दिया जाए। विधेयक यह प्रस्ताव करता है कि नेशनल मैडिकल
कमिशन के नाम से एक शीर्ष संस्था का गठन किया जाए, जो चार अलग-अलग बोर्डों के कामकाज पर निगरानी
रखेगी। ये बोर्ड़ क्रमशः अंडर ग्रैजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट मैडिकल शिक्षा (अंडर ग्रैजुएट व पोस्ट ग्रेजुएट मैडिकल
शिक्षा बोर्ड), मैडीकल संस्थाओं की रेटिंग (मैडिकल असैसमेंट एंड रेटिंग बोर्ड), मैडिकल प्रैक्टिस करने वालों के
रजिस्ट्रेशन तथा मैडीकल नैतिकता के परिपालन (बोर्ड फॉर मेडिकल रजिस्ट्रेशन) देखेंगे। यह एक तरह से तार्किक
प्रस्ताव लगता है, क्योंकि भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत मैडिकल कालेजों को चलाने के लिए आवश्यक अनुमतियां देने
तथा उनका नवीनीकरण की प्रक्रिया में और मैडिकल नैतिकता का पालन कराने वाली संस्था के रूप में एमसीआई
की विकृत भूमिका में ही निहित रहा है।
विधेयक के विवादित प्रस्ताव
बहरहाल विधेयक के कुछ अन्य प्रावधान कहीं ज्यादा समस्यापूर्ण हैं। एमसीआई के सुधार इस तरह से किए जा
सकते थे कि मैडिकल नैतिकता तथा शिक्षा के नियमन की इस शीर्ष संस्था का प्रभावी तरीके से जनतांत्रीकरण होता
और इसमें मैडिकल प्रोफेशनलों, अकादमिकों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए जगह बनाई जाती।
इसके बजाय, एनएमसी विधेयक, 2017 में पेश किया गया नुस्खा यही है कि ऐसा ढांचा खड़ा किया जाए, जो
सरकार द्वारा नामजद पदेन सदस्यों से ही भरा होगा और 25 सदस्यीय शीर्ष कमीशन के ज्यादातर सदस्य मनोनीत
किये जायेंगे। कुछ ही शायद मैडिकल पेशे के सदस्यों के द्वारा चुने जाएंगे। यह, एमसीआई का जिस तरह से गठन
हुआ था, उससे एक बड़ा विचलन है। अपने इस रूप में एमसीआई में तमाम रजिस्टरसुदा मैडिकल डाक्टरों के
लिए कम से कम सिद्धांत के तौर पर इसका मौका था कि एमसीआई के अधिकांश सदस्यों को चुन सकें। बेशक,
यह सही है कि चुनाव की प्रक्रिया पर एक छोटी सी लॉबी ने कब्जा कर लिया था, जिसके खिलाफ भ्रष्टाचार तथा
भाईभतीजावाद के आरोप थे। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि नेशनल मैडिकल कमीशन, जो मुख्य रूप से तरह-तरह
से सरकार द्वारा तथा स्वास्थ्य नौकरशाही द्वारा नामजद सदस्यों से ही बना होगा, कैसे भ्रष्ट प्रभावों से मुक्त बना
रहेगा? अगर किसी जनतांत्रिक प्रतिनिधित्व पर आधारित व्यवस्था को इस तरह तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है कि वह
निहित स्वार्थ पूरे करने लगे, तो इसकी क्या गारंटी है कि मुख्यतः नामजद सदस्यों से बना कोई निकाय, भ्रष्ट करने
वाले प्रभावों से मुक्त रहेगा ? इसके अलावा केंद्रीयकरण भी हद दर्जे का होगा। एमसीआई का गठन इंग्लैंड की
जनरल मैडिकल काउंसिल (जीएमसी) के नमूने पर किया गया था। जीएमसी में सरकार द्वारा नियुक्त सदस्य भी
होते हैं, लेकिन उसके सदस्यों में बहुसंख्या इंग्लैंड के रजिस्टर्ड मैडिकल चिकित्सकों द्वारा निर्वाचित सदस्यों की ही
होती है। इसी प्रकार के निकाय ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका आदि में भी हैं। इन निकायों का
कामकाज बताता है कि एक मुख्य रूप से निर्वाचित परिषद, का भ्रष्टाचारी प्रभावों का शिकार होना कोई जरूरी
नहीं है। इसके बावजूद अगर सरकार ने प्रस्तावित नई काउंसिल को अपने ही नियुक्त किए गए लोगों से भरने
का फैसला लिया है, तो यह इसी बात का सबूत है कि सरकार नई काउंसिल पर अपना पूर्ण नियंत्रण रखना
चाहती है। इसके दुष्परिणाम हो सकते हैं और यह मैडिकल प्रोफेशन से संबंधित नियमनकारी ढांचों पर
जनतांत्रिक नियंत्रण स्थापित करने में तो कोई मदद नहीं करने जा रहा है। मौजूदा सरकार के इसके रुझान को
देखते हुए कि निर्णय प्रक्रियाओं का केंद्रीयकरण किया जाए और सार्वजनिक संस्थाओं को सत्ताधारी पार्टी का
पुछल्ला बनाकर, उन पर कब्जा कर लिया जाए। इसलिए केंद्रीय महत्व के इस नेशनल मैडिकल कमिशन विधेयक
के हर पहलू की गंभीरता से छानबीन किए जाने की जरूरत है।
निजीकरण को बढ़ावा देने का खेल
इस विधेयक के प्रस्ताव तो निजीकरण को ओर प्रोत्साहन देने वाले ही हैं। नया विधेयक कहता है कि पहले से
रजिस्टरशुदा मैडिकल कॉलेजों को अंडर ग्रेजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा की सीटें बढ़ाने के लिए
पूर्वानुमति हासिल करने की जरूरत ही नहीं होगी। इस विधेयक में निजी मेडिकल कॉलेजों के संबंध में जो प्रस्ताव
किए गए हैं, उन्हें उन कदमों के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए, जो मैडिकल शिक्षा के क्षेत्र में मुनाफे के लिए
काम करने वाले संगठनों का प्रवेश सुगम बनाने के लिए हैं, जिनमें कॅरपोरेट संगठन भी शामिल हैं। मिसाल के तौर
पर 2012 में पहले की रीति-नीति से स्पष्ट रूप से हटते हुए कंपनी कानून के अंतर्गत रजिस्टरशुदा कंपनियों को
भी मैडिकल कॉलेज खोलने की इजाजत दे दी गई थी। फिर भी इसमें पीछे से एक शर्त जरूर लगा दी गई थी कि
ऐसे कालेज व्यापारीकरण (कॉमर्शियलाइजेशन) का सहारा नहीं ले सकते हैं। इसका अर्थ यह था कि मैडिकल
कालेजों को मुनाफा कमाने वाले पौधों में नहीं बदला जा सकता है। बहरहाल, 2016 में नीति आयोग के तत्वाधान में
गठित की गई एक कमेटी ने कहा था ‘‘इस समय सिर्फ मुनाफे के लिये नहीं, बल्कि संगठनों को ही मैडीकल
कालेज खोलने की इजाजत है... कमेटी सिफारिस करती है कि संबद्धताध्मान्यता की शर्त को, मैडिकल कॉलेज के
प्रमोटर की प्रकृति से अलग किया जाए। आगे चलकर स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस प्रस्ताव पर काम करते हुए
मैडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया को लिखा था कि पात्रता के मानदंड की उपधारा (6) को हटाकर ,व्यापारीकरण
के उल्लेख को निकाल दिया जाए। एनएमसी विधेयक, मैडिकल शिक्षा से कमाई को वैधता प्रदान करने के इस
कदम को और आगे ले जाता है और यह प्रस्ताव कहता है कि नेशनल मैडिकल कमिशन, निजी मैडिकल
इंस्टीट्यूटों में तथा डीम्ड विश्वविद्यालयों में, जो इस कानून के प्रावधानों से प्रशासित होंगे, सीटों के ऐसे हिस्से के लिए
जो, 40 फीसद से ज्यादा नहीं होगा ,फीस तय करने के लिए दिशा निर्देश तय करेगा। दूसरे शब्दों में प्रावधान
इसके लिए कानूनी अनुमति दे देगा कि निजी मैडिकल कॉलेजों की 60 प्रतिशत सीटों पर अनाप-शनाप फीस
वसूल सकते हैं । साफ है कि एनएमसी विधेयक के पीछे मैडिकल शिक्षा की जो परिकल्पना है, उसमें इस पर
सार्वजनिक निवेश में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की कोई बात नहीं है, उल्टे उसमें तो इसी का रास्ता साफ करने की बात
है कि मैडिकल शिक्षा को मुनाफा बटोरने के लिए एक आकर्षक उद्योग में बदला जाए।
इंडियन मैडिकल एसोसिएशन द्वारा विरोध
इंडियन मैडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने प्रस्तावित विधेयक के स्वीकार किए जाने का कई आधारों
पर विरोध किया है। उनकी कुछ आपत्तियाँ इस टिप्पणी में हमने प्रस्तावित एनएमसी के गठन की जनतांत्रिक
प्रकृति को लेकर जो सवाल उठाए हैं, उनके अनुरूप हैं। लेकिन एमसीआई में चलते आये भ्रष्ट तौर-तरीकों पर
अपनी चुप्पी बल्कि उसके लिए परोक्ष अनुमोदन के चलते, आईएमए ने दुर्भाग्य से अपनी साख पर चोट पहुंचाई है।
उसने तो केतन देसाई को पदोन्नति देकर, वर्ल्ड मैडीकल एसोसिएशन का अध्यक्ष बनाये जाने का प्रस्ताव कर,
उसकी करतूतों का अनुमोदन तक कर डाला। आईएमए ने विधेयक के उस प्रस्ताव का भी विरोध
किया है जो आयुष के डॉक्टरों (आयुर्वेद यूनानी तथा में होम्योपैथी के स्नातकों ) को इसकी इजाजत दे देगा कि
एक सेतु पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद वे आधुनिक एलोपैथिक उपचार कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि यह
प्रस्ताव जल्दबाजी में जोड़ दिया गया है और इसके संभावित परिणामों पर पूरा विचार नहीं किया गया है। एक
बात तो यह है कि आयुष प्रणालियों की शिक्षा की हालत, आधुनिक मैडिकल शिक्षा से भी खराब है। पुनः आयुष
प्रणालियां खासतौर पर होम्योपैथी, ऐसे सिद्धान्तों पर आधारित हैं, जो आधुनिक चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई के
पीछे मौजूद सिद्धान्तों से बहुत ही भिन्न(और कई बार तो उनसे उल्टे ही) हैं। इसलिए, अगर आयुष के ग्रेजुएटों को
आधुनिक शिक्षा चिकित्सा शास्त्र की प्रैक्टिस करने का लाइसेंस देना हो, तो उन्हें बुनियादी तौर पर उस प्रणाली
के तमाम सिद्धांतों को ही भूलना होगा, जिसके लिए उन्हें प्रशिक्षित किया गया होगा। यह समझ पाना मुश्किल है कि
कोई सेतू पाठ्यक्रम यह कैसे सुनिश्चित कर सकता है ?
वास्तव में समस्या इसके आग्रह से ही ग्रस्त होने में है कि किसी भी कीमत पर ज्यादा संख्या में डॉक्टर पैदा किए
जाएं, फिर चाहे ऐसे डॉक्टरों की गुणवत्ता कैसी भी हो। अगर वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों के ग्रजुएटों का
उपयुक्त तरीके से उपयोग करना है तो उनके पाठ्यक्रम पर और देश की स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली में उनके उपयोग के
मौकों पर, पूरी तरह से बहस होनी चाहिए और उन सब में आमूल-चुल बदलाव किया जाना चाहिए। यह अतार्किक
है कि किसी को चार-पांच साल में प्रशिक्षित किया जाए और उससे यह उम्मीद की जाए कि 6 महीने के प्रशिक्षण
में ही पूरी तरह से भिन्न चिकित्सा प्रणाली में माहिर हो जाएगा। वास्तव में जरूरत इस बात की है कि कहीं बड़ी
संख्या में नर्सों, दाइयों तथा हेल्थ वर्करों को तैनात किया जाए। इन स्वास्थ्य कर्मियों को स्वास्थ्य प्रणाली में ऐसे ही
काम पूरे करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, जिनके बारे में हम गलती से यह मानते हैं कि यह काम
डॉक्टर द्वारा ही किए जा सकते हैं। सबसे बढ़कर यह है कि उन्हें समुचित भुगतान किया जाना चाहिए, न कि अब
तक की रीति चलनी चाहिए, जहां स्वास्थ्य कर्मियों के अनेक हिस्सों(मिसाल के तौर पर आशा कर्मियों को)
नाममात्र का ही भुगतान किया जाता है।
केंद्रीयकरण और निजीकरण पर जोर-----
संक्षेप में यह है कि एनएमसी विधेयक, एमसीआई में भ्रष्टाचार की लंबे समय से चली आती आलोचना को
संबोधित करने के लिए तैयार किया गया है। इसमें कुछ उपयोगी व्यवस्थाएँ भी हैं, जैसे नियमनकारी मुद्दों से जुड़े
कामों को और चिकित्सकीय नैतिकता बनाए रखने के कामों को, एक-दूसरे से अलग करना। बहरहाल, यह
विधेयक ऐसी संस्था खड़ी करने की कोशिश करता है जो एक तरफ सरकार तथा नौकरशाही के हाथों में सत्ता का
केंद्रीकरण करेगी और दूसरी ओर मैडिकल शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए बड़ी भारी रियायतें
देगी। वास्तव में इस विधेयक के अनेक प्रस्ताव, ‘‘तुरंत समाधान‘‘ की प्रकृति के हैं जो व्यवस्थाओं में गहरे बदलाव
से कतराते हैं। अपने प्रस्तावित रूप में नेशनल मैडिकल कमिशन, भारत में स्वास्थ्य रक्षा तथा मैडिकल शिक्षा के
हित साधने नहीं जा रहा है। यह उम्मीद की जाती है कि विभिन्न संगठनों तथा संस्थाओं के पुरजोर प्रयासों से इस
बिल के प्रतिगामी प्रस्तावों को हटवाया जाए और जनपक्षीय पक्षों को शामिल करवाया जाए।