Saturday, 5 October 2019

जन स्वास्थ्य अभियान के सामने कार्य

(नोट:- डॉ सुन्दररमन के अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद श्री वेदप्रिय प्रधान हरयाणा विज्ञान मंच ने किया है)
डॉ सुन्दररमन
जन स्वास्थ्य अभियान के सामने कार्य 

1 आयुष्मान भारत : प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना ( मोदी केयर )

2. आयुष्मान भारत : स्वास्थ्य एवं अच्छा होने के केंद्र(स्वास्थय एवं वेलनेश सैंटर )

3. स्वास्थ्य व्यवसायिक बनाना : स्वास्थ्य देखभाल  शिक्षा तथा व्यवसायिक नियमों की बदलती नीतियां 

4. निजीकरण : पब्लिक --प्राईवेट सांझेदारी तथा स्वास्थ्य उद्योग का विकास ; नीति आयोग अपने  काम  पर 

5. दवाओं , पेटेंटों तथा नवाचारों तक पहुंच के  विकास बारे 

6. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य देखभाल  से जुड़े लैंगिक मुद्दे 

7. स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक 

 1. आयुष्मान भारत : 

 एन डी ए सरकार के अंतर्गत शुरू किया गया यही मुख्य स्वास्थय कार्यक्रम है।  यह सन 2018  में शुरू किया गया।  इस कार्यक्रम के दो पहलू  हैं - स्वास्थ्य  व वेलनेश  केंद्र और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना।  पहला पक्ष व्यापक   प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच का तथा दूसरा पक्ष सरकार द्वारा वित पोषित स्वास्थ्य बीमा योजनाऐं उपलब्ध करा कर   गरीबी रेखा से नीचे के उन परिवारों की पहुंच और  सुरक्षा निश्चित करना , जिन्हें द्वितीय और तृतीय स्तर  की स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत है।  

            हम यहाँ हर योजना का वर्णन कर रहे हैं।  हम उन समस्याओं को  भी लेना चाहते हैं कि ये योजनाएं किस तरह बनायीं गई हैं और किस तरह काम कर रही हैं।  इसके साथ साथ हम  यह भी बताना चाहते हैं कि जन स्वास्थ्य अभियान तथा जन विज्ञानं आंदोलन तथा सभी जनवादी शक्तियों को इन नीतियों तथा इनके क्रियान्वन को किस ढंग से   देखना चाहिए।  

       प्रधान मंत्री की जन आरोग्य योजना ( मोदी केयर )

* यह योजना है क्या ?

एक वर्णन 

         यह सरकार द्वारा वित पोषित  स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम है, जो जनगणना के अनुसार सामाजिक-आर्थिक  जातियां हैं , या  जो विशेष पेशों से जुडी हैं वो ही इस योजना के लिए योग्य हैं।  एक अनुमान के अनुसार 10. 74  करोड़ परिवार यानि लगभग 50 करोड़ व्यक्ति इस योजना के लिए पात्र हैं।  


          इस योजना में कोई भी पात्र व्यक्ति जिसे  द्वितीय या तृतीय स्तर की स्वास्थ्य सेवा की जरूरत हो , अपने  इलाज हेतु किसी भी मंजूर पैनल के हस्पताल में जा सकता है।  हस्पताल बिना कुछ लिए उन्हें भर्ती करेगा और उनका इलाज करेगा।  सभी दवाइयां यहाँ तक की टैस्ट और कुछ हद तक यातायात सुविधा भी मरीज को मुफ्त मिलेंगी।  सरकार एक सहमत  दरों  के  अनुसार हस्पताल को वह खर्च दे  देगी।  एक परिवार ( निश्चित पैमानों के हिसाब से तय सदस्य ) एक साल में 5 लाख रूपये तक भी ऐसी सुविधाएँ ले सकता है।  इसमें पुराणी बीमारियां भी हो सकती हैं तथा हस्पताल के पहले और बाद तक के भी कुछ खर्चे शामिल  हैं।  

      प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में 1350 चिकित्सीय पैकेज शामिल हैं, जिनमें सर्जरी व प्रतिदिन के इलाज भी शामिल हैं। 

     इस योजना के तहत सरकारी एवं प्राइवेट दोनों प्रकार के हस्पताल पैनल पर हैं।  लगभग 60 % दावेदारों का और कुल खर्च  का लगभग 75 % प्राइवेट सैक्टर के हस्पताल अदा करते हैं। 

         इसमें प्रति परिवार प्रति वर्ष 5 लाख रूपये का लाभ दिया जाता है। 

2. प्रचार माध्यमों में इस योजना का बहुत स्वागत किया गया है।  जनता और देनदारों ने भी इसका स्वागत किया है।  इस योजना का इतना स्वागत क्यों है ? 

       १. मुफ्त या रियायती हिसाब से प्राइवेट हस्पतालों में सुविधा सुनिश्चित करना ताकि उच्च गुणवत्ता की स्वास्थ्य सेवाएं सभी को मिल सकें।  
              यद्यपि सरकारी चिकित्सा सुविधाओं की क्षमता बहुत सीमित है , इसलिए लोगों को मजबूर होकर इलाज के लिए निजी क्षेत्र में जाना पड़ता है। निजी स्वास्थ्य सेवाएं महंगी हैं,इनके आर्थिक बोझ से पूरा परिवार प्रभावित होता है । इससे बचने के लिए बीमा योजनाएं हैं । यहां जनता का स्वागत है। 
ii) निजी हस्पतालों के पास बिना प्रयोग होने वाली बड़ी क्षमता है। उनके पास बीमारों की कमी नहीं है, अपितु उनकी कमी है जो पैसे दे सकें। आधुनिक हस्पतालों को बड़ा लाभ इसी बात से हो जाता है कि वे उच्च तकनीक के जांच, तरीके या सर्जरी सुझाते हैं। इनकी जरूरत जिनको है उन्हें मना लिया जाता है, बेशक सीमित ही सही | सरकार द्वारा दिये पैसे से  बीमा योजना को भारत का निजी स्वास्थ्य उद्योग कहा जा सकता है को प्रोहत्सान मिलता है | 
iii) मीडिया, समाज या बुद्धिजीवी तबके में इसका स्वागत इसलिये है कि निजी क्षेत्र की ओर जाने को वे समय के साथ जरूरी सुधार के रूप में देखते हैं। निजी सेवाओं में वे सरकारी सेवाओं की अपेक्षा अच्छी गुणवत्ता देखते हैं।ऐसा केवल गरीब या कमजोर तबके का ही   मानना नहीं है अपितु मध्यम वर्ग भी ऐसा ही मानता है। ये भिन्न भिन्न सोच इसलिए है कि निजी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर असमानताएं हैं। इसके चलते इन तबकों में सरकार के विरुद्ध तथा निजी क्षेत्र के प्रति अच्छा विमर्श व  प्रभाव बनता है।

3. सरकार इस योजना को बड़ी सफलता मानती है और इसे मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धि समझती है । इसमें सच्चाई कितनी है और ढकोसला कितना देखने की बात है ?
i) सरकार का दावा है कि 'मोदीकेयर' दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना है । यह सत्य से दूर है । बजट देने के हिसाब से देखा जाय तो यह छोटी योजनाओं में से एक है । यहां तक कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन से भी छोटी तथा बहुत से राज्यों द्वारा स्वास्थ्य पर किये जाने वाले खर्च से भी कम । बीमा कवरेज में भी ये बहुत पीछे रहती है बनिस्बत दूसरे देशों की योजनाओं के । जनसंख्या के हिसाब से भी ये चीन से भी कम कवर करती है।
ii) संख्या की दृष्टि से जो इसमें वास्तव में शामिल हैं वे 3 करोड़  हैं,जबकि स्मार्ट कार्ड की दृष्टि से 12 करोड़ इसके योग्य हैं। 
iii)  जिन अधिकतर राज्यों में प्रधानमंत्री  जन आरोग्य योजना प्रभावी दिखाई दे रही है , ये वे राज्य हैं जो पहले  से अपनी योजनाओं पर काम कर रहे हैं , केंद्र ने तो उन पर अपने नाम का ठप्पा लगाया है। सरकार केवल 60%खर्च वापसी पर प्रतिबद्ध है,जबकि यह भी पूरी तरह किया नहीं गया है। राज्य सरकारों को अपने नियमों को बदलने के लिए कहा जा रहा है,जहाँ पहले से ही प्रभावी योजनाएं काम कर रही हैं ।फ़लस्वरूप केरल जैसे राज्य इससे दुखी हैं। 
iv) सरकार का दावा इस बात पर आधारित है कि राज्यों से कितने क्लेम आये, कितनों को पैसे मिले। इस बात का कोई सबूत नहीं मिला है कि इनसे स्वास्थ्य परिणामों में कितनी बेहतरी हुई है तथा स्वास्थ्य सेवाओं के खर्चों की मुशीबत से कितने गरीबों को बचाया जा सका है। पूर्व सरकार की बीमा योजनाओं पर बहुत से अध्ययनों से निम्नलिखित बातें सामने आई हैं :-
a) सूचनाओं का अभाव - बहुत से योग्य व्यक्तियों को इन योजनाओं का पता ही नहीं होता और वे इसका लाभ नहीं ले पाते ।
b) सेवा देने से इन्कार:-  वे जो योग्य  भी हैं और इन्हें जानते भी हैं ,उनकी बड़ी संख्या तकनीकी आधारों पर लाभों से वंचित कर दी जाती है। राज्य सबसे ज्यादा यह बहन करते हैं कि इसमें अमुक बीमारी या प्रक्रिया शामिल नहीं है ,और यहां हस्पताल में यह विशेष सेवा है ही नहीं ।
c) दोहरे बिल :- जो किसी भी तरह इस योजना के तहत सेवा लेने में सफल हो जाते हैं , उनमें से अधिकांश से किसी न किसी तरह उनकी जेबों से इन सेवाओं के लिए पैसा निकलवा लिया जाता है।मुफ्त व नकद रहित सेवाएं तो एक मिथ है । ज्यादा  से ज्यादा उनको 20% कम देना पड़ता है उनकी अपेक्षा जिनके पास कार्ड नहीं  होता है। मरीज से ले लिया जाता है और फिर हस्पताल सरकार से भी भुगतान कर लेता है ।
d) सप्लाई आधारित सेवाएं:-
हस्पताल प्रायः वे प्रकिर्याएँ अपनाते हैं जिनसे उन्हें लाभ ज्यादा होता है और उन सेवाओं से इनकार कर देते हैं जहां मुनाफा कम रहता है। बहुत बार वे ऐसे मरीजों को ज्यादा भर्ती करते हैं जो उनकी सप्लाई व प्रकिर्याओं पर खरे उतरते हों । यदि हम जिलों पर किये गए क्लेम का पैटर्न देखें तो पाएंगे कि इनका महामारियों से कोई ज्यादा रिश्ता नहीं बनता अपितु उस बात से ज्यादा रहता है जिन्हें ये निजी वाहक ज्यादा आगे धकेलते हैं। 
e) सरकारी सेवाओं के सहायक के रूप में नहीं अपितु विकल्प के रूप में निजी क्षेत्र :- 
       निजी क्षेत्र लाने का उद्देश्य यह था कि उन प्रकिर्याओं तक पहुंचा जाए जो इस समय सरकारी हस्पतालों में उपलब्ध नहीं हैं। यदि हम हर राज्य के क्लेम की पड़ताल करें तो पाएंगे कि ये  वही सामान्य क्षेत्र हैं जहां सरकार पहले ही सेवाएं दे रही हैं।उदाहरण के लिए यू.पी.,बिहार व छत्तीसगढ़ में आंखों की वही सामान्य सर्जरी सेवा है जो सरकारी सेवा जैसी ही हैं । यदि गुर्दे की पथरी , आंखों की गम्भीर बीमारी , पेट में अधिक जलन जैसी बातों पर आये तो पता चलता है कि इस बीमा योजना का योगदान बहुत कम है।
f) ठीक से देखभाल नहीं व डंम्पिंग  :-
पहले किसी निजी हस्पताल में गरीब मरीज के लिए सेवाएं नहीं होती थी तो उसे रेफर कर देता था। आज वही हस्पताल उस मरीज को दाखिल करता है , उस मरीज के स्मार्ट कार्ड का सारा पैसा चूस लेता है औए फिर आगे रैफर करता है। इससे इलाज में विलंब होता है , जब तक मरीज सरकारी हस्पताल में पहुंचता है , वह सभी संसाधनों से विहीन हो जाता है । मरीजों द्वारा अपनी बीमा रकम को सरकारी हस्पताल में डुबो देना सामान्य बात है ,अमेरिका तक में ऐसा ही है।
4. क्या सरकार इन समस्याओं से अवगत नहीं ?
     इन्हें ठीक करने के लिए क्या किया गया है? क्या इससे ज्यादा नहीं किया जा सकता? यदि सरकार इन मुद्दों पर गंभीर हो तो क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि बीमा कार्यक्रमों से मरीज को राहत मिलेगी?
  सरकार को इन समस्यों का पता है। सरकार के पास परेशानियां दूर करने तथा मॉनिटरिंग करने के तरीके हैं। परेशानियां दूर करने का पूर्ण प्रयोग नहीं किया जाता ,क्योंकि दावेदार ही अपने दावों को पूरी तरह से नहीं समझते। जो दावों के लिए जाते भी हैं , उन्हें अनुभव कम है । समस्या वह है कि यदि कोई कष्ट उठा कर अपनी परेशानियां आगे ले भी जाता है ,तो निजी हस्पतालों को नाममात्र की सजा मिलती है । इसी प्रकार मानीटरिंग करने के तरीके बहुत कमजोर हैं । यदि वे थोड़ा बहुत काम करते भी हैं तो सरकार भी ऐसे गलत हस्पतालों पे कार्यवाही करने की इच्छुक नहीं दिखती । अंदरखाने इनके बीच एक समझ बनी हुई है कि इस प्रकार की धोखा  धड़ी जायज है , वरना ये निजी हस्पताल इसमें शामिल नहीं होंगे । 
     इस प्रकार हस्पतालों को अदा करने की दर आजकल कम चल रही है। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है। यह तो एक आसान बहाना है, जिससे दोहरे बिल लिए जा रहे हैं। मानीटरिंग करने वाले भी इससे सहमत रहते हैं , बेशक नियमों की अनदेखी हो। अदायगी में देर होना भी अनैतिक है और इसके लिये तो खासकर जो अदायगी में देरी या अनिश्चितता को सम्भाल नहीं पाता।
   क्या सरकार इन विकृतियों को दूर करने के लिए गंभीर थी?
यदि सरकार इन योजनाओं की ठीक मानीटरिंग , परेशानियां दूर करने के ठीक प्रबन्ध करती तो निजी हस्पतालों की इनमें  भागीदारी घट जाती। वर्तमान दरों पर भी निजी हस्पताल इनमें आने के इच्छुक नहीं हैं। वह स्वयं में कोई बुरी बात नहीं है, क्योंकि सरकारी हस्पताल रहेंगे , बेशक लाभ के लिए नहीं, इन दरों पर वे भी नैतिक आधार पर कुछ प्रबन्ध करेंगे।
   जब ऐसा दृश्य है कि बीमा व खरीद के लिये प्राइवेट क्षेत्र सरकारी क्षेत्र में खानापूर्ति ही कर रहा है , तो इसके भी वैचारिक कारण हैं जिन्हें हमारे नीति निर्माता स्वीकार करने को तैयार नहीं ।
    यदि मानीटरिंग ठीक की जाये तो दोहरे बिल और अदायगी न देने को सम्भाला जा सकता है। यदि नियमों में सख्ती कर दी जाये तो सप्लाई आधारित देखभाल दुरुस्त की जा सकती है। यहां फैंसले व देखभाल इस बात से प्रभावित होती हैं कि धन कहां से आता है न कि इस बात से कि भला होने वालों के दृष्टिकोण से।
5. बहुत से देशों में बीमा योजनाएं ठीक चल रही हैं । ये देश ठीक कैसे चल रहे हैं? 
इन रणनीतियों को अपनाने में हमारी सरकार को कौन रोकता है?
  जर्मनी और जापान में ऐसे उदाहरण हैं जहां सेवा देने वाले प्राइवेट हैं तथा भुगतान बीमा प्रक्रिया से होता है। कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में भी ऐसा ही है । यद्यपि सरकारी सेवा का अनुपात काफी ज्यादा है।
   इनका सबसे प्रमुख फीचर ही यही है कि ये आपसी सहयोग के सिद्धांत पर बने हैं । इस बात की ओर ज्यादा ध्यान दिया जाता है कि सेवा दाता सुनिश्चित हो कि भुगतान तुरन्त हो जाये। जापान में कानून है कि स्वास्थ्य सेवाओं से आप लाभ नहीं लेंगे। इसीलिए इसके लिए सीधे या कारपोरेट द्वारा सहायता नहीं ली जाती , क्योंकि लाभांश दिया ही नहीं जाता । जर्मनी में बीमा कंपनियों का लाभ लेना मना है , यदि नुकसान होता है तो उसकी भरपाई सरकार करती है और बराबरी सुनिश्चित करती है।
   जिन देशों में भी यह बीमा योजना आधारित है , उनके कड़े कानून हैं , जहां स्वास्थ्य सेवाओं के बदले कीमत दी जाती है । जहां बीमा नहीं है वहां भी सरकारी हिसाब से कीमत दी जाती है ।ऑस्ट्रेलिया व कनाडा में सारा भुगतान सरकार करती है । वे अमीर गरीब सब से टैक्स इकट्ठा करती हैं, लेकिन इलाज सभी का एक समान किया जाता है।परिवार चाहें तो उच्च गुणवत्ता के स्वास्थ्य लाभ के लिए दूसरे निजी बीमा खरीद सकते हैं , लेकिन उन्हें केवल इतना भर चुनाव करने की इजाजत है।
        बीमा आधारित स्वास्थ्य प्रक्रियाएं-- अधूरी हैं 
थाईलैंड में, ब्रिटेन में सामान्य तरह की बीमा योजनाएं नहीं है। उनके पास ज्यादा अच्छी व लचीली तरह की सरकार द्वारा प्रबंध की गई धन योजनाएं हैं जिन का प्रबंध सरकार करती है । यहां भी स्वास्थ सम्बन्धी  निर्णय  धन के दायरे में बंधे हैं । लेकिन लेनदेन के मामले में बाजार यहां बाहर रखा गया है।
    ऐसी सभी राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजनाएं जो निजी देनदारों द्वारा स्वास्थ्य लाभ खरीदने पर आधारित हैं ,वे सरकारी देनदारी द्वारा शासित योजनाओं के मुकाबले ज्यादा खर्च करती हैं। श्रीलंका अपनी जीडीपी का 3%, थाईलैंड 4%, क्यूबा ब्राजील 8 प्रतिशत खर्च करती हैं। इनके मुकाबले संयुक्त गणराज्य अमेरिका जो बाजार मुक है वह बीमा आधारित है अपनी जीडीपी का 19% स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है।
     भारत व संयुक्त गणराज्य अमेरिका जैसे देशों का सिद्धांत है-- स्वास्थ्य सेवाओं का बाजार बनाना। इसका असली मतलब यही है कि कैसे निजी क्षेत्र के माध्यम से सरकारी खर्चा स्वास्थ्य के लिए निकाला जाए जिनसे इनका फायदा हो। इससे इन सेवाओं पर बहुत ज्यादा खर्च किया जाता है जिनका , जिसका अधिकतर हिस्सा बिना जरूरी है , जबकि जनसंख्या का बड़ा जरूरतमंद हिस्सा इन सेवाओं से बाहर हो जाता है।
   संयुक्त गणराज्य एक वर्गीकृत उदाहरण है जहां यह अपनी जीडीपी का 19% स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है , यहां 25% के लगभग जनसंख्या बीमा से बाहर है , लगभग 25% से कुछ ज्यादा आधी अधूरी बीमा के अंतर्गत है। इसका मतलब हुआ कि स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरतों के बदले जो इन्हें चाहिए वह इनसे नहीं मिलता। भारत की प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना तीव्र गति से संयुक्त गणराज्य स्वास्थ्य बीमा मॉडल की ओर जा रही है ।
    यदि भारत को सार्वभौमिक स्वास्थ्य प्राप्ति चाहिए ही जहां निजी क्षेत्र काबिज है तो इसे उससे कई गुणा ज्यादा खर्च करने की जरूरत है जो अब सरकार आधारित प्रणाली पर खर्च होता है ।
6.इन पहलकदमियों पर जन आंदोलन कैसे पेश आता है? जनता को इन परिवर्तनों के लिए शामिल करने के लिए उसकी क्या समझदारी है, ताकि इन विषयों को जन चर्चा बनाया जा सके ?
यह कई स्तरों पर किया जाना है ।
जन  चर्चा के स्तर पर जन आंदोलन को कुछ मुख्य संदेश चुनकर प्रसारित करने होंगे, लेकिन ये सब प्रमाण आधारित हों। 
a)प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना अपने मुख्य वायदे पूरा करने में असमर्थ रही है। ये हैं --स्वास्थ्य सेवाओं के खर्च की आर्थिक सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं तक अधिकाधिक जनता की पहुंच तथा स्वास्थ्य प्राप्तियों में सुधार आदि।
b) प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना को इस तरह दर्शाया जा रहा है मानो इससे गरीबों को बहुत लाभ है । लेकिन इसका वास्तविक उद्देश्य निजी क्षेत्र  की स्वास्थ्य सेवाओं को लाभ पहुंचाना है। गरीबों की अच्छी स्वास्थ्य सेवा केवल तभी हो सकती है जब सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता, संख्या व क्षेत्र बढ़ाए जाएं ।
c) प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना की मॉनिटरिंग अच्छी की जाए। इसमें नागरिक समाज की संस्थाएं एवं जन आंदोलन की संस्थाएं शामिल की जाएं। यदि मानिटरिंग सुधरती है तो अधिकतर निजी सेवा धारक या तो बाहर हो जाएंगे या बाहर निकलने को मजबूर हो जाएंगे। यह इसलिए भी अच्छा है कि इससे केवल नैतिकता से काम करने वाले ही बचेंगे लाभ कमाने वाले नहीं। इससे स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को सहायता मिलेगी । निजी धारकों को बढ़ावा केवल तभी मिलता है जब सरकारी क्षेत्र सेवा देने में असमर्थ होता है।
d) यदि ताजा बीमा प्रक्रिया के तहत सरकारी धारक देने लग जाए तो भी निजी क्षेत्र की तमाम समस्याएं सरकारी क्षेत्र में आ जाएंगी । इसलिए बीमा योजनाएं विस्तार से समझनी होंगी। इसके लिए तरीका यह हो कि बजट सुविधाओं में विविधता हो और पिछले वर्ष या महीने में इस योजना के अंतर्गत आए मामले देखे जाएं।
e) निजी धारकों को समय पर तथा भ्रष्टाचार रहित तरीकों से पैसा दिया जाए ताकि नैतिकता से काम करने वाले टिके रहें। एक सीमा से कम की ही अदायगी करनी चाहिए (यह चालू हालत की कीमत हो। इसमें पूरा पूंजी खर्च शामिल ना हो।
f) बिस्तरों की संख्या में ठीक ठाक वृद्धि हो तथा सरकारी अस्पतालों में विभिन्न प्रकार की सेवाओं में गुणवत्ता युक्त सेवा सुधार किए जाएं। गुणवत्ता युक्त सेवा में यह बातें आती हैं --मरीज की गरिमा, उसका आराम व संतुष्टि, समय पर सेवा मिलना ,  विनम्र व्यवहार, मरीज के साथ अच्छी संचार व्यवस्था तथा मशवरे के लिए समय पर नियुक्ति आदि। इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सरकारी खाते में खर्च करना ही सर्वोत्तम है।
   इनसे सीधे-सीधे प्रभावित व्यक्तियों को यह लोकप्रिय स्तर पर लाने के लिए जन आंदोलन  निम्नलिखित गतिविधियां कर सकते हैं --
*मरीजों को सुनिश्चित करें कि इस योजना के अंतर्गत वे किस चीज के हकदार हैं। 
*यदि किसी स्तर पर उन्हें यह नहीं मिल रही है तो इसे अधिकारियों के ध्यान में लाएं ।
* इसके लिए इस प्रकार किया जा सकता है :-
^ पैसा चार्ज करने से पहले मरीज से बात की जाए और समझा दिया जाए कि इन सेवाओं की लागत ये है ।
^बेसक मरीज नकद पैसा न दे रहे हों, मरीज आसानी से देख सकते हैं कि कार्ड पर कितना पैसा लिखा है, उनसे लिया  कितना जा रहा है और उन्हें बिल क्या दिया जा रहा है। यह स्पष्ट होना चाहिए कि भुगतान का आधार वही बिल है जिस पर मरीज ने हस्ताक्षर किए हैं 
^ मरीज को उन सेवाओं से इंकार ने किया जाए जिस सेवा के लिए अस्पताल पैनल पर हैं ।
^ पब्लिक को कौन-कौन सी सेवाएं मिलेंगी और कौन-कौन सी नहीं मिलेगी इनकी सूची सौदे में स्पष्ट की जानी चाहिए । 
सौदे की शर्तों पर सभी आंकड़े व अन्य दस्तावेज एकत्र करने के बाद सांझे विरोध के फार्म पर आयोजन किये जायें। ये ही बैठकों, समाचारों या मुकदमे का रूप ले सकते हैं । दोहरे भुगतान के साक्ष्य जुटाए जाएं,  व्यक्तिगत या संस्थाओं को चुनौती देने में सहायता की जाए। जिला स्तर पर विश्लेषण कर सप्लाई आधारित सुविधाओं में विकृतियों की पहचान हो जहां अनाम आंकड़ों के आधार पर प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना से भुगतान लिए गए हैं।
7. प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना भर्ती सेवाओं और प्रक्रियाओं में सीमित है। इसमें बाहृय रोगी सेवाएं तथा प्राथमिक चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं। जबकि स्वास्थ्य पर खर्च आनुपातिक रूप में बाहृय रोगियों पर ज्यादा है। बाहृय मरीजों को प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना से बाहर रखकर क्या स्वास्थ्य सेवाओं का बिखराव  नहीं किया जा रहा है ? क्या हमें बाहृय  रोगी सेवाओं को भी प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में शामिल करने की मांग नहीं उठानी चाहिए?
a) बाहृय रोगी सेवाओं को भर्ती रोगी सेवाओं के मुकाबले मानीटर और नियंत्रित करना ज्यादा कठिन होता है।जब प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना का मंच दोहरे बिल तथा अनुचित सेवाओं से ही प्रभावित है तो बाहृय रोगी सेवाएं तो समस्या को और ज्यादा बढ़ाएंगी। वैसे भी अधिकतर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं तथा बाहृय रोगी सेवाएं सभी स्तरों पर परहेज और सहायता संबंधित जैसे पूर्व पहचान के परीक्षण,  सलाह- मशवरा, बिगाड़ से बचाव की दवाएं तथा भर्ती रोगियों की सहायता व प्रक्रियाएं इसमें आती हैं । निजी अस्पतालों का मॉडल समाधान( इलाज) सेवाओं पर केंद्रित है, इसमें भी प्राथमिकता जटिल, द्वितीय व तृतीय स्तर की सेवाओं की है। निजी क्षेत्र प्राथमिक स्तर तक भी परहेज संबंधित सेवाओं का अच्छा वाहक नहीं है।
b)  सरकार को किसी भी तरह मनाने का यह बड़ा खेल खेला जा रहा है कि वह निजी क्षेत्र के माध्यम से एक लाख करोड़ रुपए का खर्च प्राथमिक सेवा स्वास्थ्य सेवाओं पर करे। अंतरराष्ट्रीय सहायता प्राप्त एजेंसियां निजीकरण को बढ़ावा देने के प्रस्ताव रख रही हैं। वे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र का ऐसा मॉडल दे रही हैं जहां किसी भौगोलिक क्षेत्र में इन सेवाओं को बाहर से कारपोरेट द्वारा पूरी करवाया जा सके । प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं तथा बाहृय रोगी सेवाओं  को प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में लाने से यह उनके हाथ में आ सकती है, क्योंकि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के मुख्य धारक निजी धारक हैं ।
 जन आंदोलनों को चाहिए कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं संपूर्ण तरीके से सरकारी जरिये से सार्वभौमिक हों। c) हमारी दूसरी मांग इस बारे में हो कि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के लिए ज्यादा धन मुहैया करवाया जाए या ऊंचे दरों की प्रक्रियाओं का भी भुगतान किया जाए।क्योंकि इनसे निजी हाथों में ज्यादा पैसा आएगा ,न ही स्वास्थ्य सेवाओं के परिणामों में सुधार आएगा, न ही स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बनेगी और न हीआर्थिक सुरक्षा हो सकेगी
8 क्या हमारी मुख्य मांग यह है कि सभी सरकारी धन प्राप्त बीमा योजनाओं से पीछे हटा जाए ? 
   जन स्वास्थ्य अभियान ने पहले ही कह दिया है कि ऐसी बीमा योजनाओं से पूरी तरह पीछे हटा जाए और विकल्प में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत किया जाए । इस स्थिति का एक लाभ है । लेकिन बहुत से नागरिक संस्थाएं और बौद्धिक वर्ग (HLEG रिपोर्ट  ) भी बीमा योजनाओं से पूरी तरह पीछे हटने को कहती हैं । लेकिन वे इसके विकल्प में सभी प्राथमिक ,द्वीतीय तथा तृतीय सेवाओं की आउटसोर्सिंग की बात करती हैं जो किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में या तो कारपेट द्वारा या किसी संगठित नेटवर्क जिससे भी वे चाहें दी जाएं। कई बार वे ऐसे भी विकल्प देते हैं कि किसी क्षेत्र के सभी  निजी व्यक्तिगत चिकित्सकों  से सौदा कर लिया जाए । व्यवहारिक रूप से इस पर भी खर्चा उतना ही आ जाता है । यदि हम बीमा योजनाओं से पीछे हटने की कह रहे हैं तो भी हमें इससे बहुत सावधानी की जरूरत है। क्योंकि ट्रेड संगठनों तथा अन्य क्षेत्र के लोगों में बीमा योजनाओं की लोकप्रियता बहुत है। मौजूदा प्रकरण में बुद्धिमत्ता यही होगी कि बीमा योजनाओं को सीमित किया जाए। सरकारी धारकों का अनुपात बढ़ाया जाए और यह सुनिश्चित हो कि निजी धारक शर्तों से बंधे हों।प्राथमिक सेवा स्वास्थ्य सेवा पूरी तरह अलग हो । हमें ईएसआई के नेटवर्क के प्रसार और प्रभावी बनाने की भी मांग करनी चाहिए । यह निश्चित हो ईएसआई तथा स्वास्थ्य सेवाओं की सरकारी इकाईयां  किसी भी रास्ते में से बीमा योजनाओं को प्रयोग करते हुए निजी ना बन जाए।

भाग 3 सुंदर


भाग 3: स्वास्थ्य पेशेवर बनाना - स्वास्थ्य व्यावसायिक शिक्षा और व्यावसायिक विनियमन में नीतियां बदलना, और लोगों के स्वास्थ्य प्रबंधन से पहले कार्य
 सुंदररमन टी
सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाता जिन्हें उप-धारा (1) के तहत सीमित लाइसेंस दिए जाते हैं, वे ऐसी परिस्थितियों में और ऐसी अवधि के लिए दवा का अभ्यास कर सकते हैं, जैसा कि नियमों द्वारा निर्दिष्ट किया जा सकता है।
मेडिकल काउंसिल एक्ट की जगह एक नए अधिनियम की आवश्यकता की अत्यंत जरूरत थी इसके महत्व में कोई संदेह नहीं है।  दुर्भाग्य से, नेशनल मेडिकल काउंसिल बिल ऑफ 2019, अब, एक अधिनियम, पहले की परिषद की मुख्य समस्याओं को पहचानने और संबोधित करने में विफल रहा है, और इस वर्तमान बिल के माध्यम से अपने क्रूर बहुमत का उपयोग करके, इसने काफी नए खतरे पैदा किए हैं।  कई राज्य सरकारों ने भी इस अधिनियम का विरोध किया है।
इस नोट में हम इस बिल के संबंध में अपनी कुछ प्रमुख चिंताओं को जनता के साथ साझा करते हैं:

💐 संघीय संरचना का नुकसान:

 सबसे पहली बात यह है कि संघीय संरचना का लगभग पूर्ण परित्याग है और चिकित्सा शिक्षा नीति और पेशेवर विनियमन, और कार्यान्वयन के सभी साधनों के हर विवरण का केंद्रीयकरण करने का साफ साफ एक जुनून दिखाई देता  है।

नौकरशाही द्वारा शासित:

 इसके अलावा, यहां तक ​​कि केंद्र में भी नौकरशाही में शक्तियां काफी केंद्रित हैं- केवल 5 निर्वाचित सदस्यों की सीमित संख्या के लिए एक बहुत ही टोकन भूमिका के दिखावे के साथ।  राज्य चिकित्सा परिषदों के प्रतिनिधि इन 5 सदस्यों का चुनाव करते हैं।  आयोग के पास पूरी तरह से 25 सदस्य हैं।  अन्य सभी आयोग सदस्य मनोनीत किए जाते हैं।  प्रमुख पदों के लिए खोज समितियां भी काफी हद तक आज के  दिन की सरकार द्वारा नामित की जाती हैं। इसके बावजूद इससे संतुष्ट नहीं है, सरकार नीतियों पर आयोग को निर्देश देने या आयोग द्वारा बनाई गई किसी भी नीति को रद्द करने के लिए और भी अधिक शक्तियों के साथ अपने अधिकार रखती है।

राज्य-निर्णयकर्ता नहीं, बल्कि सलाहकार की भूमिका में:

एक चिकित्सा सलाहकार परिषद है, जिसकी एकमात्र भूमिका सदस्यों को अपने विचारों को रखने  की अनुमति देती है।  राज्यों का प्रतिनिधित्व राज्य सरकार के चिकित्सा विश्वविद्यालय (या समतुल्य) के कुलपति और राज्य चिकित्सा परिषद द्वारा नामित सदस्य के रूप में निर्दिष्ट सरकार द्वारा नामित प्रतिनिधि द्वारा किया जाता है।

यह निर्णय लेने के अधिकार की बजाय  सलाहकार की भूमिका में रखने के चलते राज्य की भूमिका को डाउनग्रेड करता है।  यहाँ तक कि परामर्श के लिए इस सीमित स्थान को प्रदान करने पर भी उच्च स्तर की जोखिम-बचाव की संभावना प्रतीत होती है क्योंकि विशिष्ट रूप से आयोग के सभी सदस्यों को सलाहकार परिषद का सदस्य भी बनाया जाता है।

केंद्रीकरण और संस्थागत क्षमता:

केंद्रीयकरण और सूक्ष्म प्रबंधन भी आयोग के दायरे में निहित हैं क्योंकि इसमें लगभग हर परिचालन विवरण के लिए नियम और कानून बनाने की शक्तियां हैं।  इस तरह के जनादेश का प्रशासन करने के लिए इस केंद्रीय संस्थान में एक अविश्वसनीय रूप से उच्च स्तर की संस्थागत क्षमता की आवश्यकता होगी- और ऐसा कुछ भी नहीं जिसे केंद्रीय मंत्रालयों और संस्थानों ने देखा हो, हमें यह विश्वास दिलाएगा कि वे ऐसा कर सकते हैं।  एक हंबलर और केंद्र सरकार द्वारा अपनी क्षमता का अधिक ईमानदार अनुमान, राष्ट्रीय आयोग द्वारा निर्धारित व्यापक ढांचे के भीतर राज्यों को अधिक भूमिका के लिए अनुमति देना ज्यादा प्रासंगिक होता।

निजी क्षेत्र के लिए खुला द्वार

 इसके सर्वव्यापी जनादेश के बावजूद, एक पहलू पर आयोग को रोक दिया गया है।  यह फीस के निर्धारण के लिए सर्वश्रेष्ठ "फ्रेम दिशा-निर्देश और पचास प्रतिशत के संबंध में अन्य सभी शुल्क ले सकता है।"  निजी चिकित्सा संस्थानों में सीटों और विश्वविद्यालयों के रूप में समझा जाता है। ”इसके अनुसार 50% सीटों के लिए कोई विनियमन नहीं होगा।  यहां तक ​​कि इस 50% के लिए भी कोई संकेत नहीं हैं कि शुल्क निर्णय के सिद्धांत क्या होंगे।  इस बिल में एक अधिक प्रतिगामी कदम यह है कि यह पहली बार profit फॉर-प्रॉफिट एंटिटीज ’के द्वार खोलता है, और वर्तमान संदर्भ में यह मुख्य रूप से कॉर्पोरेट सेक्टर के लिए द्वार खोलने का तात्पर्य है।  अंडर-सर्व्ड पॉपुलेशन और एस्पिरेंट्स तक पहुंच और सामर्थ्य प्रदान करने के दायित्व का कोई उल्लेख नहीं है।  ये अभी एजेंडे से दूर हैं।  इस नीति का उद्देश्य केवल एक अत्यधिक निजीकृत क्षेत्र के भीतर है, सरकार को शिक्षा की गुणवत्ता की समस्याओं के साथ कैसे संबंधित देखा जा सकता है।

सामान्य राष्ट्रीय परीक्षाओं के रूप में गुणवत्ता आश्वासन

 गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए, केवल एक विचार है, एक और महान केंद्रीयकरण, एक सामान्य राष्ट्रीय परीक्षा, एक एमबीबीएस पाठ्यक्रम (राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा- NEET) में प्रवेश के लिए और दूसरा बाहर निकलने के लिए।  (नेशनल एग्जिट एग्जामिनेशन- NEXT) एग्जिट परीक्षा लाइसेंस के लिए परीक्षा के साथ-साथ पोस्ट-ग्रेजुएशन पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए परीक्षा है।

NEET समस्याएं

 दोनों के साथ समस्याएं हैं।  एमबीबीएस पाठ्यक्रम (एनईईटी) में प्रवेश परीक्षा के रूप में यह अंडर-सर्व्ड क्षेत्रों के लिए उपयुक्त उम्मीदवारों को प्राथमिकता देने में मदद नहीं करता है - जो मानव संसाधनों की अत्यधिक विषम उपलब्धता को देखते हुए एक बड़ी आवश्यकता है।  यह MCQ प्रारूप की सीमा को नहीं पहचानता है और एक समय सीमा के भीतर इसमें प्रदर्शन के लिए कौशल की आवश्यकता होती है और किसी विषय को समझने या सामान्य परीक्षा लिखने के लिए अलग से अभ्यास करना पड़ता है।  यह कोचिंग उद्योग को बढ़ावा देता है और इस तरह के कोचिंग का खर्च उठाने वाले अमीर छात्रों की ओर योग्यता को मापता है ... शक्तिशाली तर्क हैं कि क्यों राज्य स्तर पर राज्य इस तरह की आम प्रवेश परीक्षा आयोजित करना पसंद करते हैं।  कुछ 15% सीटों को एक केंद्रीय पूल में आत्मसमर्पण किया जा सकता है, जिसके लिए एक राष्ट्रीय परीक्षा प्रासंगिक होगी।  अलग-अलग बोर्डों में अंकों के मानकीकरण के साथ केवल स्कूल छोड़ने के निशान के लिए एक और भी मजबूत मामला है।
NEXT problem
अगला समस्या:

 बाहर निकलने की परीक्षा के रूप में, MCQ प्रारूप और भी अधिक सीमित है क्योंकि यह कौशल और रोगी बातचीत का परीक्षण नहीं करता है।  इसके अलावा, एक अंतिम वर्ष का छात्र चरणों में विभिन्न विषयों से गुजरता है- और सभी को एक ही परीक्षा में सम्मिलित करने से कोई मदद नहीं मिलती है।  यह नवाचार और सुधार के खिलाफ एक बाधा के रूप में भी काम करेगा।  पोस्ट-ग्रेजुएशन में प्रवेश परीक्षा के रूप में, NEET के लिए और एक्जिट परीक्षा के लिए वर्णित समस्याओं के दोनों सेट लागू होते हैं।  साथ में कुछ नए भी।

चार बोर्ड- लेकिन स्वायत्त?

 NMC चार स्वायत्त बोर्ड- (a) UG मेडिकल एजुकेशन बोर्ड, (b) PG मेडिकल एजुकेशन बोर्ड, © मेडिकल असेसमेंट एंड रेटिंग बोर्ड और (d) एथिक्स एंड मेडिकल रजिस्ट्रेशन बोर्ड को अनिवार्य करता है।  इन कार्यों का पृथक्करण स्वागत और संभावित रूप से सही दिशा में एक कदम है।  लेकिन यह इंगित करने के लिए कुछ भी नहीं है कि ये कैसे स्वायत्त हैं और इनमें से प्रत्येक बोर्ड में वह करने की क्षमता होगी जो उनके लिए आवश्यक है, और ये कैसे आंतरिक लोकतांत्रिक कामकाज का एक न्यूनतम भी बनाए रखेंगे।  यह धारणा, कि दिल्ली में स्थित चार पाँच सदस्यीय टीमों द्वारा, इन चार कार्यों को देश भर में किया जा सकता है।  मेडिकल असेसमेंट एंड रेटिंग बोर्ड के लिए इस समस्या को हल करने के लिए बोर्ड कहता है कि बोर्ड “निरीक्षण करने के लिए किसी अन्य तृतीय-पक्ष एजेंसी या व्यक्तियों को नियुक्त और अधिकृत कर सकता है।” इन बोर्डों के साथ मुख्य समस्या यह है कि वे राज्य को पूरी तरह से कमजोर कर देते हैं।  भूमिका।
भ्रष्टाचार तटस्थ:

 नए अधिनियम के लिए एक बड़ा कारण, और पहले के अधिनियम को निरस्त करना भ्रष्टाचार है।  लेकिन इस बिल में ऐसा कुछ भी नहीं है जिससे किसी को विश्वास हो कि भ्रष्टाचार कम होगा।  बोर्ड के सदस्यों और चिकित्सा विशेषज्ञों से तीसरे पक्ष की एजेंसी को स्थानांतरित करने से भ्रष्टाचार के रूप को बदलने की संभावना अधिक है।

नैतिकता या रजिस्ट्री: क्षमता कहां है?

 एथिक्स बोर्ड फ़ंक्शन मेडिकल रजिस्ट्री के साथ संयोजन करता है- हालांकि ये बहुत अलग कौशल सेट और विभिन्न संस्थागत आवश्यकताएं हैं।  एकमात्र ओवरलैप यह है कि मेडिकल रजिस्टर से नैतिक आधार पर कमजोर व्यक्ति के नाम को हटाना आसान हो सकता है।  कहीं भी इस बात की मान्यता नहीं है कि एक जीवित रजिस्टर को बनाए रखने के लिए या पंजीकरण के बिना उन लोगों की पहचान करना जो व्यवहार में हैं- और यह किस तंत्र द्वारा किया जाएगा।  इस बोर्ड के नैतिक कार्य की आवश्यकताओं को न केवल समझा जाता है, इसमें क्या शामिल है, इस पर पर्याप्त नहीं है और इन कार्यों को कैसे प्रबंधित किया जाएगा।

आश्चर्य शामिल: सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाता:

 विधेयकों में अन्य प्रमुख नए समावेश सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाताओं से संबंधित खंड हैं।  उद्धरण के लिए:

 “आयोग मध्य-स्तर पर चिकित्सा पद्धति का अभ्यास करने के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाता के रूप में आधुनिक वैज्ञानिक चिकित्सा पेशे से जुड़े ऐसे व्यक्ति को सीमित लाइसेंस दे सकता है जो ऐसे मानदंडों को अर्हता प्राप्त करते हैं जो नियमों द्वारा निर्दिष्ट किए जा सकते हैं;

 बशर्ते कि इस उप-धारा के तहत दिए जाने वाले सीमित लाइसेंसों की संख्या धारा 31 की उप-धारा (1) के तहत पंजीकृत लाइसेंस प्राप्त चिकित्सकों की कुल संख्या के एक तिहाई से अधिक न हो।

 सामुदायिक स्वास्थ्य प्रदाता केवल निर्दिष्ट प्राथमिक और निवारक स्वास्थ्य सेवाओं में स्वतंत्र रूप से निर्दिष्ट दवा लिख ​​सकता है, लेकिन प्राथमिक और निवारक स्वास्थ्य देखभाल के अलावा अन्य मामलों में, वह धारा 32 की उप-धारा (1) के तहत पंजीकृत चिकित्सा चिकित्सकों की देखरेख में ही दवा लिख ​​सकता है।  "

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के लिए यह विपक्ष के मुख्य क्षेत्रों में से एक है।  वे इसे बैकडोर एंट्री से क्वैरी में लेबल करते हैं।  सच्चाई यह है कि उप-केंद्र स्तर के लिए एक मध्य-स्तरीय देखभाल प्रदाता को लगाने के लगभग दस वर्षों के प्रयासों में खराब प्रगति के बाद, इस बिल को उस आवश्यकता को शामिल करने के लिए तेजी से आंदोलन का उपयोग करने के लिए एक त्वरित कदम है।  जबकि कोई यह तर्क दे सकता है कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा स्तर पर ऐसे प्रदाता की आवश्यकता है, अधिकांश देशों और भारतीय राज्यों में से कुछ ऐसे कैडर हैं जिनके पास उस कैडर को कवर करने के लिए एक अलग कानून है।  जैसे कि नर्सिंग, फार्मासिस्ट, एलाइड हेल्थकेयर प्रदाता आदि के लिए है। इस बिल में नए एजेंडे को जल्द से जल्द पैक करें, बिना इस शब्द की परिभाषा के, और योग्यता, सशर्त लाइसेंसिंग उपायों, प्रवेश या निकास, गुंजाइश की कोई समझ नहीं है।  काम आदि के लिए बड़ी मुसीबत पूछना है।

यहां तक ​​कि अगर वह सरकार का इरादा नहीं है, तो इस पर आईएमए सबसे खराब भय से गुजरता है- और एक योग्य योग्य स्वास्थ्य सेवा प्रदाता उत्पन्न हो सकता है जो तब स्वास्थ्य के लिए अत्यधिक प्रतिस्पर्धी, लगभग शहरी शहरी बाजारों में प्रवेश करने के लिए आगे बढ़ेगा।
बिल में मौन:

 कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों पर विधेयक के महत्वपूर्ण मौन भी हैं।  उदाहरण के लिए, हालांकि प्रभावी शिकायत निवारण तंत्र एक घोषित उद्देश्यों में से एक है, बिल में इसका कोई और उल्लेख नहीं है।  बिल भी किक-बैक, कमीशन और हितों के अन्य टकराव पर पूरी तरह से चुप है।  विधेयक में इस बात का बहुत कम उल्लेख है कि राज्य चिकित्सा परिषदों का क्या होता है और इसका जनादेश कैसे संशोधित होगा।
उप-पाठ: पेशेवर शासन में भूमिका

 इस विधेयक के कारणों में बहुत सी खामियां हैं, यह है कि चिकित्सा परिषद के खराब कामकाज का पूरा इतिहास स्वयं को संचालित करने के लिए चिकित्सा पेशे की अक्षमता को कम कर दिया गया है और इसके बदले में (उप-पाठ में) जिम्मेदार ठहराया गया है  पेशे की अंतर्निहित समस्या होना।  इसलिए, यह माना जाता है कि इस तरह के पेशेवर नियंत्रण को हटा दिया जाता है या पतला कर दिया जाता है, तो समस्याएं दूर हो जाती हैं।  कुछ हद तक पिछले मेडिकल काउंसिल में चिकित्सा पेशेवरों ने इस पर खुद को लाया- न केवल भ्रष्टाचार और खराब नैतिकता की जांच करने में विफल, बल्कि अक्सर इस तरह के भ्रष्टाचार के स्रोत के रूप में देखा जा रहा है और नेतृत्व को खारिज करने में विफल रहा है जो अदालतों के लिए दागी था।  ऐसा भ्रष्टाचार।
लेकिन यह एकमात्र समस्या नहीं थी- और न ही मुख्य समस्या भी थी- और इस बिल के समाधानों से स्थिति बिगड़ सकती है।  शिक्षा की खराब गुणवत्ता, भ्रष्टाचार, नैतिक घाटे, जीवित रजिस्टरों की कमी, मानव संसाधन उत्पन्न करने में विफलता जैसी समस्याओं के लिए अन्य नीति और प्रणालीगत जड़ों का विश्लेषण करने या समझने में विफलता, जो हमारी जरूरतों के लिए उपयुक्त हैं, सभी एक पेशेवर विरोधी पूर्वाग्रह के साथ आते हैं  एक ऐसे बिल के बारे में जो किसी को संतुष्ट न करे, और बहुत कम हल करे।
राजनीतिक संदर्भ:

 इस विधेयक का समग्र राजनीतिक संदर्भ भी नोट करना महत्वपूर्ण है।  सरकारी नीति का मुख्य जोर स्वास्थ्य सेवाओं के प्रदाता की भूमिका से सरकार को निजी प्रदाताओं से बीमा या भागीदारी के माध्यम से इसे खरीदने के लिए स्थानांतरित करना है।  यह निजीकरण का एक रूप है, जहां बहुसंख्यकों की स्वास्थ्य सेवा के लिए सार्वजनिक व्यय का भुगतान निजी प्रदाताओं के माध्यम से किया जाता है, जहां वे लाभ कमा सकते हैं और एकाधिकार नियंत्रण को प्रोत्साहित किया जा सकता है।
हालांकि, विनियमन की कमी - निजी चिकित्सा शिक्षा और निजी चिकित्सा देखभाल दोनों में यह बहुत मुश्किल है।  अध्ययन दिखा रहे हैं कि निजी प्रदाता अनुबंध की शर्तों का पालन नहीं करते हैं और निजी शैक्षणिक संस्थान भ्रष्ट और खराब गुणवत्ता के हैं।  निजीकरण में समस्या की जड़ों को देखने के बजाय, सरकार पूरी तरह से पेशे और पेशेवर विनियमन में समस्या का पता लगाएगी।  यह चिकित्सा पेशेवरों से कठोर प्रतिरोध लाता है।
निष्कर्ष के तौर पर:

 स्पष्ट रूप से अधिनियम के प्रावधानों पर सार्वजनिक राय को शिक्षित करना और आकार देना महत्वपूर्ण है, इस बारे में हमारी चिंताएं- जहां हम आईएमए द्वारा व्यक्त किए गए पेशेवर राय से सहमत हैं और जहां हम अलग हैं, और कुछ प्रमुख पर वैकल्पिक सूत्र क्या होंगे  मुद्दे।

 इस अधिनियम के माध्यम से केंद्र सरकार ने चिकित्सा शिक्षा में सुधार के लिए सभी शक्तियों पर कब्जा कर लिया है और चिकित्सा पेशेवरों की उपलब्धता और चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता में अंतराल को बंद कर दिया है और उन्हें इन कार्यों के लिए जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।

 आने वाले वर्षों में जैसे ही इस अधिनियम का कार्यान्वयन शुरू होगा, समस्याएं और अधिक शानदार ढंग से दिखाई देंगी।  पहले से ही मंत्रालय ने एक लाइसेंस परीक्षा के रूप में NEXT के कार्यान्वयन को शुरू करने के लिए तीन साल का समय मांगने के साथ शुरुआत की है।  नागरिक समाज के वर्गों ने स्वास्थ्य अधिकारों, पेशेवर संघों और सभी लोकतांत्रिक ताकतों के लिए संघर्ष किया है, उन्हें अत्यंत सतर्कता बरतने की जरूरत है, सीमाओं का समय पर सार्वजनिक प्रदर्शन सुनिश्चित करें और सार्वजनिक प्रवचन, बेहतर विकल्प / विकल्प प्रस्तुत करें जो इन समस्याओं का समाधान कर सकें।
स्वास्थ्य पेशेवर शिक्षा और मसौदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति:

 तीन महत्वपूर्ण चुनौतियां हैं, जिन्हें स्वास्थ्य शिक्षा पर किसी भी नीति को संबोधित करना होगा:

 इनमें से पहला और सबसे महत्वपूर्ण देश भर में स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों का गंभीर वितरण है।  राष्ट्र के हर ब्लॉक और जिले में डॉक्टरों, नर्सों और संबद्ध स्वास्थ्य पेशेवरों की न्यूनतम घनत्व होने पर ही स्वास्थ्य सेवा तक सार्वभौमिक पहुंच हासिल करने की राष्ट्रीय प्रतिबद्धता हासिल की जा सकती है।  स्वास्थ्य पेशेवरों के इस तरह के वितरण को शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश, पाठ्यक्रम के संदर्भ और सामग्री और सार्वजनिक वित्तपोषण और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के संगठन की बाद की नीतियों से संबंधित नीतियों से निकटता से जुड़ा हुआ है।
दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती शिक्षा की गुणवत्ता सुनिश्चित करना है, ताकि इन संस्थानों से बाहर निकलने वाले युवा पुरुषों और महिलाओं को सही निर्णय लेने और सही देखभाल प्रदान करने के लिए ज्ञान और कौशल हो।  एक सेवा क्षेत्र में स्वास्थ्य सेवा जहां परिणाम की जानकारी विषमता और अनिश्चितताओं के कारण, सेवा उपयोगकर्ता की प्रदाता की पसंद बनाने की क्षमता, या यहां तक ​​कि यह निर्धारित करने के लिए कि क्या प्राप्त की गई देखभाल उचित थी और पर्याप्त सीमित है।  निजी प्रैक्टिस के अधिकांश संदर्भों में, प्रदाताओं के पास स्वयं के मौद्रिक प्रोत्साहन रोगी के सर्वोत्तम हित के साथ संरेखित नहीं हो सकते हैं।  यह सब विश्वास की एक उच्च डिग्री के लिए कहता है और राज्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि स्वास्थ्य सेवा पेशेवर के पास इस तरह के भरोसे के लायक होने का कौशल है।
तीसरी चुनौती भी शिक्षा की गुणवत्ता का एक आयाम है- ज्ञान और कौशल के मामले में यह सिर्फ तकनीकी दक्षता नहीं है, बल्कि इसकी देखभाल की आवश्यकता है।  ये देखभाल करने वाले स्थान हैं जहाँ अधिकांश चिकित्सकों को बीमारी को रोकने, बीमार लोगों की देखभाल करने और यहां तक ​​कि मरने के समर्थन में कार्य करने के बावजूद पूर्ण और रचनात्मक महसूस करना होगा।  देखभाल के सभी स्तरों पर कोई संदेह नहीं है, कुछ तकनीकी कौशल आवश्यक हैं, लेकिन जो समान रूप से महत्वपूर्ण है, वह समानुभूति है जो देखभाल करने वालों के पास उन लोगों के लिए है जिनकी वे देखभाल करते हैं, और प्रदाताओं और समुदायों के बीच घनिष्ठ संबंध की आवश्यकता होती है, और सेवा की जाती है, और  पेशेवर शिक्षा और अभ्यास के दौरान नैतिक मूल्यों का उन्होंने अनुकरण किया है।

मसौदा राष्ट्रीय शिक्षा नीति, न केवल इन चुनौतियों का समाधान करने में विफल रहती है, यह इसे सक्रिय रूप से खराब कर सकती है।  (हेल्थकेयर शिक्षा राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे में पेशेवर शिक्षा पर अध्याय के उप-विषयों में से एक के रूप में जगह पाती है)।  -

 नीचे दी गई तालिका 1 में, हम राज्यों में प्रति लाख आबादी पर स्नातक और स्नातकोत्तर सीटों के अत्यधिक विषम वितरण को दिखाते हैं।  जिन राज्यों में डॉक्टरों की सबसे बड़ी कमी है, वे भी ऐसे राज्य हैं जहां प्रति एक लाख की आबादी पर सीटों की संख्या राष्ट्रीय औसत से कम है।  राज्यों के भीतर वितरण भी इसी तरह तिरछा है।  सीटों और पेशेवरों की उपलब्धता में एक समान तिरछा भी नर्सों और संबद्ध स्वास्थ्य पेशेवरों में से कई के लिए प्रदर्शित किया जा सकता है।

 इस तथ्य को देखते हुए कि अधिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के ऊर्ध्वगामी शहरी शहरी युवा स्वास्थ्य संस्थानों में प्रवेश पाने में सबसे सफल हैं, रिश्तेदार अधिशेष वाले राज्यों में सीटों की वृद्धि केवल अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा और कुछ के भीतर डॉक्टरों के लिए कम पारिश्रमिक की ओर ले जा रही है।  बड़ा शहरी क्षेत्र।  यह अधिशेष डॉक्टरों और नर्सों को अंडर-सर्विस्ड क्षेत्रों में स्थानांतरित करने के लिए नेतृत्व नहीं करता है।  ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने के लिए बांड और अन्य प्रकार की बाध्यता शायद ही कभी काम करती है, और यहां तक ​​कि वे इस हद तक भी करते हैं, ऐसे पेशेवरों के पास समान स्तर की सहानुभूति और समुदायों के साथ संबंध नहीं होगा जो एक डॉक्टर के रूप में सक्रिय रूप से ऐसे क्षेत्र में काम करना पसंद करेंगे।  दुनिया भर के कई देशों में स्नातक स्तर की पढ़ाई के बाद इन क्षेत्रों में जाने के लिए प्रतिबद्ध और प्रोत्साहन के साथ-साथ अंडर-सर्विस्ड समुदायों और क्षेत्रों के छात्रों के लिए अधिमान्य प्रवेशों ने इस तरह के सेवा अंतराल को बंद करने में सबसे अधिक मदद की है।
राष्ट्रीय शिक्षा नीति इस बात पर चुप है कि राज्य द्वारा, लिंग के आधार पर, या अधिक सीमांत जातियों और समुदायों द्वारा इन विशाल मानव संसाधन अंतरालों को कैसे संबोधित किया जाएगा।  स्वास्थ्य सेवा शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा तक पहुँच में इक्विटी के बाद से चुप्पी आश्चर्यजनक नहीं है, हालांकि केवल सार्वजनिक शिक्षण और नि: शुल्क या अत्यधिक अनुदानित शिक्षा जैसे सार्वजनिक शिक्षण संस्थानों के आधार पर इन क्षेत्रों और समुदायों से उपयुक्त उम्मीदवारों को लाने में मदद की जा सकती है।  हालांकि मौन एक दृष्टिकोण के अनुरूप होगा जो स्वास्थ्य देखभाल शिक्षा में निजी लाभ के अवसरों को प्राथमिकता देता है और स्वास्थ्य देखभाल के लिए सार्वजनिक जरूरतों पर अपने बच्चों को मेडिकल स्कूलों में भेजने के लिए अधिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों की मांग है।  पिछले दो दशकों में स्वास्थ्य सेवा शिक्षा का व्यावसायीकरण तेजी से बढ़ रहा है, और अब अधिकांश संस्थान निजी क्षेत्र में हैं।  इसके अलावा, अधिकांश मेडिकल और नर्सिंग सीटों के लिए ऐसे उच्च भुगतानों की आवश्यकता होती है, जिनमें से अधिकांश आबादी को ऐसी शिक्षा से सक्रिय रूप से बाहर रखा गया हो।  यह एनईपी इस समस्या को बढ़ा देता है।  यह शिक्षण संस्थानों को किसी भी स्तर की फीस लेने की अनुमति देता है- और उन्हें केवल छात्रों के अनुपात के लिए छात्रवृत्ति प्रदान करने के लिए प्रतिबद्ध करता है- एक प्रतिबद्धता जो व्यवहार में लागू करना लगभग असंभव होगा।

स्वास्थ्य देखभाल शिक्षा के ऐसे बाजार संचालित विस्तार की शर्तों ने आउटपुट में गुणवत्ता को बहुत नुकसान पहुंचाया है- एक तथ्य जो लगभग सार्वभौमिक रूप से विख्यात और प्रतिष्ठित है।  यह नीति काफी हद तक सही कहती है कि पेशेवर परिषदों के तहत विनियामक शासन कार्य के लिए अपर्याप्त थे, और उनके हितों के गंभीर टकराव थे, लेकिन प्रस्तावित समाधान समस्या से भी बदतर हैं।  एनईपी काउंसिल की भूमिका के साथ नियामक के रूप में वितरण की कॉल करता है, लेकिन इसके बजाय जो यह प्रस्तावित करता है वह एक विशाल केंद्रीकृत संरचना है जो पूरे देश में सभी उच्च शिक्षा को नियंत्रित करेगा।  एनएमसी बिल पहले ही चिकित्सा शिक्षा के लिए ऐसा कर चुका है।  प्रस्ताव अब स्वास्थ्य सेवा शिक्षा के लिए इस दृष्टिकोण का विस्तार करने के लिए है।  यह स्पष्ट नहीं है कि क्या;  कोई भी एकल केंद्रीय संस्था कभी भी इस तरह की क्षमता की आवश्यकता, या आवश्यकता हो सकती है।  संवैधानिक प्रावधानों ने आज शैक्षिक मानक सेटिंग को संघ सूची में डाल दिया है लेकिन स्पष्ट रूप से उच्च शिक्षा का विनियमन राज्यों को छोड़ दिया है।

लेकिन बड़ी समस्या हर राष्ट्रीय स्तर पर आम राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा (NEET) पर लगभग अनन्य निर्भरता है, जो सभी शैक्षिक प्रशासन की एकल सबसे महत्वपूर्ण रणनीति है।  प्रस्ताव मानता है कि स्नातक स्तर पर और स्नातकोत्तर स्तर पर प्रवेश के लिए सामान्य परीक्षाएं प्रभावी हैं और लाइसेंस के उद्देश्यों के लिए उत्तरार्द्ध को भी एक आम निकास परीक्षा के रूप में बदलने के लिए परिवर्तन करना चाहता है।  संभवतः दो NEET गुणवत्ता की सबसे उचित और पारदर्शी विशुद्ध रूप से योग्यता आधारित माप होंगे जो सार्वजनिक और निजी, समुदायों और क्षेत्रों के विभाजन में कटौती करेंगे।  यदि सभी पेशेवर छात्रों को चिकित्सा, नर्सिंग और दंत चिकित्सा धाराओं में मेरिट-आधारित छँटाई के बाद एक सामान्य प्रथम वर्ष के मूलभूत पाठ्यक्रम को करने की अनुमति देने के प्रस्ताव को गंभीरता से लिया जाता है, तो शायद यह पूल में एक तीसरा NEET जोड़ देगा।  लेकिन इस तरह की स्ट्रीमिंग को लागू करने की चुनौतियां इतनी हास्यास्पद हैं कि हमें इस पर चर्चा करने में विचलित होने की जरूरत नहीं है।

एनईईटी अपने आप में काफी आलोचना का आधार रहा है और अब यह स्पष्ट है कि यह एक ऐसा उपकरण है जो असमानताओं को बढ़ाता है और शैक्षिक शासन की संघीय प्रकृति को कमजोर करता है।  तमिलनाडु की तरह उन राज्यों में विरोध अधिकतम है, जहां विभिन्न वर्गों के साथ चर्चा की लंबी प्रक्रिया के बाद स्वास्थ्य सेवा का उपयोग करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों की जरूरतों और आबादी के विभिन्न वर्गों की जरूरतों के बीच काम करने के लिए संतुलन बना हुआ था।  स्वास्थ्य शिक्षा।  तब और अब अंडर-ग्रेजुएट सीटों का 15% और पोस्ट-ग्रेजुएट सीटों का 50% अखिल भारतीय कोटे को दिया गया था।  लेकिन 85% सीटें भरने के लिए, एक और योग्यता आधारित, निष्पक्ष और पारदर्शी प्रणाली राज्यों द्वारा तैयार की गई थी, जिसे सरकारी स्कूलों के छात्रों को देने के रूप में माना जाता था, और अधिक हाशिए पर रहने वाले समुदायों को एक माध्यम के रूप में राज्य भाषा के साथ अध्ययन करना, और महंगा खर्च करने में असमर्थ था।  कोचिंग सत्र, चयनित होने का एक उचित मौका।  यहां तक ​​कि इसमें समस्याएं थीं।  लेकिन NEET, उन छात्रों को पोस्ट करें जो केंद्रीय, अखिल भारतीय परीक्षा बोर्डों के बाद के स्कूलों से हैं, और उन कोचिंग स्कूलों में जाने वाले, जिन्होंने इन परीक्षाओं के उप-पाठ को क्रैक किया है, उन्हें अधिक मजबूत लाभ होता है।

इसी तरह, स्नातकोत्तर स्तर पर, तमिलनाडु राज्य में एक प्रणाली थी, जहां स्नातक ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने के लिए कर सकते थे, यह विश्वास दिलाता था कि स्नातक स्तर की पढ़ाई के लिए उन्हें कितना फायदा होगा और सरकारों ने काम किया था कि कैसे  इसके सभी जिला अस्पतालों में विशेषज्ञों के पद भरें।  राज्य ने अपने स्वयं के बजट का उपयोग करके स्नातकोत्तर और सुपर-स्पेशलाइज़ेशन पाठ्यक्रमों का विस्तार करने के लिए निवेश करने का विकल्प चुना था और सरकारी शिक्षा प्राप्त करने के लिए योग्यता के बाद सार्वजनिक सेवा की।  लेकिन परीक्षा प्रक्रिया के एक राष्ट्र-स्तरीय केंद्रीकरण के साथ, और केंद्रीय पूल में 50% स्नातकोत्तर सीटों और 100% सुपर-विशेषज्ञता सीटों के आत्मसमर्पण के साथ, राज्य सरकार की आवश्यक उम्मीदवारों को खोजने की क्षमता को गंभीरता से समझौता किया गया है।

इसके अलावा निजी शिक्षण संस्थानों को प्रबंधन कोटे में सीटों का स्तर काफी ऊँचा रखने की अनुमति है।  और इस प्रकार, कोई भी छात्र निजी चिकित्सा संस्थान में प्रवेश पाने के लिए और उच्च शुल्क का भुगतान करने में सक्षम है और चयनित होने के लिए पर्याप्त प्रभाव के साथ बहुत कम एनईईटी कट-ऑफ स्कोर के साथ अर्हता प्राप्त करेगा।  यह प्रणाली न केवल जारी रहती है, बल्कि नीति की भाषा के भीतर भी प्रोत्साहित की जाती है।

 यह सब राष्ट्रव्यापी आम परीक्षाओं पर जोर देने के लिए संभव है कि योग्यता को सामाजिक और शैक्षिक पृष्ठभूमि के लिए अंधाधुंध तरीके से अपनाया जाए- एक प्रकार का विशाल शैक्षिक स्तर खेल का मैदान जो छात्रों के बीच एक प्रतियोगिता को प्रोत्साहित करता है जहां एकमात्र मुद्रा को निष्पक्ष रूप से मापा जाता है।  योग्यता।  लेकिन फिर एक विचित्र फ्रायडियन स्लिप में, ड्राफ्ट पॉलिसी के पाठ में यह मणि है: “इस निकास परीक्षा को एमबीबीएस के चौथे वर्ष के अंत में प्रशासित किया जाएगा ताकि छात्रों को एक अलग, प्रतिस्पर्धी के लिए अध्ययन के बोझ से राहत मिले  उनके निवास काल के अंत में प्रवेश परीक्षाएं।  रास्ते से बाहर प्रवेश परीक्षा के साथ, वे मूल्यवान कौशल और क्षमता प्राप्त करने के लिए अपनी निवास अवधि बिता सकते हैं। ”(पैरा 16.8.3, पृष्ठ 305) इसका सच्चा आयात यह है कि परीक्षण का प्रस्तावित उपाय मूल्यवान कौशल को नहीं मापेगा या  योग्यता, यहां तक ​​कि जो चिकित्सा पाठ्यक्रम के सबसे महत्वपूर्ण भाग में सीखी जाती हैं- नैदानिक ​​प्रशिक्षण के अंतिम वर्ष।  डी जुरे, एनईईटी सीखने को मापने का एकमात्र आधार है।  लेकिन वास्तव में, राष्ट्रीय सामान्य परीक्षा को सीखने में बाधा के रूप में स्वीकार किया जाता है।  उसके बाद NEET का एकमात्र उपयोग छात्रों को रैंकिंग और उनके सभी अटेंडेंट विशेषाधिकारों के साथ योग्यता के एक स्पष्ट पदानुक्रम में क्रमबद्ध करने और बाकी को बाहर करने और बहिष्कार को सही ठहराने के लिए एक उपकरण के रूप में है।  पिछले साल पीजी-एनईईटी परीक्षा के लिए करीब 1.47 लाख मेडिकल ग्रेजुएट उपस्थित हुए थे, जिनमें से लगभग आधे को ही उत्तीर्ण माना जाता है और केवल 27000 को ही कहीं भी सीटें मिलेंगी और जिनमें से बहुत कम अनुपात में सस्ती सीटें होंगी।  NEET में 'फेल' होने वालों में से अधिकांश को निराशा और अपराधबोध का सामना करना पड़ेगा- सभी इसलिए कि अभी तक पाने के लिए, उनके पास उत्कृष्ट शैक्षणिक करियर हैं और हालांकि स्वभाव, दृष्टिकोण, अनुभव और कौशल से - और यहां तक ​​कि ज्ञान भी वे बेहतर हो सकते हैं  उन लोगों की तुलना में जिन्होंने इसे बनाया।  मेरिट के इस NEET परिभाषित पदानुक्रम के अन्य दुर्भाग्यपूर्ण कोलेटरल हैं।
एक, उदाहरण के लिए, जो छात्र आरक्षण कोटा के कारण निम्न सीमा के साथ उत्तीर्ण होते हैं, उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है, जो इस आधार पर उचित हो सकता है, हालांकि उनका कार्य प्रदर्शन दूसरों से कम नहीं हो सकता है।  डॉ। पायल थडवी की हालिया दुखद आत्महत्या इसका उदाहरण थी।  प्रबंधन कोटा में समृद्ध छात्र को इस तरह के नुकसान का सामना करने की संभावना नहीं है।

 योग्यता का यह पदानुक्रम अन्य रूप लेता है।  उदाहरण के लिए नर्सिंग में सभी डिप्लोमा शिक्षा को चरणबद्ध करने और बी.एससी को केवल नर्सिंग प्रविष्टि बनाने का प्रस्ताव है।  फील्ड स्थितियों में काम करने वाले व्यक्ति इस बात की गवाही देंगे कि न केवल B.Sc नर्सों के साथ नर्सिंग कैडर में अंतराल को रोकना असंभव है, कई क्षेत्र स्थितियां हैं जहां डिप्लोमा नर्सिंग के छात्र बेहतर अनुकूल हैं।  इसी तरह, सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता या मध्य-स्तरीय देखभाल प्रदाता डॉक्टर नहीं होने के लिए माफी नहीं है।  बल्कि वे उस संदर्भ में सबसे उपयुक्त देखभाल प्रदाता हैं।

मसौदे में एक जिज्ञासु असंगतता कुछ परीक्षण प्रक्रियाओं के माध्यम से नर्सों के लिए लाइसेंस के आवधिक नवीनीकरण के लिए एक प्रस्ताव है - जबकि सेवा प्रदाताओं के किसी भी अन्य श्रेणी के लिए ऐसा कोई खंड नहीं है- विशेषज्ञ, डॉक्टर, या अन्य संबद्ध स्वास्थ्य पेशेवरों जो इस तरह के हो सकते हैं  आवधिक कौशल उन्नयन और फिर से प्रमाणन।

 सहानुभूति के साथ स्वास्थ्य पेशेवरों को वैज्ञानिक रूप से सक्षम बनाने की चुनौती पर - लेकिन नैतिक, मानवीय, देखभाल, संप्रेषण, इक्विटी की चिंताओं के प्रति संवेदनशील, और सामाजिक जवाबदेही के साथ, स्वास्थ्य सेवा नीति पर एक गैर-स्टार्टर है।  जो लगभग काव्यात्मक वाक्पटुता को देखते हुए आश्चर्यचकित करता है जिसके साथ उच्च शिक्षा खंड के परिचयात्मक अध्यायों में उदार शिक्षा का महत्व निर्धारित किया गया है।  परिचयात्मक अध्याय "महत्वपूर्ण 21 वीं सदी की क्षमताओं" को विकसित करने के लिए आवश्यक के रूप में उदार व्यापक-आधारित बहु-विषयक शिक्षा को प्रस्तुत करते हैं और इसे परिभाषित करते हैं, जिसमें न केवल मानविकी और सामाजिक विज्ञान के लिए जोखिम शामिल है, बल्कि सामाजिक जुड़ाव की एक नैतिकता भी है ... (11.3.1। पृष्ठ 234)  5)।  यह व्यावसायिक शिक्षा को "बड़े सामाजिक सरोकारों का संज्ञान लेने वाला, और सार्वजनिक सेवा और सांस्कृतिक जागरूकता की मानसिकता विकसित करने" का आह्वान करता है और वादा करता है कि पेशेवर और तकनीकी शिक्षा अकेले तकनीकी विशेषज्ञता पर संकीर्ण नहीं रहेगी (अध्याय 9, पृष्ठ 202 देखें)।  )।  इसे प्राप्त करने के लिए प्रस्तावित विशिष्ट रणनीति पर यह है कि "व्यावसायिक शिक्षा के लिए अलग-अलग तकनीकी विश्वविद्यालय, स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय, कानूनी और कृषि विश्वविद्यालय स्थापित करने का अभ्यास" के रूप में व्यावसायिक शिक्षा के लिए स्टैंड-अलोन विश्वविद्यालयों की स्थापना का अभ्यास बंद कर दिया जाएगा।  संबद्ध कॉलेजों को राज्य अपने संबंधित विषयों में व्यावसायिक शिक्षा प्रदान करते हैं, जिसके परिणामस्वरूप अलगाव को और गहरा किया गया है।  "सभी संस्थान जो पेशेवर या सामान्य शिक्षा प्रदान करते हैं, उन्हें 2030 तक मूल रूप से दोनों संस्थानों की पेशकश करनी चाहिए। (पृष्ठ 301)।"  यह विशेष रूप से स्वास्थ्य सेवा में निंदा करता है;  शिक्षा मुख्य रूप से व्यक्तिगत विषयों और सामान्य उच्च शिक्षा से अलग साइलो में दी जाती है।  यद्यपि व्यावसायिक शिक्षा में प्रयास मुख्य रूप से छात्रों को, नौकरियों के लिए तैयार ’करने पर केंद्रित किया गया है, लेकिन रोजगार के मामले में, परिणाम, वांछित होने के लिए बहुत कुछ छोड़ देते हैं।  (पृष्ठ 293। अध्याय 16)।

इन प्रशंसनीय मूल्यों में से कोई भी स्वास्थ्य शिक्षा अनुभाग के लेखकों को सूचित या चेतन नहीं करता है।  इस खंड के पाठ में कहीं नहीं है, हम ध्यान कैसे स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों का उत्पादन करने के लिए दिया जाता है जो देखभाल करते हैं, जो व्यक्ति और समाज के लिए महसूस करते हैं।  और जो भी स्थान स्थानीय या अनायास इस तरह के चरित्र निर्माण के लिए उभरता है, वह MCQ आधारित राष्ट्रीय परीक्षाओं की लहरों से निगल जाएगा, जिसका सामना छात्र को करना होगा।  इस खंड में प्रस्ताव सभी उदाहरण हैं जो पहले खंड में व्यावसायिक शिक्षा के साथ गलत घोषित किए गए हैं।  मित्र देशों के स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं पर एनईपी पैराग्राफ में कहा गया है कि एक “सिलेबस को पैन-इंडिया मानकीकृत किया जाएगा, जो स्वास्थ्य विश्वविद्यालयों और राज्य संबद्ध स्वास्थ्य विज्ञान बोर्डों के साथ मिलकर तैयार किया गया है,… ये प्रशिक्षण कार्यक्रम उन अस्पतालों में अस्पताल-आधारित होंगे, जिनमें पर्याप्त सुविधाएं हों,  अत्याधुनिक सिमुलेशन सुविधाओं सहित, और पर्याप्त छात्र-रोगी अनुपात। ”इस नीति के बयान में, स्वास्थ्य विश्वविद्यालय को बरकरार रखा गया है, और शैक्षणिक संस्थान के दृष्टिकोण ने एक कॉर्पोरेट अस्पताल के विवरण का रास्ता दिया है।  इसके अलावा प्राथमिकताओं के रूप में उल्लिखित कुछ नौकरियां वर्तमान कॉरपोरेट हेल्थकेयर उद्योग की आवश्यकताओं (जैसे सामान्य शुल्क सहायक) पर बहुत कम आधारित हैं, और फार्मासिस्ट और काउंसलर जैसे अधिक व्यापक-आधारित कौशल का कोई उल्लेख नहीं है।  लगभग कोई भी आवश्यक सार्वजनिक स्वास्थ्य कौशल का उल्लेख नहीं है।

नए स्वास्थ्य शिक्षा संस्थानों के निर्माण में क्षेत्रीय इक्विटी की अनिवार्यता के लिए एक रियायत के रूप में, नीति "डॉक्टरों, नर्सों और संबद्ध स्वास्थ्य पेशेवरों को प्रशिक्षित करने के लिए देश के 600 जिला अस्पतालों को पढ़ाने के लिए अस्पतालों को अपग्रेड करने" का प्रस्ताव रखती है।  क्या जिला अस्पतालों को शिक्षण संस्थानों में बदलना इतना आसान है?  उदार शिक्षा और बहु-विषयक विश्वविद्यालय के बारे में उन सभी बहादुर शब्दों के साथ जो भी हुआ?  जिला अस्पतालों को तृतीयक देखभाल अस्पतालों में अपग्रेड करने और विश्वविद्यालय आधारित मेडिकल कॉलेजों से जुड़ा होना एक बात है।  जिला अस्पतालों को "बुनियादी ढाँचे में निवेश करके" और "पर्याप्त रूप से योग्य शिक्षण संकाय को तैनात करने" में जिला अस्पतालों को अपग्रेड करने की बात करने के लिए एक और।  प्रमुख मानव संसाधन की कमी वाले जिलों की पहचान करने और उन्हें मेडिकल कॉलेजों और स्वास्थ्य सेवा संस्थानों के साथ जोड़ने का प्रस्ताव है जो स्थानीय विश्वविद्यालयों से संबंधित अधिक उम्मीदवारों को लाने के लिए सकारात्मक नीतियों के साथ सब्सिडी या मुफ्त शिक्षा प्रदान करने वाले सार्वजनिक विश्वविद्यालयों का हिस्सा हैं।  अब क्या कहा गया है (सभी जिला अस्पतालों को इतना अपग्रेड किया जाना है), जिला अस्पतालों को कॉरपोरेट एजेंसियों को आउटसोर्स करने की बार-बार की गई घोषणाओं और प्रयासों के संयोजन में पढ़ें, इस आशंका को जन्म देता है कि यह प्रस्ताव निजी मेडिकल कॉलेजों को प्रदान करने का औचित्य हो सकता है।  सार्वजनिक अस्पतालों द्वारा प्रदान किए जाने वाले नैदानिक ​​जोखिम तक पहुंच।

स्वास्थ्य शिक्षा नीति का सामना करने वाली तीन चुनौतियों में से किसी का भी जवाब आसान नहीं है- लेकिन वे उपलब्ध हैं, और दुनिया भर में कई देशों ने उन्हें संबोधित करना सीखा है।  यहां तक ​​कि तीन सबसे कठिन चुनौती के लिए- सहानुभूति और नैतिकता के साथ स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वाले पेशेवरों, से सीखने के लिए कई अभिनव प्रयास हैं।  राष्ट्र के भीतर भी ऐसे कई अच्छे उदाहरण हैं जिनसे लेखक सीख सकते थे।  सीएमसी वेल्लोर जैसी संस्थाएं एक सदी से भी अधिक समय से दूरदराज के और कम-विशेषाधिकार प्राप्त समुदायों के छात्रों की पहचान और प्रशिक्षण कर रही हैं और औसतन सबसे ऊपर उत्कृष्टता के मानकों को बनाए रखते हुए कई वर्षों तक इन समुदायों की सेवा करने के लिए संवेदनशील लोगों की देखभाल कर रही हैं।  उनसे सीखने से दूर, NEET ने इन नीतियों को इतने व्यापक रूप से कम कर दिया है कि CMC वेल्लोर को अपने मिशन को विफल करने और सुरक्षित करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करनी पड़ी है - जैसा कि अभी तक असफल रहा है।  यदि चुनिंदा विश्वविद्यालयों और क्षेत्रों में शक्तियां और लचीलापन होता है और एक उपयुक्त नीति ढांचा होता है, जो सुनिश्चित करता है कि इस तरह के लचीलेपन का उपयोग केवल आबादी की स्वास्थ्य देखभाल की जरूरतों के पक्ष में किया गया था और निजी मुनाफे के लिए नहीं, तो बहुत कुछ सुधार किया जा सकता था।

लेकिन जैसा कि यह खड़ा है कि नीति ने इन सवालों को गंभीरता से नहीं लिया है।  यह एक उदार शिक्षा के अपने स्वयं के घोषित उद्देश्यों के विपरीत है, स्वास्थ्य देखभाल के लिए इक्विटी की चिंताओं को दूर करने में विफल रहता है या स्वास्थ्य देखभाल शिक्षा तक पहुंच और इस डोमेन में शिक्षा के अस्वास्थ्यकर व्यावसायीकरण का मार्ग प्रशस्त करता है।  निर्णय लेने की प्रक्रिया में हितों के टकराव को बाहर करने के लिए और अधिक व्यापक-आधारित परामर्श के साथ फिर से विचार करने की आवश्यकता है।

 (नोट: उपरोक्त दोनों लेख कहीं और प्रकाशित किए गए हैं। चिकित्सा शिक्षा नीति के उत्तरार्द्ध को फ्रंटलाइन में प्रकाशित किया गया है। यह इस दर्शकों के लिए इसे और अधिक प्रासंगिक बनाने के लिए कुछ संपादनों के साथ है)।

पीपल्स मूवमेंट से पहले कार्य (इन पर विचार-विमर्श किया जाना चाहिए और राष्ट्रीय बैठक में विकसित किया जाना चाहिए):

 1. कि स्वास्थ्य सेवा शिक्षा के सार्वजनिक वित्तपोषण में पर्याप्त वृद्धि हुई है, और कैपिटेशन फीस और प्रबंधन कोटा को समाप्त कर दिया गया है।

 2. यह कि 100% सीटें मूल्य नियंत्रण के अधीन हैं- और इस स्थिति में कि यह निजी क्षेत्र के लिए इन संस्थानों का प्रबंधन करने के लिए अनुचित है, इन पर सरकार का नियंत्रण होना चाहिए।

 3. यह कि कम से कम 50% सीटें मुफ्त या नाममात्र चार्ज की जाती हैं- ताकि समाज के सभी वर्ग ऐसी शिक्षा का उपयोग कर सकें, और कोई भी छात्र इसके लिए भुगतान करने में असमर्थता के कारण शिक्षा तक पहुंच से वंचित नहीं है।

 4. स्वास्थ्य शिक्षा में आगे की सीटों को अपर्याप्त मानव संसाधन वाले जिलों के लिए प्राथमिकता दी जानी चाहिए- स्थानीय नीतियों और इन क्षेत्रों में सेवा करने के इच्छुक उम्मीदवारों को इस शिक्षा के लिए अधिमान्य पहुंच सुनिश्चित करने के लिए मिलान नीतियों के साथ।

 5. स्वास्थ्य शिक्षा में गुणवत्ता के नियमन के कार्य एक राज्य का विषय होना चाहिए।  राष्ट्रीय मान्यता और रेटिंग प्रक्रिया स्वैच्छिक और अनुमति और लाइसेंसिंग से स्वतंत्र होगी।  राष्ट्रीय बोर्ड स्वास्थ्य शिक्षा में गुणवत्ता के लिए राज्य बोर्डों के कामकाज की समीक्षा कर सकता है, और जहां दोष हैं वे अपने कामकाज में सुधार करने के लिए निर्देश देते हैं- लेकिन वास्तविक मूल्यांकन और कार्रवाई राज्य बोर्ड की जिम्मेदारी होगी।  (अगर राज्य बोर्ड की कमी बनी रहती है, तो ऐसे कानूनी उपाय करने होंगे जो राष्ट्रीय बोर्ड का सहारा ले सकते हैं ??

 6. स्वास्थ्य देखभाल शिक्षा की गुणवत्ता राज्य बोर्डों का कार्य है जिसमें स्वास्थ्य पेशेवरों, शिक्षाविदों, स्वास्थ्य अधिकार समूहों और प्रशासकों का प्रतिनिधित्व है- और ये बोर्ड पारदर्शी तरीके से कार्य करते हैं।  प्रत्येक संस्थान के गुणवत्ता संकेतकों को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने और स्थापित प्रक्रियाओं पर आधारित होने की आवश्यकता है।

 7. चयन प्रक्रिया निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए- और इसलिए एक आम परीक्षा का विकल्प चुन सकते हैं।  प्रवेश परीक्षाएं केवल 15 से 30% सीटों के लिए केंद्रीय परीक्षा के साथ सर्वश्रेष्ठ राज्य हैं।  राज्य स्कूल बोर्ड के परिणाम के आधार पर चयन पर विचार कर सकते हैं जो स्कूल छोड़ने के अंकों को प्रतिशत में परिवर्तित करते हैं।  अंडर-सर्विस्ड क्षेत्रों को सुनिश्चित करने के लिए सकारात्मक कार्रवाई के विभिन्न रूपों को मानव संसाधन प्राप्त करने की आवश्यकता है, जिन्हें उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

 8. स्वास्थ्य देखभाल शैक्षणिक संस्थान से बाहर निकलने के लिए राज्य विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक परीक्षा होनी चाहिए, और लाइसेंसिंग भी इस पर निर्भर होनी चाहिए।  इन परीक्षाओं की गुणवत्ता के लिए समीक्षा की जानी चाहिए, और इन विवरणों को सार्वजनिक रूप से जाना जाना चाहिए

 9. सरकारी नौकरियों के लिए भर्ती- केंद्र और राज्य- एक सामान्य परीक्षा का उपयोग कर सकते हैं, और अन्य नियोक्ता भी भर्ती के लिए इस परीक्षा के अंकों का उपयोग कर सकते हैं।

 10. स्वास्थ्य शिक्षा की सामग्री में नैतिकता, लिंग संवेदनशीलता, संवैधानिक दायित्वों और इक्विटी पर एक मजबूत नींव शामिल होनी चाहिए और उन स्नातकों को बनाने का लक्ष्य होना चाहिए जिनके पास करुणा है।  यह सिर्फ एक घोषित उद्देश्य नहीं है, बल्कि इसमें स्पष्ट प्रक्रियाएं और उपाय होने चाहिए।

 11. स्वास्थ्य सेवा शिक्षा की विषयवस्तु भी उस संदर्भ में पेशेवर की उस श्रेणी के लिए उपयुक्त होनी चाहिए।  शैक्षिक मानकों की स्थापना को यह प्रतिबिंबित करना चाहिए।  इसके लिए नए पेशेवर संस्थानों और पाठ्यक्रमों के निर्माण की आवश्यकता हो सकती है।

 12. सभी स्तरों पर और सभी स्वास्थ्य देखभाल शिक्षा के लिए बहुत बेहतर और अधिक व्यापक संकाय विकास कार्यक्रमों की आवश्यकता है।

 13. जिलों और राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं द्वारा नियोजित मानव संसाधनों की संख्या में तेजी से वृद्धि होनी है।  यह स्वास्थ्य सेवा से स्नातकों को अवशोषित करने और स्वास्थ्य सेवा की पहुंच में असमानता की समस्याओं को दूर करने के लिए आवश्यक है।  स्वास्थ्य सेवा के लिए निजी बाजारों में अपना रास्ता खोजने के लिए स्नातकों की अपेक्षा करने से केवल आवश्यक स्वास्थ्य सेवाओं के बिना भारत के बड़े हिस्से को छोड़ने वाले क्षेत्रों में भीड़भाड़ और अस्वस्थ प्रतिस्पर्धा हो सकती है।

 14. पेशेवर नैतिकता में विनियमन के लिए, प्रत्येक राज्य में प्रत्येक पेशे के लिए राज्य बोर्डों का गठन किया जाना चाहिए।  इन बोर्डों में पेशे के भीतर से नेतृत्व होना चाहिए, लेकिन समाज के अन्य वर्गों के लिए महत्वपूर्ण और सशक्त प्रतिनिधित्व होना चाहिए, ताकि यह पेशेवर एकजुटता तक सीमित न हो, और बड़े निष्पक्ष और पारदर्शी रहते हुए बड़े सामाजिक उद्देश्यों और चिंताओं को प्रतिबिंबित कर सके।  राष्ट्रीय बोर्ड राज्य बोर्डों की पर्याप्तता की समीक्षा कर सकता है और इसके कामकाज को बेहतर बनाने के लिए निर्देश दे सकता है, लेकिन वास्तविक कार्यान्वयन राज्य बोर्ड द्वारा किया जाएगा।