(नोट:- डॉ सुन्दररमन के अंग्रेजी लेख का हिंदी अनुवाद श्री वेदप्रिय प्रधान हरयाणा विज्ञान मंच ने किया है)
डॉ सुन्दररमन
जन स्वास्थ्य अभियान के सामने कार्य
1 आयुष्मान भारत : प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना ( मोदी केयर )
2. आयुष्मान भारत : स्वास्थ्य एवं अच्छा होने के केंद्र(स्वास्थय एवं वेलनेश सैंटर )
3. स्वास्थ्य व्यवसायिक बनाना : स्वास्थ्य देखभाल शिक्षा तथा व्यवसायिक नियमों की बदलती नीतियां
4. निजीकरण : पब्लिक --प्राईवेट सांझेदारी तथा स्वास्थ्य उद्योग का विकास ; नीति आयोग अपने काम पर
5. दवाओं , पेटेंटों तथा नवाचारों तक पहुंच के विकास बारे
6. स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य देखभाल से जुड़े लैंगिक मुद्दे
7. स्वास्थ्य के सामाजिक निर्धारक
1. आयुष्मान भारत :
एन डी ए सरकार के अंतर्गत शुरू किया गया यही मुख्य स्वास्थय कार्यक्रम है। यह सन 2018 में शुरू किया गया। इस कार्यक्रम के दो पहलू हैं - स्वास्थ्य व वेलनेश केंद्र और प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना। पहला पक्ष व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच का तथा दूसरा पक्ष सरकार द्वारा वित पोषित स्वास्थ्य बीमा योजनाऐं उपलब्ध करा कर गरीबी रेखा से नीचे के उन परिवारों की पहुंच और सुरक्षा निश्चित करना , जिन्हें द्वितीय और तृतीय स्तर की स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत है।
हम यहाँ हर योजना का वर्णन कर रहे हैं। हम उन समस्याओं को भी लेना चाहते हैं कि ये योजनाएं किस तरह बनायीं गई हैं और किस तरह काम कर रही हैं। इसके साथ साथ हम यह भी बताना चाहते हैं कि जन स्वास्थ्य अभियान तथा जन विज्ञानं आंदोलन तथा सभी जनवादी शक्तियों को इन नीतियों तथा इनके क्रियान्वन को किस ढंग से देखना चाहिए।
प्रधान मंत्री की जन आरोग्य योजना ( मोदी केयर )
* यह योजना है क्या ?
एक वर्णन
यह सरकार द्वारा वित पोषित स्वास्थ्य बीमा कार्यक्रम है, जो जनगणना के अनुसार सामाजिक-आर्थिक जातियां हैं , या जो विशेष पेशों से जुडी हैं वो ही इस योजना के लिए योग्य हैं। एक अनुमान के अनुसार 10. 74 करोड़ परिवार यानि लगभग 50 करोड़ व्यक्ति इस योजना के लिए पात्र हैं।
इस योजना में कोई भी पात्र व्यक्ति जिसे द्वितीय या तृतीय स्तर की स्वास्थ्य सेवा की जरूरत हो , अपने इलाज हेतु किसी भी मंजूर पैनल के हस्पताल में जा सकता है। हस्पताल बिना कुछ लिए उन्हें भर्ती करेगा और उनका इलाज करेगा। सभी दवाइयां यहाँ तक की टैस्ट और कुछ हद तक यातायात सुविधा भी मरीज को मुफ्त मिलेंगी। सरकार एक सहमत दरों के अनुसार हस्पताल को वह खर्च दे देगी। एक परिवार ( निश्चित पैमानों के हिसाब से तय सदस्य ) एक साल में 5 लाख रूपये तक भी ऐसी सुविधाएँ ले सकता है। इसमें पुराणी बीमारियां भी हो सकती हैं तथा हस्पताल के पहले और बाद तक के भी कुछ खर्चे शामिल हैं।
प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में 1350 चिकित्सीय पैकेज शामिल हैं, जिनमें सर्जरी व प्रतिदिन के इलाज भी शामिल हैं।
इस योजना के तहत सरकारी एवं प्राइवेट दोनों प्रकार के हस्पताल पैनल पर हैं। लगभग 60 % दावेदारों का और कुल खर्च का लगभग 75 % प्राइवेट सैक्टर के हस्पताल अदा करते हैं।
इसमें प्रति परिवार प्रति वर्ष 5 लाख रूपये का लाभ दिया जाता है।
2. प्रचार माध्यमों में इस योजना का बहुत स्वागत किया गया है। जनता और देनदारों ने भी इसका स्वागत किया है। इस योजना का इतना स्वागत क्यों है ?
१. मुफ्त या रियायती हिसाब से प्राइवेट हस्पतालों में सुविधा सुनिश्चित करना ताकि उच्च गुणवत्ता की स्वास्थ्य सेवाएं सभी को मिल सकें।
यद्यपि सरकारी चिकित्सा सुविधाओं की क्षमता बहुत सीमित है , इसलिए लोगों को मजबूर होकर इलाज के लिए निजी क्षेत्र में जाना पड़ता है। निजी स्वास्थ्य सेवाएं महंगी हैं,इनके आर्थिक बोझ से पूरा परिवार प्रभावित होता है । इससे बचने के लिए बीमा योजनाएं हैं । यहां जनता का स्वागत है।
ii) निजी हस्पतालों के पास बिना प्रयोग होने वाली बड़ी क्षमता है। उनके पास बीमारों की कमी नहीं है, अपितु उनकी कमी है जो पैसे दे सकें। आधुनिक हस्पतालों को बड़ा लाभ इसी बात से हो जाता है कि वे उच्च तकनीक के जांच, तरीके या सर्जरी सुझाते हैं। इनकी जरूरत जिनको है उन्हें मना लिया जाता है, बेशक सीमित ही सही | सरकार द्वारा दिये पैसे से बीमा योजना को भारत का निजी स्वास्थ्य उद्योग कहा जा सकता है को प्रोहत्सान मिलता है |
iii) मीडिया, समाज या बुद्धिजीवी तबके में इसका स्वागत इसलिये है कि निजी क्षेत्र की ओर जाने को वे समय के साथ जरूरी सुधार के रूप में देखते हैं। निजी सेवाओं में वे सरकारी सेवाओं की अपेक्षा अच्छी गुणवत्ता देखते हैं।ऐसा केवल गरीब या कमजोर तबके का ही मानना नहीं है अपितु मध्यम वर्ग भी ऐसा ही मानता है। ये भिन्न भिन्न सोच इसलिए है कि निजी क्षेत्र में बड़े पैमाने पर असमानताएं हैं। इसके चलते इन तबकों में सरकार के विरुद्ध तथा निजी क्षेत्र के प्रति अच्छा विमर्श व प्रभाव बनता है।
3. सरकार इस योजना को बड़ी सफलता मानती है और इसे मोदी सरकार की बड़ी उपलब्धि समझती है । इसमें सच्चाई कितनी है और ढकोसला कितना देखने की बात है ?
i) सरकार का दावा है कि 'मोदीकेयर' दुनिया की सबसे बड़ी स्वास्थ्य योजना है । यह सत्य से दूर है । बजट देने के हिसाब से देखा जाय तो यह छोटी योजनाओं में से एक है । यहां तक कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन से भी छोटी तथा बहुत से राज्यों द्वारा स्वास्थ्य पर किये जाने वाले खर्च से भी कम । बीमा कवरेज में भी ये बहुत पीछे रहती है बनिस्बत दूसरे देशों की योजनाओं के । जनसंख्या के हिसाब से भी ये चीन से भी कम कवर करती है।
ii) संख्या की दृष्टि से जो इसमें वास्तव में शामिल हैं वे 3 करोड़ हैं,जबकि स्मार्ट कार्ड की दृष्टि से 12 करोड़ इसके योग्य हैं।
iii) जिन अधिकतर राज्यों में प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना प्रभावी दिखाई दे रही है , ये वे राज्य हैं जो पहले से अपनी योजनाओं पर काम कर रहे हैं , केंद्र ने तो उन पर अपने नाम का ठप्पा लगाया है। सरकार केवल 60%खर्च वापसी पर प्रतिबद्ध है,जबकि यह भी पूरी तरह किया नहीं गया है। राज्य सरकारों को अपने नियमों को बदलने के लिए कहा जा रहा है,जहाँ पहले से ही प्रभावी योजनाएं काम कर रही हैं ।फ़लस्वरूप केरल जैसे राज्य इससे दुखी हैं।
iv) सरकार का दावा इस बात पर आधारित है कि राज्यों से कितने क्लेम आये, कितनों को पैसे मिले। इस बात का कोई सबूत नहीं मिला है कि इनसे स्वास्थ्य परिणामों में कितनी बेहतरी हुई है तथा स्वास्थ्य सेवाओं के खर्चों की मुशीबत से कितने गरीबों को बचाया जा सका है। पूर्व सरकार की बीमा योजनाओं पर बहुत से अध्ययनों से निम्नलिखित बातें सामने आई हैं :-
a) सूचनाओं का अभाव - बहुत से योग्य व्यक्तियों को इन योजनाओं का पता ही नहीं होता और वे इसका लाभ नहीं ले पाते ।
b) सेवा देने से इन्कार:- वे जो योग्य भी हैं और इन्हें जानते भी हैं ,उनकी बड़ी संख्या तकनीकी आधारों पर लाभों से वंचित कर दी जाती है। राज्य सबसे ज्यादा यह बहन करते हैं कि इसमें अमुक बीमारी या प्रक्रिया शामिल नहीं है ,और यहां हस्पताल में यह विशेष सेवा है ही नहीं ।
c) दोहरे बिल :- जो किसी भी तरह इस योजना के तहत सेवा लेने में सफल हो जाते हैं , उनमें से अधिकांश से किसी न किसी तरह उनकी जेबों से इन सेवाओं के लिए पैसा निकलवा लिया जाता है।मुफ्त व नकद रहित सेवाएं तो एक मिथ है । ज्यादा से ज्यादा उनको 20% कम देना पड़ता है उनकी अपेक्षा जिनके पास कार्ड नहीं होता है। मरीज से ले लिया जाता है और फिर हस्पताल सरकार से भी भुगतान कर लेता है ।
d) सप्लाई आधारित सेवाएं:-
हस्पताल प्रायः वे प्रकिर्याएँ अपनाते हैं जिनसे उन्हें लाभ ज्यादा होता है और उन सेवाओं से इनकार कर देते हैं जहां मुनाफा कम रहता है। बहुत बार वे ऐसे मरीजों को ज्यादा भर्ती करते हैं जो उनकी सप्लाई व प्रकिर्याओं पर खरे उतरते हों । यदि हम जिलों पर किये गए क्लेम का पैटर्न देखें तो पाएंगे कि इनका महामारियों से कोई ज्यादा रिश्ता नहीं बनता अपितु उस बात से ज्यादा रहता है जिन्हें ये निजी वाहक ज्यादा आगे धकेलते हैं।
e) सरकारी सेवाओं के सहायक के रूप में नहीं अपितु विकल्प के रूप में निजी क्षेत्र :-
निजी क्षेत्र लाने का उद्देश्य यह था कि उन प्रकिर्याओं तक पहुंचा जाए जो इस समय सरकारी हस्पतालों में उपलब्ध नहीं हैं। यदि हम हर राज्य के क्लेम की पड़ताल करें तो पाएंगे कि ये वही सामान्य क्षेत्र हैं जहां सरकार पहले ही सेवाएं दे रही हैं।उदाहरण के लिए यू.पी.,बिहार व छत्तीसगढ़ में आंखों की वही सामान्य सर्जरी सेवा है जो सरकारी सेवा जैसी ही हैं । यदि गुर्दे की पथरी , आंखों की गम्भीर बीमारी , पेट में अधिक जलन जैसी बातों पर आये तो पता चलता है कि इस बीमा योजना का योगदान बहुत कम है।
f) ठीक से देखभाल नहीं व डंम्पिंग :-
पहले किसी निजी हस्पताल में गरीब मरीज के लिए सेवाएं नहीं होती थी तो उसे रेफर कर देता था। आज वही हस्पताल उस मरीज को दाखिल करता है , उस मरीज के स्मार्ट कार्ड का सारा पैसा चूस लेता है औए फिर आगे रैफर करता है। इससे इलाज में विलंब होता है , जब तक मरीज सरकारी हस्पताल में पहुंचता है , वह सभी संसाधनों से विहीन हो जाता है । मरीजों द्वारा अपनी बीमा रकम को सरकारी हस्पताल में डुबो देना सामान्य बात है ,अमेरिका तक में ऐसा ही है।
4. क्या सरकार इन समस्याओं से अवगत नहीं ?
इन्हें ठीक करने के लिए क्या किया गया है? क्या इससे ज्यादा नहीं किया जा सकता? यदि सरकार इन मुद्दों पर गंभीर हो तो क्या हम उम्मीद कर सकते हैं कि बीमा कार्यक्रमों से मरीज को राहत मिलेगी?
सरकार को इन समस्यों का पता है। सरकार के पास परेशानियां दूर करने तथा मॉनिटरिंग करने के तरीके हैं। परेशानियां दूर करने का पूर्ण प्रयोग नहीं किया जाता ,क्योंकि दावेदार ही अपने दावों को पूरी तरह से नहीं समझते। जो दावों के लिए जाते भी हैं , उन्हें अनुभव कम है । समस्या वह है कि यदि कोई कष्ट उठा कर अपनी परेशानियां आगे ले भी जाता है ,तो निजी हस्पतालों को नाममात्र की सजा मिलती है । इसी प्रकार मानीटरिंग करने के तरीके बहुत कमजोर हैं । यदि वे थोड़ा बहुत काम करते भी हैं तो सरकार भी ऐसे गलत हस्पतालों पे कार्यवाही करने की इच्छुक नहीं दिखती । अंदरखाने इनके बीच एक समझ बनी हुई है कि इस प्रकार की धोखा धड़ी जायज है , वरना ये निजी हस्पताल इसमें शामिल नहीं होंगे ।
इस प्रकार हस्पतालों को अदा करने की दर आजकल कम चल रही है। लेकिन बात केवल इतनी ही नहीं है। यह तो एक आसान बहाना है, जिससे दोहरे बिल लिए जा रहे हैं। मानीटरिंग करने वाले भी इससे सहमत रहते हैं , बेशक नियमों की अनदेखी हो। अदायगी में देर होना भी अनैतिक है और इसके लिये तो खासकर जो अदायगी में देरी या अनिश्चितता को सम्भाल नहीं पाता।
क्या सरकार इन विकृतियों को दूर करने के लिए गंभीर थी?
यदि सरकार इन योजनाओं की ठीक मानीटरिंग , परेशानियां दूर करने के ठीक प्रबन्ध करती तो निजी हस्पतालों की इनमें भागीदारी घट जाती। वर्तमान दरों पर भी निजी हस्पताल इनमें आने के इच्छुक नहीं हैं। वह स्वयं में कोई बुरी बात नहीं है, क्योंकि सरकारी हस्पताल रहेंगे , बेशक लाभ के लिए नहीं, इन दरों पर वे भी नैतिक आधार पर कुछ प्रबन्ध करेंगे।
जब ऐसा दृश्य है कि बीमा व खरीद के लिये प्राइवेट क्षेत्र सरकारी क्षेत्र में खानापूर्ति ही कर रहा है , तो इसके भी वैचारिक कारण हैं जिन्हें हमारे नीति निर्माता स्वीकार करने को तैयार नहीं ।
यदि मानीटरिंग ठीक की जाये तो दोहरे बिल और अदायगी न देने को सम्भाला जा सकता है। यदि नियमों में सख्ती कर दी जाये तो सप्लाई आधारित देखभाल दुरुस्त की जा सकती है। यहां फैंसले व देखभाल इस बात से प्रभावित होती हैं कि धन कहां से आता है न कि इस बात से कि भला होने वालों के दृष्टिकोण से।
5. बहुत से देशों में बीमा योजनाएं ठीक चल रही हैं । ये देश ठीक कैसे चल रहे हैं?
इन रणनीतियों को अपनाने में हमारी सरकार को कौन रोकता है?
जर्मनी और जापान में ऐसे उदाहरण हैं जहां सेवा देने वाले प्राइवेट हैं तथा भुगतान बीमा प्रक्रिया से होता है। कनाडा और ऑस्ट्रेलिया में भी ऐसा ही है । यद्यपि सरकारी सेवा का अनुपात काफी ज्यादा है।
इनका सबसे प्रमुख फीचर ही यही है कि ये आपसी सहयोग के सिद्धांत पर बने हैं । इस बात की ओर ज्यादा ध्यान दिया जाता है कि सेवा दाता सुनिश्चित हो कि भुगतान तुरन्त हो जाये। जापान में कानून है कि स्वास्थ्य सेवाओं से आप लाभ नहीं लेंगे। इसीलिए इसके लिए सीधे या कारपोरेट द्वारा सहायता नहीं ली जाती , क्योंकि लाभांश दिया ही नहीं जाता । जर्मनी में बीमा कंपनियों का लाभ लेना मना है , यदि नुकसान होता है तो उसकी भरपाई सरकार करती है और बराबरी सुनिश्चित करती है।
जिन देशों में भी यह बीमा योजना आधारित है , उनके कड़े कानून हैं , जहां स्वास्थ्य सेवाओं के बदले कीमत दी जाती है । जहां बीमा नहीं है वहां भी सरकारी हिसाब से कीमत दी जाती है ।ऑस्ट्रेलिया व कनाडा में सारा भुगतान सरकार करती है । वे अमीर गरीब सब से टैक्स इकट्ठा करती हैं, लेकिन इलाज सभी का एक समान किया जाता है।परिवार चाहें तो उच्च गुणवत्ता के स्वास्थ्य लाभ के लिए दूसरे निजी बीमा खरीद सकते हैं , लेकिन उन्हें केवल इतना भर चुनाव करने की इजाजत है।
बीमा आधारित स्वास्थ्य प्रक्रियाएं-- अधूरी हैं
थाईलैंड में, ब्रिटेन में सामान्य तरह की बीमा योजनाएं नहीं है। उनके पास ज्यादा अच्छी व लचीली तरह की सरकार द्वारा प्रबंध की गई धन योजनाएं हैं जिन का प्रबंध सरकार करती है । यहां भी स्वास्थ सम्बन्धी निर्णय धन के दायरे में बंधे हैं । लेकिन लेनदेन के मामले में बाजार यहां बाहर रखा गया है।
ऐसी सभी राष्ट्रीय स्वास्थ्य योजनाएं जो निजी देनदारों द्वारा स्वास्थ्य लाभ खरीदने पर आधारित हैं ,वे सरकारी देनदारी द्वारा शासित योजनाओं के मुकाबले ज्यादा खर्च करती हैं। श्रीलंका अपनी जीडीपी का 3%, थाईलैंड 4%, क्यूबा ब्राजील 8 प्रतिशत खर्च करती हैं। इनके मुकाबले संयुक्त गणराज्य अमेरिका जो बाजार मुक है वह बीमा आधारित है अपनी जीडीपी का 19% स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है।
भारत व संयुक्त गणराज्य अमेरिका जैसे देशों का सिद्धांत है-- स्वास्थ्य सेवाओं का बाजार बनाना। इसका असली मतलब यही है कि कैसे निजी क्षेत्र के माध्यम से सरकारी खर्चा स्वास्थ्य के लिए निकाला जाए जिनसे इनका फायदा हो। इससे इन सेवाओं पर बहुत ज्यादा खर्च किया जाता है जिनका , जिसका अधिकतर हिस्सा बिना जरूरी है , जबकि जनसंख्या का बड़ा जरूरतमंद हिस्सा इन सेवाओं से बाहर हो जाता है।
संयुक्त गणराज्य एक वर्गीकृत उदाहरण है जहां यह अपनी जीडीपी का 19% स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च करता है , यहां 25% के लगभग जनसंख्या बीमा से बाहर है , लगभग 25% से कुछ ज्यादा आधी अधूरी बीमा के अंतर्गत है। इसका मतलब हुआ कि स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरतों के बदले जो इन्हें चाहिए वह इनसे नहीं मिलता। भारत की प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना तीव्र गति से संयुक्त गणराज्य स्वास्थ्य बीमा मॉडल की ओर जा रही है ।
यदि भारत को सार्वभौमिक स्वास्थ्य प्राप्ति चाहिए ही जहां निजी क्षेत्र काबिज है तो इसे उससे कई गुणा ज्यादा खर्च करने की जरूरत है जो अब सरकार आधारित प्रणाली पर खर्च होता है ।
6.इन पहलकदमियों पर जन आंदोलन कैसे पेश आता है? जनता को इन परिवर्तनों के लिए शामिल करने के लिए उसकी क्या समझदारी है, ताकि इन विषयों को जन चर्चा बनाया जा सके ?
यह कई स्तरों पर किया जाना है ।
जन चर्चा के स्तर पर जन आंदोलन को कुछ मुख्य संदेश चुनकर प्रसारित करने होंगे, लेकिन ये सब प्रमाण आधारित हों।
a)प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना अपने मुख्य वायदे पूरा करने में असमर्थ रही है। ये हैं --स्वास्थ्य सेवाओं के खर्च की आर्थिक सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं तक अधिकाधिक जनता की पहुंच तथा स्वास्थ्य प्राप्तियों में सुधार आदि।
b) प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना को इस तरह दर्शाया जा रहा है मानो इससे गरीबों को बहुत लाभ है । लेकिन इसका वास्तविक उद्देश्य निजी क्षेत्र की स्वास्थ्य सेवाओं को लाभ पहुंचाना है। गरीबों की अच्छी स्वास्थ्य सेवा केवल तभी हो सकती है जब सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता, संख्या व क्षेत्र बढ़ाए जाएं ।
c) प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना की मॉनिटरिंग अच्छी की जाए। इसमें नागरिक समाज की संस्थाएं एवं जन आंदोलन की संस्थाएं शामिल की जाएं। यदि मानिटरिंग सुधरती है तो अधिकतर निजी सेवा धारक या तो बाहर हो जाएंगे या बाहर निकलने को मजबूर हो जाएंगे। यह इसलिए भी अच्छा है कि इससे केवल नैतिकता से काम करने वाले ही बचेंगे लाभ कमाने वाले नहीं। इससे स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को सहायता मिलेगी । निजी धारकों को बढ़ावा केवल तभी मिलता है जब सरकारी क्षेत्र सेवा देने में असमर्थ होता है।
d) यदि ताजा बीमा प्रक्रिया के तहत सरकारी धारक देने लग जाए तो भी निजी क्षेत्र की तमाम समस्याएं सरकारी क्षेत्र में आ जाएंगी । इसलिए बीमा योजनाएं विस्तार से समझनी होंगी। इसके लिए तरीका यह हो कि बजट सुविधाओं में विविधता हो और पिछले वर्ष या महीने में इस योजना के अंतर्गत आए मामले देखे जाएं।
e) निजी धारकों को समय पर तथा भ्रष्टाचार रहित तरीकों से पैसा दिया जाए ताकि नैतिकता से काम करने वाले टिके रहें। एक सीमा से कम की ही अदायगी करनी चाहिए (यह चालू हालत की कीमत हो। इसमें पूरा पूंजी खर्च शामिल ना हो।
f) बिस्तरों की संख्या में ठीक ठाक वृद्धि हो तथा सरकारी अस्पतालों में विभिन्न प्रकार की सेवाओं में गुणवत्ता युक्त सेवा सुधार किए जाएं। गुणवत्ता युक्त सेवा में यह बातें आती हैं --मरीज की गरिमा, उसका आराम व संतुष्टि, समय पर सेवा मिलना , विनम्र व्यवहार, मरीज के साथ अच्छी संचार व्यवस्था तथा मशवरे के लिए समय पर नियुक्ति आदि। इन उद्देश्यों की प्राप्ति हेतु सरकारी खाते में खर्च करना ही सर्वोत्तम है।
इनसे सीधे-सीधे प्रभावित व्यक्तियों को यह लोकप्रिय स्तर पर लाने के लिए जन आंदोलन निम्नलिखित गतिविधियां कर सकते हैं --
*मरीजों को सुनिश्चित करें कि इस योजना के अंतर्गत वे किस चीज के हकदार हैं।
*यदि किसी स्तर पर उन्हें यह नहीं मिल रही है तो इसे अधिकारियों के ध्यान में लाएं ।
* इसके लिए इस प्रकार किया जा सकता है :-
^ पैसा चार्ज करने से पहले मरीज से बात की जाए और समझा दिया जाए कि इन सेवाओं की लागत ये है ।
^बेसक मरीज नकद पैसा न दे रहे हों, मरीज आसानी से देख सकते हैं कि कार्ड पर कितना पैसा लिखा है, उनसे लिया कितना जा रहा है और उन्हें बिल क्या दिया जा रहा है। यह स्पष्ट होना चाहिए कि भुगतान का आधार वही बिल है जिस पर मरीज ने हस्ताक्षर किए हैं
^ मरीज को उन सेवाओं से इंकार ने किया जाए जिस सेवा के लिए अस्पताल पैनल पर हैं ।
^ पब्लिक को कौन-कौन सी सेवाएं मिलेंगी और कौन-कौन सी नहीं मिलेगी इनकी सूची सौदे में स्पष्ट की जानी चाहिए ।
सौदे की शर्तों पर सभी आंकड़े व अन्य दस्तावेज एकत्र करने के बाद सांझे विरोध के फार्म पर आयोजन किये जायें। ये ही बैठकों, समाचारों या मुकदमे का रूप ले सकते हैं । दोहरे भुगतान के साक्ष्य जुटाए जाएं, व्यक्तिगत या संस्थाओं को चुनौती देने में सहायता की जाए। जिला स्तर पर विश्लेषण कर सप्लाई आधारित सुविधाओं में विकृतियों की पहचान हो जहां अनाम आंकड़ों के आधार पर प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना से भुगतान लिए गए हैं।
7. प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना भर्ती सेवाओं और प्रक्रियाओं में सीमित है। इसमें बाहृय रोगी सेवाएं तथा प्राथमिक चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं। जबकि स्वास्थ्य पर खर्च आनुपातिक रूप में बाहृय रोगियों पर ज्यादा है। बाहृय मरीजों को प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना से बाहर रखकर क्या स्वास्थ्य सेवाओं का बिखराव नहीं किया जा रहा है ? क्या हमें बाहृय रोगी सेवाओं को भी प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में शामिल करने की मांग नहीं उठानी चाहिए?
a) बाहृय रोगी सेवाओं को भर्ती रोगी सेवाओं के मुकाबले मानीटर और नियंत्रित करना ज्यादा कठिन होता है।जब प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना का मंच दोहरे बिल तथा अनुचित सेवाओं से ही प्रभावित है तो बाहृय रोगी सेवाएं तो समस्या को और ज्यादा बढ़ाएंगी। वैसे भी अधिकतर प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं तथा बाहृय रोगी सेवाएं सभी स्तरों पर परहेज और सहायता संबंधित जैसे पूर्व पहचान के परीक्षण, सलाह- मशवरा, बिगाड़ से बचाव की दवाएं तथा भर्ती रोगियों की सहायता व प्रक्रियाएं इसमें आती हैं । निजी अस्पतालों का मॉडल समाधान( इलाज) सेवाओं पर केंद्रित है, इसमें भी प्राथमिकता जटिल, द्वितीय व तृतीय स्तर की सेवाओं की है। निजी क्षेत्र प्राथमिक स्तर तक भी परहेज संबंधित सेवाओं का अच्छा वाहक नहीं है।
b) सरकार को किसी भी तरह मनाने का यह बड़ा खेल खेला जा रहा है कि वह निजी क्षेत्र के माध्यम से एक लाख करोड़ रुपए का खर्च प्राथमिक सेवा स्वास्थ्य सेवाओं पर करे। अंतरराष्ट्रीय सहायता प्राप्त एजेंसियां निजीकरण को बढ़ावा देने के प्रस्ताव रख रही हैं। वे प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र का ऐसा मॉडल दे रही हैं जहां किसी भौगोलिक क्षेत्र में इन सेवाओं को बाहर से कारपोरेट द्वारा पूरी करवाया जा सके । प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं तथा बाहृय रोगी सेवाओं को प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना में लाने से यह उनके हाथ में आ सकती है, क्योंकि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के मुख्य धारक निजी धारक हैं ।
जन आंदोलनों को चाहिए कि प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं संपूर्ण तरीके से सरकारी जरिये से सार्वभौमिक हों। c) हमारी दूसरी मांग इस बारे में हो कि प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना के लिए ज्यादा धन मुहैया करवाया जाए या ऊंचे दरों की प्रक्रियाओं का भी भुगतान किया जाए।क्योंकि इनसे निजी हाथों में ज्यादा पैसा आएगा ,न ही स्वास्थ्य सेवाओं के परिणामों में सुधार आएगा, न ही स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बनेगी और न हीआर्थिक सुरक्षा हो सकेगी
8 क्या हमारी मुख्य मांग यह है कि सभी सरकारी धन प्राप्त बीमा योजनाओं से पीछे हटा जाए ?
जन स्वास्थ्य अभियान ने पहले ही कह दिया है कि ऐसी बीमा योजनाओं से पूरी तरह पीछे हटा जाए और विकल्प में सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत किया जाए । इस स्थिति का एक लाभ है । लेकिन बहुत से नागरिक संस्थाएं और बौद्धिक वर्ग (HLEG रिपोर्ट ) भी बीमा योजनाओं से पूरी तरह पीछे हटने को कहती हैं । लेकिन वे इसके विकल्प में सभी प्राथमिक ,द्वीतीय तथा तृतीय सेवाओं की आउटसोर्सिंग की बात करती हैं जो किसी भी भौगोलिक क्षेत्र में या तो कारपेट द्वारा या किसी संगठित नेटवर्क जिससे भी वे चाहें दी जाएं। कई बार वे ऐसे भी विकल्प देते हैं कि किसी क्षेत्र के सभी निजी व्यक्तिगत चिकित्सकों से सौदा कर लिया जाए । व्यवहारिक रूप से इस पर भी खर्चा उतना ही आ जाता है । यदि हम बीमा योजनाओं से पीछे हटने की कह रहे हैं तो भी हमें इससे बहुत सावधानी की जरूरत है। क्योंकि ट्रेड संगठनों तथा अन्य क्षेत्र के लोगों में बीमा योजनाओं की लोकप्रियता बहुत है। मौजूदा प्रकरण में बुद्धिमत्ता यही होगी कि बीमा योजनाओं को सीमित किया जाए। सरकारी धारकों का अनुपात बढ़ाया जाए और यह सुनिश्चित हो कि निजी धारक शर्तों से बंधे हों।प्राथमिक सेवा स्वास्थ्य सेवा पूरी तरह अलग हो । हमें ईएसआई के नेटवर्क के प्रसार और प्रभावी बनाने की भी मांग करनी चाहिए । यह निश्चित हो ईएसआई तथा स्वास्थ्य सेवाओं की सरकारी इकाईयां किसी भी रास्ते में से बीमा योजनाओं को प्रयोग करते हुए निजी ना बन जाए।