Sunday, 30 April 2017

Generic vs Brand-Name

Generic vs Brand-Name Drugs: An Ongoing Debate

Roger F. Steinert, MD
DISCLOSURES
April 13, 2012
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Hello. I am Dr. Roger Steinert, Professor and Chair of Ophthalmology at the University of California-Irvine and Director of the Gavin Herbert Eye Institute.
The topic that I would like to discuss in this month's blog is generic vs brand-name drugs. Generic drugs, in principle, have the appeal of a seemingly lower cost, and there is certainly lots of pressure from the health insurance companies to use generics whenever possible. But the concern is that generics are not necessarily equivalent to brand-name drugs, and it is not just an issue of the patent running out.
An example of this came up in a very peculiar way in June 2011 with a US Supreme Court decision. Even the justices who made the decision said that it was fairly absurd, but it was an issue of federal vs state law. The issue is that when a manufacturer of a brand-name drug finds out about a possible adverse event, they are required to change their labeling, whereas the makers of a generic equivalent are not required to change their labeling. So, there is no warning to patients and no obligation on the part of the generic drug manufacturers to warn patients about a potential adverse event.
This is an issue of the way the labeling law has been written. The opinion of the Supreme Court seemed to be that this was absurd, but it was law and Congress had the power to change it if they didn't like it. There have been all sorts of ramifications. At a minimum, this focused people on the issue of generic drugs and whether they are wonderful things that save us money or whether they have a potential downside.
In ophthalmology we have a very special situation. We are talking largely about eye drops and the effect that they can have on a very sensitive part of the body.
When the US Food and Drug Administration (FDA) allows a generic drug to be marketed, the manufacturer has to use the same concentration of active ingredient and the same route of administration as the branded drug that was previously approved by the FDA. But that is the only requirement. There is no review, no burden of proof, no burden of testing the so-called "inactive ingredients," which include things like the preservatives and other components that can have a significant effect on the eye.
Probably the most famous instance of this issue occurred in 1999 when a number of corneal melts were recognized and ultimately tracked to generic diclofenac, a nonsteroidal agent. This problem was not occurring with the brand-name drugs, and ultimately the problem was attributed to variations in a so-called inactive ingredient (except with respect to the eye, where it apparently was quite active) that was in the generic drops, and this led to a surge in branded nonsteroidal agents. Now we are facing the same issue with steroids, nonsteroidal agents, multiple antibiotics, and glaucoma medications. Many brand names that we have been accustomed to using are going off patent and the generic equivalents are coming out.
The manufacturers are also using "line extensions," which is when the drug manufacturers perform a relatively minor modification in one of their drugs and are then able to get a new patent for it and have patent protection for the new formulation for another extended period of time.
On the one hand, this sounds like a way of inappropriately getting more money from the consumer. But on the other hand, it means more scrutiny and higher expectation for the brand-name drugs. As a result, patients get better-quality medications.
This debate is expected to go on indefinitely. The intensity of the debate is going to increase, in part because the cost of bringing a new drug to market has been rising exponentially. This cost is much higher than the rate of inflation. It is commonly said that it takes more than $100 million -- and sometimes close to $1 billion -- to bring an entirely new class of pharmaceuticals to market, not to mention the exposure that the manufacturer has to class-action lawsuits and tort actions.
From our point of view as practicing ophthalmologists, we have to be sensitive and aware that our patients may not be getting what we think they are getting, and keep an ear tuned to complaints about stinging and burning that we didn't formerly hear with respect to a particular class of medication. If necessary, we can try to force the use of a branded medication, although in many cases the third-party payers simply won't pay for the brand name even if you specify it; it can be quite a battle to justify it and get them to pay for it. We want to avoid sight-threatening complications. It is bad enough to have unnecessary discomfort, but if we get into more situations like corneal melting, we are going to see even more issues related to generics vs brand-name drugs.
So, just a word of caution: We should be attuned to that potential, and certainly if you think you are seeing some problems with a certain medication, whether it be branded or generic, be sure to report it to the FDA promptly so that an investigation can take place into whether this is an isolated incident or represents a bigger trend that could be dangerous and is something we all need to know about.
This is Roger Steinert for Medscape. I hope you have enjoyed this blog, and please feel free to comment.

भारतीय बौद्धिक संपत्ति


भारतीय बौद्धिक संपत्ति (Intellectual Property)

AFEIAS
Date: 10-05-16
Intellectual+property_midभारत अपनी बौद्धिक संपत्ति की सुरक्षा या पेटेंट कानून को लेकर वर्ल्ड ट्रेड ऑर्गनाइजेशन का पूर्णतः अनुसरण कर रहा है।
  • WTO के पेटेंट कानून की धारा 3(डी) का संपूर्ण विश्व अनुसरण कर रहा है। परंतु इसमें सुधार की जरूरत है, चाहे वह फार्मा कंपनियों को नापसंद ही क्यों न हो।
  • फिलहाल फार्मा कंपनियां इस बात से खुश हैं कि उनकी पेटेंट दवाइयों पर किसी सरकार की थोक मांग पर भी वे छूट देने के लिए बाध्य नहीं हैं।
  • यह समस्या अब टेलीकॉम जैसे इलैक्ट्रानिक क्षेत्र में आने लगी है। भारतीय कंपनियां किसी भी ऐसी तकनीक का लाइसेंस नहीं लेना चाहतीं, जिसमें पेटेंटधारक के साथ कोई वैधानिक विवाद हो।
  • इससे भी बड़ी समस्या यह है कि भारतीय फर्म बौद्धिक संपत्ति बढ़ाने वाले किसी अनुसंधान या विकास में लगातार असफल रही हैं। भारतीय व्यापार, कस्टम ड्यूटी और टैक्स नियम भी घरेलू अनुसंधान को बढ़ावा नहीं देते।
  • बौद्धिक संपदा को बढ़ावा देने के लिए विश्विद्यालयों को अनुसंधान के लिए धन देना, कानूनी पारदर्शिता, कानूनी सुरक्षा तथा व्यापार-वाणिज्य नीतियों का तार्किक होना बहुत जरूरी है।
‘इकॉनामिक टाइम्स’ के
सम्पादकीय पर आधारित

दादागिरी


पेटेंट पर विकसित देशों की दादागिरी को रोकना जरूरी

AFEIAS



Date: 13-06-16
भारत जैसे विकासशील देशों के सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में दवाइयों की अहम् भूमिका है।
पिछले एक दशक में पर्यावरण एवं जीवन पद्धति में बदलाव की वजह से संक्रामक और असंक्रामक रोगों की संख्या बहुत बढ़ गई है।
बढ़ती बीमारियों के दौर में भारत जैसे कम एवं सामान्य आय वाले देशों में कम कीमत की जेनेरिक दवाइयों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है।

जेनेरिक दवाइयां क्या हैं?
ये दवाइयां किसी बड़ी दवाई कंपनी की दवाईयों के समरुप होती हैं। इन दवाइयों को पेटेंट कानून के अनुबंधित समय के अंदर अविष्कारक कंपनी से बिना लाइसेंस लिए बनाया और बेचा जा सकता है। इनको बेचने के लिए मालिकाना हक रखने वाली कंपनी का नाम देना जरूरी नहीं होता।
इन जेनेरिक दवाइयों की कीमत अमेरिका की एकाधिकार रखने वाली कंपनियों की तुलना में भारत में बहुत ही कम है। साथ ही भारत में इनका निर्माण करने वाली कंपनियों में प्रतिस्पर्धा के कारण कीमत और भी कम हो जाती है। जैसे अमेरिका में एचआईवी के शुरूआती उपचार के लिए 16 लाख लग जाते हैं, जबकि भारतीय एड्स कार्यक्रम में इसकी कीमत 7,000 रुपए ही आती है।

जेनेरिक दवाइयों के निर्माण में भारत की भूमिका
जेनेरिक दवाइयों के निर्माण के लिए भारत के पास कच्चा माल, जिसे एक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रीडियेन्ट्स (API) भी कहते हैं, तैयार करने की तकनीकी क्षमता अच्छी है। भारत में तैयार की गई जेनेरिक इवाइयाँ विश्व में सबसे सस्ती हैं। अगर भारत में इन दवाइयों का निर्माण बंद हो जाए और अगर इन दवाइयों को सिर्फ पेटेंट प्राप्त कंपनी ही बनाये, तो इनके दाम आसमान छूने लगेंगे। साथ ही इनकी उपलब्धता भी बहुत कम हो जाएगी।

सरकार का रूख
भारतीय वाणिज्य मंत्रालय को ‘फ्री ट्रेड एग्रीमेंट’ के अंतर्गत यूरोपीय देशों से होने वाली रिजनल काम्प्रीहेन्सिव इकॉनॉमिक पार्टनरशिप (RCEP) के दौरान बौद्धिक संपदा से जुड़े समझौते करते हुए काफी सतर्क रहना होगा, अन्यथा भारतीय उत्पादकों पर इसका बहुत प्रभाव पड़ेगा।
हांलाकि भारत ने 2005 में अपने पेटेंट कानून में सुधार करते हुए इसके खण्ड 3 (डी) में स्पष्ट कर दिया है कि यदि किसी दवा के फार्मूले में उसकी क्षमता को बढ़ाने वाले सुधार नहीं किए गए हैं, तो वह पेटेंट की अवधि में वृद्धि के उपयुक्त नहीं मानी जाएगी।

अमेरिका की परेशानी
भारत की सस्ती दवाइयों को बंद करने के लिए अमेरिका के विदेश व्यापार मंत्रालय ने ‘स्पेशल 301 रिपोर्ट’ तैयार की है। इस रिपोर्ट में उन्होंने भारत को निगरानी-सूची में रखा है। इस रिपोर्ट का उद्देश्य भारतीय वाणिज्य एवं व्यापार पर बौद्धिक संपदा से जुड़ी अमेरिका की मांगों का दबाव बनाना है। इतना ही नहीं अमेरिका इस क्षेत्र में ‘एक्शन प्लान’ लेकर आ रहा है, जिसमें अमेरिकी दवाई कंपनियों को होने वाले नुकसान की जिम्मेदार भारतीय बौद्धिक संपदा कानून को ठहराया जाएगा।
हमारी वाणिज्य मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमन ने स्पष्ट कर दिया है कि ‘रिपोर्ट 301’ विश्व व्यापार संगठन कानून के विरुद्ध है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि दो देशों के बीच विवादों को ‘डिस्प्यूट सेटलमैंट बॉड़ी’ के पास ले जाना चाहिए।
विशेष बात यह है कि अमेरिकी पेटेंट की दादागिरी ने खुद अमेरिका की स्वास्थ्य सेवाओं को बहुत खर्चीला बना दिया है। वहाँ की जनता इससे बहुत परेशान है।
जबकि भारत पूरी तरह से बौद्धिक संपदा पर बने विश्व व्यापार संगठन के कानूनों का पालन करते हुए सस्ती जेनेरिक दवाइयाँ बनाकर सभी विकासशील देशों को राहत पहुँचा रहा है।


 हिंदू’ में बी.विनोद कुमार के लेख पर आधारित

DRUGS


बहुराष्ट्रीय बौद्धिक संपदा के जाल को तोड़ना जरूरी है।

AFEIAS 

Date:02-03-17
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हाल ही में अमेरीकी चेबंर ऑफ  कॉमर्स ने भारत को एक बार फिर पेटेंट करने वाले 45 देशों की सूची में 43 वाँ स्थान देकर उसकी नाकामी को सिद्ध करने की कोशिश की है। ऐसा करने के पीछे अमेरिका के कुछ गलत इरादे हो सकते हैं, लेकिन धक्का तब लगता है, जब हमारे ही अन्वेषक ऐसी सूचियों पर भरोसा करके हमारे वैज्ञानिकों का हौसला यह कहकर नीचे गिराते हैं कि अगर हमने सूची में अपना स्थान ऊँचा नहीं उठाया, तो इसके बुरे परिणाम होंगे। उनको लगता है कि अगर हमें वाकई ‘मेक इन इंडिया‘ को सफल बनाना है, तो हमें अपने पेटेंट नंबर बढ़ाने होंगे।
वास्तव में क्या हम भारत में बौद्धिक संपदा को बढ़ा रहे हैं ? विश्वस्तरीय जेनेरिक दवाइयाँ और जनता के लिए वहन करने योग्य दवाइयाँ बनाने में हम बहुत आगे हैं। इससे भी आगे बढ़कर अपनी तकनीकी क्षमता और बौद्धिक संपदा का लोहा मनवाने का समय अब आ चुका है। ऐसा करने के लिए हमें कुछ और उपाय करने होंगे –
  • भारत में पेटेंट करवाना आसान नहीं है। हमारे यहाँ बहुत से पेटेंट आवेदन खारिज कर दिए जाते हैं। हमारे पेटेंट कार्यालयों के पास अन्वेषणों की सूचना का बहुत अभाव रहता है। दूसरे, किसी अन्वेषण का पेटेंट मंजूर करने से पहले यह जानना बहुत आवश्यक होता है कि वह अन्वेषण पहले से मौजूद उसी तरह के अन्वेषण से बेहतर है या नहीं। किसी खास पेटेंट-आवेदन की मंजूरी और नामंजूरी के लिए विश्व में अनेक मानदण्ड हो सकते हैं। समय के साथ पेटेंट मंजूर करने के लिए भारतीय पैमाने और भी कड़े होते जाएंगे।
  • वर्तमान समय आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का युग है। अब मशीनें भी मानव की तरह ही सोचने लगी हैं। ऐसी मशीनें थोक में बनाई जा रही हैं। इनमें एक कुशल मानव की तरह की ही सृजनात्मकता भरी जा रही है। अगर हम पेटेंट का आधार कला या तकनीक में कौशल को बनाते हैं, तो आने वाले समय में ये मशीनें ही पेटेंट अपने नाम करवाती जाएंगी।
  • हमें इस पेटेंट गेम को छोड़कर ओपन सोर्स फॉर्मेट जैसे माध्यमों को अपनाना होगा। जैसे आज स्मार्ट फोन लाकर हमने लैंडलाइन और लैपटॉप पर होने वाले भारी निवेश को बचा लिया। इस प्रकार के पेटेंट-मुक्त अन्वेषणों से ही हम आगे निकल पाएंगे। अन्यथा एक भंवरजाल में फंसे रहेंगे।
 हिंदू में प्रकाशित शमनद  बशीर के लेख पर आधारित।

जेनेरिक दवाईयों पर बहस

जेनेरिक दवाईयों पर बहस

भारत जैसे विकासशील देशों के सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में दवाइयों की अहम् भूमिका है।
पिछले एक दशक में पर्यावरण एवं जीवन पद्धति में बदलाव की वजह से संक्रामक और असंक्रामक रोगों की संख्या बहुत बढ़ गई है।
बढ़ती बीमारियों के दौर में भारत जैसे कम एवं सामान्य आय वाले देशों में कम कीमत की जेनेरिक दवाइयों की बहुत महत्वपूर्ण भूमिका है।
 जेनेरिक दवाइयां क्या हैं हम क्या  जानते हैं इनके बारे में ?
ये दवाइयां किसी बड़ी दवाई कंपनी की दवाईयों के समरुप होती हैं। इन दवाइयों को पेटेंट कानून के अनुबंधित समय के अंदर अविष्कारक कंपनी से बिना लाइसेंस लिए बनाया और बेचा जा सकता है। इनको बेचने के लिए मालिकाना हक रखने वाली कंपनी का नाम देना जरूरी नहीं होता।
इन जेनेरिक दवाइयों की कीमत अमेरिका की एकाधिकार रखने वाली कंपनियों की तुलना में भारत में बहुत ही कम है। साथ ही भारत में इनका निर्माण करने वाली कंपनियों में प्रतिस्पर्धा के कारण कीमत और भी कम हो जाती है। जैसे अमेरिका में एचआईवी के शुरूआती उपचार के लिए 16 लाख लग जाते हैं, जबकि भारतीय एड्स कार्यक्रम में इसकी कीमत 7,000 रुपए ही आती है।

जेनेरिक दवाइयों के निर्माण में भारत की भूमिका
जेनेरिक दवाइयों के निर्माण के लिए भारत के पास कच्चा माल, जिसे एक्टिव फार्मास्यूटिकल इंग्रीडियेन्ट्स (API) भी कहते हैं, तैयार करने की तकनीकी क्षमता अच्छी है। भारत में तैयार की गई जेनेरिक इवाइयाँ विश्व में सबसे सस्ती हैं। अगर भारत में इन दवाइयों का निर्माण बंद हो जाए और अगर इन दवाइयों को सिर्फ पेटेंट प्राप्त कंपनी ही बनाये, तो इनके दाम आसमान छूने लगेंगे। साथ ही इनकी उपलब्धता भी बहुत कम हो जाएगी।

सरकार का रूख
भारतीय वाणिज्य मंत्रालय को ‘फ्री ट्रेड एग्रीमेंट’ के अंतर्गत यूरोपीय देशों से होने वाली रिजनल काम्प्रीहेन्सिव इकॉनॉमिक पार्टनरशिप (RCEP) के दौरान बौद्धिक संपदा से जुड़े समझौते करते हुए काफी सतर्क रहना होगा, अन्यथा भारतीय उत्पादकों पर इसका बहुत प्रभाव पड़ेगा।
हांलाकि भारत ने 2005 में अपने पेटेंट कानून में सुधार करते हुए इसके खण्ड 3 (डी) में स्पष्ट कर दिया है कि यदि किसी दवा के फार्मूले में उसकी क्षमता को बढ़ाने वाले सुधार नहीं किए गए हैं, तो वह पेटेंट की अवधि में वृद्धि के उपयुक्त नहीं मानी जाएगी।

अमेरिका की परेशानी
भारत की सस्ती दवाइयों को बंद करने के लिए अमेरिका के विदेश व्यापार मंत्रालय ने ‘स्पेशल 301 रिपोर्ट’ तैयार की है। इस रिपोर्ट में उन्होंने भारत को निगरानी-सूची में रखा है। इस रिपोर्ट का उद्देश्य भारतीय वाणिज्य एवं व्यापार पर बौद्धिक संपदा से जुड़ी अमेरिका की मांगों का दबाव बनाना है। इतना ही नहीं अमेरिका इस क्षेत्र में ‘एक्शन प्लान’ लेकर आ रहा है, जिसमें अमेरिकी दवाई कंपनियों को होने वाले नुकसान की जिम्मेदार भारतीय बौद्धिक संपदा कानून को ठहराया जाएगा।
हमारी वाणिज्य मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमन ने स्पष्ट कर दिया है कि ‘रिपोर्ट 301’ विश्व व्यापार संगठन कानून के विरुद्ध है, जिसमें स्पष्ट कहा गया है कि दो देशों के बीच विवादों को ‘डिस्प्यूट सेटलमैंट बॉड़ी’ के पास ले जाना चाहिए।
विशेष बात यह है कि अमेरिकी पेटेंट की दादागिरी ने खुद अमेरिका की स्वास्थ्य सेवाओं को बहुत खर्चीला बना दिया है। वहाँ की जनता इससे बहुत परेशान है।
जबकि भारत पूरी तरह से बौद्धिक संपदा पर बने विश्व व्यापार संगठन के कानूनों का पालन करते हुए सस्ती जेनेरिक दवाइयाँ बनाकर सभी विकासशील देशों को राहत पहुँचा रहा है।


 हिंदू’ में बी.विनोद कुमार के लेख पर आधारित