बहुराष्ट्रीय बौद्धिक संपदा के जाल को तोड़ना जरूरी है।
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हाल ही में अमेरीकी चेबंर ऑफ कॉमर्स ने भारत को एक बार फिर पेटेंट करने वाले 45 देशों की सूची में 43 वाँ स्थान देकर उसकी नाकामी को सिद्ध करने की कोशिश की है। ऐसा करने के पीछे अमेरिका के कुछ गलत इरादे हो सकते हैं, लेकिन धक्का तब लगता है, जब हमारे ही अन्वेषक ऐसी सूचियों पर भरोसा करके हमारे वैज्ञानिकों का हौसला यह कहकर नीचे गिराते हैं कि अगर हमने सूची में अपना स्थान ऊँचा नहीं उठाया, तो इसके बुरे परिणाम होंगे। उनको लगता है कि अगर हमें वाकई ‘मेक इन इंडिया‘ को सफल बनाना है, तो हमें अपने पेटेंट नंबर बढ़ाने होंगे।
वास्तव में क्या हम भारत में बौद्धिक संपदा को बढ़ा रहे हैं ? विश्वस्तरीय जेनेरिक दवाइयाँ और जनता के लिए वहन करने योग्य दवाइयाँ बनाने में हम बहुत आगे हैं। इससे भी आगे बढ़कर अपनी तकनीकी क्षमता और बौद्धिक संपदा का लोहा मनवाने का समय अब आ चुका है। ऐसा करने के लिए हमें कुछ और उपाय करने होंगे –
- भारत में पेटेंट करवाना आसान नहीं है। हमारे यहाँ बहुत से पेटेंट आवेदन खारिज कर दिए जाते हैं। हमारे पेटेंट कार्यालयों के पास अन्वेषणों की सूचना का बहुत अभाव रहता है। दूसरे, किसी अन्वेषण का पेटेंट मंजूर करने से पहले यह जानना बहुत आवश्यक होता है कि वह अन्वेषण पहले से मौजूद उसी तरह के अन्वेषण से बेहतर है या नहीं। किसी खास पेटेंट-आवेदन की मंजूरी और नामंजूरी के लिए विश्व में अनेक मानदण्ड हो सकते हैं। समय के साथ पेटेंट मंजूर करने के लिए भारतीय पैमाने और भी कड़े होते जाएंगे।
- वर्तमान समय आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस का युग है। अब मशीनें भी मानव की तरह ही सोचने लगी हैं। ऐसी मशीनें थोक में बनाई जा रही हैं। इनमें एक कुशल मानव की तरह की ही सृजनात्मकता भरी जा रही है। अगर हम पेटेंट का आधार कला या तकनीक में कौशल को बनाते हैं, तो आने वाले समय में ये मशीनें ही पेटेंट अपने नाम करवाती जाएंगी।
- हमें इस पेटेंट गेम को छोड़कर ओपन सोर्स फॉर्मेट जैसे माध्यमों को अपनाना होगा। जैसे आज स्मार्ट फोन लाकर हमने लैंडलाइन और लैपटॉप पर होने वाले भारी निवेश को बचा लिया। इस प्रकार के पेटेंट-मुक्त अन्वेषणों से ही हम आगे निकल पाएंगे। अन्यथा एक भंवरजाल में फंसे रहेंगे।
‘द हिंदू‘ में प्रकाशित शमनद बशीर के लेख पर आधारित।
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