Tuesday, 12 November 2019

MALNUTRITION


कुपोषण
बाल कुपोषण के भयावह आँकड़े सरकारों की अपराधी उदासीनता आने वाली एक पूरी पीढ़ी को अपंग बीमार बनाती व्यवस्था
डॉ. पावेल पराशर

बीती 13 जनवरी को झारखण्ड की रघुबर सरकार ने मिड डे मील के तहत बच्चों को मिलने वाले अण्डों में कटौती की घोषणा करते हुए इसे हफ़्ते में तीन से दो करने का फै़सला ले लिया। सरकार ने इसका कारण बताया है कि हर दिन बच्चों को अण्डा खिलाना सरकार के लिएमहँगासौदा पड़ रहा है। ताज्जुब की बात है कि राज्य की खनिज सम्पदाओं, जंगलों, पहाड़ों को अपने कॉर्पाेरेट मित्रों के हाथों औने-पौने दाम पर बेचना सरकार को कभीमहँगानहीं पड़ा। ग़ौरतलब है कि झारखण्ड देश के सबसे कुपोषित राज्यों में से एक है और खनिज प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर इस राज्य के 62 बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। राज्य के कुल कुपोषित बच्चों में से 47 बच्चों मेंस्टण्टिंगयानी उम्र के अनुपात में औसत से कम लम्बाई पायी गयी है जो कि कुपोषण की वजह से शरीर पर पड़ने वाले अपरिवर्तनीय प्रभावों में से एक है। पूरे देश के कुपोषण के आँकड़ों पर नज़र डालें तो न्छप्ब्म्थ् के अनुसार भारत में 5 वर्ष से कम उम्र के 39 बच्चे स्टण्टिंग के शिकार हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि आने वाली एक पूरी पीढ़ी, कुपोषण के दुष्प्रभावों की वजह से ठिगनी रह जाने को अभिशप्त है। ग्लोबल न्यूट्रिशन रिपोर्ट, 2018 (जीएनआर) के अनुसार विश्व में कुपोषण की वजह से ठिगने रह जाने वाले बच्चों में से 47 सिर्फ़ तीन देशों में हैं, भारत, पाकिस्तान नाइजीरिया। विश्व भूख सूचकांक 2018 के अनुसार विश्व के 119 अविकसित विकासशील देशों की सूची में भारत 103वें स्थान पर विराजमान है। हमारे देश में पाँच वर्ष से कम उम्र के बच्चों की होने वाली अकाल मृत्यु के 50 मामलों के लिए कुपोषण ज़िम्मेदार है। भारत में हर दिन 3000 बच्चे कुपोषण के प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष कारणों की वजह से दम तोड़ देते हैं।

बाल कुपोषण के कारण, लक्षण दुष्परिणाम --

बाल कुपोषण तब होता है जब बच्चे के शरीर में प्रोटीन, कार्बाेहाइड्रेट, वसा, विटामिन खनिजों सहित पर्याप्त पोषक तत्व नहीं मिलते। इसके कारणों में मुख्यतः प्रोटीन कैलोरी की कमी सबसे बड़ी दीर्घकालिक भूमिका निभाती है। प्रोटीन कैलोरी की कमी की वजह से होने वाला कुपोषण, “प्रोटीन ऊर्जा कुपोषणकहलाता है। कैलोरी प्रोटीन की कमी का सम्बन्ध भोजन की मात्रा और गुणवत्ता से तो है ही, साथ ही साफ़-सफ़ाई बच्चे के पालन-पोषण के वातावरण से भी है। इसके अलावा बच्चे की माँ के शरीर में गर्भावस्था के दौरान मौजूद ख़ून की कमी और कुपोषण का इतिहास, भविष्य में बच्चे में कुपोषण की सम्भावना को कई गुणा बढ़ा देता है। जन्म के बाद के छह महीने तक अनन्य स्तनपान मिलना भी बाल कुपोषण का एक महत्वपूर्ण कारण है। कुपोषण के कुछ आम लक्षणों में शामिल हैं, वसा की कमी, दम फूलना, अवसाद, सर्जरी के बाद जटिलताओं का ख़तरा, घाव देर से भरना, ‘हाइपोथर्मियायानी असामान्य रूप से शरीर का निम्न तापमान, बीमारी ठीक होने में लम्बा वक़्त लगना, थकान, उदासीनता इसके अलावा कुपोषण के अधिक गम्भीर मामलों में पतली, सूखी, पीली त्वचा, चेहरे से वसा खोने की वजह से गालों का खोखला हो जाना, आँखों का धँस जाना आदि। लम्बे समय तक कैलोरी की कमी की वजह से दिल, जिगर श्वास की विफलता जैसे गम्भीर परिणाम भी हो सकते हैं। गम्भीर रूप से कुपोषित बच्चों का शारीरिक विकास आम बच्चों की तुलना में धीमा अपूर्ण होता है। उनमें शारीरिक मानसिक विकलांगताओं का भी ख़तरा रहता है। हालाँकि जो बच्चे ठीक हो जाते हैं, उनमें भी लम्बे समय तक कुपोषण के प्रभाव दिखते हैं जैसे कि पाचन तन्त्र और मानसिक कार्यों में दिक़्क़त। बच्चों में जन्म से लेकर दो वर्ष की आयु तक उनके कुपोषण से ग्रस्त होने उस कुपोषण के दीर्घकालिक होने की सम्भावना अधिक रहती है।

सरकारी कुप्रबन्धन, भ्रष्टाचार बजटदृकटौती काशिकार होती योजनाएँरू

भारत सरकार ने 1995 में बच्चों की प्रोटीन कैलोरी की ज़रूरतों की आंशिक आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिएमिड डे मीलयोजना की शुरुआत की थी। मिड डे मील योजना का लक्ष्य बच्चों के लिए ज़रूरी कैलोरी के एक तिहाई हिस्से ज़रूरी प्रोटीन के 50 हिस्से की आपूर्ति सुनिश्चित करना था। हालाँकि यह योजना अपने जन्म के समय से ही कुप्रबन्धन, भ्रष्टाचार लगातार होती फ़ण्ड बजट कटौती की वजह से अधिकतर राज्यों में अपने निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रही, पर फिर भी इस योजना की शुरुआत के बाद कई क्षेत्रों में बाल कुपोषण के आँकड़ों में प्रत्यक्ष सुधार देखे गये। झारखण्ड सहित कुछ राज्यों में प्रोटीन की आपूर्ति के लिए चावल, दलहन के साथ अण्डे को सम्मिलित किया गया। अण्डे में मौजूद एल्ब्यूमिन प्रोटीन, “प्रोटीन ऊर्जा कुपोषणसे पीड़ित बच्चों के लिए गुणात्मक रूप से प्रोटीन का सर्वाेत्तम स्रोत है और मिड डे मील में यदि ईमानदारी से हर बच्चे को रोज़ाना एक अण्डा सुनिश्चित किया जाये तो कुपोषण के इन भयानक आँकड़ों में कई गुना तक सुधार लाया जा सकता है। लेकिन खनिज प्राकृतिक सम्पदाओं से भरपूर झारखण्ड राज्य की सरकार के लिए राज्य की सम्पदाओं को चवन्नी के भाव कॉर्पाेरेट घरानों को बेचना कभी भीमहँगासौदा महसूस नहीं हुआ, पर कुपोषित बच्चों को अण्डों से मिलने वाला पोषण उसे महँगा सौदा लगने लगा। 7 की दर सेविकासका दावा ठोंकती रघुबर सरकार के पास अपने इसविकासका एक छोटा सा हिस्सा इस राज्य में विकराल मुँहबाए खड़े कुपोषण रूपी राक्षस से लड़ाई हेतु भी ख़र्चने को नहीं है। ग़ौरतलब है कि संस्कृति धर्म पर ठेकेदारी का दावा ठोंकने वाली भारतीय जनता पार्टी ने जिन-जिन प्रदेशों में अपनी सरकार बनायी, वहाँ-वहाँ उसनेधार्मिक भावनाओंहवाला देते हुए अण्डे को बच्चों की थाली से छीन लिया, चाहे वह हिमाचल हो या महाराष्ट्र, हरियाणा, उत्तराखण्ड, यूपी या मणिपुर।

जहाँ एक तरफ़ कुपोषण के भयानक आँकड़े भारत को दुनिया के सबसे पिछड़े कुपोषित देशों की क़तार में खड़ा करते हैं, वहीं मिड डे मील, आईसीडीएस, आँगनवाड़ी जैसी योजनाओं से आर्थिक सहायता खींचकर इन्हें भी ख़त्म करने की साज़िशें ज़ोर पर हैं। दूसरी तरफ़ पूँजीपतियों के हज़ारों करोड़ के क़र्ज़े माफ़ करते हुए उसकी भरपाई मेहनतकश जनता के हिस्से के कल्याणकारी कार्यक्रमों में कटौती के द्वारा की जा रही है।भात भातकहते हुए मर गयी बालिका सन्तोषी को सख़्त हिदायत है कि जितना मिल रहा है, उतने में हीसन्तोषकरो और अपनी हड्डियों का पाउडर बनाकर इस पूँजीवादी व्यवस्था के मुनाफ़े के लिए पीढ़ी दर पीढ़ी पिसते रहो।

प्लास्टिक कंटेनर

खानपान में प्लास्टिक कंटेनर के
इस्तेमाल से बचें!
सरकार को तत्काल हस्तक्षेप करना चाहिए और बिस्फिनाल-ए (बीपीए) पर प्रतिबंध लगाकर पहला सबसे स्पष्ट और तर्कसंगत कदम उठाना चाहिए। समय-समय पर हानिकारक रसायनों के लिए प्लास्टिक पदार्थों की जांच करने और इससे संबंधित धोखाधड़ी करने वालों के खिलाफ उचित कार्रवाई हेतु सरकार के पास एक तंत्र होना चाहिए। दुर्भाग्यवश, ऐसी प्रणाली भारत में मौजूद नहीं है। ‘फूड ग्रेड प्लास्टिक‘ जैसे लेबल एक छलावा मात्र हैं और इनका कोई मतलब भी नहीं बनता है, क्योंकि कोई भी प्लास्टिक सुरक्षित नहीं है। हमें निरर्थक महत्वाकांक्षा में पड़ने के बजाय स्वास्थ्य और पर्यावरण की दिशा में प्राथमिकता तय करने वाली नई जीवन शैली से अगली पीढ़ी को सम्बल प्रदान करना चाहिए। क्योंकि हमारे पास केवल एक जीवन और एक पृथ्वी है।
हम ऐसी दुनिया में रहते हैं, जहां हम वर्तमान प्रवृत्ति का पालन करते हैं, चाहे खानपान से जुड़ी आदतें हों, सामग्रियों का उपयोग या फैशन आदि हो। स्कूल में लंच बॉक्स का एक उदाहरण लेते हैं। दो दशक पहले अपने स्कूल के दिनों में, मैं गोल छोटे स्टील कंटेनर में अपना दोपहर का भोजन ले जाता था, जिसे हम ‘चोटू प्रथम‘ (राइस कंटेनर) कहते थे। तब के बाद, ये कंटेनर पुराने और अप्रचलित हो गए, इन दिनों स्कूलों में फैशन ट्रेडमार्क बन चुके मशहूर कार्टून पात्र और जानवरों की छवि वाले रंगीन लंच बॉक्स प्रचलन में है। हमें गुणी अभिभावक दर्शाने के लिए समाज मेरी बेटी को उन ट्रेंडी, रंगीन लंच बॉक्स खरीदने के लिए निर्देशित करता है। वे बच्चों के लिए लुभावने होते हैं, अगर मैं जोर देता हूं कि वह अपना खाना स्टील लंच बाक्स में ले जाए तो उसका स्कूल में उपहास उड़ाया जाएगा और उसे पुरानी सोच का ठहरा दिया जाएगा! वह निराश होगी और जल्द ही अपने लंच बॉक्स को और अधिक आधुनिक करने की मांग करेगी! हालांकि, हकीकत में, इसमें कोई बदलाव
नहीं होगा। इनमें से लगभग सभी प्लास्टिक स्कूल लंच बाक्स पॉलीकार्बोनेट नामक एक प्लास्टिक उप प्रकार से बने होते हैं। पॉलीकार्बोनेट प्लास्टिक (जिसमें ‘इपाक्सी’ रेजिन’ पाया जाता है) निरपवाद रूप से एक सिंथेटिक रसायन का श्राव करते हैं, जिसे बिस्फिनाल ए (बीपीए) कहा जाता है। इसकी रासायनिक संरचना महिलाओं के प्रजनन हार्मोन एस्ट्रोजन के समान दिखती है और यदि यह हमारे शरीर के अंदर आ जाए तो अंडाशय में गुणसूत्र का ह्रास सहित कई स्वास्थ्य समस्याओं का कारण बन सकता है, इसी तरह पुरुषों की प्रजनन क्षमता में कमी आती है, हृदय संवहनी तंत्र क्षति, स्तन और प्रोस्टेट कैंसर का खतरा बढ़ जाता है। बढ़ती सार्वजनिक जागरूकता और कानूनी हस्तक्षेप से विकसित देशों में बीपीए युक्त प्लास्टिक के उपयोग में कमी आई है। संयुक्त राज्य अमेरिका, कनाडा, ईयू, जापान, ऑस्ट्रेलिया, फिलीपींस, ताइवान, चीन और मलेशिया समेत कई विकासशील देशों में भी बीपीए पर प्रतिबंध लगा दिया गया है या पहले से ही प्रतिबंधित है। इन प्रवर्तनों की अवहेलना करने के लिए, प्लास्टिक निर्माताओं ने बीपीए को ‘‘बीपीएमुक्त‘‘ प्रमाणन प्राप्त करने के लिए बीपीएस (बिस्फिनाल एस) और बीपीएफ (बिस्फिनाल एफ) के साथ तेजी से बदल दिया है, हालांकि नए शोध से पता चला है कि बीपीएस
और बीपीएफ घातक हैं, और इसलिए इसकी खुराक पूरी तरह से टालना चाहिए। भारत में, अफसोस की बात है कि बीपीए पर प्रतिबंध नहीं है, न ही इसकी बिक्री पर कोई प्रतिबंध लागू है, जो वैज्ञानिक रूप से जागरूक नागरिकों के लिए एक निराशाजनक बात है। 2013 में, भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा बीपीए की बोतलों को प्रतिबंधित करने के लिए एक मसौदा तैयार किया गया था लेकिन प्लास्टिक उद्योग के सहकर्मी दबाव के कारण, सरकार इन मसौदे के दिशा-निर्देशों को लागू करने से बचती रही। चाहे औद्योगिक विकास या नागरिकों के स्वास्थ्य का सवाल हो, विशेष रूप से कमजोर नागरिक, गर्भवती महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य की चिंता, सरकार के लिए तर्कसंगत रूप से एक नैतिक सवाल है। नागरिकों और ग्राहकों को सूचित करने के लिए, कई कंपनियां स्वेच्छा से अपने उत्पादों को ‘बीपीएमुक्त’ लोगो के साथ चिह्नित करती हैं। 2014 में एक अध्ययन में यह निष्कर्ष निकाला गया कि इन घोषित ‘बीपीएमुक्त’ उत्पादों में से अधिकांश ने प्रसिद्ध ब्रांडों से शिशु आहार की बोतलों को बीपीए के लिए सकारात्मक परीक्षण किया। आप कैसे जानेंगे कि आप जो प्लास्टिक खरीदते हैं, वह बीपीए ध् बीपीएस ध् बीपीएफ मुक्त है? “फाइन प्रिंट” एक आसान तरीका है। अधिकांश प्लास्टिक