Tuesday 12 June 2018

पर्यावरण और महिलाएं

पर्यावरण और महिलाएं 
उपासना बेहार—–
महिलाओं का शुरू से ही प्रकृति से निकट्तम का संबंध रहा है। एक तरफ वो प्रकृति की उत्पादनकर्ता] संग्रहकर्ता तो दूसरी तरफ प्रबंधक] संरक्षक की भूमिका निभाती रही हैं। महिलाओं ने इसकी रक्षा के लिए कई आदोंलन चलाये और अपने प्राण देने से भी नही हिचकचायी। महिलाओं के पर्यावरण-संरक्षण में अतुलनीय योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता है. ये आन्दोलनकारी महिलाएं एक बात अच्छे से जानती थी कि स्वच्छ पर्यावरण के बिना जीवन नहीं हैं और पर्यावरण को बचाकर ही जीवन को सुरक्षित रखा जा सकता है. अगर हम पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ करेगे तो उसका खामयाजा आने वाली कई पीढीयों को भी भुगतना पड़ेगा.
देश में हुए कई पर्यावरण-संरक्षण आंदोलनों खासकर वनों के संरक्षण में महिलाओं ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. इन आन्दोलनों पर अगर नजर डाले तो अमृता देवी के नेतृत्त्व में किये गए आन्दोलन की तस्वीर सबसे पहले आती है, वर्ष 1730 में जोधपुर के महाराजा को महल बनाने के लिए लकड़ी की जरुरत आई तो राजा के आदमी खिजड़ी गांव में पेड़ों को काटने पहुचें तब उस गांव की अमृता देवी के नेतृत्त्व में 84 गाँव के लोगों ने पेड़ों को काटने का विरोध किया, परंतु जब वे जबरदस्ती पेड़ों को काटने लगे तो अमृता देवी पेड़ से चिपक गयी और कहा कि पेड़ काटने से पहले उसे काटना होगा तब राजा के आदमियों ने अमृता देवी को पेड़ के साथ काट दिया, यहाँ से मूल रूप से चिपको आन्दोलन की शुरुवात हुई थी. अमृता देवी के इस बलिदान से प्रेरित हो कर गाँव के महिला और पुरुष पेड़ से चिपक गए. इस आन्दोलन ने बहुत विकराल रूप ले लिया और 363 लोग विरोध के दौरान मारे गए, तब राजा ने पेड़ों को काटने से मना किया.
इसी आंदोलन ने आजादी के बाद हुए चिपको आंदोलन को प्रेरित किया और दिशा दिखाई, सरकार को 26 मार्च 1974 को चमोली जिले के नीती घाटी के जंगलों  को काटने का कार्य शुरू करना था. इसका रैणी गांववासियों  ने जोरदार विरोध किया जिससे डर कर ठेकेदारों ने रात में पेड़ काटने की योजना बनायीं. लेकिन गौरा देवी ने गाँव की महिलाओं को  एकत्रित किया और कहना कि ‘जंगल हमारा मायका है हम इसे उजाड़ने नहीं देंगे।’  सभी महिलाएं जंगल  में पेड़ों से चिपक गयी और कहा कुल्हाड़ी पहले हम पर चलानी पड़ेगी फिर इन पेड़ों पर,पूरी रात निर्भय होकर सभी पेड़ों से चिपकी रही,  ठेकेदारों को पुनः खाली हाथ जाना पड़ा, यह आन्दोलन पूरे उत्तराखंड  में फ़ैल गया. इसी प्रकार टिहरी जिले के हेंवल घाटी क्षेत्र के अदवाणी गांव की बचनी देवी भी ऐसी महिला हैं जिन्होंने चिपको आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। 30 मई 1977 को अदवाणी गांव में वन निगम के ठेकेदार पेड़ों को काटने लगे तो बचनी देवी गांववासियों को साथ लेकर पेड़ बचाओ आंदोलन में कूद पड़ी और पेड़ों से चिपककर ठेकेदारों के हथियार छीन लिए और उन्हें वहां से भगा दिया.यह संघर्ष तक़रीबन एक साल चला और आन्दोलन के कारण पेड़ों की कटान पर वन विभाग कोरोकलगानीपड़ी।
दक्षिण में भी चिपको आन्दोलन की तर्ज पर ‘अप्पिको’ आंदोलन उभरा जो 1983 में कर्नाटक के उत्तर कन्नड़ क्षेत्र से शुरू हुआ, सलकानी तथा निकट के गांवों के जंगलों को वन विभाग के आदेश से काटा जा रहा था तब इन गांवों की महिलाओं ने पेड़ों को गले से लगा लिया, यह आन्दोलन लगातार 38 दिनों तक चला, सरकार को मजबूर हो कर पेड़ों की कटाई रुकवाने का आदेश देना पड़ा. इसी तरह से बेनगांव, हरसी गांव के हजारों महिलाओं और पुरुषों ने पेड़ों के काटे जाने का विरोध किया और पेड़ों को बचाने के लिए उन्हें गले से लगा लिया. निदगोड में 300 लोगों ने इक्कठा होकर पेड़ों को गिराये जाने की प्रक्रिया को रोककर सफलता प्राप्त की। उत्तराखण्ड में महिलाओं ने “रक्षा सूत्र” आंदोलन की शुरुवात की जिसमे उन्होंने पेड़ों पर “रक्षा धागा” बांधते हुए उनकी रक्षा का संकल्प लिया। नर्मदा बचाओ आन्दोलन, साइलेंट घाटी आंदोलन में महिलाओं ने सक्रीय भागीदारी की.
भारत में आजादी के पहले से वन नीति है, भारत की पहली राष्ट्रीय वन नीति  वर्ष 1894 में बनी थी. स्वतंत्र भारत की पहली राष्ट्रीय वन नीति  1952 में, वन संरक्षण अधिनियम 1980 में बने  इन नीतियों में महिलाओं का कही जिक्र नहीं था, वनों को लेकर महिला एक उत्पादनकर्ता, संग्रहकर्ता, संरक्षक और प्रबंधक की भूमिका निभाती हैं इस कारण प्रकृति से खिलवाड़ का दुष्प्रभाव सबसे ज्यादा महिलाओं पर पड़ता है.                         
इन सब आन्दोलनों के दबाव के कारण 1988 में जो राष्ट्रीय वन नीति बनी उसमें लोगों को स्थान दिया गया. इसमें महिलाओं की सहभागिता को महत्व दिया गया और उनकी वनों पर निर्भरता, वनों को लेकर ज्ञान, वन प्रबंधन में उनकी सक्रीय भागीदारी को समझा गया और यह सोच बनी कि अगर वन प्रबंधन में महिलाओं की भी भागीदारी होगी तो वन नीति के गोल को आसानी से प्राप्त किया जा सकता है इसी सोच के चलते संयुक्त वन प्रबंधन प्रोग्राम के अंतर्गत हर गावों में वन समिति बनायीं गयी और उस समिति में महिलाओं को भी शामिल किया गया. 1995 में राष्ट्रीय वन नीति में बदलाव करते हुए समितियों में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत आरक्षण कर दिया गया. परंतु देखने में आया है कि ज्यादातर महिलाओं को संयुक्त वन प्रबंधन प्रोग्राम और वन समिति के बारे में जानकारी नहीं है, साथ ही पुरुषों के वर्चस्व वाले इस समाज में महिलाओं को कहने बोलने का स्पेस कम ही मिल पता है, लेकिन देखना ये है कि महिलाये इन चुनौतियों से कैसे पार पाती हैं और वनों के स्थायित्व विकास के लिए क्या और किस तरीके के कदम उठाती हैं.
स्रोत --http://www.humsamvet.in/humsamvet

बच्चे बारे कुछ जानकारियां


Dr. Ranbir Singh Dahiya

13 Jun 2018, 09:04
बच्चे बारे कुछ जानकारियां
गर्भ काल में निम्नलिखित हालातों का बच्चे के उप्पर बुरा प्रभाव पड़ता है :-
1. मां की खुराक में पोषक तत्वों की कमी।
2. गिर जाने अथवा किसी दुर्घटना के कारण पेट पर चोट लग जाना , जिससे समय से पूर्व ही दर्दों के कारण शिशु का पैदा हो जाना ।
3. गर्भाधान के प्रथम तीन महीनों में वायरल इंफेक्शन होने के कारण।
4. गर्भाधान के प्रथम तीन महीनों में एक्स-रे करवाने के कारण ।
5. गर्भाधान के अंतिम महीनों में सिफिलिस का होना
6. गर्भाधान में मधुमेह अथवा टॉक्सीमिया का होना
7. आँवल (Placenta)  की उचित वृद्धि न होने के कारण भ्रूण तक पूरी मात्रा में ऑक्सीजन के न पहुंच पाने के कारण भी शिशु की वृद्धि में अवरोध उतपन हो सकता है ।
8. खुराकी कारक
यदि गर्भकाल में जननी की खुराक अपूर्ण हो तो कम भार वाले बच्चे पैदा होते हैं , जो जन्म के बाद शीघ्र ही रोगी हो जाते हैं और कई बार मर भी जाते हैं।
इसके अलावा
1.कद में वृद्धि: प्रथम वर्ष में 25 सैं मी कद बढ़ता है ।
2. बाजू का मध्य घेरा- प्रथम वर्ष में बाजू का ऊपरी मध्य घेरा 11 सेंटीमीटर से बढ़कर 16 सेंटीमीटर हो जाता है। 
3. सिर का घेरा: जन्म के समय 35 सैं मी. होता है और प्रथम वर्ष में 45 सैंटीमीटर हो जाता है।
4. छाती का घेरा: जन्म के समय शिशु की छाती का घेरा सिर के घेरे से 2 सैंटीमीटर कम होता है। एक वर्ष की आयु में छाती और सिर का घेरा एक समान हो जाते हैं 
5. एक वर्ष के शिशु का तापमान : 96.8  डिग्री F से 99 डिग्री F
6. एपिकल पल्स( दिल की धड़कन): 90--130 बीट्स प्रति मिन्ट
7. श्वास गति : 20 से 40 प्रति मिनट
8. रक्त चाप(BP): 90/50 mm Hg
नवजात शिशु(New Born)
नवजात शिशु से तात्पर्य है प्रथम चार सप्ताह। इस आयु में शिशु का शारीरिक , मानसिक और संवेगात्मक स्वास्थ्य माता के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है। इस आयु में शिशु की मुख्य आवश्यकताएं निम्नलिखित होती हैं :-
1. सुरक्षित प्रसव(Safe delivery)
2. सुरक्षित एवम प्रेमपूर्वक उठाना
3. स्वच्छता (Cleanliness)
4. संक्रमण से बचाव (Prevention from infection)
5. गर्माइश(Warmth)
6. आराम और नींद(Rest and sleep)
7.खुराक- मां का दूध या कृत्रिम पोषक आहार(Nutrition)
शिशु(Infant)
चार सप्ताह से एक वर्ष के बच्चे को शिशु (Infant) कहा जाता है। इस आयु में शरीर,बाजू,और टांगों में तेजी से वृद्धि होती है, परन्तु सिर की वृद्धि तेजी से नहीं होती । मांसपेशियों की ताकत बढ़ती है और तीन महीने की आयु में शिशु सिर को उठाना आरम्भ कर देता है।
1. शारीरिक विकास ( Physical growth)
जन्म से प्रथम सप्ताह तक शिशु का जन्म भार से 10 प्रतिशत भार कम हो जाता है और दसवें दिन से दोबारा बढ़ना शुरू हो जाता है, जो नियमानुसार है:
1-3 महीने   : 200  ग्राम प्रति सप्ताह या 800 ग्राम प्रति महीना
4-6 महीने   : 150 ग्राम प्रति सप्ताह या 600 ग्राम प्रति महीना
7-9  महीने   : 100 ग्राम प्रति सप्ताह या 400 ग्राम प्रति महीना
10-12 महीने : 50-70 ग्राम प्रति सप्ताह या 200-300 ग्राम प्रति महीना
  इसका मतलब यह है कि 5-6 महीने की आयु तक शिशु अपने जन्म-भार से दोगुणा और एक वर्ष की आयु तक तीन गुणा हो जाता है ।
   कद में वृद्धि: प्रथम वर्ष में 25 सैं.मी. कद बढ़ता है।
बाजु का घेरा - प्रथम वर्ष में बाजु का ऊपरी मध्य घेरा 11 सैंटीमीटर से बढ़कर 16 सैंटीमीटर हो जाता है ।
सिर का घेरा -- 
जन्म के समय 35 सैं.मी. होता है और प्रथम वर्ष में 45 सैं.मी. हो जाता है ।
छाती का घेरा -
जन्म के समय शिशु की छाती का घेरा सिर के घेरे से 2 सैंटीमीटर कम होता है । एक वर्ष की आयु में छाती और सिर का घेरा एक समान हो जाता है। 
2 . महत्वपूर्ण चिन्ह-(Vital Signs)-
* एक वर्ष के शिशु का तापमान :96डिग्री फॉरनहाइट से 99 डिग्री फॉरनहाइट
* अपीकल पल्स (दिल की धड़कन )--90 -130 
श्वास गति --20 -40 प्रति मिनट 
रक्तचाप (BP) ---90 /50 Hg
3 . महत्वपूर्ण घटनाएं (Mile Stones )-------
इस समय में शारीरिक वृद्धि  के साथ साथ सामाजिक और मानसिक विकास भी होता है  | 
वृद्धि दोनों साथ साथ होते हैं 
शिशु के मील पत्थर ---Mile Stones)--
दूसरा --तीसरा महीना --(Second-Third Month)--
-- शिशु अपने आप मुस्कुराता है 
--गले में से आवाज पैदा करता है 
--सिर को दाएं बाएं दोनों और मोड़ता है 
--चिल्लाने की कोशिश करता है 
चौथा और पांचवां महीना (Fourth and Fifth Month)----
--वस्तुओं को पकड़ता है 
--करवट लेता है 
-- अपने आस पास के लोगों को पहचानता है 
-- आवाज को ध्यान से सुनता है 
--टाँगें ऊपर निचे करके हिलाता है
छठा महीना (Sixth Month )---
--सहारा लेकर बैठ जाता है 
--मां और परिवार के सदस्यों को अच्छी तरह पहचानता है 
--दूध पिने का समय होने पर बोतल पर हाथ रखता है 
--नक़ल उतारने की कोशिश करता है 
--4 -6 महीने में निचे के दांत निकालता है 
--अपरिचित लोगों से डरता है 
सातवें से नौवें महीने (Seventh to Nineth Month )
--रेंगना शुरू कर देता है 
--पैर मुँह में डालता है 
-- अधिक समय तक अकेला बैठ सकता है 
--करवट लेता है 
--अपने आप से बातें करता है 
--खिलौनों के साथ खेलता है 
--डा डा ,मा मा , बा बा कहना शुरू करता है 
दसवें से बारहवें महीने (Tenth to Twelfth Month )
--6 -8 दांत निकल आते हैं 
--खिलौने फैंकता है 
--एक खिलौने को दूसरे में डालता है 
--ईर्ष्या, प्रेम ,और क्रोध की भावनाओं को प्रकट करता है 
-- अपने आप खड़ा हो जाता है 
--कोई वस्तु अथवा ऊगली पकड़ कर चल सकता है 
--सीढ़ियों पर चढ़ने का यत्न करता है 
4 . खेल 
शिशु इस समय में स्पर्श ,देखने और बोलने वाले तथा उत्तेजित करने वाले कारकों को पहचान ना आरम्भ कर देता है |  शिशु कोमल खिलौनों से खेलना आरम्भ कर देता है |  चलना शुरू करने के बाद शिशु चित्रों वाली पुस्तकों और खिलौनों को फेंकना आरम्भ कर देता है 
बच्चे की खुराक (Diet)
1 साल से 3 साल के बच्चे को 1240 किलो कैलोरी की आवश्यकता होती है। जबकि 4 से 6 साल के बच्चे को 1690 किलो कैलोरी की आवश्यकता होती है ।
2 प्रोटीन :: (Protein)
1 से 3 साल के बच्चे को 22 ग्राम प्रोटीन और 4 से 6 साल के बच्चे को 30 ग्राम प्रोटीन की आवश्यकता होती है ।
3 चर्बी:: (Fat)
भोजन की स्वादिष्टता और भरपूर ऊर्जा की प्राप्ति के लिए 25 ग्राम चर्बी तत्व प्रतिदिन देने चाहिए ।
4 लौह (Iron):: बचपन में लौह की कमी को पूरा करने के लिए आहार में लौह तत्वों का होना अत्यंत आवश्यक होता है। 1से 3 साल के बच्चे को 12 मिलीग्राम प्रतिदिन और 4-6 साल के बच्चे को 18 मिलीग्राम प्रतिदिन लौह की आवश्यकता होती है। 
5 विटामिन(Vitamin)::भारत में विटामिन ए की कमी के कारण रतौंधी (अंधता) आदि जैसे अनेक रोग उन बच्चों में पाए जाते हैं जिनकी खुराक में 100 माइक्रोग्राम प्रतिदिन से भी कम होती है । बच्चे की खुराक में 400 माइक्रोग्राम  विटामिन ए की मात्रा शामिल होनी चाहिए । इसी प्रकार विटामिन सी की खुराक में मात्रा 40 मिलीग्राम प्रतिदिन होनी चाहिए ।
5. बच्चों में मोटापे के परिणाम 
* बच्चे आजकल बहुत तेजी से शारीरिक स्तर पर निष्क्रिय जीवन शैली को अपना रहे हैं । 
* अधिक मात्रा में ऊर्जा-घनित, पोषण-रहित खाना खा रहे हैं ।
* जिसकी वजह से आजकल बच्चों में मस्तिष्क वाहिकीय रोगों(स्ट्रोक्स) के अलावा कैंसर, टाइप-2 मधुमेह, आस्टिओर्थ्रिटिस,हैपेरटेंशन और हाई कोलोस्ट्रॉल जैसी बीमारियां पाई जा रही हैं । भारतीय बच्चे अपने दैनिक भोजन में उचित मात्रा में फल या सब्जियां नहीं खाते हैं, जितनी उन्हें उनकी उम्र के अनुसार खानी चाहिए । ये सभी कारक उनके जीवन स्तर और भविष्य के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं ।
बच्चों की सेहत बारे
6. वातावरण( environment)
वातावरण बच्चे की वृद्धि और विकास को अत्यधिक प्रभावित करता है ,इसमें
1. ऋतु, धुप और प्रकाश 
2. साफ हवा ,साफ पाणी और पौष्टिक भोजन
3. घर की स्वच्छता
4. बच्चे को दी गयी खुराक की गुणवत्ता और मात्रा
5. व्यायाम, आराम और मनोरंजन
6. इंफेक्शन और चोट आदि।
7. हवा , पानी और खाद्य पदार्थों में मिलावट और प्रदूषण 
8. वातावरण के प्रति समाज की संवेदनशीलता ।
9. सामाजिक-आर्थिक स्थितियां(Socio-economic Conditions)
पारिवारिक जीवन पद्धति का भी वृद्धि और विकास पर बहुत प्रभाव होता है। अमीर घरों के बच्चों का शारीरिक भार और कद सामान्य होता है , क्योंकि उन्हें संतुलित खुराक मिलती है , जबकि गरीब परिवारों के बच्चों की मुख्य जरूरतें रोटी, कपड़ा आदि भी ठीक ढंग से पूरी नहीं हो पाती।
10. बदहाली और गरीबी के सामाजिक और आर्थिक हालात के कारण बच्चों में अनेक रोग पैदा हो जाते हैं और कई बार तो मृत्यु तक हो जाती है।

7. स्कूल अवस्था 
यह आयु 6-12 साल की होती है । इस आयु में शारीरिक विकास तेजी से होता है ।
1 शारीरिक विकास ::(physical development )
* 6 से 12 वर्ष की आयु के मध्य बच्चे की लगभग 5 सेंटीमीटर तक वृद्धि होती है।
* 6 वर्ष की आयु में बच्चे का कद 115 सैं. मी.  और 12 वर्ष की आयु में 150 सैं.मी. तक हो जाता है ।
* प्रत्येक वर्ष बच्चे का भार 2-3 किलो ग्राम तक बढ़ता है। 6 वर्ष की आयु में भार लगभग 20 किलोग्राम और 12 वर्ष की आयु में 40 किलोग्राम तक बढ़ता है । 
* दूध के दांत धीरे धीरे टूटने लगते हैं और पक्के दांत आने शुरू हो जाते हैं।
* रात के समय बच्चा लगभग 10 से 12 घण्टे तक सोता है।
* लड़कों की अपेक्षा लड़कियों में वृद्धि जल्दी होती है।
स्रोत --बच्चे की स्वास्थय परिचर्चा --लोटस पब्लिशर्स 


Monday 11 June 2018

ब्लू बेबी सिंड्रोम

 1 -कृषि       
          कृषि  से उत्पादित नाइट्रोजन प्रदूषण बच्चों के लिए खतरनाक पीने के पानी में नाइट्रेट से छह महीने के तक बच्चों को ब्लू बेबी सिंड्रोम हो सकता है। इस बीमारी से ग्रसित बच्चों के खून में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है क्योंकि नाइट्रेट हीमोग्लोबिन के प्रभाव को बाधित कर देता है। हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन का वाहक है। इससे बच्चों को बार-बार डायरिया हो सकता है। यह श्वसन क्रिया को भी बाधित करता है। यह स्कूली बच्चों में उच्च रक्तचाप और ब्लड प्रेशर भी बढ़ा देता है।
2 -मवेशी
         मवेशी छोड़ते हैं अमोनिया और नाइट्रस ऑक्साइड मवेशी भारत में अमोनिया के सबसे बड़े उत्सर्जक हैं। कुल उत्सर्जन में मवेशियों का योगदान 79.7 प्रतिशत है। अमोनिया एरोसोल के जरिए वातावरण को प्रभावित करता है जो सांस संबंधी बीमारियों का कारक है। यह मिट्टी को अम्लीय बनाता है और उसकी उत्पादकता घटा देता है। मवेशी नाइट्रस ऑक्साइड का भी उत्सर्जन करते हैं जो वैश्विक जलवायु परिवर्तन में योगदान देता है। इसके कुल उत्सर्जन में मवेशी 70.4 प्रतिशत योगदान देते हैं। भारत में उत्तर प्रदेश सबसे ज्यादा अमोनिया (12.7 प्रतिशत) और नाइट्रस ऑक्साइड (13.1 प्रतिशत) छोड़ता है।
3 -वाहनों का योगदान
     सड़कों से नाइट्रोजन भारत में परिवहन क्षेत्र नाइट्रोजन ऑक्साइड का सबसे बड़ा उत्सर्जक है। ये भी सांस संबंधी बीमारियों के कारण हैं। 2007 में सड़क परिवहन से इसका 86.8 प्रतिशत उत्सर्जन हुआ है। सड़क पर चलने वाले वाहन ट्रक और लॉरी से सबसे ज्यादा 39 प्रतिशत नाइट्रोजन ऑक्साइड का उत्सर्जन होता है। भारतीय शहरों में चेन्नै सबसे ज्यादा नाइट्रोजन ऑक्साइड (353.67 मिलीग्राम प्रति वर्ग किलोमीटर) छोड़ता है। दूसरे नंबर पर बैंगलोर (323.75 मिलीग्राम प्रति वर्ग किलोमीटर) है। ये आंकड़े 2009 के हैं।

पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश

सीएसई और डाउन टू अर्थ का खुलासा : पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश गंभीर नाइट्रोजन प्रदूषण से जूझ रहे हैं

MARCH 08, 2018
  • पानी में नाइट्रोजन का स्तर विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से बहुत अधिक है
  • नाइट्रोजन प्रदूषण मिट्टी की गुणवत्ता खराब कर सकता है, पानी को प्रदूषित करता है, स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा कर सकता है और जलवायु परिवर्तन का भी कारण है |
8 मार्च 2018, अमृतसर: भारत में यूरिया जैसे नाइट्रोजन उर्वरकों को इस्तेमाल फसलों का उत्पादन बढ़ाने के लिए किया जाता है।  अब यह भूमि और जल प्रदूषण का कारक बन खतरनाक साबित हो रहे हैं। नई दिल्ली के प्रकाशित पर्यावरण और स्वास्थ्य आधारित पत्रिका डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसारए यह नाइट्रोजन प्रदूषण लोगों के स्वास्थ्य को खराब करने के साथ जलवायु परिवर्तन के लिए भी जिम्मेदार है। पत्रिका की यह रिपोर्ट 10 साल के अध्ययन का निचोड़ है। यह अध्ययन द इंडियन नाइट्रोजन असेसमेंट पुस्तक की शक्ल में प्रकाशित हुआ है। इसे इंडियन नाइट्रोजन ग्रुप ;आईएनजीद्ध में शामिल वैज्ञानिकों ने तैयार किया है। भारत में इस तरह का यह पहला अध्ययन है।
डाउन टू अर्थ के मैनेजिंग एडिटर रिचर्ड महापात्रा बताते हैं, “आईएनजी के अध्ययन के अनुसार, भारत में नाइट्रोजन प्रदूषण का मुख्य स्रोत कृषि है। चावल और गेहूं की फसल सबसे ज्यादा प्रदूषण फैला रही है।” पिछले पांच दशकों में हर भारतीय किसान ने औसतन 6,000 किलो से अधिक यूरिया का इस्तेमाल किया है। इस यूरिया का 33 प्रतिशत उपभोग चावल और गेहूं की फसलें करती हैं, शेष 67 प्रतिशत मिट्टी, पानी और पर्यावरण में पहुंचकर उसे नुकसान पहुंचाता है।
नाइट्रोजन प्रदूषण पर चर्चा करने के लिए आज सीएसई द्वारा मीडिया ब्रीफिंग और पब्लिक मीटिंग आयोजित की जा रही है। यह मीटिंग अमृतसर के खालसा कॉलेज परिसर में होगी। इसमें करीब 100 पत्रकार, छात्र, अकैडमिक और किसानों के प्रतिनिधि शिरकत करेंगे।
पिछले 60 सालों में यूरिया का इस्तेमाल कई गुणा बढ़ गया है। 1960-61 में देश में केवल 10 प्रतिशत नाइट्रोजन फर्टीलाइजरों का इस्तेमाल किया जाता था। 2015-16 में यह बढ़कर 82 प्रतिशत पर पहुंच गया है। डाउन टू अर्थ द्वारा लिए गए साक्षात्कार में एक किसान कहते हैं “इस वक्त हम अपने खेत में 200 किलो यूरिया डाल रहे हैं लेकिन फसल पिछले साल के मुकाबले बहुत कम है। यूरिया हमारी जिंदगी को बर्बाद कर रहा है।”
नाइट्रोजन प्रदूषण किस प्रकार मिट्टी की गुणवत्ता खराब रहा है? डाउन टू अर्थ की रिपोर्ट के अनुसार, मिट्टी में बहुत मात्रा में नाइट्रोजन के घुलने से उसका कार्बन कंटेंट कम हो जाता है और उसमें मौजूद पोषण तत्वों का संतुलन बिगड़ जाता है। नाइट्रोजन प्रदूषण पानी को भी प्रभावित करता है। पंजाब, उत्तर प्रदेश और हरियाणा के भूमिगत जल में नाइट्रेट की मौजूदगी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानकों से बहुत अधिक पाई गई है। हरियाणा में यह सर्वाधिक 99.5 एमजी प्रति लीटर है जो डब्ल्यूएचओ के मानक 50 एमजी प्रति लीटर से करीब दोगुना है।
महापात्रा के अनुसार, नाइट्रोजन प्रदूषण केवल पानी और मिट्टी तक ही सीमित नहीं है। नाइट्रस ऑक्साइड के रूप में यह ग्रीनहाउस गैस भी है जिसका जलवायु परिवर्तन में मुख्य योगदान है। भारत में उर्वरकों से नाइट्रस ऑक्साइड उत्सर्जित होता है। सीवर और ठोस कचरे से भी यह निकलता है। डाउन टू अर्थ में एक विशेषज्ञ के हवाले से कहा गया है कि नाइट्रस ऑक्साइड ग्रीन हाउस गैस के रूप में कार्बन डाई ऑक्साइड से 300 गुणा खतरनाक है।
आईएनजी के अध्यक्ष एन रघुराम ने साक्षात्कार में डाउन टू अर्थ को बताया है कि नाइट्रोजन प्रदूषण के खतरे को सीमित किया जा सकता है। खाद्य सुरक्षा और उर्वरकों के इस्तेमाल में संतुलन स्थापित किया जा सकता है। भारत में यूरिया के अत्यधिक इस्तेमाल पर रोक लगाने की दिशा में काम हो रहा है। जरूरी है कि नाइट्रोजन प्रदूषण के असंतुलित इस्तेमाल को रोका जाए और नाइट्रोजन के गैर कृषि स्रोतों पर लगाम लगाई जाए।  
अधिक जानकारी, साक्षात्कार आदि के लिए कृपया सी एस ई मीडिया रिसोर्स सेंटर की वृंदा नागर से  vrinda.nagar@cseindia.org से 9654106253 नंबर पर संपर्क करें।

Sunday 10 June 2018

उत्तर प्रदेश के छह शहर

उत्तर प्रदेश के छह शहर दुनिया के सबसे ज़्यादा प्रदूषित 20 शहरों में शामिल

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट में 20 सबसे प्रदूषित शहरों में अकेले भारत के 15 शहर शामिल हैं. उत्तर प्रदेश से कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, लखनऊ, आगरा और फिरोज़ाबाद को शामिल किया गया है.

लखनऊ:  दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों में देश के 15 शहर और उत्तर प्रदेश के छह शहर शामिल होने से खतरे की घंटी बज गई है.पर्यावरणविदों की चिन्ताएं बढ़ गयी हैं तो सरकार प्रदूषित शहरों में स्वच्छ हवा के लिए हर संभव उपाय करने का वायदा कर रही है.
दरअसल, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) की हाल की एक रिपोर्ट में दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में उत्तर प्रदेश के छह शहरों का नाम गिनाया गया है. कानपुर, इलाहाबाद, वाराणसी, लखनऊ, आगरा और फिरोज़ाबाद को दुनिया के 20 सबसे प्रदूषित शहरों की सूची में शामिल किया गया है. इस सूची में कानपुर दूसरे और लखनऊ 13वें स्थान पर है.
राज्य सरकार के एक प्रवक्ता ने कहा कि डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट का अध्ययन किया जाएगा. 2016 की रिपोर्ट के आधार पर कानपुर सबसे प्रदूषित शहर बताया गया है. उन्होंने कहा कि यह विश्लेषण किया जाएगा कि किस आधार पर उत्तर प्रदेश के छह शहर सूची में शामिल किए गए. साथ ही उन्होंने दावा किया कि इन प्रदूषित शहरों में हवा को स्वच्छ रखने के हरसंभव उपाय किए जाएंगे.
पर्यावरणविद् विमल किशोर ने कहा, ‘प्रदूषण के लिए सिर्फ सरकार या सरकार का एक विभाग जिम्मेदार नहीं होता. इसमें कई विभागों की सामूहिक जिम्मेदारी होती है और जनता की भी जिम्मेदारी है कि जिस हवा में वह सांस ले रही है, उसे स्वच्छ रखने के लिए क्या कुछ किया जाए.’
उन्होंने कहा कि 2013 में विश्व के सबसे प्रदूषित शहरों में चीन के शहर सबसे ऊपर थे, लेकिन पिछले सालों में चीन ने कार्ययोजना बनाई और समय सीमा तय करके वायु गुणवत्ता में बहुत हद तक सुधार कर लिया है. इसी तरह की कार्ययोजना यहां भी बनाने की जरूरत है.
किशोर ने कहा कि प्रदूषण की प्रमुख वजहें कूड़ा जलाना, डीजल-पेट्रोल आधारित परिवहन, कोयला आधारित उद्योग तथा बिजली घर, निर्माण सामग्री को बिना ढके भवन निर्माण, जाम की समस्या, शहर की ओर लोगों का पलायन आदि हैं.
उन्होंने सुधारात्मक उपाय सुझाते हुए कहा कि कचरे का वैज्ञानिक निस्तारण, स्वच्छ ऊर्जा का अधिकतम उपयोग, जीवाश्म ईंधन आधारित उद्योग धंधों को समयबद्ध तरीके से बंद करना, पब्लिक ट्रांसपोर्ट को बढ़ावा देना, जाम की समस्या से मुक्ति की योजना, निर्माण सामग्री को ढक कर भवन निर्माण कर प्रदूषण से काफी हद तक मुक्ति पाई जा सकती है.
ग्रीनपीस के सीनियर कैंपेनर सुनील दहिया ने बताया कि देश में वायु प्रदूषण की स्थिति बहुत खराब है. अगर सिर्फ 2016 के बाद आंकडों को देखा जाए तो कानपुर को इस सूची में दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बताया गया है. 20 सबसे प्रदूषित शहरों में अकेले भारत के 15 शहर शामिल हैं. इन 15 शहरों में भी सबसे ज्यादा उत्तर भारत खासकर उत्तरप्रदेश, दिल्ली और बिहार के शहर हैं. इससे पता चलता है कि अभी भारत को वायु प्रदूषण संकट से निपटने के लिए बहुत कुछ करना बाकी है.
उन्होंने कहा कि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2016 के लिए सिर्फ 32 भारतीय शहरों का आंकड़ा लिया है जबकि केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड मिलकर आज के समय में उत्तर प्रदेश के 24 शहरों में वायु निगरानी का डाटा एकत्रित करते हैं. अभी भी 51 जिलों में वायु गुणवत्ता को नापने के लिये कोई यंत्र नहीं लगाया जा सका है. ऐसे में अगर बाकी जिलों से भी वायु गुणवत्ता के डाटा को डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट में शामिल किया जाता तो उत्तर प्रदेश में प्रदूषित शहरों की संख्या और तस्वीर कहीं ज्यादा भयावह होगी.
क्लाइमेट एजेंडा की मुख्य अभियानकर्ता एकता शेखर का कहना है कि दुनिया भर में होने वाली 70 लाख मौतों में ज्यादातर मौतें देश के चुनिंदा शहरों में हो रही हैं. ऐसे में अब आपातकाल की स्थिति बन चुकी है. लंबे समय से देश में वायु गुणवत्ता निगरानी तंत्र को पारदर्शी बनाने राष्ट्रीय स्तर पर इस तंत्र का विस्तार किए जाने की मांग की जा रही 

हॉर्लिक्स

कुपोषण से लड़ने के हॉर्लिक्स के दावे का अमिताभ बच्चन द्वारा प्रचार आंख में धूल झोंकना है

बढ़ते कार्बन की मात्रा

वातावरण में स्थायी तौर पर बढ़ते कार्बन की मात्रा ख़तरनाक: वैज्ञानिक



ई-कचरा

ई-कचरा पैदा करने वाले दुनिया के पांच शीर्ष देशों में भारत: रिपोर्ट

उच्चस्तरीय समिति

ज़हरीली धुंध के कारण नागरिकों को मरने के लिए नहीं छोड़ सकतीं केंद्र और राज्य सरकारें: एनएचआरसी

फ्लोराइड का जहर बच्‍चों में विकलांगता

फ्लोराइड का जहर बच्‍चों में विकलांगता

वेब/संगठन: 
 chauthiduniya com
Author: 
 संध्या पांडेय
ग्राम बाकोड़ी में हैंडपंप से निकले पानी की किसी ने जांच नहीं की और भोलेभाले ग़रीब अनपढ़ लोग सरकार पर भरोसा करके सरकारी हैंडपंप का पानी पीते रहे। अब दो वर्ष बाद गांव वालों को सरकारी हैंडपंप से निकलने वाले पानी के दुष्प्रभाव का पता चला।मध्य प्रदेश। केंद्रीय उद्योग एवं वाणिज्य मंत्री कमलनाथ के संसदीय चुनाव क्षेत्र छिंदवाड़ा ज़िले में जुन्नारदेव विधानसभा क्षेत्र के ग्राम बाकोड़ी में सरकारी लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग ने पांच साल पहले गांव वालों को शुद्ध पेयजल उपलब्ध कराने के लिए कई हैंडपंप लगवाए थे, लेकिन इनसे फ्लोराइड युक्त पानी निकलने लगा। तब भी सरकारी अ़फसरों ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया।

लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के सूत्र बताते हैं कि नियम है कि धरती से जब पानी निकाला जाता है, तब उसकी जांच की जाती है और देखा जाता है कि पानी पीने योग्य है या नहीं। वहीं शायद ग्राम बाकोड़ी में हैंडपंप से निकले पानी की किसी ने जांच नहीं की और भोलेभाले ग़रीब अनपढ़ लोग सरकार पर भरोसा करके सरकारी हैंडपंप का पानी पीते रहे। अब दो वर्ष बाद गांव वालों को सरकारी हैंडपंप से निकलने वाले पानी के दुष्प्रभाव का पता चला, क्योंकि गांव में कई बच्चे और किशोर विकलांगता के शिकार हो चुके थे। दो वर्षों से लगातार इस पानी का उपयोग करने वालों के शरीर पर पानी का घातक प्रभाव आसानी से देखा जा सकता है। बच्चों के दांत ख़राब हो गए हैं और कई शारीरिक रूप से विकलांग हो गए। इन बच्चों के शरीर में एक तरह की ख़तरनाक बीमारी फैल गई, जिसकी वज़ह से गांव में आधे से अधिक बच्चों के हाथ-पैर में सूजन और टेढ़ापन आ गया है।

2 वर्ष बाद लोक स्वास्थ्य यांत्रिकी विभाग के अधिकारियों ने आनन-फानन में वहां के हैंडपंप को बंद करवा दिया। ग्रामीण सुकटो ने बताया कि बच्चे जन्म के समय स्वस्थ थे, मगर फ्लोराईड युक्त पानी के उपयोग से इन बच्चों में यह बीमारी उत्पन्न होने लगी है। कुछ समय पहले स्वास्थ्य विभाग द्वारा गांव में शिविर लगाया गया था। केवल खानापूर्ति के लिए कुछ दवाईयां बच्चों को दी गई। बच्चों को इलाज के लिए ज़िला चिकित्सालय में भी बुलाया गया, लेकिन रास्ता सही न होने की वज़ह से शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों के पालक, ज़िला चिकित्सालय नहीं पहुंच सके। बड़े दुर्भाग्य की बात है कि आज़ादी के 65 वर्ष पूर्ण होने के बावजूद ग्रामीण मूलभूत सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं।

7000 से ज़्यादा स्थानों पर पानी दूषित


मध्य प्रदेश में कुल सात हज़ार से ज़्यादा बस्तियों में पानी पीने योग्य नहीं है। कहीं पेयजल में फ्लोराइड है, तो कहीं नाइट्रेट की मात्रा ज़्यादा, तो कहीं-कहीं पानी ज़रूरत से ज़्यादा खारा है। कई ज़िलों में पेयजल स्त्रोतों में लौह तत्व और सीसा (लेड) भी घुलमिल गया है। इस कारण पानी पीने योग्य नहीं बचा है। सरकारी सूत्रों के अनुसार राज्य में कुल 1 लाख 27 हज़ार बस्तियों में से 26 ज़िलों की सात हज़ार 64 बसाहाटों के 11569 जल स्त्रोतों में फ्लोराइट की मात्रा ज़रूरत से ज़्यादा है। ऐसे घातक जल स्त्रोत मंडला, डिंडौरी, झाबुआ, शिवपुरी, सिवनी, छिंदवाड़ा, उज्जैन, भिंड, मंदसौर और नीमच में हैं। इन ज़िलों में जल स्त्रोतों में फ्लोराइड 5.56 प्रतिशत तक घुलमिल गया है। जबकि 1.5 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक फ्लोराइड शरीर के लिए घातक होता है। राज्य में 391 बस्तियों के 663 जलस्त्रोतों में नाइट्रेट ज़्यादा है। नाइट्रेट की मात्रा बढ़ने की वज़ह से भूमिगत चट्टानों, खेतों में रासायनिक उर्वरकों के बहाव और प्रदूषण आदि हैं। इससे बच्चों में कमज़ोरी और खून में नीलेपन की बीमारी होती है।

राज्य में कई स्थानों पर जल स्त्रोतों में सीसा (लेड) भी घातक मात्रा में है। इसके अलावा लौह तत्व भी सिवनी, रायसेन, राजगढ़, रतलाम, नीमच, छिंदवाड़ा, बालाघाट, उमरिया और सिवनी में 747 जल स्त्रोतों में ज़रूरत से ज़्यादा मात्रा में पाया गया है। राज्य के लगभग 600 गांव में भूमिगत जल स्त्रोतों में खारेपन की मात्रा ज़्यादा है। बताया जाता है कि केंद्र सरकार के राष्ट्रीय ग्रामीण मिशन कार्यक्रम के तहत ग्रामीण क्षेत्रों में जल आपूर्ति कार्यक्रम के अंतर्गत दूषित और घातक प्रभावित जलस्त्रोतों को बंद कर पानी के लिए वैकल्पिक प्रबंध करने हेतु भारत सरकार ने मध्य प्रदेश को लगभग 100 करोड़ रुपयों की सहायता दी है, लेकिन पता नहीं राज्य सरकार ने इस धनराशि का कहां और किस प्रकार उपयोग किया है।

45 हज़ार हैंडपंप सूख चुके हैं


गरमी के मौसम में पेयजल संकट फिर गरमाने लगा है। इस बीच प्रदेश के 10 फीसदी हैंडपंप सूखे पड़े हैं। प्रदेश में कुल 4,37,884 हैंडपंप हैं, इसमें से पीएचई और अन्य विभागों के चालू हैंडपंपों की संख्या 4,15,590 है। इसमें से 22,294 हैंडपंप ऐसे हैं जो बंद पड़े हैं। जल स्तर कम होने के कारण 13,093 हैंडपंप बंद हैं, 8,132 हैंडपंप ऐसे हैं, जिन्हें सुधारना अब संभव नहीं है। गुणवत्ता के कारण बंद कर दिए गए हैंडपंपों की संख्या 1,069 है।

पर्यावरण के दोहन की कीमत

पर्यावरण के दोहन की कीमत

Author: 
 रामचंद्र गुहा
Source: 
 अमर उजाला, 03 जून, 2018

भारत के पास आज आर्थिक विकास और पर्यावरणीय सन्तुलन को जोड़ने वाली नीतियाँ बनाने की क्षमता है। हमारे अनुसन्धान संस्थानों के पास ऐसे शानदार वैज्ञानिक हैं जोकि हमारी सरकारों (केन्द्र और राज्यों की) को औद्योगिक, कृषि, वन, जल, ऊर्जा, आवासीय और परिवहन सम्बन्धी नीतियाँ बनाने में मदद कर सकते हैं, जोकि हमारे दीर्घकालीन भविष्य को नुकसान पहुँचाए बिना हमारी वृद्धि को बढ़ा सकते हैं।
महात्मा गाँधी ने 1928 में ही उत्पादन और खपत के पश्चिमी तरीकों के कारण वैश्विक स्तर पर असन्तुलन की चेतावनी दी थी। उन्होंने टिप्पणी की, “ईश्वर नहीं चाहता कि भारत कभी पश्चिम की तरह औद्योगीकरण को अपनाये” और इसके साथ कहा, “एक छोटे से द्वीप साम्राज्य (इंग्लैंड) के आर्थिक साम्राज्यवाद ने आज दुनिया को जंजीरों से जकड़ रखा है। यदि तीस करोड़ के देश ने ऐसा आर्थिक शोषण किया, तो पूरी दुनिया टिड्डियों की तरह बेकार हो जाएगी।”

इस बयान का अहम हिस्सा है, पश्चिम की तरह। गाँधी जानते थे कि आजाद होने पर भारत को गरीबी को खत्म करने और अपने नागरिकों के सम्मानजनक जीवनयापन के लिये आर्थिक रूप से विकास करना ही होगा। लेकिन चूँकि उसके यहाँ पश्चिम की तुलना में आबादी का घनत्व अधिक है तथा नियंत्रण और शोषण करने के लिये उसके पास उपनिवेश नहीं हैं, भारत को अपने प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग के प्रति कहीं अधिक जिम्मेदारी दिखानी होगी, उसे पर्यावरण को कम-से-कम नुकसान पहुँचाना होगा, जिस पर कि हर तरह का जीवन विशेष रूप से मानव जीवन निर्भर है।

पर्यावरण पर गाँधी के विचारों को उनके अपने समय में समाजशास्त्री राधाकमल मुखर्जी और अर्थशास्त्री जे.सी. कुमारप्पा जैसे दूरदृष्टा विचारकों ने आगे बढ़ाया। हालांकि स्वतंत्र भारत की सरकारों ने उन्हें पूरी तरह से भुला दिया और अहंकार के साथ भारतीय सच्चाइयों से इतर संसाधन और ऊर्जा के सघन दोहन वाली नीतियों को अपनाया। इसने भारी मानव पीड़ा को जन्म दिया, जोकि संसाधनों पर कॉर्पोरेट के कब्जा कर लेने के कारण ग्रामीण और आदिवासी समुदायों की बेदखली या फिर प्रदूषण फैलाने वाली परियोजनाओं से हुए नुकसान के रूप में सामने आईं।

प्रकृति और मानवीय जीवन की इस बर्बादी के विरोध में चिपको और नर्मदा बचाओ जैसे लोकप्रिय आन्दोलन खड़े हुए और मछुआरों का आन्दोलन सामने आया। ‘गरीबों के इस पर्यावरवाद’ के कारण ही देर से ही सही 1980 में पर्यावरण मंत्रालय की स्थापना हुई और पारिस्थितिकी को निहित स्वार्थी तत्वों से हो रहे नुकसान को रोकने के लिये अनेक कानून बनाये गये।

हालांकि 1980 के दशक में पर्यावरण के मामले में जो उपलब्धियाँ हासिल की गई थीं, उन्हें हाल के दशकों में केन्द्र में रही यूपीए और एनडीए, दोनों सरकारों के साथ ही राज्य सरकारों ने गँवा दिया। कुछ इस गलत धारणा के कारण कि भारत जब तक अमीर नहीं हो जाता वह स्वच्छता को वहन नहीं कर सकता और कुछ राजनीतिक दलों के निजी कॉर्पोरेट के शरणागत होने के कारण, जिन्हें समाज के व्यापक हित के बजाय अपने तात्कालिक मुनाफे की फिक्र होती है। पर्यावरण की बर्बादी के इस ताजा युग ने नुकसान को बढ़ाया है, जैसा कि हमारे प्रदूषित शहरों, हमारी मर रही नदियों, हमारे सिकुड़ते जल-स्तर, हमारी प्रदूषित मिट्टी आदि से साफ है।

जॉन मेनार्ड कीन्स की लोकप्रिय टिप्पणी थी, “ऐसे व्यावहारिक व्यक्ति जो खुद को किसी भी बौद्धिक प्रभाव से मुक्त मानते हैं, आमतौर पर किन्हीं मृत या निष्क्रिय अर्थशास्त्री के गुलाम हैं।” यह बात आज भारत के सारे राजनेताओं के बारे में सही है। वे 1950 के दशक के अर्थशास्त्रियों के गुलाम हैं, जोकि यह मानते थे कि गरीब देशों को पर्यावरण के क्षरण को लेकर अमीर देशों की तुलना में कम चिन्तित होना चाहिए।

दूसरी ओर 21वीं सदी के अर्थशास्त्रियों ने निर्णायक रूप से दिखाया कि भारत जैसे देश को अमेरिका की तुलना में पर्यावरण के लिहाज से कहीं अधिक जवाबदेह होना चाहिए। इसके तीन कारण हैं- क्योंकि हमारी आबादी का घनत्व काफी अधिक है, क्योंकि उष्ण कटिबन्धीय पारिस्थितिकी तंत्र समशीतोष्ण की तुलना में कम लचीला है और इसलिये क्योंकि प्रदूषण, जंगलों की कटाई, मिट्टी के क्षरण आदि की अनुपातहीन कीमत गरीबों को चुकानी पड़ती है।

भारत में हमारे शासन नासमझी तो दिखाते ही हैं, वे विद्वेष भी रखते हैं और अपने पसन्दीदा और कॉर्पोरेट मित्रों के लालच के आगे आम आदमी के हितों को त्यागने के लिये तैयार रहते हैं। पुराने पड़ चुके अर्थशास्त्रियों और प्रेस के कॉर्पोरेट समर्थकों से दिगभ्रमित भारतीय मीडिया यह मानने लगा कि पर्यावरण सन्तुलन ऐसी विलासिता है, जिसे हम वहन नहीं कर सकते।

लेकिन हाल के वर्षों में इस पर सवाल उठे हैं, क्योंकि पर्यावरण के दोहन से हो रहा नुकसान स्पष्ट रूप से हमारे सामने है और इससे पीड़ित लोगों ने इसका विरोध शुरू कर दिया है। अकादमिक अध्ययनों ने दिखाया है कि भारतीय शहरों में प्रदूषण की दर दुनिया में सर्वाधिक है। इस बीच, गरीबों का पर्यावरणवाद फिर से उभरता दिख रहा है, आदिवासियों (और अन्य समूहों) को खुली खदानों से बेदखल किया जा रहा है और औद्योगिक प्रदूषण के कारण किसानों का जीवन-यापन खतरे में है।

हाल ही में तूतीकोरिन में हुए प्रदर्शन के पीछे पर्यावरण के दोहन से पीड़ित कामकाजी वर्ग था। इसका अन्त जिस त्रासदी से हुआ उससे तो पर्यावरण के प्रति जागरुकता की शुरुआत होनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा लगता है कि हमारे नीति नियंता और उन्हें संचालित करने वाले सबक सीखने को तैयार नहीं हैं।

इस मुद्दे पर जहाँ वाकई कुछ अच्छी मैदानी रिपोर्टिंग की गई, लेकिन जमीनी हकीकत से अनभिज्ञ सम्पादकीय लेखक चाहते थे कि स्टरलाइट और उसके अपराधों को बख्श दिया जाये। ऐसे समर्थकों ने दावे किये (अपर्याप्त साक्ष्यों के साथ) कि प्रदर्शन हिंसक था और विदेश से प्रेरित था, जबकि बड़े कॉर्पोरेट पर पर्यावरणीय जिम्मेदारी (अपर्याप्त साक्ष्यों के साथ) सौंपना आर्थिक बर्बादी लाएगा।

भारत के पास आज आर्थिक विकास और पर्यावरणीय सन्तुलन को जोड़ने वाली नीतियाँ बनाने की क्षमता है। हमारे अनुसन्धान संस्थानों के पास ऐसे शानदार वैज्ञानिक हैं जोकि हमारी सरकारों (केन्द्र और राज्यों की) को औद्योगिक, कृषि, वन, जल, ऊर्जा, आवासीय और परिवहन सम्बन्धी नीतियाँ बनाने में मदद कर सकते हैं, जोकि हमारे दीर्घकालीन भविष्य को नुकसान पहुँचाए बिना हमारी वृद्धि को बढ़ाएँ।

यह दुखद है कि हमारे पास ऐसे राजनीतिज्ञ नहीं है, जो इन विशेषज्ञों को सुनना चाहें। तूतीकोरिन में राज्य द्वारा की गई नागरिकों की हत्या, एक पारदर्शी और जवाबदेह लोकतंत्र में चेतावनी होनी चाहिए। लेकिन मुझे भय है कि हमारी दोषपूर्ण राजनीतिक व्यवस्था में इसे जल्द ही भुला दिया जाएगा, खासकर इसलिये क्योंकि आम चुनाव नजदीक हैं और राजनीतिक दलों को अपने खजाने भरने हैं।

(रामचंद्र गुहा कई किताबों के लेखक हैं, जिनमें एनवायरनमेंटलिज्म : ए ग्लोबल हिस्ट्री भी शामिल है।)

प्लास्टिक है खतरनाक, रहिए सावधान

प्लास्टिक है खतरनाक, रहिए सावधान

पानीपत का पानी

पानीपत का पानी

नवभारत टाइम्स / नई दिल्ली : क्या आप सोच सकते हैं कि कोई शहर अपने नाले का पानी छोड़े और दिल्ली जैसे शहर में पीने के पानी की सप्लाई रोकनी पड़े। ताजा वाकया यह है कि पानीपत के रंगाई, चमड़ा आदि के उद्योंगो द्वारा रासायनिक प्रदूषित पानी उनके अपने नालों में भारी मात्रा जमा था, वह अचानक यमुना में छोड़ दिया गया। दिल्ली के ज्यादातर नलों में यमुना के पानी को ट्रीट करके सप्लाई किया जाता है। वजीराबाद और चंद्रावल में जल शोधक संयंत्र लगाए गए हैं, लेकिन इसकी वजह से यमुना के पानी में अमोनिया की मात्रा इतना ज्यादा हो गई कि उसे निथारा जाना असंभव हो गया और दिल्ली के एक तिहाई शहर की सप्लाई तीन दिन के लिए बंद रही।

यमुना में बढ़े आमोनिया के प्रदूषण के कारण 27 दिसम्बर सुबह भी करीब एक तिहाई दिल्ली में नलों की टोंटियां सूखी रहीं। शाम में पांच फीसदी तक सप्लाई शुरू हो पाई। उधर, हरियाणा की फैक्ट्रियों का प्रदूषण बार-बार यमुना में बहाए जाने के खिलाफ दिल्ली जल बोर्ड सेंट्रल पलूशन कंट्रोल बोर्ड और हरियाणा के पलूशन कंट्रोल बोर्ड से कड़ी कार्रवाई के लिए शिकायत करेगा।

सोनीपत और पानीपत की फैक्ट्रियों का प्रदूषक कचरा यमुना में बहाए जाने से दिल्ली के वजीराबाद बैराज में अमोनिया की मात्रा बढ़ कर 1.5 पीपीएम तक पहुंच गई, जबकि पीने के पानी में अमोनिया बिल्कुल नहीं होना चाहिए। अमोनिया की इतनी मात्रा बढ़ने के कारण 120 एमजीडी के वजीराबाद और 95 एमजीडी क्षमता के चंद्रावल वॉटर ट्रीटमेंट प्लांटों को पूरी तरह बंद करना पड़ा। बराज का गेट उठाकर अमोनिया युक्त सारा पानी निकाला गया। इसके बाद ही शुक्रवार सुबह से पानी का प्रॉडक्शन शुरू किया गया।

प्लांट पूरी तरह ठप होने के कारण उत्तरी दिल्ली, पुरानी दिल्ली, एनडीएमसी, दिल्ली कैंट व साउथ वेस्ट दिल्ली के इलाकों में पानी की सप्लाई करने वाले भूमिगत जलाशयों में रिजर्व रहने वाला पानी तक खत्म हो गया। लिहाजा शुक्रवार की सुबह प्लांट शुरू होने के बाद पहले भूमिगत जलाशयों में पानी भरा गया। उसके बाद शाम से पानी सप्लाई शुरू की गई। पूरा उत्पादन होने के बावजूद 27 दिसम्बर की शाम सिर्फ 50 फीसदी एरिया में ही पानी की सप्लाई की जा सकी। जल बोर्ड के अधिकारियों के मुताबिक, 28 दिसम्बर सुबह तक सप्लाई पूरी तरह नॉर्मल हो जाएगी।

जल बोर्ड के अधिकारियों के मुताबिक पिछले साल नवंबर में भी ऐसे हालात पैदा हुए थे। इससे पहले भी कई बार अमोनिया बढ़ने के कारण प्लांटों को बंद करना पड़ा था। जल बोर्ड बार-बार की इन घटनाओं को रोकने के लिए सोमवार को सेंट्रल पलूशन कंट्रोल बोर्ड और हरियाणा पलूशन कंट्रोल बोर्ड को फैक्ट्रियों के खिलाफ कार्रवाई के लिए पत्र लिखेगा। जानकारी के मुताबिक, फैक्ट्रियों का प्रदूषण फैलाने वाला कचरा ड्रेन नंबर-8 में जाता है, लेकिन ड्रेन में काफी मात्रा में सिल्ट जमा होने के कारण यह गंदगी यमुना में बहा दी गई। ड्रेन की सिल्ट निकाल दी गई है। अब फैक्ट्रियों का कचरा ड्रेन में डाला जाना शुरू हो गया है।

साभार - नवभारत टाइम्स 

पर्यावरण : स्वास्थ्य का एक प्रमुख निर्धारक

भारत के 20 राज्यों के लगभग 6 करोड़ लोग फ्लोराइड सन्दूषण के कारण दन्त फ्लोरोसिस, कंकाली फ्लोरोसिस जैसी गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। घुटनों के लड़ने और उनके मुड़ने के कारण विकलांगता के साथ-साथ आर्थिक कठिनाई जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती है। पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा की अधिकता से अस्थि विकास के लिये जरूरी कैल्शियम का अवशोषण बन्द हो जाता है और इसी कारण अस्थि में विरूपता उत्पन्न हो जाती है।
प्रायः रोग की उत्पत्ति पर्यावरण, रोगजनक कारक और होस्ट (परपोषी) से जुड़े कारकों की पारस्परिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप होती है। पर्यावरण को व्यक्ति के परिवेश के भौतिक, रासायनिक और जैविक कारकों के साथ-साथ सभी सम्बद्ध व्यवहारों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। पर्यावरण में उपस्थिति इन कारकों के प्रभाव से मानव स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। चूँकि, इनमें से अधिकांश कारक मानव निर्मित हैं, अतः पर्यावरण को बचाना न केवल मानव हित में है बल्कि स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी यह एक उत्तम निवेश है।
इस आलेख में पर्यावरण से जुड़े सामान्य खतरे वाले कारकों का वर्णन है जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

पर्यावरण : स्वास्थ्य का एक प्रमुख निर्धारक


प्रत्येक वर्ष 1.3 करोड़ मौतें या दुनिया में होने वाली कुल लगभग एक चौथाई मौतें पर्यावरणी कारणों से होती हैं जिनमें मुख्यतया पानी, स्वच्छता एवं हाइजीन; घरेलू एवं बाह्य प्रदूषण; पेस्टीसाइड्स जैसे रसायनों का हानिकर प्रयोग और जलवायु परिवर्तन जैसी स्थितियाँ सम्मिलित हैं। ये सभी ऐसे खतरे हैं जिन्हें रोका जा सकता है अथवा उनसे बचा जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 80 प्रतिशत से अधिक रोगों में इनकी कुछ-न-कुछ भूमिका रही है। विशेषतया निर्धन परिवार के बच्चे इन रोगों के कारण रोगों और मौतों के प्रति अत्यन्त संवेदनशील होते हैं। हालांकि, सरल और सस्ते उपाय उपलब्ध हैं जिन्हें यदि शुरुआत में ही और प्रभावी ढंग से लागू किया जाये तो इनमें से अधिकांश मौतें रोकी जा सकती हैं।

पर्यावरण में आये बदलाव के कारण भी गम्भीर स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। मार्च 2011 में जापान के फुकुशिमा डाइची में आये भूकम्प के बाद आई सुनामी मानव इतिहास में सबसे बड़ी परमाणु और पर्यावरणी आपदाओं में से एक है। वर्ष 2010 में पाकिस्तान में आई बाढ़ में 1500 से अधिक मौतें हुईं। वर्ष 2010-11 के दौरान भारत में लद्दाख के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न एवं ब्राजील के रियो-डि-जेनेरो नामक शहरों में आई अप्रत्याशित बाढ़ में भी भारी मौतें हुई थीं। भारत के विभिन्न भागों में आर्सेनिक एवं फ्लोराइड से सन्दूषित भूजल से जुड़ी चिरकालिक स्वास्थ्य समस्याएँ पर्यावरणी कारकों का उदाहरण हैं। भूमण्डलीकरण, तीव्र औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास, परिवहन में वृद्धि, कृषि में कीटनाशक दवाइयों पर अतिनिर्भरता और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं पर तत्काल कार्यवाही नहीं की गई तो भविष्य में स्थिति और भी गम्भीर होने की सम्भावना है।

पर्यावरणी खतरों से उत्पन्न संचारी और असंचारी रोग


विश्व में स्वस्थ जीवन वर्षों की क्षति के सन्दर्भ में 24 प्रतिशत भार और कुल 23 प्रतिशत मौतों के पीछे पर्यावरणी कारकों का हाथ पाया गया है। जहाँ पर्यावरणी कारकों द्वारा विकासशील देशों में कुल 25 प्रतिशत मौतें होती हैं वहीं विकसित देशों में कुल 17 प्रतिशत मौतों के पीछे ऐसे कारकों का हाथ पाया गया है। इससे बच्चे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। पन्द्रह वर्ष से कम आयु के बच्चों में होने वाली लगभग 24 प्रतिशत मौतें अतिसारीय रोगों, मलेरिया और श्वसनी रोगों के कारण होती हैं जो सभी पर्यावरण से सम्बद्ध हैं।

अधिकांश रोगों के पीछे विशिष्ट खतरे वाले कारकों का हाथ होता है (सारणी)। इनमें असुरक्षित पेयजल एवं स्वच्छता, रसोई में प्रयुक्त ईंधन से उत्पन्न धुएँ से प्रभावित होने, बाहरी वायु प्रदूषण, आर्सेनिक जैसे रसायनों से प्रभावित होने और जलवायु परिवर्तन जैसी स्थितियाँ सम्मिलित हैं। केवल भारत में लगभग 45 हजार मौतें असुरक्षित पेयजल, स्वच्छता और अपर्याप्त सफाई के कारण होती हैं।

हालांकि, पेयजल की उपलब्धता से काफी प्रगति हुई है परन्तु एशिया के अधिकांश देशों में स्वच्छता की स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। वर्तमान में, 25 लाख लोग स्वच्छता सुविधाओं से वंचित हैं, भारत की लगभग 6.29 करोड़ आबादी को स्वच्छता सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। यूनिसेफ के अनुसार, भारत की लगभग 67 प्रतिशत ग्रामीण आबादी अभी भी खुले में शौच करती है। वर्ष 2010 के दौरान दक्षिण-पूर्व एशिया के बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और भारत जैसे देशों में क्रमशः 44, 56, 8 और 66 प्रतिशत आबादी स्वच्छता सुविधा से वंचित पाई गई थी। इस स्थिति को देखते हुए सम्भवतः वर्ष 2015 तक जल और स्वच्छता के सम्बन्ध में सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य (एम डी जी)-7 की प्राप्ति नहीं की जा सकेगी।

अतिसारीय रोग के लगभग 94 प्रतिशत मामलों के पीछे असुरक्षित पेयजल और स्वच्छता का हाथ होता है। सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता सुविधाओं को प्राथमिकता प्रदान कर रोग भार कम किया जा सकता है जो व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय प्रगति में सहायक होगा। दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र के देशों में भारत की तुलना में केवल नेपाल में ऐसी आबादी का अनुपात अधिक (60 प्रतिशत) है जिसे स्वच्छता सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है।

घरेलू और बाहरी प्रदूषण से मानव स्वास्थ्य गम्भीर रूप से प्रभावित होता है। प्रत्येक वर्ष लोवर श्वसनी पथ संक्रमणों अथवा न्युमोनिया के लगभग 42 प्रतिशत मामलों के पीछे घरेलू और बाह्य प्रदूषण का हाथ होता है। घरों में लकड़ी जैसे ईंधन के जलाने से उत्पन्न प्रदूषण (सस्पेंडेड पार्टिकुलेट मैटर) से लम्बी अवधि तक प्रभावित होने पर विशेषतया बच्चों में न्युमोनिया, दमा, चिरकारी अवरोधी फुफ्फुस रोग (सी ओ पी डी) जैसे प्रमुख श्वसनी रोग उत्पन्न होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में प्रत्येक वर्ष लगभग 8 लाख मौतें बाहरी वायु प्रदूषण के कारण होती हैं। उनमें 60 प्रतिशत मौतें एशिया में होती हैं जो मुख्यतया घरेलू ईंधन, डीजल चालित वाहनों, उद्योगों और सभी प्रकार के कचरे को जलाने जैसे कारकों के साथ-साथ धूम्रपान से उत्पन्न अरक्तताजन्य हृदय रोग, तीव्र श्वसनी संक्रमणों, दमा और फेफड़े के कैंसर की चपेट में आने के कारण होती हैं।

आर्थिक विकास के कारण हुए पर्यावरणी परिवर्तनों का स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। एशिया और अफ्रीका में मलेरिया के लगभग 42 प्रतिशत मामले भूप्रयोग, निर्वनीकरण और जल संसाधन प्रबन्धन जैसे पर्यावरणी कारकों के कारण होते हैं। इसी प्रकार, धान की कृषि, सूकर पालन, रोगवाहकों का प्रजनन और असुरक्षित पेयजल के प्रयोग जैसी स्थितियाँ तीव्र मस्तिष्कशोथ सिण्ड्रोम के संचरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। केवल वर्ष 2011 में ही भारत में इसके 6800 मामले प्रकाश में आये और 820 मौतें हुईं, जिनमें अधिकांशतः 15 वर्ष से कम आयु के बच्चे थे। यह स्थिति मुख्यतया उत्तर प्रदेश में देखी गई। चीन और इंडोनेशिया सहित अधिकांश देशों में डेंगू की महामारी और सिस्टोसोमिएसिस के संचरण में मुख्यतया पर्यावरणी कारक जिम्मेदार होते हैं।

विश्व भर में होने वाली मौतों के पीछे प्रमुख कारणों में कैंसर का द्वितीय स्थान है। कैंसर से होने वाली कुल दो तिहाई से अधिक मौतें विकासशील देशों में होती हैं। प्रतिवर्ष इसके 12.7 मिलियन मामलों में अनुमानतः 19 प्रतिशत मामलों के पीछे पर्यावरणी कारकों का हाथ होता है। फेफड़े के कैंसर में होने वाली कुल 71 प्रतिशत मौतों में धूम्रपान का हाथ पाया गया है। हेलिकोबैक्टर पाइलोरी के संक्रमण से होने वाला पेट का कैंसर द्वितीय अति सामान्य कैंसर है जो अपर्याप्त स्वच्छता और भीड़ युक्त आवास जैसी स्थितियों से सम्बद्ध है। हाल के दिनों में पंजाब के कृषि क्षेत्र में कैंसर की बढ़ती घटनाएँ प्रकाश में आई हैं जिसके पीछे पर्यावरणी कारकों की सम्बद्धता का संकेत मिलता है, जैसे कि पेस्टीसाइड्स का प्रयोग, जो पानी और मिट्टी दोनों में पाया गया है।

घरों के भीतर ठोस ईंधन जलाने से उत्पन्न धुएँ अथवा तम्बाकू के धूम्रपान से प्रभावित होने पर विशेषतया सर्दी के मौसम में दमा की शुरुआत हो जाती है। भारत के कई शहरों में इसके परिणामस्वरूप दमा की चपेट में आये बच्चों की संख्या काफी बढ़ी है। नई दिल्ली में सम्पन्न एक अध्ययन में दमा और चिरकारी अवरोधी फुफ्फुस रोग (COPD) के कारण अस्पताल के आपातकालीन विभाग में आने वाले व्यक्तियों की संख्या में क्रमशः 21 और 24 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई जो उच्च स्तर के घरेलू वायु प्रदूषण के कारण प्रभावित हुए थे। COPD के कारण होने वाली एक तिहाई से अधिक मौतें पर्यावरणी कारणों से जुड़ी होती हैं।

पर्यावरण से सम्बद्ध स्वास्थ्य समस्याएँ


आज भारत के 30 प्रतिशत शहरी और 90 प्रतिशत ग्रामीण घरों में पेयजल के रूप में गैर-शोधित अथवा भूजल का प्रयोग किया जाता है, जिनका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भूजल से प्राप्त पेयजल के फ्लोराइड और आर्सेनिक से सन्दूषित होने के कारण गम्भीर स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

भारत के 20 राज्यों के लगभग 6 करोड़ लोग फ्लोराइड सन्दूषण (1.5 मिग्रा/ली. से अधिक) के कारण दन्त फ्लोरोसिस, कंकाली फ्लोरोसिस जैसी गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। घुटनों के लड़ने और उनके मुड़ने के कारण विकलांगता के साथ-साथ आर्थिक कठिनाई जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती है। पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा की अधिकता से अस्थि विकास के लिये जरूरी कैल्शियम का अवशोषण बन्द हो जाता है और इसी कारण अस्थि में विरूपता उत्पन्न हो जाती है। हालांकि, शोधित पेयजल के प्रयोग से इन स्थितियों से बचा जा सकता है।

भूजल में आर्सेनिक की उच्च उपस्थिति पश्चिम बंगाल में एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या के रूप में पाई गई है, जहाँ की लगभग 5 करोड़ आबादी इससे प्रभावित है। बांग्लादेश में आर्सेनिक समस्या को एक आपातकालीन स्वास्थ्य समस्या का दर्जा दिया गया है। जहाँ 64 जिलों के 59 जिलों और 463 उपजिलों के 249 उपजिलों में आर्सेनिक सन्दूषण की पहचान की गई है। बांग्लादेश के 60 से 80 लाख ट्यूबवेल्स में अनुमानतः एक चौथाई ट्यूबवेल्स में आर्सेनिक का स्तर राष्ट्रीय मानक 50 ppb अथवा 0.05 मिग्रा/ली. से अधिक पाया गया है। अनुमानतः 3 से 4 करोड़ लोग पेयजल में आर्सेनिक की उपस्थिति के कारण सम्भावित खतरे की श्रेणी में हैं। एक लम्बी अवधि तक कम मात्रा में भी आर्सेनिक से प्रभावित होने पर हाइपरकेरैटोसिस जैसे त्वचा रोगों और कैंसर के कारण मौत जैसी स्थितियाँ देखी गई हैं। अध्ययनों में पता चला है कि आर्सेनिक के प्रभाव में मधुमेह भी उत्पन्न हो सकता है। आर्सेनिक रहित पेयजल की व्यवस्था से ही इस जनस्वास्थ्य समस्या से बचा जा सकता है।

इसके अतिरिक्त, पर्यावरणी स्थितियाँ दक्षिण एशिया में बाढ़ और भूकम्प जैसी आपदाएँ उत्पन्न करती हैं जो कष्ट के साथ-साथ आर्थिक क्षति का कारण बनती हैं। जलवायु परिवर्तन से स्थिति और खराब होने की सम्भावना है और विकासशील देशों विशेषतया एशिया और अफ्रीका की निर्धन आबादी के स्वास्थ्य पर सम्भवतः गम्भीर प्रभाव पड़ेगा। इससे रोगवाहक जन्य और जलजन्य रोगों, लू लगने, दमा, हृदय वाहिकीय रोगों में वृद्धि होने के साथ-साथ अधिक बाढ़ और सूखा स्थितियों के कारण खाद्य सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाएगा। जहाँ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी है वहीं निगरानी और कार्य क्षमता को सुदृढ़ बनाते हुए तत्काल कार्यवाही आवश्यक है जिससे देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव से निपटने में सक्षम बनाया जा सके।

स्वास्थ्य पर पर्यावरण के प्रभाव का मूल्यांकन : नीति और कार्यक्रम विकास के लिये आवश्यक


मानव स्वास्थ्य पर पर्यावरणी कारकों के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक कारकों, मौजूदा प्रथाओं और रिवाजों, कार्यक्रमों एवं नीतियों की उपस्थिति तथा प्रभावित समुदायों में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता एवं उनके प्रयोग जैसी स्थितियों का भी प्रभाव पड़ता है। राष्ट्रीय स्तर पर इस सूचना की कमी सहायता प्रदान करने में एक प्रमुख बाधा है। इस सूचना अन्तराल को मिटाने के लिये स्वास्थ्य पर पर्यावरण के प्रभाव के मूल्यांकन से नीतियों, कार्यक्रमों अथवा विकास सम्बन्धी गतिविधियों की पहचान करने में मदद मिल सकती है। इस तरह के मूल्यांकन से भवन निर्माण, परिवहन, गृह प्रबन्धन, ऊर्जा, उद्योग, शहरीकरण, जल, पोषण आदि जैसी गतिविधियों से सम्बन्धित स्वास्थ्य समस्याओं के लिये जिम्मेदार कारकों की भी पहचान की जा सकती है। इस प्रकार की सूचना विभिन्न परियोजनाओं के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को ज्ञात करने, नवीन योजनाओं के नियोजन एवं कार्यान्वयन के समय स्वास्थ्य को ध्यान में रखने और अन्ततः नवीन परियोजनाओं अथवा विकास सम्बन्धी गतिविधियों के दौरान स्थानीय आबादी के स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने में भी सहायक हो सकती है।

स्वस्थ पर्यावरण के माध्यम से स्वास्थ्य का संरक्षण एवं रोग का निवारण


यह स्पष्ट है कि पर्यावरणी कारकों से निरन्तर भावी प्रभाव पड़ेंगे और वस्तुतः इस स्थिति के और खराब होने की सम्भावना है। पर्यावरणी कारकों से उत्पन्न स्वास्थ्य समस्याओं में कमी लाने तथा स्वास्थ्य एवं पर्यावरण की चुनौतियों का सामना करने में सहायक कुछ नवीन नीतिगत प्रयास निम्न हैं:

(i) कार्यवाही हेतु एक प्रमाण-आधार विकसित करना : फिलहाल, देशों में पर्यावरण के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों, रोग संचरण के मार्गों और सम्भावित खतरे सहित आबादी पर जानकारी की कमी है। जल, वायु, आहार और जलवायु के सम्बन्ध में स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर अधिक विस्तृत एवं सुस्पष्ट आँकड़ों की आवश्यकता है जो उपयुक्त राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियों के विकास और प्राथमिकता निर्धारण में सहायक हो सकते हैं। पर्यावरणी कारकों तथा आर्थिक विकास एवं लोगों के दैनिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने के लिये अधिक केन्द्रित अध्ययनों की आवश्यकता है। स्वास्थ्य और पर्यावरण पर एक राष्ट्रीय डाटाबेस के उपलब्ध होने से पर्यावरणी खतरे वाले कारकों से जुड़े विभिन्न रोगों की उपस्थिति और प्रवृत्ति के बीच सम्बन्ध स्थापित करने, अधिक खतरे की सम्भावना वाले क्षेत्रों की पहचान करने तथा पर्यावरणी एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी इंटरवेंशन कार्यक्रमों की अधिकतम आवश्यकता सहित आबादी की पहचान करने में सहायता मिलेगी।

पर्यावरण और स्वास्थ्य पर सूचना एकत्र करने और उसके आदान-प्रदान करने की एक प्रक्रिया उपयोगी हो सकेगी। इस दिशा में भारत में कुछ महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं जो इस प्रकार हैं- सड़क निर्माण कार्य में प्लास्टिक का प्रयोग, मनाली में वाहनों के प्रवेश पर ‘ग्रीन-टैक्स’ की वसूली जिसका प्रयोग हिमाचल प्रदेश में पर्यावरण संरक्षण में किया जाता है, उत्तराखण्ड में आबादी को गैस सिलेण्डर उपलब्ध कराना जिसमें ईंधन के रूप में जलावन लकड़ी की कटाई रुके और साथ ही वनीय संरक्षण हो सके, गुजरात में सौर-ऊर्जा (सोलर एनर्जी) का विस्तार, हरियाणा जैसे राज्यों में पूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम, कम लागत के शौच घरों के निर्माण में सुलभ का अनुभव, मध्य प्रदेश तथा देश के 7 अन्य राज्यों में गुटका और पान मसाला के प्रयोग पर प्रतिबन्ध, नेपाल में पारिस्थितिकीय अनुकूल शौच घरों का निर्माण आदि। इन सभी गतिविधियों से सम्बन्धित सूचना के आदान-प्रदान से और उसके कार्यान्वयन से देश का एक बड़ा हिस्सा पर्यावरणी खतरों से उत्पन्न होने वाली स्थितियों से बच सकता है।

(ii) राष्ट्रीय पर्यावरणी स्वास्थ्य नीति, योजना और मूलभूत ढाँचे को सुदृढ़ बनाना : स्वास्थ्य और पर्यावरण से सम्बन्धित समस्याएँ दूर करने के लिये एक राष्ट्रीय पर्यावरण और स्वास्थ्य कार्य योजना (नेशनल एनवायरनमेंट एंड हेल्थ एक्शन प्लान, NEHAP) के माध्यम से एक व्यापक एवं अन्तर्क्षेत्रीय प्रयास की आवश्यकता है। स्वास्थ्य पर पर्यावरण के प्रभाव के मूल्यांकन से प्राप्त आँकड़ों से पर्यावरण, स्वास्थ्य एवं अन्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों से बने एक कार्यकारी द्वारा प्राथमिकताओं की पहचान की जा सकती है जिसे बाद में स्वास्थ्य और पर्यावरण मंत्रालयों द्वारा अपनाया जा सकता है। यदि गम्भीरता के साथ यह योजना लागू की जाये तो पर्यावरण सम्बद्ध स्वास्थ्य समस्याओं को कम करने में लम्बी अवधि तथा प्रभावी हो सकती है। पर्यावरण और स्वास्थ्य पर एक राष्ट्रीय सलाहकार दल द्वारा समय-समय पर इस योजना के कार्यान्वयन पर निगरानी रखी जा सकती है।

राष्ट्रीय और स्थानीय सरकारों के मूल-भूत ढाँचे को सुदृढ़ करने की दिशा में गम्भीरता के साथ और तत्काल कार्यवाही की जानी चाहिए। जिनकी जिम्मेदारियों में सम्मिलित हैं- सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति, मलजल शोधन प्रणाली की व्यवस्था, मोटर वाहनों के लिये प्रदूषण-रहित ईंधन, स्वच्छ धूम्ररहित चूल्हे, बायोगैस और ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन आदि की व्यवस्था करना। यदि सामान्य आबादी द्वारा इस प्रकार की सेवाओं के लिये उपयुक्त संसाधनों की माँग की जाती है तो नीति-निर्माताओं के लिये एक प्राथमिकता होनी चाहिए।

(iii) सतत अन्तर्क्षेत्रीय समन्वयन और भागीदारी : पर्यावरण से जुड़े अधिकांश खतरे वाले कारक स्वास्थ्य क्षेत्र से परे होते हैं। इसलिये मानव स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने में पर्यावरण, कृषि, परिवहन, ऊर्जा, शहरी विकास, जल संसाधन एवं ग्रामीण विकास मंत्रालयों के साथ-साथ निजी क्षेत्रों द्वारा समन्वित कार्यवाही की जानी चाहिए। वर्तमान में अधिकांश देशों में इन क्षेत्रों के बीच प्रभावी समन्वयन की कमी है।

उच्चतम स्तर की सरकारी अध्यक्षता में विभिन्न प्रासंगिक सरकारी मंत्रालयों, गैर सरकारी संगठनों, निजी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को सम्मिलित करते हुए एक उच्च स्तरीय राष्ट्रीय संचालन समिति की नियमित अन्तराल पर सम्पन्न बैठकों के परिणामस्वरूप NEHAP के कार्यान्वयन के लिये सभी क्षेत्रों को गतिशील बनाया जा सकता है।

(iv) सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ाना : पर्यावरण को बचाना प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है। पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखने तथा भावी पीढ़ियों के लिये मीठे जल के स्रोतों को सुरक्षित रखने, उत्तम स्वच्छता व्यवहार और व्यक्तिगत स्वच्छता अपनाने तथा पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाले कार्यों को निरुत्साहित करने के लिये जनसामान्य की सहायता प्राप्त करना आवश्यक है। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में जनसामान्य में जागरुकता उत्पन्न करने में मीडिया और समुदाय-आधारित संगठनों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

खुले में शौच करने, सड़कों पर प्लास्टिक की बोतलें, थैलियाँ फेंकने, सभी प्रकार के कचरे को जलाने जैसी आदतों को निरुत्साहित करने और हाथ धोने एवं व्यक्तिगत स्वच्छता, कागज के प्रयोग को घटाने, उनकी रिसाइक्लिंग करने, केवल पारिस्थितिक अनुकूल सामग्रियों को प्रयोग करने, सार्वजनिक परिवहन का प्रयोग करने, अधिक वृक्षों का रोपण करने जैसी स्थितियों को बढ़ावा देने और धूम्रपानकर्ता धुएँ के प्रभाव से बचने जैसी स्थितियों के लिये एक सामाजिक अभियान चलाने की आवश्यकता है।

(v) स्वास्थ्य और क्षमता निर्माण की भूमिका : स्वास्थ्य और पर्यावरण के क्षेत्र में योगदान देने वाले अन्य क्षेत्रों को गतिशील बनाने में स्वास्थ्य पेशेवरों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का मूल्यांकन भी स्वास्थ्य क्षेत्र द्वारा किया जा सकता है। साथ ही मानव स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने में अन्य क्षेत्रों को नीतियाँ विकसित करने में परामर्श दी जा सकती है। इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य पेशेवरों, सिविल सोसाइटी के सदस्यों और अन्य सहयोगियों को पर्यावरणी स्वास्थ्य से जुड़े पहलुओं और प्राथमिकताओं पर समय-समय पर नवीनतम जानकारी उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष


भारत के विभिन्न भागों में आर्सेनिक एवं फ्लोराइड से सन्दूषित भूजल से जुड़ी चिरकालिक स्वास्थ्य समस्याएँ पर्यावरणी कारकों का उदाहरण हैं। भूमण्डलीकरण, तीव्र औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास, परिवहन में वृद्धि, कृषि में कीटनाशक दवाइयों पर अतिनिर्भरता और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं पर तत्काल कार्यवाही नहीं की गई तो भविष्य में स्थिति और भी गम्भीर होने की सम्भावना है।स्वास्थ्य पर पर्यावरण का एक प्रमुख प्रभाव पड़ता है और पर्यावरणी स्वास्थ्य में निवेश करना एक उत्तम निवेश है। त्वरित शहरीकरण, औद्योगीकरण, भूमण्डलीकरण और आबादी में वृद्धि जैसी स्थितियाँ पर्यावरण पर और दबाव डालती हैं। यदि सभी क्षेत्रों द्वारा तत्काल कार्यवाही नहीं की गई तो समस्या और गम्भीर हो सकती है जिसका मानव स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है। इसका प्रभाव निर्धन और अतिसंवेदनशील वर्गों पर अत्यधिक पड़ेगा। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य (MDGs) के सभी आठ पहलुओं से पर्यावरण की निकट सम्बद्धता के बावजूद पर्यावरण और स्वास्थ्य के बीच पारस्परिक क्रिया के लिये प्राथमिकता निर्धारण के बिना सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों को प्राप्त करना एक चुनौती होगी। इस ग्रह का भविष्य अब पूर्णतया इस पर निर्भर है कि हम क्या निर्णय लेते हैं और आज क्या कदम उठाते हैं।

आई सी एम आर और एकेडमी ऑफ फिनलैण्ड के बीच सहमति ज्ञापन पर हस्ताक्षर


भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद (आई सी एम आर) मुख्यालय में दिनांक 2 नवम्बर, 2012 को परिषद और एकेडमी ऑफ फिनलैण्ड (ए एफ) के बीच चिरकारी असंचारी रोगों, मधुमेह और स्वास्थ्य सेवाओं में चुनौतियों के क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग के लिये एक सहमति ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गए। यह सहयोग संयुक्त कार्यशालाओं के आयोजन और सहयोगी शोध परियोजनाओं के संचालन पर आधारित होगा। इस सहमति ज्ञापन पर एकेडमी ऑफ फिनलैण्ड के प्रतिनिधि के रूप में नई दिल्ली स्थित फिनलैण्ड दूतावास के काउंसलर (इकोनॉमिक्स, कॉमर्शियल तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी) श्री जुहा पाइक्को और आई सी एम आर की ओर से स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के अन्तर्गत स्वास्थ्य अनुसन्धान विभाग के सचिव एवं भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद के महानिदेशक डॉ. विश्व मोहन कटोच ने हस्ताक्षर किये। इस अवसर पर परिषद मुख्यालय के असंचारी रोग प्रभाग की प्रमुख डॉ बेला शाह, वरिष्ठ उपमहानिदेशक (प्रशासन) श्री अरुण बरोका, वैज्ञानिक ‘जी’ एवं समन्वयक डी एच आर डॉ. के. सत्यनारायण और अन्य अधिकारियों की उपस्थिति रही।

Source: 
 आई सी एम आर पत्रिका, नवम्बर, 2012