Sunday, 10 June 2018

पर्यावरण : स्वास्थ्य का एक प्रमुख निर्धारक

भारत के 20 राज्यों के लगभग 6 करोड़ लोग फ्लोराइड सन्दूषण के कारण दन्त फ्लोरोसिस, कंकाली फ्लोरोसिस जैसी गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। घुटनों के लड़ने और उनके मुड़ने के कारण विकलांगता के साथ-साथ आर्थिक कठिनाई जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती है। पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा की अधिकता से अस्थि विकास के लिये जरूरी कैल्शियम का अवशोषण बन्द हो जाता है और इसी कारण अस्थि में विरूपता उत्पन्न हो जाती है।
प्रायः रोग की उत्पत्ति पर्यावरण, रोगजनक कारक और होस्ट (परपोषी) से जुड़े कारकों की पारस्परिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप होती है। पर्यावरण को व्यक्ति के परिवेश के भौतिक, रासायनिक और जैविक कारकों के साथ-साथ सभी सम्बद्ध व्यवहारों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। पर्यावरण में उपस्थिति इन कारकों के प्रभाव से मानव स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। चूँकि, इनमें से अधिकांश कारक मानव निर्मित हैं, अतः पर्यावरण को बचाना न केवल मानव हित में है बल्कि स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी यह एक उत्तम निवेश है।
इस आलेख में पर्यावरण से जुड़े सामान्य खतरे वाले कारकों का वर्णन है जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

पर्यावरण : स्वास्थ्य का एक प्रमुख निर्धारक


प्रत्येक वर्ष 1.3 करोड़ मौतें या दुनिया में होने वाली कुल लगभग एक चौथाई मौतें पर्यावरणी कारणों से होती हैं जिनमें मुख्यतया पानी, स्वच्छता एवं हाइजीन; घरेलू एवं बाह्य प्रदूषण; पेस्टीसाइड्स जैसे रसायनों का हानिकर प्रयोग और जलवायु परिवर्तन जैसी स्थितियाँ सम्मिलित हैं। ये सभी ऐसे खतरे हैं जिन्हें रोका जा सकता है अथवा उनसे बचा जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 80 प्रतिशत से अधिक रोगों में इनकी कुछ-न-कुछ भूमिका रही है। विशेषतया निर्धन परिवार के बच्चे इन रोगों के कारण रोगों और मौतों के प्रति अत्यन्त संवेदनशील होते हैं। हालांकि, सरल और सस्ते उपाय उपलब्ध हैं जिन्हें यदि शुरुआत में ही और प्रभावी ढंग से लागू किया जाये तो इनमें से अधिकांश मौतें रोकी जा सकती हैं।

पर्यावरण में आये बदलाव के कारण भी गम्भीर स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। मार्च 2011 में जापान के फुकुशिमा डाइची में आये भूकम्प के बाद आई सुनामी मानव इतिहास में सबसे बड़ी परमाणु और पर्यावरणी आपदाओं में से एक है। वर्ष 2010 में पाकिस्तान में आई बाढ़ में 1500 से अधिक मौतें हुईं। वर्ष 2010-11 के दौरान भारत में लद्दाख के साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न एवं ब्राजील के रियो-डि-जेनेरो नामक शहरों में आई अप्रत्याशित बाढ़ में भी भारी मौतें हुई थीं। भारत के विभिन्न भागों में आर्सेनिक एवं फ्लोराइड से सन्दूषित भूजल से जुड़ी चिरकालिक स्वास्थ्य समस्याएँ पर्यावरणी कारकों का उदाहरण हैं। भूमण्डलीकरण, तीव्र औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास, परिवहन में वृद्धि, कृषि में कीटनाशक दवाइयों पर अतिनिर्भरता और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं पर तत्काल कार्यवाही नहीं की गई तो भविष्य में स्थिति और भी गम्भीर होने की सम्भावना है।

पर्यावरणी खतरों से उत्पन्न संचारी और असंचारी रोग


विश्व में स्वस्थ जीवन वर्षों की क्षति के सन्दर्भ में 24 प्रतिशत भार और कुल 23 प्रतिशत मौतों के पीछे पर्यावरणी कारकों का हाथ पाया गया है। जहाँ पर्यावरणी कारकों द्वारा विकासशील देशों में कुल 25 प्रतिशत मौतें होती हैं वहीं विकसित देशों में कुल 17 प्रतिशत मौतों के पीछे ऐसे कारकों का हाथ पाया गया है। इससे बच्चे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। पन्द्रह वर्ष से कम आयु के बच्चों में होने वाली लगभग 24 प्रतिशत मौतें अतिसारीय रोगों, मलेरिया और श्वसनी रोगों के कारण होती हैं जो सभी पर्यावरण से सम्बद्ध हैं।

अधिकांश रोगों के पीछे विशिष्ट खतरे वाले कारकों का हाथ होता है (सारणी)। इनमें असुरक्षित पेयजल एवं स्वच्छता, रसोई में प्रयुक्त ईंधन से उत्पन्न धुएँ से प्रभावित होने, बाहरी वायु प्रदूषण, आर्सेनिक जैसे रसायनों से प्रभावित होने और जलवायु परिवर्तन जैसी स्थितियाँ सम्मिलित हैं। केवल भारत में लगभग 45 हजार मौतें असुरक्षित पेयजल, स्वच्छता और अपर्याप्त सफाई के कारण होती हैं।

हालांकि, पेयजल की उपलब्धता से काफी प्रगति हुई है परन्तु एशिया के अधिकांश देशों में स्वच्छता की स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। वर्तमान में, 25 लाख लोग स्वच्छता सुविधाओं से वंचित हैं, भारत की लगभग 6.29 करोड़ आबादी को स्वच्छता सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। यूनिसेफ के अनुसार, भारत की लगभग 67 प्रतिशत ग्रामीण आबादी अभी भी खुले में शौच करती है। वर्ष 2010 के दौरान दक्षिण-पूर्व एशिया के बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और भारत जैसे देशों में क्रमशः 44, 56, 8 और 66 प्रतिशत आबादी स्वच्छता सुविधा से वंचित पाई गई थी। इस स्थिति को देखते हुए सम्भवतः वर्ष 2015 तक जल और स्वच्छता के सम्बन्ध में सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य (एम डी जी)-7 की प्राप्ति नहीं की जा सकेगी।

अतिसारीय रोग के लगभग 94 प्रतिशत मामलों के पीछे असुरक्षित पेयजल और स्वच्छता का हाथ होता है। सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता सुविधाओं को प्राथमिकता प्रदान कर रोग भार कम किया जा सकता है जो व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय प्रगति में सहायक होगा। दक्षिण-पूर्व एशिया क्षेत्र के देशों में भारत की तुलना में केवल नेपाल में ऐसी आबादी का अनुपात अधिक (60 प्रतिशत) है जिसे स्वच्छता सुविधाएँ उपलब्ध नहीं है।

घरेलू और बाहरी प्रदूषण से मानव स्वास्थ्य गम्भीर रूप से प्रभावित होता है। प्रत्येक वर्ष लोवर श्वसनी पथ संक्रमणों अथवा न्युमोनिया के लगभग 42 प्रतिशत मामलों के पीछे घरेलू और बाह्य प्रदूषण का हाथ होता है। घरों में लकड़ी जैसे ईंधन के जलाने से उत्पन्न प्रदूषण (सस्पेंडेड पार्टिकुलेट मैटर) से लम्बी अवधि तक प्रभावित होने पर विशेषतया बच्चों में न्युमोनिया, दमा, चिरकारी अवरोधी फुफ्फुस रोग (सी ओ पी डी) जैसे प्रमुख श्वसनी रोग उत्पन्न होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में प्रत्येक वर्ष लगभग 8 लाख मौतें बाहरी वायु प्रदूषण के कारण होती हैं। उनमें 60 प्रतिशत मौतें एशिया में होती हैं जो मुख्यतया घरेलू ईंधन, डीजल चालित वाहनों, उद्योगों और सभी प्रकार के कचरे को जलाने जैसे कारकों के साथ-साथ धूम्रपान से उत्पन्न अरक्तताजन्य हृदय रोग, तीव्र श्वसनी संक्रमणों, दमा और फेफड़े के कैंसर की चपेट में आने के कारण होती हैं।

आर्थिक विकास के कारण हुए पर्यावरणी परिवर्तनों का स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। एशिया और अफ्रीका में मलेरिया के लगभग 42 प्रतिशत मामले भूप्रयोग, निर्वनीकरण और जल संसाधन प्रबन्धन जैसे पर्यावरणी कारकों के कारण होते हैं। इसी प्रकार, धान की कृषि, सूकर पालन, रोगवाहकों का प्रजनन और असुरक्षित पेयजल के प्रयोग जैसी स्थितियाँ तीव्र मस्तिष्कशोथ सिण्ड्रोम के संचरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। केवल वर्ष 2011 में ही भारत में इसके 6800 मामले प्रकाश में आये और 820 मौतें हुईं, जिनमें अधिकांशतः 15 वर्ष से कम आयु के बच्चे थे। यह स्थिति मुख्यतया उत्तर प्रदेश में देखी गई। चीन और इंडोनेशिया सहित अधिकांश देशों में डेंगू की महामारी और सिस्टोसोमिएसिस के संचरण में मुख्यतया पर्यावरणी कारक जिम्मेदार होते हैं।

विश्व भर में होने वाली मौतों के पीछे प्रमुख कारणों में कैंसर का द्वितीय स्थान है। कैंसर से होने वाली कुल दो तिहाई से अधिक मौतें विकासशील देशों में होती हैं। प्रतिवर्ष इसके 12.7 मिलियन मामलों में अनुमानतः 19 प्रतिशत मामलों के पीछे पर्यावरणी कारकों का हाथ होता है। फेफड़े के कैंसर में होने वाली कुल 71 प्रतिशत मौतों में धूम्रपान का हाथ पाया गया है। हेलिकोबैक्टर पाइलोरी के संक्रमण से होने वाला पेट का कैंसर द्वितीय अति सामान्य कैंसर है जो अपर्याप्त स्वच्छता और भीड़ युक्त आवास जैसी स्थितियों से सम्बद्ध है। हाल के दिनों में पंजाब के कृषि क्षेत्र में कैंसर की बढ़ती घटनाएँ प्रकाश में आई हैं जिसके पीछे पर्यावरणी कारकों की सम्बद्धता का संकेत मिलता है, जैसे कि पेस्टीसाइड्स का प्रयोग, जो पानी और मिट्टी दोनों में पाया गया है।

घरों के भीतर ठोस ईंधन जलाने से उत्पन्न धुएँ अथवा तम्बाकू के धूम्रपान से प्रभावित होने पर विशेषतया सर्दी के मौसम में दमा की शुरुआत हो जाती है। भारत के कई शहरों में इसके परिणामस्वरूप दमा की चपेट में आये बच्चों की संख्या काफी बढ़ी है। नई दिल्ली में सम्पन्न एक अध्ययन में दमा और चिरकारी अवरोधी फुफ्फुस रोग (COPD) के कारण अस्पताल के आपातकालीन विभाग में आने वाले व्यक्तियों की संख्या में क्रमशः 21 और 24 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई जो उच्च स्तर के घरेलू वायु प्रदूषण के कारण प्रभावित हुए थे। COPD के कारण होने वाली एक तिहाई से अधिक मौतें पर्यावरणी कारणों से जुड़ी होती हैं।

पर्यावरण से सम्बद्ध स्वास्थ्य समस्याएँ


आज भारत के 30 प्रतिशत शहरी और 90 प्रतिशत ग्रामीण घरों में पेयजल के रूप में गैर-शोधित अथवा भूजल का प्रयोग किया जाता है, जिनका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भूजल से प्राप्त पेयजल के फ्लोराइड और आर्सेनिक से सन्दूषित होने के कारण गम्भीर स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

भारत के 20 राज्यों के लगभग 6 करोड़ लोग फ्लोराइड सन्दूषण (1.5 मिग्रा/ली. से अधिक) के कारण दन्त फ्लोरोसिस, कंकाली फ्लोरोसिस जैसी गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। घुटनों के लड़ने और उनके मुड़ने के कारण विकलांगता के साथ-साथ आर्थिक कठिनाई जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती है। पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा की अधिकता से अस्थि विकास के लिये जरूरी कैल्शियम का अवशोषण बन्द हो जाता है और इसी कारण अस्थि में विरूपता उत्पन्न हो जाती है। हालांकि, शोधित पेयजल के प्रयोग से इन स्थितियों से बचा जा सकता है।

भूजल में आर्सेनिक की उच्च उपस्थिति पश्चिम बंगाल में एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या के रूप में पाई गई है, जहाँ की लगभग 5 करोड़ आबादी इससे प्रभावित है। बांग्लादेश में आर्सेनिक समस्या को एक आपातकालीन स्वास्थ्य समस्या का दर्जा दिया गया है। जहाँ 64 जिलों के 59 जिलों और 463 उपजिलों के 249 उपजिलों में आर्सेनिक सन्दूषण की पहचान की गई है। बांग्लादेश के 60 से 80 लाख ट्यूबवेल्स में अनुमानतः एक चौथाई ट्यूबवेल्स में आर्सेनिक का स्तर राष्ट्रीय मानक 50 ppb अथवा 0.05 मिग्रा/ली. से अधिक पाया गया है। अनुमानतः 3 से 4 करोड़ लोग पेयजल में आर्सेनिक की उपस्थिति के कारण सम्भावित खतरे की श्रेणी में हैं। एक लम्बी अवधि तक कम मात्रा में भी आर्सेनिक से प्रभावित होने पर हाइपरकेरैटोसिस जैसे त्वचा रोगों और कैंसर के कारण मौत जैसी स्थितियाँ देखी गई हैं। अध्ययनों में पता चला है कि आर्सेनिक के प्रभाव में मधुमेह भी उत्पन्न हो सकता है। आर्सेनिक रहित पेयजल की व्यवस्था से ही इस जनस्वास्थ्य समस्या से बचा जा सकता है।

इसके अतिरिक्त, पर्यावरणी स्थितियाँ दक्षिण एशिया में बाढ़ और भूकम्प जैसी आपदाएँ उत्पन्न करती हैं जो कष्ट के साथ-साथ आर्थिक क्षति का कारण बनती हैं। जलवायु परिवर्तन से स्थिति और खराब होने की सम्भावना है और विकासशील देशों विशेषतया एशिया और अफ्रीका की निर्धन आबादी के स्वास्थ्य पर सम्भवतः गम्भीर प्रभाव पड़ेगा। इससे रोगवाहक जन्य और जलजन्य रोगों, लू लगने, दमा, हृदय वाहिकीय रोगों में वृद्धि होने के साथ-साथ अधिक बाढ़ और सूखा स्थितियों के कारण खाद्य सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाएगा। जहाँ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी है वहीं निगरानी और कार्य क्षमता को सुदृढ़ बनाते हुए तत्काल कार्यवाही आवश्यक है जिससे देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव से निपटने में सक्षम बनाया जा सके।

स्वास्थ्य पर पर्यावरण के प्रभाव का मूल्यांकन : नीति और कार्यक्रम विकास के लिये आवश्यक


मानव स्वास्थ्य पर पर्यावरणी कारकों के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक कारकों, मौजूदा प्रथाओं और रिवाजों, कार्यक्रमों एवं नीतियों की उपस्थिति तथा प्रभावित समुदायों में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता एवं उनके प्रयोग जैसी स्थितियों का भी प्रभाव पड़ता है। राष्ट्रीय स्तर पर इस सूचना की कमी सहायता प्रदान करने में एक प्रमुख बाधा है। इस सूचना अन्तराल को मिटाने के लिये स्वास्थ्य पर पर्यावरण के प्रभाव के मूल्यांकन से नीतियों, कार्यक्रमों अथवा विकास सम्बन्धी गतिविधियों की पहचान करने में मदद मिल सकती है। इस तरह के मूल्यांकन से भवन निर्माण, परिवहन, गृह प्रबन्धन, ऊर्जा, उद्योग, शहरीकरण, जल, पोषण आदि जैसी गतिविधियों से सम्बन्धित स्वास्थ्य समस्याओं के लिये जिम्मेदार कारकों की भी पहचान की जा सकती है। इस प्रकार की सूचना विभिन्न परियोजनाओं के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को ज्ञात करने, नवीन योजनाओं के नियोजन एवं कार्यान्वयन के समय स्वास्थ्य को ध्यान में रखने और अन्ततः नवीन परियोजनाओं अथवा विकास सम्बन्धी गतिविधियों के दौरान स्थानीय आबादी के स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने में भी सहायक हो सकती है।

स्वस्थ पर्यावरण के माध्यम से स्वास्थ्य का संरक्षण एवं रोग का निवारण


यह स्पष्ट है कि पर्यावरणी कारकों से निरन्तर भावी प्रभाव पड़ेंगे और वस्तुतः इस स्थिति के और खराब होने की सम्भावना है। पर्यावरणी कारकों से उत्पन्न स्वास्थ्य समस्याओं में कमी लाने तथा स्वास्थ्य एवं पर्यावरण की चुनौतियों का सामना करने में सहायक कुछ नवीन नीतिगत प्रयास निम्न हैं:

(i) कार्यवाही हेतु एक प्रमाण-आधार विकसित करना : फिलहाल, देशों में पर्यावरण के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों, रोग संचरण के मार्गों और सम्भावित खतरे सहित आबादी पर जानकारी की कमी है। जल, वायु, आहार और जलवायु के सम्बन्ध में स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर अधिक विस्तृत एवं सुस्पष्ट आँकड़ों की आवश्यकता है जो उपयुक्त राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियों के विकास और प्राथमिकता निर्धारण में सहायक हो सकते हैं। पर्यावरणी कारकों तथा आर्थिक विकास एवं लोगों के दैनिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने के लिये अधिक केन्द्रित अध्ययनों की आवश्यकता है। स्वास्थ्य और पर्यावरण पर एक राष्ट्रीय डाटाबेस के उपलब्ध होने से पर्यावरणी खतरे वाले कारकों से जुड़े विभिन्न रोगों की उपस्थिति और प्रवृत्ति के बीच सम्बन्ध स्थापित करने, अधिक खतरे की सम्भावना वाले क्षेत्रों की पहचान करने तथा पर्यावरणी एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी इंटरवेंशन कार्यक्रमों की अधिकतम आवश्यकता सहित आबादी की पहचान करने में सहायता मिलेगी।

पर्यावरण और स्वास्थ्य पर सूचना एकत्र करने और उसके आदान-प्रदान करने की एक प्रक्रिया उपयोगी हो सकेगी। इस दिशा में भारत में कुछ महत्त्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं जो इस प्रकार हैं- सड़क निर्माण कार्य में प्लास्टिक का प्रयोग, मनाली में वाहनों के प्रवेश पर ‘ग्रीन-टैक्स’ की वसूली जिसका प्रयोग हिमाचल प्रदेश में पर्यावरण संरक्षण में किया जाता है, उत्तराखण्ड में आबादी को गैस सिलेण्डर उपलब्ध कराना जिसमें ईंधन के रूप में जलावन लकड़ी की कटाई रुके और साथ ही वनीय संरक्षण हो सके, गुजरात में सौर-ऊर्जा (सोलर एनर्जी) का विस्तार, हरियाणा जैसे राज्यों में पूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम, कम लागत के शौच घरों के निर्माण में सुलभ का अनुभव, मध्य प्रदेश तथा देश के 7 अन्य राज्यों में गुटका और पान मसाला के प्रयोग पर प्रतिबन्ध, नेपाल में पारिस्थितिकीय अनुकूल शौच घरों का निर्माण आदि। इन सभी गतिविधियों से सम्बन्धित सूचना के आदान-प्रदान से और उसके कार्यान्वयन से देश का एक बड़ा हिस्सा पर्यावरणी खतरों से उत्पन्न होने वाली स्थितियों से बच सकता है।

(ii) राष्ट्रीय पर्यावरणी स्वास्थ्य नीति, योजना और मूलभूत ढाँचे को सुदृढ़ बनाना : स्वास्थ्य और पर्यावरण से सम्बन्धित समस्याएँ दूर करने के लिये एक राष्ट्रीय पर्यावरण और स्वास्थ्य कार्य योजना (नेशनल एनवायरनमेंट एंड हेल्थ एक्शन प्लान, NEHAP) के माध्यम से एक व्यापक एवं अन्तर्क्षेत्रीय प्रयास की आवश्यकता है। स्वास्थ्य पर पर्यावरण के प्रभाव के मूल्यांकन से प्राप्त आँकड़ों से पर्यावरण, स्वास्थ्य एवं अन्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों से बने एक कार्यकारी द्वारा प्राथमिकताओं की पहचान की जा सकती है जिसे बाद में स्वास्थ्य और पर्यावरण मंत्रालयों द्वारा अपनाया जा सकता है। यदि गम्भीरता के साथ यह योजना लागू की जाये तो पर्यावरण सम्बद्ध स्वास्थ्य समस्याओं को कम करने में लम्बी अवधि तथा प्रभावी हो सकती है। पर्यावरण और स्वास्थ्य पर एक राष्ट्रीय सलाहकार दल द्वारा समय-समय पर इस योजना के कार्यान्वयन पर निगरानी रखी जा सकती है।

राष्ट्रीय और स्थानीय सरकारों के मूल-भूत ढाँचे को सुदृढ़ करने की दिशा में गम्भीरता के साथ और तत्काल कार्यवाही की जानी चाहिए। जिनकी जिम्मेदारियों में सम्मिलित हैं- सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति, मलजल शोधन प्रणाली की व्यवस्था, मोटर वाहनों के लिये प्रदूषण-रहित ईंधन, स्वच्छ धूम्ररहित चूल्हे, बायोगैस और ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन आदि की व्यवस्था करना। यदि सामान्य आबादी द्वारा इस प्रकार की सेवाओं के लिये उपयुक्त संसाधनों की माँग की जाती है तो नीति-निर्माताओं के लिये एक प्राथमिकता होनी चाहिए।

(iii) सतत अन्तर्क्षेत्रीय समन्वयन और भागीदारी : पर्यावरण से जुड़े अधिकांश खतरे वाले कारक स्वास्थ्य क्षेत्र से परे होते हैं। इसलिये मानव स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने में पर्यावरण, कृषि, परिवहन, ऊर्जा, शहरी विकास, जल संसाधन एवं ग्रामीण विकास मंत्रालयों के साथ-साथ निजी क्षेत्रों द्वारा समन्वित कार्यवाही की जानी चाहिए। वर्तमान में अधिकांश देशों में इन क्षेत्रों के बीच प्रभावी समन्वयन की कमी है।

उच्चतम स्तर की सरकारी अध्यक्षता में विभिन्न प्रासंगिक सरकारी मंत्रालयों, गैर सरकारी संगठनों, निजी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को सम्मिलित करते हुए एक उच्च स्तरीय राष्ट्रीय संचालन समिति की नियमित अन्तराल पर सम्पन्न बैठकों के परिणामस्वरूप NEHAP के कार्यान्वयन के लिये सभी क्षेत्रों को गतिशील बनाया जा सकता है।

(iv) सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ाना : पर्यावरण को बचाना प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है। पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखने तथा भावी पीढ़ियों के लिये मीठे जल के स्रोतों को सुरक्षित रखने, उत्तम स्वच्छता व्यवहार और व्यक्तिगत स्वच्छता अपनाने तथा पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाले कार्यों को निरुत्साहित करने के लिये जनसामान्य की सहायता प्राप्त करना आवश्यक है। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में जनसामान्य में जागरुकता उत्पन्न करने में मीडिया और समुदाय-आधारित संगठनों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

खुले में शौच करने, सड़कों पर प्लास्टिक की बोतलें, थैलियाँ फेंकने, सभी प्रकार के कचरे को जलाने जैसी आदतों को निरुत्साहित करने और हाथ धोने एवं व्यक्तिगत स्वच्छता, कागज के प्रयोग को घटाने, उनकी रिसाइक्लिंग करने, केवल पारिस्थितिक अनुकूल सामग्रियों को प्रयोग करने, सार्वजनिक परिवहन का प्रयोग करने, अधिक वृक्षों का रोपण करने जैसी स्थितियों को बढ़ावा देने और धूम्रपानकर्ता धुएँ के प्रभाव से बचने जैसी स्थितियों के लिये एक सामाजिक अभियान चलाने की आवश्यकता है।

(v) स्वास्थ्य और क्षमता निर्माण की भूमिका : स्वास्थ्य और पर्यावरण के क्षेत्र में योगदान देने वाले अन्य क्षेत्रों को गतिशील बनाने में स्वास्थ्य पेशेवरों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का मूल्यांकन भी स्वास्थ्य क्षेत्र द्वारा किया जा सकता है। साथ ही मानव स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने में अन्य क्षेत्रों को नीतियाँ विकसित करने में परामर्श दी जा सकती है। इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य पेशेवरों, सिविल सोसाइटी के सदस्यों और अन्य सहयोगियों को पर्यावरणी स्वास्थ्य से जुड़े पहलुओं और प्राथमिकताओं पर समय-समय पर नवीनतम जानकारी उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष


भारत के विभिन्न भागों में आर्सेनिक एवं फ्लोराइड से सन्दूषित भूजल से जुड़ी चिरकालिक स्वास्थ्य समस्याएँ पर्यावरणी कारकों का उदाहरण हैं। भूमण्डलीकरण, तीव्र औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास, परिवहन में वृद्धि, कृषि में कीटनाशक दवाइयों पर अतिनिर्भरता और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं पर तत्काल कार्यवाही नहीं की गई तो भविष्य में स्थिति और भी गम्भीर होने की सम्भावना है।स्वास्थ्य पर पर्यावरण का एक प्रमुख प्रभाव पड़ता है और पर्यावरणी स्वास्थ्य में निवेश करना एक उत्तम निवेश है। त्वरित शहरीकरण, औद्योगीकरण, भूमण्डलीकरण और आबादी में वृद्धि जैसी स्थितियाँ पर्यावरण पर और दबाव डालती हैं। यदि सभी क्षेत्रों द्वारा तत्काल कार्यवाही नहीं की गई तो समस्या और गम्भीर हो सकती है जिसका मानव स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है। इसका प्रभाव निर्धन और अतिसंवेदनशील वर्गों पर अत्यधिक पड़ेगा। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य (MDGs) के सभी आठ पहलुओं से पर्यावरण की निकट सम्बद्धता के बावजूद पर्यावरण और स्वास्थ्य के बीच पारस्परिक क्रिया के लिये प्राथमिकता निर्धारण के बिना सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों को प्राप्त करना एक चुनौती होगी। इस ग्रह का भविष्य अब पूर्णतया इस पर निर्भर है कि हम क्या निर्णय लेते हैं और आज क्या कदम उठाते हैं।

आई सी एम आर और एकेडमी ऑफ फिनलैण्ड के बीच सहमति ज्ञापन पर हस्ताक्षर


भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद (आई सी एम आर) मुख्यालय में दिनांक 2 नवम्बर, 2012 को परिषद और एकेडमी ऑफ फिनलैण्ड (ए एफ) के बीच चिरकारी असंचारी रोगों, मधुमेह और स्वास्थ्य सेवाओं में चुनौतियों के क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग के लिये एक सहमति ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गए। यह सहयोग संयुक्त कार्यशालाओं के आयोजन और सहयोगी शोध परियोजनाओं के संचालन पर आधारित होगा। इस सहमति ज्ञापन पर एकेडमी ऑफ फिनलैण्ड के प्रतिनिधि के रूप में नई दिल्ली स्थित फिनलैण्ड दूतावास के काउंसलर (इकोनॉमिक्स, कॉमर्शियल तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी) श्री जुहा पाइक्को और आई सी एम आर की ओर से स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार के अन्तर्गत स्वास्थ्य अनुसन्धान विभाग के सचिव एवं भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद के महानिदेशक डॉ. विश्व मोहन कटोच ने हस्ताक्षर किये। इस अवसर पर परिषद मुख्यालय के असंचारी रोग प्रभाग की प्रमुख डॉ बेला शाह, वरिष्ठ उपमहानिदेशक (प्रशासन) श्री अरुण बरोका, वैज्ञानिक ‘जी’ एवं समन्वयक डी एच आर डॉ. के. सत्यनारायण और अन्य अधिकारियों की उपस्थिति रही।

Source: 
 आई सी एम आर पत्रिका, नवम्बर, 2012

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