Wednesday, 19 October 2011

haryana aur sawasthy ke sawal

हरयाणा में लोगों के स्वास्थ्य के बारे में व् स्वास्थ्य सेवाओं के बारे में तरह तरह के विचार प्रकट किये जाते हैं |इस विषय को आम नागरिक की नजर से भी समझने की आवश्यकता है | स्वास्थ्य का मतलब शरीर  में बीमारी का न होना ही नहीं है बल्कि इसका मतलब शारीरिक , मानसिक तथा सामाजिक रूप से ठीक रहने की अवस्था है | स्वस्थ मानव जीवन के लिए स्वास्थ्य के अंतर खंडीय  कारकों जैसे अच्छा भोजन , सुरक्षित साफ पीने के योग्य पानी , बेहतर सफाई व् शौचालय व्यवस्था , बेहतर रहन सहन व् खान पान , रोजगार , प्रदूषण रहित वातावरण , लिंग समानता ,सभी के लिए स्तरीय शिक्षा ,सामाजिक न्याय तथा वर्तमान बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की सभी के लिए उपलब्धता अदि की बहुत ही महत्त्व पूर्ण भूमिका है| दुःख की बात यह है की इन सब मानकों की अनदेखी होती रही है |महज डाक्टरों , बीमारियों तथा दवाओं के पैमाने से स्वास्थ्य के मुद्दे को नहीं देखा जाना चाहिए |और न ही इसे बाजार व्यवस्था में मुनाफा कमाने के क्षेत्र के रूप में देखा जाना चाहिए | निति निर्धारकों को भी इसे तुरंत लाभ हानि की नजर से नहीं देखना चाहिए | मूल भूत करक जो मनुष्य के स्वास्थ्य को वास्तव में प्रभावित करते हैं , पर ज्यादा ध्यान दिया जाने की जरूरत है | हरयाणा का सामाजिक  विकास यहाँ के आर्थिक  विकास की संगति में नहीं हुआ जिसके चलते सामाजिक सूचकांक कई क्षेत्रों में निराशाजनक हैं | 
हरयाणा ज्ञान विज्ञानं समिति द्वारा किये गए खरल गाँव के सर्वे में भी एक बात साफ़ तौर पर उभर कर ई की लोगों का विश्वास सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में कम हुआ है जिसके कई कारण हो सकते हैं जिनको और ज्यादा व्याख्यायित करने की आवश्यकता है | उस गाँव में बीमारियों के इलाज के लिए एक वर्ष में तक़रीबन १० लाख रूपये खर्च किये | दवाओं की कीमतें भी उसके बाद काफी बढ़ी हैं | इसी प्रकार एक बात और साफ तौर पर उभर कर आयी  की गाँव में रात के वक्त  कोई स्वास्थ्य सुविधा गाँव वासीयों को उपलब्ध नहीं होती क्योंकि आर ऍम पी भी अपने गाँव में प्रैक्टिस न करके पडौस के गाँव में प्रैक्टिस करते हैं और श्याम को अपने गाँव आ जाते हैं | भिन्न भिन्न  जगह स्वास्थ्य कैम्पों  मसलन दनौन्दा ,दुबलधन माजरा , बहु अकबरपुर ,जाब भराण आदि गाँव में मरीजों को देखने पर अंदाजा हुआ की अलर्जी के बहुत मरीज हैं , दमे के मरीज बढ़ रहे हैं , बुखार , पेट में गैस का बनना , जोड़ों के दर्द अदि के मरीज काफी हैं | पी जी आई ऍम एस के आंकड़े बताते हैं कि कैंसर के मरीजों का प्रतिशत बढ़ा है  और इसी प्रकार जम्नू बीमारियों का प्रतिशत भी बढ़ा है |एक खास बात और है कि हर मरज कि एक दवा "सटीरायडज "का बड़े पैमाने पर अवांछित इस्तेमाल किया जा रहा है |इनमें से अलर्जी की बीमारी वहीँ पर वातावरण में मौजूद अलर्जन के कारण हो सकती है | कीट नाशकों के बेइन्तहा  व् अवांछित इस्तेमाल के चलते पानी और खाने कि चीजों में इनकी मात्रा ज्यादा होने के कारण इनका प्रतयक्ष या परोक्ष रूप से  इन बीमारियों की बढ़ोतरी में योगदान नजर आता है |पी जी आई एम् एस में २००६ में कैंसर के रोहियों की संख्या ५३३३ थी जबकि २०१० में यह बढ़कर ७६८५ हो गयी | भैंस का  दूध  निकलने वाला औक्शीटोसीन का टीका भी स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है |सब्जियों पर बेइन्तहा कीट नाशकों के स्प्रे का इस्तेमाल तथा दुसरे कैमिकल्ज का प्रयोग हमारे खाने को बड़े पैमाने पर प्रदूषित कर रहा है|बचाव का पक्ष हमारे बीच से गायब सा ही होता जा रहा है | इसी प्रकार पुत्र लालसा के चलते लड़का पैदा करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली दवाओं के कारण होने वाले जामनू विकारों की बढ़ोतरी से इंकार नहीं किया जा सकता |माईग्रेशन  बाधा है , लायफ़ स्टायल में बदलाव आया है जिनके चलते ब्लड प्रेशर , डायबटीज, मानसिक तनाव ,व् कैंसर की बीमारियाँ बढ़ रही हैं | सड़क हादसे बढे है और चोट के कारण मौतों का अनुपात भी बढ़ा   है |  
यद्दपि  हरयाणा उन्नत अर्थ व्यवस्था वाला राज्य है तथापि सामाजिक सूचकांक वांछित (अपेक्षित ) से कम हैं | ऐसा क्यों है ?  यह एक गंभीर विचारणीय व् विश्लेषण का मुद्दा है |
२०११ की जन गणना के अनुसार :
हरयाणा की कुल जनसँख्या = २.५३५३०८१  करोड़ 
पुरुष =१.३५०५१३० करोड़ 
महिला =१.१८४७९५१   करोड़ 
लिट्रेसी प्रतिशत =७६.६४ 
पुरुष =८५.३८ 
महिला=६६.७७ 
दलित महिला = ?
लिंग अनुपात =८७७ ( राष्ट्रिय औसत =९४०)
०-६ लिंग अनुपात हरयाणा (८३०)  (राष्ट्रिय औसत =(९१४)
नैशनल फॅमिली हैल्थ सर्वे तीन (NFHS-III)के हरयाणा के कुछ आंकड़े उत्साहवर्धक हैं तो कुछ आंकड़े चिंता बढ़ाने वाले भी हैं | 
*३ साल से कम उम्र के उन बच्चों का प्रतिशत जिनको जन्म  के १ घंटे के अन्दर माँ का दूध पिलाया गया = २२.३ प्रतिशत 
*०-५ महीने के बच्चों का प्रतिशत जो सिर्फ माँ  के दूध पर थे =१६.९ 
*३ साल से कम उम्र के बच्चों का प्रतिशत जो ( STUNTED) थे =४३.३ (NFHS-2-55.6 %)
*३ साल से कम उम्र के बच्चों का प्रतिशत जो (WASTED) थे =२२.४ (NFHS-2-7.8%)
*३ साल से कम उम्र के बच्चों का प्रतिशत जो (UNDERWEIGHT) थे =३८.२(NFHS-2-29.9%)
*6-35 महीनों के बच्चों का प्रतिशत जो खून की कमी का शिकार थे =८२.३%
*शादी शुदा १५-४९ के बीच की महिलाओं  का प्रतिहत जो खून की कमी का शिकार थी =५६.६ %
१५-४९ साल की गरभवती महिलाओं  का प्रतिशत जो खून की कमी का शिकार थी = ६९.७ %
वर्तमान में शादी शुदा महिलाओं का प्रतिशत जो घर के फैंसले लेने में शामिल होती हैं = ४१.७ %
शादी शुदा महिलाएं जो कभी न कभी अपने पति की हिंसा  का शिकार हुई =२७.३ %
हालाँकि INFANT MORTALITY दो के मुकाबले ५७ से घटकर ४२ पर आ गयी है |MATERNAL MORTALITY रेट तीन में  १६० है |
यह है   शायनिइंग हरयाणा की सफरिंग तस्वीर के कुछ पहलू | हरया भरया हरयाणा जित दूध दही का खाना -फेर क्यूं खून की कमी का शिकार याणा |
बहुत सी बुनियादी असमानताओं जैसे आर्थिक असमानता , वर्ग व् जाती की असमानता तथा असमान लिंग सम्बन्धों का असर जहाँ विशेषतया महिलाओं के स्वास्थ्य , शिक्षा, उत्पादक रोजगार तथा पर्याप्त वेतन तक पहुँच पर पड़ता है वहीँ आम नागरीक का स्वास्थ्य भी इससे प्रभावित होता है |इन घृणित असमानताओं को छिपाने के लिए जनसँख्या को हथियार  के रूप में इस्तेमाल किया जाता है | जबकि दुनिया में यह सर्व मान्य सत्य है कि जनसँख्या का संतुलन विकास के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है |
महिलाओं व् पुरुषों में बढ़ती लिंग असमानता हमारे स्वास्थ्य कि दिशा का एक प्रतिबिम्ब है | हमने स्वास्थ्य के क्षेत्र में बहुत कुछ विस्तार किया है मगर दलित व् गरीब तबकों के सामाजिक न्याय व् स्वास्थ्य सम्बन्धी आंकड़ों का विश्लेषण किया जाये तो पता लगेगा कि वास्तविक हालत कहीं अधिक ख़राब है |
आरोग्य कोष , राष्ट्रिय स्वास्थ्य बीमा योजना ,निधि कैंसर योजना , जननी सुरक्षा योजना , जननी सुविधा योजना , लाडली , डेलिवरी हट्स , हरयाणा रुरल हालत मिशन कि कार्यकर्त्ता आशा , राज्य स्तर पर एक पंचायत को पञ्च लाख रूपये कि प्रोह्त्सान  राशि लिंग अनुपात को ठीक करने में सबसे बेहतर कम के लिए , एक लाख कि प्रोत्साहन राशि प्रत्येक जिले के एक एक गाँव के लिए अदि योजनाओं के माध्यम से और सिविल अस्पतालों , सी एच सी  , पी एच सी, सब सेंटरों के माध्यम से स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करवाने के सतत प्रयास जारी हैं  | यह भी एक सच्चाई है कि प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर खर्च ६६-६७ के १.६२ रूपये से बढ़कर २४३.२७ रूपये कर दिया गया है |(----------) 
मगर  मलेरिया ,टी बी ,एड्स के प्रति जागरूकता अभियाओं के बावजूद इन " Communicable diseases" ने हरयाणा में रिविजिट क्यों किया? यक्ष प्रश्न यही है की इतना सब करते हुए भी  नैशनल फॅमिली हैल्थ  सर्वे   तीन के हिस्साब से हरयाणा के ज्यादातर बच्चे और औरतें स्वास्थ्य नहीं हैं | खून की कमी का शिकार हैं | यह पैराडॉक्स  क्या है ? और क्यों है? इसे समझाना हम सब के लिए बहुत जरूरी है | विकास के मोडल की पूरी तरह से समीक्षा की जरूरत है | मूलभूत कारकों के सम्बन्ध में हम कहाँ तक लोगों को ये सब दे पाए उसकी समीक्षा जरूरी है |हरित क्रांति ने कितनी संकटमय चुनौतियाँ पैदा की हैं उन्हें सामने लेन की जरूरत है |
इसके साथ ही हरयाणा में मौजूदा स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे का निष्पक्ष अवलोकन करना भी जरूरी हो गया है | दावा किया जाता है की बड़ा ढांचा खड़ा कर दिया गया है| जबकि हकीकत कुछ और ही बयाँ करती है | भारत सरकार के माप दण्डों के हिस्साब से ५००० की आबादी पर एक सब सेंटर होना चाहिए , ३ ०,००० की जनसँख्या पर एक पी एच सी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए तथा एक लाख की आबादी पर एक सी  एच सी  सामुदायीक स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए | २०११ की जनगणना के अनुसार हरयाणा की कुल जनसँख्या २५३५३०८१ है जिसमें १३५०५१३० पुरुष  और ११८४७०११ महिलाएं हैं | १,६५३१४९४ ग्रामीण क्षेत्र की जनसँख्या है | इसके हिसाब से हमारे पास १६५ सामुदायीक स्वास्थ्य केंद्र , ५५१ प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र तथा ३३०६ सब सेंटर होने चाहियें | इसी प्रकार एक सामुदायीक केंद्र में एक फिजिसियन , एक  शिशु रोग विशेषज्ञ .एक सर्जन , और एक महिला रोग  विशेषज्ञ कुल मिलाकार चार  विशेषज्ञ जरूर होने चाहियें | मतलब हमें ६६० विशेषज्ञों की जरूरत है | 
वास्तव में हरयाणा स्वास्थ्य विभाग के आंकड़े क्या कहते हैं :
सामुदायीक स्वास्थ्य केंद्र =
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र =
सब सेंटर                     =
सर्जन                         =
महिला रोग विशेषज्ञ   =
शिशु रोग विशेषज्ञ       =
फिजिसियन               =
हमारे स्वास्थ्य सेवाओं के अन्दर मौजूद कमियों और कमजोरियों के चलते हरयाणा भर में प्राईवेट नर्सिंग होमज की बाढ़  सी आई हुई है जिनपर कोई सामाजिक नियंत्रण लागू नहीं है | प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में किसी तरह के वहां की सुविधा नहीं है | ज्यादातर प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र बिना महिला डाक्टर के कम कर रहे हैं | कई प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों के पास अपनी खुद की बिल्डिंग नहीं है , कईयों के भवनों की खस्ता हालत है | कई केन्द्रों की स्थापना गाँव से दूर असुरक्षित स्थानों पर की गयी है जहाँ दक्रों और बाकि स्टाफ का रहना मुस्किल है | दवाओं व् उपकरणों की कमी अखरने  वाली है जबकि कई जगह कीमती उपकरण पड़े हैं और इस्तेमाल नहीं किये जा रहे हैं | Halothane जैसी दवा सी एच सी पे भेज दी जाती हैं जो इस्तेमाल नहीं होती क्योंकि बेहोशी का डाक्टर वहां नहीं होता | गाँव में बिजली की निरंतर सप्लाई न होना टीकाकरण के कम में बड़ी बाधा है तथा आपरेसन का कम बाधित होता है | इन सब हालातों ने डाक्टरों और स्टाफ का हेड क्वाटर पर टिका रहना बहुत मुस्किल बना दिया है तथा इस क्षेत्र में गलत तरीके से हाजरी दिखने की शिकायतें भी सुनने मिनाती रहती हैं | दो बातें साफ उभरती हैं की जितना ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा हमें अपनी जनसँख्या के हिसाब से चाहिए वह हम विकसित नहीं कर पाए | और दूसरी बात यह है कि जो ढांचा हमने विकसित कर भी लिया उसका भी सही सही और समुचित इस्तेमाल हम नहीं कर पा रहे हैं |
हरयाणा में ५ मैडीकल कालेज , ९ डेंटल कालेज , २१ नर्सिंग कालेज , ११ फिजियोथेरपी कालेज ,६ आयुर्वेदिक कालेज , २८ फार्मेसी कालेज कुल मिलाकार ८१ कालेज हेल्थ युनिवर्षिटी  में हैं | इन सबमें कितनी गुणवत्ता वाली शिक्षा कहाँ कहाँ दी जा रही है यह बहस का मुद्दा है | फैकल्टी  की कमी, इन्फ्रास्ट्रकचर की कमी आम बातें  हैं  | मरीजों की कमी बड़ी समस्या है जिस कारण प्रैक्टिकल ट्रेनिंग बहुत कमजोर रहती है | टरसरी  स्तर पर मौजूद पी जी आई एम् एस  संसथान की भी दयनीय स्थिति है | बाकि प्राइमरी व् सैकंडरी स्तरीय सेवाओं में ढील के कारण तथा प्राइवेट सैक्टर में इलाज और महंगा हो जाने के कारण , पी जी आई एम् एस में मरीजों का दबाव हर साल बढ़ता जा रहा है | २०००  में ओपीडी के कुल मरीज थे ८१९४१९ और दाखिले वाले मरीज थे ५७४५६ | २०१० में ओपीडी की संख्या थी १३११०४३ और दाखिल मरीज थे ९६०४८ | इन्फ्रा स्ट्रक्चर विकशित करने पर तो जोर ठीक है मगर इसमें कार्यरत कर्मचारियों , डाक्टरों व् वरिष्ठ फैकल्टी की जरूरतों के हिसाब से संख्या और इन सब की खुद की सेहत की तरफ कम ध्यान होने के कारण माहौल मरीज के पक्ष में ज्यादा बेहतर नहीं हो पा रहा है | सुपर स्पेसियलिटी का समुचित विकास काफी धीमी गति से हो रहा है | इसके अलावा अग्रोहा बूढ़ेडा  , गोल्ड फिल्ड पलवल फरीदाबाद और मौलाना में प्राइवेट मेडिकल कालेज हैं जिनका आकलन भी नहीं किया गया है | खानपुर ,मेवात, करनाल में खुलने वाले तीन मडिकल कालेज अभी अपने शैशव कल में हैं |
पी जी आई एम् एस में जन्में बच्चों में लिंग अनुपात ज्यादा सुधार की तरफ इशारा नहीं करता |
२००१---१०००/८१७
२००२--- १०००/७८१
२००३--- १०००/ ८७६
२००४ ---१०००/ ८७५
२००५ --- १०००/ ८२९ 
२००६ --- १०००/ ८७३
२००७ ---१०००/ ८३१ 
लिंग अनुपात में बहुत सुधार किये जा रहे हैं मगर सकारात्मक नतीजे अभी दूर हैं जिस पर पुनर्विचार की जरूरत है | २०११ के    Central registration System(CRS)   मुताबिक लिंग अनुपात ८२६ है | 
लोगों की निष्क्रियता तथा जागरूकता की कमी की वजह से स्वास्थ्य क्षेत्र की समस्या और अधिक जटिल हो गयी है | इन्ही कारणों की वजह से "सबके लिए स्वास्थ्य २००० तक" का नारा भुला दिया गया और अब टी इस नारे को यद् भी नहीं किया जाता | यूजर चार्जर की परि धारणा को केंद्र में रख कर यूरोपयन कमीशन की सहायता से इस क्षेत्र में कुछ काम हुआ है जिसका अवलोकन शायद किसी स्तर पर भी नहीं हो पाया | पब्लिक प्राइवेट पार्टनर शिप का मॉडल भी पूरे देश भर में बहुत कारगर सिद्ध हुआ हो ऐसा जानकारी में नहीं आया | २० साल के वैश्वी करण तथा निजी करण की नीतियों के चलते हमारे स्वास्थ्य के आंकड़े बता रहे हैं कि इन दोनों का हमारे स्वास्थ्य पर बुरा असर ज्यादा पड़ा है | 
स्वास्थ्य सेवाओं का अपेक्षित उचित उपयोग न होना - अपर्याप्त प्रबंधन के साधनों , स्टाफ के गिरे हुए होंसले तथा कमजोर प्रोत्साहन , स्वास्थ्य सुविधाओं की मांग की सीमा , पूरे समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार आदि कारणों -के कारण से   मन जाता है | इसके साथ ही हमारे स्वास्थ्य का मुद्दा हमारे व्यवहार व् तौर तरीकों तथा जीवन शैलियों  के माध्यम से सांस्कृतिक धरातल से भी जुदा हुआ है | हमें उन सांस्कृतिक शै लियों को बढ़ावा देने के प्रयास करने होंगे जो हमारे स्वास्थ्य को ठीक रखने में सहायक हैं | हमने भोजन के पुराने ढंग छोड़ दिए जबकि हमारी डाईट  बहुत पौष्टिक  थी | हमारे समाज में पुत्र लालसा बहुत गहरे जड़ें जनाए बैठी है | यदि लिंग असमानता की सामाजिक बुराई से लड़ना है तो पुत्र लालसा के खिलाफ भी लड़ना जरूरी है |
कुल मिलाकार कहा जा सकता है की बहुत से प्रयत्नों के सकारात्मक नतीओं के बावजूद स्वस्थ हरयाणा के निर्माण में जन पक्षीय नजर से और ज्यादा विमर्श की आवश्यकता है और फिर ठीक दिशा में कारगर कदम उठाने की राजनैतिक इच्छा शक्ति की आवश्यकता है  और यह सब हो इसके लिए जनता के जन आन्दोलन की आवश्यकता है |









Thursday, 4 August 2011

BRIBES

BRIBES
WHEN a new brand of insulin hit the market in India recently, doctors were quick to switch patients to it. Not long afterwards the new drug's manufacturer took 15 physicians from Nagpur on a vacation with their families. Coincidence? Maybe so but 'patients were fine on the old drug,' says Vijay Thawani, Associate Professor in Pharmacology at the Government Medical College in Nagpur.




Such promotional excesses abound in developing nations which have been slow to adopt regulations and even slower to enforce them. The US, Canada, Europe, Australia and New Zealand/Aotearoa have over time adopted and revised codes on drug promotion. But bribery happens in the West, too. It's just more covert.



'It's becoming more subtle in all sorts of ways,' agrees Peter Mansfield, a general practitioner and director of the international watchdog group Healthy Skepticism. 'It creates a situation,' adds Mansfield, 'where physicians convince themselves it's good for patients.' Big Pharma has innumerable fingers in the prescribing pie. Doctors are flown to luxury resorts for lessons in public speaking, then paid well as 'opinion leaders' to tout the company's product. Millions of doctors every year attend 'continuing medical education' events: necessary to perform their job well, but often company-sponsored junkets that let advertising cosy up to and mingle with science. In such pharmaphysician relationship, it's difficult to distinguish between the genuine and the deceptive, between the pursuit of knowledge and the pursuit of profit.



Meanwhile, old-school kickbacks continue in violation of the codes and policies on drug promotion. Drug giant GlaxoSmithKline has been accused of using exotic holidays, stereos, World Cup soccer tickets and cash to bribe thousands of Italian and German doctors into prescribing its products. (1) In the US last June, AstraZeneca paid a $355 million settlement for a kickback scheme where doctors billed insurance providers for drugs they received free from the company. TAP Pharmaceutical Products--a joint venture of Abbott Labs and Takeda--pulled the same trick and settled for $875 million in 2001. (2)

Sunday, 5 June 2011

National Family Health Survey 2005-2006 Disturbing facts about Haryana

National Family Health Survey 2005-2006 Disturbing facts about Haryana
Shining Haryana-Suffering Haryana-Health Front
The process of globalisation has lead to a situation where richest 20% of the population command 86% of the world GDP while the poorest 20% command merely 1(One) %. In other words this model of development and market oriented system, has divided the world in to “Shining World” and “Suffering World”,Similarly we can say that there are tow India,”Shining India” and “Suffering India”. Haryana cannot be an exception.”Shining Haryana and suffering Haryana are very obvious now.On one side of the road there is “Shining Gurgaon” and on the other side of the same road is “Suffering Gurgaon”.It can be said about every town or village also.
Public Health is an obvios causality of this process. There is a clear contradiction between the principles of public health and neoliberal economic theory. Public health is a “public good” i.e. its benefits cannot be individually enjoyed or computed, but have to be seen in the context of benefits that are enjoyed by the public. Thus public health outcomes are shared, and their accumulation lead to better living conditions. It does not mechanically transfer into visible economic determinants, viz income levels or rates of growth. Kerala, for example, has one of the lowest per capita incomes in India but its public health indicators as such are that approach the levels in many developed countries. Infant mortality rate in kerala is less than a third of any other large state in the country including Haryana. An important consequence of globalisation has been commonly described as the”Feminisation of poverty” as women increasingly had to strive to hold families together in various ways in the face of increasing pressures , main among them are increasing poverty, insecurity and ill-health.According to one estimate less than 10% of the $ 5.6 billion spent each year globally on medical research is aimed at the health problems affecting 90% of the world’s population.
The results of National Family Health Survey-III, about Haryana need an indepth analysis but seeing it on random basis it can be said that a state which is “Shining on one side is also suffering on the other side. Economically very much advanced but socially lagging behind,Haryana is well known on the map of the world regarding declining sex ratio.The under weight children under age 3 percentage is 42 in NFHS-III where as it was 35 and 35 in first and second NFHS surveys. The wasted group has 6,5,and 17% respectively in I,II and III NFHS.The percentage of Women whose body mass Index is below normal is 27% in NFHS-III where as it was 25.9% in NFHSII. Also the percentage of women who are overweight or obese has increased from 16.6 to 21.0. the percentage of anaemic ever married women age 15-49 has increased from 47.0(NFHSII) to 56.5(NFHSIII).
Similarly the percentage of pregnant women age 15-49 who are anaemic has increased from 55.5(NFHSII) to 69.7(NFHSIII). The percentage of women who want 2 sons has also increased from 95.2% (NFHSII) to 97.4%(NFHSIII).Paradox is that per capita expenditure on health has increased from Rest. 175.02 in 1998-99 to 243.27 in 2006-2007, though it may still be less.
A very challenging situation is emerging on health front in Haryana. The medical fraternity and paramedics have to rise upto the occasion and decide whether they are for “Shining India” only or are for “Suffering India” first and then “Shining India”. We must see the writings on the wall. The primary and secondary level health care is virtually collapsing in Haryana. In Rohtak district there are 5 CHC’s – Meham, Kalanaur,Chiri, Sampla and Kiloi. As per the norms there should be a surgeon, Physician, Pediatrician and gynaecologist in each CHC. Unfortunately there is not a single specialist in any of the above CHC’s.We must see the writing on the wall.

R.S.Dahiya