Monday, 2 March 2020

भारत की स्वास्थ्य सेवाओं की चिंताजनक स्थिति

भारत की स्वास्थ्य सेवाओं की चिंताजनक स्थिति
 
 हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाएं  अत्याधिक महंगी हैं जो गरीबों की पहुंच से काफी दूर हो गई हैं। स्वास्थ्य, शिक्षा, भोजन व आवास जीवन की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। गौरतलब है कि हमारे संविधान में इस बात का प्रावधान होते हुए भी कि नागरिकों को स्वास्थ्य व शिक्षा प्रदान करना हमारी प्राथमिकता है, हम एक राष्ट्र के रूप में इस लक्ष्य की प्राप्ति में असफल रहे हैं । स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण जारी है ।जिससे आम लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ रहा है । 
भारत की स्वास्थ्य चिंताएं 
  1.   भारत संक्रामक रोगों का पसंदीदा स्थल तो है ही साथ में गैर संक्रामक रोगों से ग्रस्त लोगों की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। प्रत्येक वर्ष लगभग 5.8 भारतीय हृदय और फेफड़ों से संबंधित बीमारियों  के कारण काल के गाल में समा जाते हैं। प्रत्येक 4  में से एक भारतीय हृदय संबंधी रोगों के कारण 70 वर्ष की आयु तक पहुंचने से पहले ही मर जाता है।
  2.  स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता में विषमता का मुद्दा भी काफी गंभीर है । शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति ज्यादा बदतर है। इसके अलावा बड़े निजी अस्पतालों के मुकाबले सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं का  काफी अभाव है। उन राज्यों में भी जहां समग्र औसत में सुधार देखा गया है, उनके अनेक जनजातीय बहुल क्षेत्रों में स्थिति नाजुक बनी हुई है। निजी अस्पतालों की वजह से बड़े शहरों में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता संतोषजनक है, लेकिन चिंताजनक पहलू यह है कि इस तक केवल संपन्न तबके की पहुंच है।
  3. तीव्र और अनियोजित शहरीकरण के कारण शहरी निर्धन आबादी और विशेषकर झोपड़ियों में रहने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। आबादी का यह हिस्सा सरकारी और निजी अस्पतालों के समीप रहने के बावजूद, स्वास्थ्य सुविधाओं को पर्याप्त रूप में नहीं प्राप्त कर पाता है। सरकारी घोषणाओं में तो राष्ट्रीय कार्यक्रमों के तहत सभी चिकित्सा सेवाएं सभी व्यक्तियों को निशुल्क उपलब्ध हैं और इन सेवाओं का विस्तार भी काफी व्यापक है । हालांकि जमीनी सच्चाई यही है कि सरकारी स्वास्थ्य सुविधाएं आवश्यकताओं के विभिन्न आयामों को संबोधित करने में विफल रही हैं। 
  4.  महंगी होती चिकित्सा सुविधाओं और चिकित्सा शिक्षा के कारण आम आदमी द्वारा स्वास्थ्य पर किए जाने वाले खर्च में बेतहाशा वृद्धि हुई है। एक अध्ययन के आधार पर आकलन किया गया है कि केवल इलाज पर खर्च के कारण प्रतिवर्ष करोड़ों की संख्या में लोग निर्धनता का शिकार हो रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि समाज के जिस तबके को इन सेवाओं की आवश्यकता है उसके लिए सरकार की ओर से पर्याप्त संरक्षण उपलब्ध नहीं है । और जो कुछ उपलब्ध है वो उनकी पहुंच से बाहर है।
क्या हो आगे का रास्ता
1 क्योंकि भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है और इसकी वजह से स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक दबाव है। मृत्यु दर कुछ घटी है लेकिन जन्म दर दुनिया के ज्यादातर देशों से अधिक है । जन्म दर और मृत्यु दर के संबंध में आदर्श है कि दोनों में ही कमी आनी चाहिए। 2 . देश में एक विशाल स्वास्थ्य सुविधा उद्योग पनप रहा है जो 15% की दर से बढ़ रहा है। यदि अन्य क्षेत्रों की बात करें तो स्वास्थ्य सेवाओं में वृद्धि भारत के विकास दर की दुगनी   है । हालांकि इस सुनहरी तस्वीर का एक स्याह सच यह भी है कि देश में मौजूद इन सुविधाओं का उपभोग आर्थिक कारणों से आम आदमी नहीं कर पाता है । इसलिए इस क्षेत्र के विकास की रूपरेखा जन हितकारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियों और उद्देश्यों के अनुरूप होनी चाहिए । 
3. भारत में स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतरी के लिए यह भी सुनिश्चित करना होगा कि निजी चिकित्सा उद्योग सरकारी स्वास्थ्य ढांचे के सहायक के रूप में विकसित हो ।  स्वास्थ्य सुविधा लागत के कारण आपातिक व्यय में बढ़ोतरी हो रही है और अब इसे गरीबी बढ़ने का एक प्रमुख कारण माना जाने लगा है। स्वास्थ्य सेवा लागत में बढ़ोतरी , परिवार की बढ़ती हुई आए और गरीबी कम करने वाली सरकारी योजनाओं को निष्प्रभावी कर रही है। अतः चिकित्सीय लागत और गरीबी को ध्यान में रखते हुए हमें अपने लक्ष्य निर्धारित करने होंगे और सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को और मजबूत करना होगा । 
4.आर्थिक विकास के कारण उपलब्ध राजकोषीय क्षमता में भी वृद्धि हुई है। इसी के अनुरूप  सरकार के बजट में बढ़ोतरी भी होनी चाहिए। लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं का बेहतर प्रबंधकीय मामला भी है ताकि  वांछित परिणाम  मिल सकें ।इसके लिए  देश को एक नई जनपक्षीय स्वास्थ्य नीति की आवश्यकता है जो इन प्रश्नों के प्रति संवेदनशील उत्तरदाई हो। 
निष्कर्ष :
  1. हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि स्वास्थ्य जीवन की सफलता की कुंजी है । किसी भी व्यक्ति को अगर जीवन में सफल होना है तो इसके लिए सबसे पहले उसके शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है । व्यक्ति से इत्तर एक राष्ट्र पर भी यही सिद्धांत लागू होता है । 
  2.  किसी देश के नागरिक जितने स्वस्थ होंगे , देश विकास सूचकांक की कसौटी ऊपर उतना ही अच्छा प्रदर्शन करेगा । उदारीकरण के बाद आर्थिक क्षेत्र में हमारी महत्वाकांक्षाएं आसमान छू रही हैं बेशक मंदी का दौर अपने चरम पर हो।  कहने को भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था बनने का क्लेम कर रहा है लेकिन जब बात देश में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति की आती है तो हमारा सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता है । 
  3.  बीमारियों की रोकथाम और उपचार के लिए आज हमारे पास जिस स्तर की सुविधाएं ,  संसाधन एवं तकनीक हैं, उन्हें देखते हुए देश में व्याप्त असमय मृत्यु,  अनावश्यक बीमारियां और अस्वस्थ परिस्थितियों को एक विडंबना  कहना ही ठीक होगा। अतः हमें अपनी प्रौद्योगिकियों और ज्ञान के भंडार  का भरपूर उपयोग करना चाहिए 
  4. बहुत से आंकड़े यह दिखाते हैं कि भारत में लोग बीमारियों को लेकर उतने सजग नहीँ रहते किंतु बीमार पड़ने के  बाद कहीं ज्यादा खर्च कर डालते हैं । हमें अपनी नीतियों में इस बात का समावेशन करना होगा हमारा खर्च रोगों के इलाज में कम रहे जबकि रोगों की रोकथाम में अधिक।

Bharat ka Sawasthay

विख्यात शोध पत्रिका 'द लैंसेट' की हालिया रिपोर्ट के अनुसार,
1 . भारत स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच और गुणवत्ता के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है. वर्ष 1990 में हम 153वें पायदान पर थे और ताजा सूची 2016 के अध्ययन पर आधारित है. ढाई दशकों में भारत के प्रदर्शन में मात्र 16.5 अंकों की बढ़त हुई, जबकि वैश्विक औसत 54.4 अंकों का है.
2 . देश के भीतर भी सेवाओं की उपलब्धता विषम है. बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद हमारे यहां स्वास्थ्य पर कुल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का सिर्फ 3.9 फीसदी खर्च किया जाता है.
3 . सरकारी खर्च तो सवा एक फीसदी से भी कम है. वैश्विक स्तर पर जीडीपी के अनुपात में खर्च का औसत छह फीसदी है. देश में स्वास्थ्य की दशा और दिशा के विविध आयामों के विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन-दिनों... सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की जरूरत लैंसेट ने वैश्विक स्वास्थ्य सूचकांक जारी कर जो बातें बतायी हैं, उन पर हम सबको गौर करना चाहिए.
4 . निश्चित रूप से हमारे देश में लोगों के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था की दृष्टि से यह एक चिंताजनक तस्वीर है. इस तस्वीर को बदलना ही होगा, तभी हम लोगों के जीवन को रोगरहित बना पायेंगे और एक स्वस्थ भारत का निर्माण कर पायेंगे.
5 शहरी भारत में स्वास्थ्य की ज्यादातर  सुविधाएं मौजूद हैं. शहरी लोगों के पास पैसा भी है, इसलिए वे निजी अस्पतालों में इलाज करा लेते हैं.
6.  लेकिन, हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी बहुत सी चीजों के अभाव के साथ स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच का भी अभाव है. हमारे देश की एक बड़ी संख्या ग्रामीण क्षेत्र में रहती है, इसलिए इस क्षेत्र में स्वास्थ्य के क्षेत्र में सर्वांगीण पहुंच जरूरी है, नहीं तो मौजूदा तस्वीर का बदल पाना मुश्किल है.
7 . जन-स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए जिला अस्पतालों को अपग्रेड करने की ज्यादा जरूरत है और उसके बाद ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में सभी जरूरी मेडिकल सुविधाओं के साथ-साथ जांच की व्यवस्था भी हो. ऐसा करके हम भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सकते हैं और यह सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में भी सहायक होगा. हमारी सेहत अच्छी होती है, तो हम ज्यादा काम करते हैं और आर्थिक रूप से भी मजबूत होते जाते हैं.
8 .  इसके लिए दो चीजों की जरूरत है, एक तो जन-स्वास्थ्य की प्रभावी सरकारी नीतियां बनें और दूसरे इन नीतियों के सही तरीके से क्रियान्वयन के लिए जागरूकता फैलायी जाये.

 
9 . नीति आयोग के हेल्थ इंडेक्स में केरल टॉप  नीति आयोग ने पहली बार स्वास्थ्य सुविधाओं के आधार पर राज्यों की रैंकिंग जारी की है.

सरकार ने पिछले बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए अहम घोषणाएं की थीं. सरकार ने बजट में सभी को स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया था. राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना या आयुष्मान जैसी नीतियों से ही आम लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करायी जा सकती हैं. हमें ऐसी ही नीतियों की जरूरत है, जो जन-स्वास्थ्य सेवाओं की सर्वसुलभता सुनिश्चित कर सकें. इस योजना के तहत जो पचास करोड़ लोगों के स्वास्थ्य के बीमा की बात कही गयी है, यह बहुत शानदार तो है, लेकिन जरूरत इस बात को सुनिश्चित करने की है कि इसका क्रियान्वयन कितनी ईमानदारी से होता है. इस बीमा योजना से समाज के गरीब तबके के लोगों की सेहत सुधरेगी और उनको आर्थिक तौर पर मजबूत करने में मदद भी मिलेगी, क्योंकि तब गरीबों को इलाज के लिए कर्ज नहीं लेना पड़ेगा. उम्मीद तो है कि सरकार इसे बेहतर तरीके से लागू करे. गांव और गरीबों के जीवन में सार्थक बदलाव लाने और गरीब से गरीब आदमी को भी बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मिले, इसके लिए छोटे-बड़े सभी सरकारी अस्पतालों में तमाम मेडिकल सुविधाओं को उपलब्ध कराना होगा. स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव का न सिर्फ लोगों की सेहत पर असर पड़ता है, बल्कि समाज की आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ता है. जब आर्थिकी पर असर पड़ेगा, तो जाहिर है, हम अभावग्रस्त होकर कई अन्य और गंभीर बीमारियों का भी शिकार हो सकते हैं. इसका नतीजा लांसेट जैसी सूचकांकों में या फिर तमाम रिपोर्टों में हमारा खराब प्रदर्शन के रूप में होगा.  



नीति आयोग के हेल्थ इंडेक्स में टॉप पांच और बॉटम पांच राज्य
 केरल टॉप  नीति आयोग ने पहली बार स्वास्थ्य सुविधाओं के आधार पर राज्यों की रैंकिंग जारी की है. इसमें पिछले साल के मुकाबले स्वास्थ्य संबंधी सूचकों और उनमें हुए गुणवत्तापूर्ण सुधारों को फोकस किया गया है. इसमें टॉप पांच और बॉटम पांच राज्य इस प्रकार हैं : 
भारत में स्वास्थ्य सेवा पर सरकारी खर्च बहुत कम भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च बहुत कम है. देश में स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रति व्यक्ति औसतन 69 डॉलर खर्च किया गया था वर्ष 2013 में. वर्ष 2017 में यह 58 डॉलर ही रहा. दूसरी ओर दक्षिण एशिया के कई देशों में इस मद में भारत से कहीं अधिक खर्च किया जाता है.   देश            स्वास्थ्य पर खर्च   मलयेशिया     418  चीन               322  थाइलैंड        247  फिलीपींस      115  इंडोनेशिया      108  नाइजीरिया       93  श्रीलंका           88 (नोट : खर्च औसतन प्रति व्यक्ति डॉलर में, आंकड़े वर्ष 2017 के अनुसार) हेल्थ सेक्टर में जीडीपी प्रतिशत  स्वास्थ्य सेक्टर में जीडीपी के प्रतिशत के सरकारी आंकड़ों पर गौर करें, तो दक्षिण एशियाइ देशों के मुकाबले भारत में यह बहुत कम (1. 3 %) है.  देश   स्वास्थ्य पर खर्च  मलयेशिया    4.2 चीन             6.0 थाइलैंड         4.1 फिलीपींस      4.7 इंडोनेशिया      2.8 श्रीलंका          3.5 पाकिस्तान       2.6 (नोट : खर्च जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर है और आंकड़े वर्ष 2017 के अनुसार) बड़े शहरों तक सीमित स्वास्थ्य सेवाएं  70 फीसदी स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढांचा देश के 20 बड़े शहरों तक ही सीमित है.  30 फीसदी भारतीय हर साल स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च के कारण गरीबी रेखा के दायरे में आ जाते हैं.  20 फीसदी वैश्विक बीमारियों का बोझ अकेले भारत झेल रहा है.  30 फीसदी लोग प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं देशभर में. 1,000 आबादी पर केवल एक डॉक्टर, 1.3 नर्स और 1.1 बेड हैं भारत में.  किस विधा में कितने विशेषज्ञ मेडिकल विशेषज्ञ        संख्या  एलोपैथी डॉक्टर     10,22,859 डेंटल सर्जन          1,97,734 आयुष प्रैक्टिशनर     7,71,468 सहायक नर्स        8,21,147 सरकारी डॉक्टर     1,13,328 नोट : महाराष्ट्र में सर्वाधिक रजिस्टर्ड डॉक्टर हैं. यहां इनकी संख्या 1,53,513 है, (स्रोत : विश्व स्वास्थ्य संगठन) भारत में मेडिकल एजुकेशन मेडिकल एजुकेशन       संख्या      छात्रों की संख्या  मेडिकल कॉलेज           462        56,748 डेंटल (बीडीएस)        309       26,790 डेंटल (एमडीएस)        242       6,019 नर्सिंग            3,123        1,25,764 फार्मेसी           777 46,795 (स्रोत : नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2017, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार) सरकारी बनाम निजी अस्पताल भारत में प्राइवेट सेक्टर में स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं. लेकिन सरकारी क्षेत्र में इसका विस्तार नहीं हो रहा है. लिहाजा, बड़ी आबादी को सार्वजनिक  स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा से वंचित रहना पड़ रहा है. करीब 72 फीसदी ग्रामीण आबादी को प्राइवेट हेल्थकेयर सेवाओं का इस्तेमाल करना पड़ता है देशभर में.  क्या है लैंसेट की रिपोर्ट मेडिकल जर्नल 'लैंसेट' में हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 में स्वास्थ्य सेवा के उपयोग और उसकी गुणवत्ता यानी एचएक्यू (हेल्थकेयर एक्सेस एंड क्वालिटी) के मामले में भारत 41.2 अंकों के साथ 145वें स्थान पर रहा. यहां भारत, चीन (48), श्रीलंका (71), दक्षिण एशियाई देशों बांग्लादेश (133) और भूटान (134) से भी पीछे है. लेकिन नेपाल (149), पाकिस्तान (154) और अफगानिस्तान (191) से आगे है. यह रिपोर्ट 'ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज' के 1990 से 2016 के बीच 195 देशों व क्षेत्रों के साथ-साथ वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर किये गये अध्ययन पर आधारित है. इस सूचकांक में मृत्यु के उन 32 कारणों को आधार बनाया गया है, जिन्हें प्रभावी चिकित्सा देखभाल के जरिये रोका जा सकता है. इस अध्ययन ने प्रत्येक देश को शून्य से 100 के बीच एचएक्यू अंक दिये हैं.  यूपी व असम की स्थिति िचंताजनक इस रिपोर्ट के मुताबिक, अगर भारतीय राज्यों की बात की जाये, तो उत्तर प्रदेश और असम की स्थिति देशभर में सबसे खराब है. इन दोनों ही राज्यों को 35.9 एचएक्यू अंक से भी कम प्राप्त हुए हैं. भारतीय राज्यों में केरल व गोवा ने 60 से अधिक एचएक्यू अंक प्राप्त कर सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है. वहीं मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, बिहार, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय व मणिपुर सहित अन्य राज्यों ने इस सूचकांक में 35.9 से 44.8 के बीच अंक प्राप्त किया है. स्किन कैंसर में भारत की दयनीय दशा भले ही वर्ष 1990 के 24.7 और 2000 के 28.0 एचएक्यू अंकों की तुलना में 41.2 अंकों के साथ 2016 में भारत ने अपनी स्थिति में सुधार किया है, लेकिन मृत्यु के 32 कारणों में से 24 में हमारे देश को 50 से भी कम अंक मिले हैं. स्किन कैंसर के मामले में भारत की स्थिति चिंताजनक है और यहां उसने महज 12 अंक ही प्राप्त किया है, जबकि हॉजकिंस लिम्फोमा के लिए 18 व नवजात मृत्यु के लिए उसे 24 अंक मिले हैं. टीबी, जो भारत के लिए चिंता का विषय है, उसके लिए 30 एचएक्यू अंक मिले हैं. इस अध्ययन के अनुसार, रुमेटिक हार्ट डिजीज, इस्केमिक हार्ट डिजीज, स्ट्रोक, टेस्टिकुलर कैंसर, कोलोन कैंसर, क्रॉनिक किडनी डिजीज आदि बीमारियों को लेकर भारत का प्रदर्शन बेहद लचर है. रिपोर्ट से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य ऐसा पहली बार हुआ है, जब लैंसेट ने एचएक्यू के आधार पर सात देशों- भारत, ब्राजील, चीन, इंग्लैंड, जापान, मेक्सिको व अमेरिका के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े आंकड़ों को प्रकाशित किया है. रिपोर्ट में बताया गया है कि 2000-2016 के बीच वैश्विक स्तर पर अनेक देशों ने बेहतर प्रदर्शन किया है. इन देशों में कम व मध्यम आय वाले उप-सहारा मरुस्थल के अफ्रीकी देश व दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ इथोपिया, रवांडा, इक्वेटोरियल गिनी, म्यांमार व कंबोडिया शामिल हैं. वहीं, अमेरिका और प्यूर्टोरिको, पनामा व मेक्सिको जैसे लैटिन अमेरिकी देशों की प्रगति स्वास्थ्य के मामले में थम सी गयी है या उसमें कमी आयी है. आइसलैंड, नॉर्वे व नीदरलैंड स्वास्थ्य सेवा के उपयोग व गुणवत्ता के मामले में उच्चतम स्तर पर हैं जबकि सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिकन, सोमालिया और गिनी-बिसाउ न्यूनतम स्तर पर हैं. 42.2 एचएक्यू अंक था वर्ष 2000 में वैश्विक औसत, जो 2016 में बढ़कर 54.4 पर  पहुंच गया. 13.5 अंक प्राप्त हुआ था न्यूनतम सोमालिया को वर्ष 2000 में, जबकि आइसलैंड को अधिकतम 92.1 अंक प्राप्त  हुआ था.  18.6 अंक न्यूनतम हासिल हुए वर्ष 2016 में सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक को और आइसलैंड को अधिकतम 97.1 अंक मिले.  नोट : इन दोनों वर्षों में सबसे खराब व सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले देशों के बीच अंकों का अंतर (वर्ष 2000 के 79.3 व वर्ष 2016 में 78.5 अंक) लगभग एक समान ही रहा. बेहतर प्रदर्शन करनेवाले  शीर्ष पांच देश देश    अंक आइसलैंड  97.1 नॉर्वे                                                  96.6 नीदरलैंड                                       96.1 लक्जमबर्ग                                       96.0 फिनलैंड व ऑस्ट्रेलिया               95.9 सबसे खराब प्रदर्शन  करनेवाले पांच देश सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक                18.6 सोमालिया                                       19.0 गिनी-बिसाउ                                       23.4 चाड                                                   25.4 अफगानिस्तान                           25.9 (नोट : प्रदर्शन एचएक्यू अंकों के आधार पर  )

lancet

विख्यात शोध पत्रिका 'द लैंसेट' की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच और गुणवत्ता के मामले में 195 देशों की सूची में 145वें स्थान पर है. वर्ष 1990 में हम 153वें पायदान पर थे और ताजा सूची 2016 के अध्ययन पर आधारित है. ढाई दशकों में भारत के प्रदर्शन में मात्र 16.5 अंकों की बढ़त हुई, जबकि वैश्विक औसत 54.4 अंकों का है. देश के भीतर भी सेवाओं की उपलब्धता विषम है. बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद हमारे यहां स्वास्थ्य पर कुल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का सिर्फ 3.9 फीसदी खर्च किया जाता है. सरकारी खर्च तो सवा एक फीसदी से भी कम है. वैश्विक स्तर पर जीडीपी के अनुपात में खर्च का औसत छह फीसदी है. देश में स्वास्थ्य की दशा और दिशा के विविध आयामों के विश्लेषण के साथ प्रस्तुत है आज का इन-दिनों... सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार की जरूरत लैंसेट ने वैश्विक स्वास्थ्य सूचकांक जारी कर जो बातें बतायी हैं, उन पर हम सबको गौर करना चाहिए. निश्चित रूप से हमारे देश में लोगों के लिए स्वास्थ्य व्यवस्था की दृष्टि से यह एक चिंताजनक तस्वीर है. इस तस्वीर को बदलना ही होगा, तभी हम लोगों के जीवन को रोगरहित बना पायेंगे और एक स्वस्थ भारत का निर्माण कर पायेंगे. शहरी भारत में स्वास्थ्य की सभी सुविधाएं मौजूद हैं. शहरी लोगों के पास पैसा भी है, इसलिए वे निजी अस्पतालों में इलाज करा लेते हैं. लेकिन, हमारे ग्रामीण क्षेत्रों में अब भी बहुत सी चीजों के अभाव के साथ स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच का भी अभाव है. हमारे देश की एक बड़ी संख्या ग्रामीण क्षेत्र में रहती है, इसलिए इस क्षेत्र में स्वास्थ्य के क्षेत्र में सर्वांगीण पहुंच जरूरी है, नहीं तो मौजूदा तस्वीर का बदल पाना मुश्किल है. जन-स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के लिए जिला अस्पतालों को अपग्रेड करने की ज्यादा जरूरत है और उसके बाद ग्रामीण क्षेत्रों के अस्पतालों में सभी जरूरी मेडिकल सुविधाओं के साथ-साथ जांच की व्यवस्था भी हो. ऐसा करके हम भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र में क्रांतिकारी बदलाव ला सकते हैं और यह सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने में भी सहायक होगा. हमारी सेहत अच्छी होती है, तो हम ज्यादा काम करते हैं और आर्थिक रूप से भी मजबूत होते जाते हैं. इसके लिए दो चीजों की जरूरत है, एक तो जन-स्वास्थ्य की प्रभावी सरकारी नीतियां बनें और दूसरे इन नीतियों के सही तरीके से क्रियान्वयन के लिए जागरूकता फैलायी जाये.   सरकार ने पिछले बजट में स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए अहम घोषणाएं की थीं. सरकार ने बजट में सभी को स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया था. राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना या आयुष्मान जैसी नीतियों से ही आम लोगों को अच्छी स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया करायी जा सकती हैं. हमें ऐसी ही नीतियों की जरूरत है, जो जन-स्वास्थ्य सेवाओं की सर्वसुलभता सुनिश्चित कर सकें. इस योजना के तहत जो पचास करोड़ लोगों के स्वास्थ्य के बीमा की बात कही गयी है, यह बहुत शानदार तो है, लेकिन जरूरत इस बात को सुनिश्चित करने की है कि इसका क्रियान्वयन कितनी ईमानदारी से होता है. इस बीमा योजना से समाज के गरीब तबके के लोगों की सेहत सुधरेगी और उनको आर्थिक तौर पर मजबूत करने में मदद भी मिलेगी, क्योंकि तब गरीबों को इलाज के लिए कर्ज नहीं लेना पड़ेगा. उम्मीद तो है कि सरकार इसे बेहतर तरीके से लागू करे. गांव और गरीबों के जीवन में सार्थक बदलाव लाने और गरीब से गरीब आदमी को भी बेहतर स्वास्थ्य सुविधा मिले, इसके लिए छोटे-बड़े सभी सरकारी अस्पतालों में तमाम मेडिकल सुविधाओं को उपलब्ध कराना होगा. स्वास्थ्य सुविधाओं के अभाव का न सिर्फ लोगों की सेहत पर असर पड़ता है, बल्कि समाज की आर्थिक स्थिति पर भी असर पड़ता है. जब आर्थिकी पर असर पड़ेगा, तो जाहिर है, हम अभावग्रस्त होकर कई अन्य और गंभीर बीमारियों का भी शिकार हो सकते हैं. इसका नतीजा लांसेट जैसी सूचकांकों में या फिर तमाम रिपोर्टों में हमारा खराब प्रदर्शन के रूप में होगा.   नीति आयोग के हेल्थ इंडेक्स में केरल टॉप  नीति आयोग ने पहली बार स्वास्थ्य सुविधाओं के आधार पर राज्यों की रैंकिंग जारी की है. इसमें पिछले साल के मुकाबले स्वास्थ्य संबंधी सूचकों और उनमें हुए गुणवत्तापूर्ण सुधारों को फोकस किया गया है. इसमें टॉप पांच और बॉटम पांच राज्य इस प्रकार हैं :  भारत में स्वास्थ्य सेवा पर सरकारी खर्च बहुत कम भारत में स्वास्थ्य सेवाओं पर सरकारी खर्च बहुत कम है. देश में स्वास्थ्य सेवाओं पर प्रति व्यक्ति औसतन 69 डॉलर खर्च किया गया था वर्ष 2013 में. वर्ष 2017 में यह 58 डॉलर ही रहा. दूसरी ओर दक्षिण एशिया के कई देशों में इस मद में भारत से कहीं अधिक खर्च किया जाता है.   देश            स्वास्थ्य पर खर्च   मलयेशिया     418  चीन               322  थाइलैंड        247  फिलीपींस      115  इंडोनेशिया      108  नाइजीरिया       93  श्रीलंका           88 (नोट : खर्च औसतन प्रति व्यक्ति डॉलर में, आंकड़े वर्ष 2017 के अनुसार) हेल्थ सेक्टर में जीडीपी प्रतिशत  स्वास्थ्य सेक्टर में जीडीपी के प्रतिशत के सरकारी आंकड़ों पर गौर करें, तो दक्षिण एशियाइ देशों के मुकाबले भारत में यह बहुत कम (1. 3 %) है.  देश   स्वास्थ्य पर खर्च  मलयेशिया    4.2 चीन             6.0 थाइलैंड         4.1 फिलीपींस      4.7 इंडोनेशिया      2.8 श्रीलंका          3.5 पाकिस्तान       2.6 (नोट : खर्च जीडीपी के प्रतिशत के तौर पर है और आंकड़े वर्ष 2017 के अनुसार) बड़े शहरों तक सीमित स्वास्थ्य सेवाएं  70 फीसदी स्वास्थ्य सेवाओं का बुनियादी ढांचा देश के 20 बड़े शहरों तक ही सीमित है.  30 फीसदी भारतीय हर साल स्वास्थ्य देखभाल पर खर्च के कारण गरीबी रेखा के दायरे में आ जाते हैं.  20 फीसदी वैश्विक बीमारियों का बोझ अकेले भारत झेल रहा है.  30 फीसदी लोग प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं देशभर में. 1,000 आबादी पर केवल एक डॉक्टर, 1.3 नर्स और 1.1 बेड हैं भारत में.  किस विधा में कितने विशेषज्ञ मेडिकल विशेषज्ञ        संख्या  एलोपैथी डॉक्टर     10,22,859 डेंटल सर्जन          1,97,734 आयुष प्रैक्टिशनर     7,71,468 सहायक नर्स        8,21,147 सरकारी डॉक्टर     1,13,328 नोट : महाराष्ट्र में सर्वाधिक रजिस्टर्ड डॉक्टर हैं. यहां इनकी संख्या 1,53,513 है, (स्रोत : विश्व स्वास्थ्य संगठन) भारत में मेडिकल एजुकेशन मेडिकल एजुकेशन       संख्या      छात्रों की संख्या  मेडिकल कॉलेज           462        56,748 डेंटल (बीडीएस)        309       26,790 डेंटल (एमडीएस)        242       6,019 नर्सिंग            3,123        1,25,764 फार्मेसी           777 46,795 (स्रोत : नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2017, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय, भारत सरकार) सरकारी बनाम निजी अस्पताल भारत में प्राइवेट सेक्टर में स्वास्थ्य सुविधाएं बढ़ती जा रही हैं. लेकिन सरकारी क्षेत्र में इसका विस्तार नहीं हो रहा है. लिहाजा, बड़ी आबादी को सार्वजनिक  स्वास्थ्य सेवाओं की सुविधा से वंचित रहना पड़ रहा है. करीब 72 फीसदी ग्रामीण आबादी को प्राइवेट हेल्थकेयर सेवाओं का इस्तेमाल करना पड़ता है देशभर में.  क्या है लैंसेट की रिपोर्ट मेडिकल जर्नल 'लैंसेट' में हाल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2016 में स्वास्थ्य सेवा के उपयोग और उसकी गुणवत्ता यानी एचएक्यू (हेल्थकेयर एक्सेस एंड क्वालिटी) के मामले में भारत 41.2 अंकों के साथ 145वें स्थान पर रहा. यहां भारत, चीन (48), श्रीलंका (71), दक्षिण एशियाई देशों बांग्लादेश (133) और भूटान (134) से भी पीछे है. लेकिन नेपाल (149), पाकिस्तान (154) और अफगानिस्तान (191) से आगे है. यह रिपोर्ट 'ग्लोबल बर्डन ऑफ डिजीज' के 1990 से 2016 के बीच 195 देशों व क्षेत्रों के साथ-साथ वैश्विक और क्षेत्रीय स्तर पर किये गये अध्ययन पर आधारित है. इस सूचकांक में मृत्यु के उन 32 कारणों को आधार बनाया गया है, जिन्हें प्रभावी चिकित्सा देखभाल के जरिये रोका जा सकता है. इस अध्ययन ने प्रत्येक देश को शून्य से 100 के बीच एचएक्यू अंक दिये हैं.  यूपी व असम की स्थिति िचंताजनक इस रिपोर्ट के मुताबिक, अगर भारतीय राज्यों की बात की जाये, तो उत्तर प्रदेश और असम की स्थिति देशभर में सबसे खराब है. इन दोनों ही राज्यों को 35.9 एचएक्यू अंक से भी कम प्राप्त हुए हैं. भारतीय राज्यों में केरल व गोवा ने 60 से अधिक एचएक्यू अंक प्राप्त कर सबसे अच्छा प्रदर्शन किया है. वहीं मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, बिहार, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय व मणिपुर सहित अन्य राज्यों ने इस सूचकांक में 35.9 से 44.8 के बीच अंक प्राप्त किया है. स्किन कैंसर में भारत की दयनीय दशा भले ही वर्ष 1990 के 24.7 और 2000 के 28.0 एचएक्यू अंकों की तुलना में 41.2 अंकों के साथ 2016 में भारत ने अपनी स्थिति में सुधार किया है, लेकिन मृत्यु के 32 कारणों में से 24 में हमारे देश को 50 से भी कम अंक मिले हैं. स्किन कैंसर के मामले में भारत की स्थिति चिंताजनक है और यहां उसने महज 12 अंक ही प्राप्त किया है, जबकि हॉजकिंस लिम्फोमा के लिए 18 व नवजात मृत्यु के लिए उसे 24 अंक मिले हैं. टीबी, जो भारत के लिए चिंता का विषय है, उसके लिए 30 एचएक्यू अंक मिले हैं. इस अध्ययन के अनुसार, रुमेटिक हार्ट डिजीज, इस्केमिक हार्ट डिजीज, स्ट्रोक, टेस्टिकुलर कैंसर, कोलोन कैंसर, क्रॉनिक किडनी डिजीज आदि बीमारियों को लेकर भारत का प्रदर्शन बेहद लचर है. रिपोर्ट से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण तथ्य ऐसा पहली बार हुआ है, जब लैंसेट ने एचएक्यू के आधार पर सात देशों- भारत, ब्राजील, चीन, इंग्लैंड, जापान, मेक्सिको व अमेरिका के विभिन्न क्षेत्रों से जुड़े आंकड़ों को प्रकाशित किया है. रिपोर्ट में बताया गया है कि 2000-2016 के बीच वैश्विक स्तर पर अनेक देशों ने बेहतर प्रदर्शन किया है. इन देशों में कम व मध्यम आय वाले उप-सहारा मरुस्थल के अफ्रीकी देश व दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों के साथ इथोपिया, रवांडा, इक्वेटोरियल गिनी, म्यांमार व कंबोडिया शामिल हैं. वहीं, अमेरिका और प्यूर्टोरिको, पनामा व मेक्सिको जैसे लैटिन अमेरिकी देशों की प्रगति स्वास्थ्य के मामले में थम सी गयी है या उसमें कमी आयी है. आइसलैंड, नॉर्वे व नीदरलैंड स्वास्थ्य सेवा के उपयोग व गुणवत्ता के मामले में उच्चतम स्तर पर हैं जबकि सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिकन, सोमालिया और गिनी-बिसाउ न्यूनतम स्तर पर हैं. 42.2 एचएक्यू अंक था वर्ष 2000 में वैश्विक औसत, जो 2016 में बढ़कर 54.4 पर  पहुंच गया. 13.5 अंक प्राप्त हुआ था न्यूनतम सोमालिया को वर्ष 2000 में, जबकि आइसलैंड को अधिकतम 92.1 अंक प्राप्त  हुआ था.  18.6 अंक न्यूनतम हासिल हुए वर्ष 2016 में सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक को और आइसलैंड को अधिकतम 97.1 अंक मिले.  नोट : इन दोनों वर्षों में सबसे खराब व सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाले देशों के बीच अंकों का अंतर (वर्ष 2000 के 79.3 व वर्ष 2016 में 78.5 अंक) लगभग एक समान ही रहा. बेहतर प्रदर्शन करनेवाले  शीर्ष पांच देश देश    अंक आइसलैंड  97.1 नॉर्वे                                                  96.6 नीदरलैंड                                       96.1 लक्जमबर्ग                                       96.0 फिनलैंड व ऑस्ट्रेलिया               95.9 सबसे खराब प्रदर्शन  करनेवाले पांच देश सेंट्रल अफ्रीकन रिपब्लिक                18.6 सोमालिया                                       19.0 गिनी-बिसाउ                                       23.4 चाड                                                   25.4 अफगानिस्तान                           25.9 (नोट : प्रदर्शन एचएक्यू अंकों के आधार पर  )

HEALTH SCENARIO

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत ज्यादा ठीक नहीं-

हमारे देश की वर्तमान सरकार के सारे  दावों के बावजूद हमारे देश के  स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर ज्यादा ठीक दिखाई नहीं देती है |  साल में प्रति व्यक्ति सिर्फ 1,112 रुपये के साथ भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी ताजा नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट ने भी इन हालातों के ठीक न होने की बात को ही एक तरह से सही ठहराया लगता है |   इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 11,082 लोगों पर सिर्फ  एक एलौपैथिक डॉक्टर ही है। स्वास्थ्य पर किया जाने वाला खर्च भी भारत में  जीडीपी का महज एक फीसदी ही है जो स्वास्थय के क्षेत्र में खर्च किया जाता है|  यह स्वास्थय पर किया जाने वाला खर्च  पड़ोसी देशों मालदीव, भूटान, श्रीलंका और नेपाल के मुकाबले भी कम ही  है। देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हर साल प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन कहें तो  तीन रुपए खर्च किए जाते हैं।

रिपोर्ट क्या दर्शाती है -

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो आफ हेल्थ इंटेलिजेंस द्वारा यह रिपोर्ट जारी की गई है|  कुछ बातें रिपोर्ट में हैं जिनका यहाँ पर जिक्र करना प्रासंगिक होगा |  रिपोर्ट बताती  है कि 
* वर्ष 2017 में   सरकार के राष्ट्रीय परीक्षण कार्यक्रम के तहत जांच से मधुमेह और हाइपरटेंशन की मरीजों की तादाद महज एक साल में दोगुनी होने का खुलासा हुआ है।
*  एक साल के दौरान कैंसर के मामले भी 36 फीसदी बढ़ गए हैं। 
* रिपोर्ट के मुताबिक, देश में डॉक्टरों की भारी कमी है  जिसका खामियाजा मरीजों को भुगतना पड़ रहा है । फिलहाल प्रति 11,082 आबादी पर महज एक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के मुताबिक यह अनुपात एक डाक्टर  प्रति एक हजार की आबादी पर (1:1000) होना चाहिए यानी देश में यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है। बिहार जैसे गरीब राज्यों में तो तस्वीर और भी मायुश करने वाली है | वहां प्रति 28,391 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है। ।  उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी तस्वीर बेहतर नहीं है।हरयाणा जैसे आर्थिक स्तर पर आगे बढे प्रान्त में भी डाक्टरों की कमी अखरने वाली ही है 
             मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख डॉक्टर पंजीकृत थे। सरकारी अस्पतालों में इन डाक्टरों में से महज  1.2 लाख डॉक्टर ही हैं। बीते साल सरकार ने संसद में बताया था कि निजी और सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले लगभग 8.18 लाख डाक्टरों को ध्यान में रखें तो देश में डॉक्टर और मरीजों का अनुपात 1:1,612 हो सकता है। लेकिन यह तादाद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुकाबले तो कम ही है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि तय मानक पर खरा उतरने के लिए भारत  को फिलहाल  पांच लाख डॉक्टरों की और जरूरत है। धयान देने वाली बात है कि हर साल यह मांग और बढ़ जाती है ।
              स्वास्थय के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में ग्रामीण इलाकों की हालत और भी ज्यादा ख़राब है | ग्रामीण क्षेत्र में डॉक्टरों की भारी कमी है। इस कमी के चलते  मरीजों के पास ग्रामीण क्षेत्र में काम  करने वाले अनट्रेंड  के पास इलाज करवाने के लिए जाने  के इलावा कोई विकल्प नहीं बचता | कुछ इलाकों में इन डाकटरों को झोला छाप डाक्टर भी कहा जाता है |  ग्रामीण इलाकों में अंट्रेंड  डॉक्टरों की तादाद काफी  बढ़ी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2016 की अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में एलोपैथिक डाक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई लोगों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है। देश में फिलहाल मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की 67 हजार सीटें हैं। इनमें से भी 13 हजार सीटें पिछले चार सालों में बढ़ी हैं। बावजूद इसके डॉक्टरों की तादाद पर्याप्त नहीं है। सामाजिक संगठन मेडिकल एड के प्रवक्ता आशीष नंदी कहते हैं, "केंद्र की आयुष्मान भारत योजना ने कुछ उम्मीदें जरूर जगाई हैं। लेकिन डाक्टरों की कमी दूर नहीं होने तक खासकर ग्रामीण इलाकों में लोगों को इसका खास फायदा मिलने की उम्मीद कम ही है।" जो डाक्टर पास आउट करते हैं उनके लिए नीतिगत आधार बनाये जाने की भी जरूरत है कि वे तीन साल के लिए ग्रामीण इलाकों में सर्विस जरूर करें | 

स्वास्थय के क्षेत्र में होने वाला खर्च -

जहाँ तक स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च का  मामला  है इस मामले में  भारत अपने आस पास के कई पड़ोसी देशों  से भी पीछे है। हमारे में  इस मद में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का  एक फीसदी ही खर्च किया जाता है। दुसरे सेशों से तुलना करें तो इस मामले में हमारा देश  मालदीव (9.4 फीसदी), भूटान (2.5 फीसदी), श्रीलंका (1.6 फीसदी) और नेपाल (1.1 फीसदी) से भी पीछे है। यह काफी गंभीर बात है कि स्वास्थय पर भारत में इतना कम खरच क्यों किया जा रहा है ? दक्षिण एशिया क्षेत्र के 10 देशों की सूची में भारत सिर्फ बांग्लादेश से पहले नीचे से दूसरे स्थान पर है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में स्वास्थ्य के मद में खर्च बढ़ाकर जीडीपी का 2.5 फीसदी करने का प्रस्ताव है। लेकिन भारत अब तक वर्ष 2010 में तय लक्ष्य के मुताबिक यह खर्च दो फीसदी करने का लक्ष्य भी हासिल नहीं कर सका है। ऐसे में ढाई फीसदी का लक्ष्य हासिल करना बेमानी ही लगता है।
            स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय गैर-सरकारी संगठनों का मानना  है कि मौजूदा हालात में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तय लक्ष्यों को समय सीमा के भीतर हासिल करना काफी मुश्किल काम है। इसके लिए राजनितिक इच्छा शक्ति की बहुत जरूरत है मगर वह आज के दिन बहुत कम दिखाई देती है |  पीपीपी मोड के माध्यम से स्वास्थय सेवाओं का निजीकरण किया जा रहा है जिसके चलते आम आदमी के लिए गुणवत्ता वाली स्वास्थय सेवाओं तक पहुंच बनाना बहुत ही मुश्किल काम है या कहें तो संभव नहीं है | इन लक्ष्यों में  नवजात शिशुओं की मृत्य-दर घटाने और वर्ष 2025 तक तपेदिक यानी टीबी को पूरी तरह खत्म करने जैसे लक्ष्य शामिल हैं। एक बात और गौर करने लायक है कि उक्त रिपोर्ट में इस बात का खुलासा नहीं किया गया है कि स्वास्थ्य के मद में आम लोग अपनी जेब से कितनी रकम खर्च करते हैं। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बीते साल अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि देश में स्वास्थ्य के मद में होने वाले कुल खर्च का 67.78 फीसदी लोगों की जेब से निकलता है जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 18.2 फीसदी है। कुछ रिपोर्ट इससे भी ज्यादा जेब पॉकेट स्वास्थय खर्च बताती हैं | गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि स्वास्थ्य पर होने वाले भारी-भरकम खर्च के चलते हर साल औसतन चार करोड़ भारतीय परिवार गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। यह बहुत ही सोचनीय और गंभीर मामला है |  इस सब के बावजूद सरकार पीपीपी मोड को बढ़ावा दे रही है | इन  निजीकरण के तरीकों से हालत और ख़राब ही होंगे |  

कल  की स्वास्थ्य सेवाएं 

कहने को , इस बदहाली के बावजूद केंद्र सरकार ने हालात में सुधार करने का भरोसा जताया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा कहते हैं, "राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना आयुष्मान भारत शुरू होने के बाद लोगों की जेब से होने वाले खर्चों में कमी आएगी।" इसके तहत दस करोड़ गरीब परिवारों को प्रति परिवार पांच लाख का सालाना स्वास्थ्य बीमा मिलेगा। वर्ष 2016-17 के दौरान देश में महज 43 करोड़ लोगों ने किसी न किसी तरह का स्वास्थ्य बीमा कराया था. यह कुल आबादी का 34 फीसदी है।जन स्वास्थय अभियान ने पहले ही कहा है कि ऐसी प्राइवेट कंपनियों द्वारा संचालित बीमा योजनाओं से पूरी तरह पीछे हटा जाये और विकल्प में सरकारी स्वास्थय सेवाओं को मजबूत किया जाये सरकार द्वारा ही न कि सभी प्राथमिक , द्वितीय तथा तृतीय सेवाओं की आउट सोर्सिंग करके |  सरकारी सेवाओं के सहायक के रूप में हो निजी क्षेत्र न कि विकल्प के रूप में हो निजी क्षेत्र | 
सरकारी स्वास्थ्य   सेवाएं ही जरूरी हैं बड़ी आबादी के लिए--  
              मेडिकल एड के आशीष नंदी कहते हैं, "सरकारी दावों के बावजूद स्वास्थ्य के क्षेत्र में तस्वीर निकट भविष्य में सुधरने की खास उम्मीद नहीं है। स्वास्थ्य क्षेत्र को सुधारने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों को साझा प्रयास करने होंगे।" पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन के अध्यक्ष श्रीनाथ रेड्डी कहते हैं, "स्वास्थ्य के क्षेत्र में आवंटन नहीं बढ़ाने की वजह से ही निजी क्षेत्र मरीजों को मनमाने तरीके से लूट रहे हैं।" उनका कहना है कि मौजूदा हालात की वजह से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से लोगों का भरोसा धीरे-धीरे खत्म हो रहा है और वह भारी-भरकम रकम चुकाकर बीमारियों के इलाज के लिए निजी क्षेत्र की शरण में जा रहे हैं। इन संगठनों का कहना है कि सरकार को ही एक ऐसी सरकारी व्यवस्था बनानी होगी, जैसा जन स्वास्थय अभियान ने भी कहा है, जिसमें स्वास्थ्य सेवाओं तक सबकी आसान पहुंच हो और कम खर्च में इलाज हो सके।
रणबीर सिंह दहिया 
रिटायर्ड सीनियर प्रोफेसर सर्जरी 
पी जीआई एम एस रोहतक  

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति बदहाल, सरकारी रिपोर्ट में सामने आए चौंकाने वाले ब्यौरे

सरकार के तमाम दावों के बावजूद भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर बदहाल नजर आती है। साल में प्रति व्यक्ति सिर्फ 1,112 रुपये के साथ भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में है।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी ताजा नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट ने भी इस बदहाली पर मुहर लगा दी है। इसमें कहा गया है कि भारत में 11,082 लोगों पर महज एक एलौपैथिक डॉक्टर है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में यहां जीडीपी का महज एक फीसदी खर्च किया जाता है जो पड़ोसी देशों मालदीव, भूटान, श्रीलंका और नेपाल के मुकाबले भी कम है। देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हर साल प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन महज तीन रुपए खर्च किए जाते हैं।

क्या कहती है रिपोर्ट

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो आफ हेल्थ इंटेलिजेंस की ओर से जारी रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्ष 2017 के दौरान सरकार के राष्ट्रीय परीक्षण कार्यक्रम के तहत जांच से मधुमेह और हाइपरटेंशन की मरीजों की तादाद महज एक साल में दोगुनी होने का खुलासा हुआ है। एक साल के दौरान कैंसर के मामले भी 36 फीसदी बढ़ गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, देश डॉक्टरों की भारी कमी से जूझ रहा है। फिलहाल प्रति 11,082 आबादी पर महज एक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के मुताबिक यह अनुपात एक प्रति एक हजार (1:1000) होना चाहिए यानी देश में यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है। बिहार जैसे गरीब राज्यों में तो तस्वीर और भयावह है। वहां प्रति 28,391 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है। उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी तस्वीर बेहतर नहीं है।
मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख डॉक्टर पंजीकृत थे। इनमें से सरकारी अस्पतालों में 1.2 लाख डॉक्टर हैं। बीते साल सरकार ने संसद में बताया था कि निजी और सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले लगभग 8.18 लाख डाक्टरों को ध्यान में रखें तो देश में डॉक्टर और मरीजों का अनुपात 1:1,612 हो सकता है। लेकिन यह तादाद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुकाबले कम ही है। इसका मतलब है कि तय मानक पर खरा उतरने के लिए देश को फिलहाल और पांच लाख डॉक्टरों की जरूरत है। लगातार बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए यह खाई हर साल तेजी से बढ़ रही है।
गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में ग्रामीण इलाकों की हालत काफी बदहाल है। वहां डॉक्टरों की भारी कमी है। इस कमी का फायदा उठाते हुए उन इलाकों में झोला छाप डॉक्टरों की तादाद तेजी से बढ़ी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2016 की अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में एलोपैथिक डाक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई लोगों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है। देश में फिलहाल मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की 67 हजार सीटें हैं। इनमें से भी 13 हजार सीटें पिछले चार सालों में बढ़ी हैं। बावजूद इसके डॉक्टरों की तादाद पर्याप्त नहीं है। सामाजिक संगठन मेडिकल एड के प्रवक्ता आशीष नंदी कहते हैं, "केंद्र की आयुष्मान भारत योजना ने कुछ उम्मीदें जरूर जगाई हैं। लेकिन डाक्टरों की कमी दूर नहीं होने तक खासकर ग्रामीण इलाकों में लोगों को इसका खास फायदा मिलने की उम्मीद कम ही है।"

पड़ोसियों से पीछे

स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च के मामले भारत अपने पड़ोसियों से भी पीछे है। यहां इस मद में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का महज एक फीसदी खर्च किया जाता है। इस मामले में यह मालदीव (9.4 फीसदी), भूटान (2.5 फीसदी), श्रीलंका (1.6 फीसदी) और नेपाल (1.1 फीसदी) से भी पीछे है। दक्षिण एशिया क्षेत्र के 10 देशों की सूची में भारत सिर्फ बांग्लादेश से पहले नीचे से दूसरे स्थान पर है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में स्वास्थ्य के मद में खर्च बढ़ाकर जीडीपी का 2.5 फीसदी करने का प्रस्ताव है। लेकिन भारत अब तक वर्ष 2010 में तय लक्ष्य के मुताबिक यह खर्च दो फीसदी करने का लक्ष्य भी हासिल नहीं कर सका है। ऐसे में ढाई फीसदी का लक्ष्य हासिल करना बेमानी ही लगता है।
स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय गैर-सरकारी संगठनों का कहना है कि मौजूदा हालात में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तय लक्ष्यों को समयसीमा के भीतर हासिल करना असंभव है। इनमें नवजात शिशुओं की मृत्य-दर घटाने और वर्ष 2025 तक तपेदिक यानी टीबी को पूरी तरह खत्म करने जैसे लक्ष्य शामिल हैं। उक्त रिपोर्ट में इस बात का खुलासा नहीं किया गया है कि स्वास्थ्य के मद में आम लोग अपनी जेब से कितनी रकम खर्च करते हैं। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बीते साल अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि देश में स्वास्थ्य के मद में होने वाले कुल खर्च का 67.78 फीसदी लोगों की जेब से निकलता है जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 18.2 फीसदी है। गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि स्वास्थ्य पर होने वाले भारी-भरकम खर्च के चलते हर साल औसतन चार करोड़ भारतीय परिवार गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं।

भविष्य की तस्वीर

वैसे, इस बदहाली के बावजूद केंद्र सरकार ने हालात में सुधार का भरोसा जताया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा कहते हैं, "राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना आयुष्मान भारत शुरू होने के बाद लोगों की जेब से होने वाले खर्चों में कमी आएगी।" इसके तहत दस करोड़ गरीब परिवारों को प्रति परिवार पांच लाख का सालाना स्वास्थ्य बीमा मिलेगा। वर्ष 2016-17 के दौरान देश में महज 43 करोड़ लोगों ने किसी न किसी तरह का स्वास्थ्य बीमा कराया था. यह कुल आबादी का 34 फीसदी है।
मेडिकल एड के आशीष नंदी कहते हैं, "सरकारी दावों के बावजूद स्वास्थ्य के क्षेत्र में तस्वीर निकट भविष्य में सुधरने की खास उम्मीद नहीं है। स्वास्थ्य क्षेत्र को सुधारने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों को साझा प्रयास करने होंगे।" पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन के अध्यक्ष श्रीनाथ रेड्डी कहते हैं, "स्वास्थ्य के क्षेत्र में आवंटन नहीं बढ़ाने की वजह से ही निजी क्षेत्र मरीजों को मनमाने तरीके से लूट रहे हैं।" उनका कहना है कि मौजूदा हालात की वजह से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से लोगों का भरोसा धीरे-धीरे खत्म हो रहा है और वह भारी-भरकम रकम चुकाकर बीमारियों के इलाज के लिए निजी क्षेत्र की शरण में जा रहे हैं। इन संगठनों का कहना है कि सरकार को एक ऐसी व्यवस्था बनानी होगी जिसमें स्वास्थ्य सेवाओं तक सबकी आसान पहुंच हो और कम खर्च में इलाज हो सके।

Friday, 28 February 2020

SDG

SDG 3: Universal health coverage through National Health Mission, Ayushman Bharat Haryana Health Protection Mission, Mukhyamantri Muft Ilaaj Yojana, Integrated Child Development Services, improvement and expansion of health institutions, immunization programmes, medical education & research, and promotion of AYUSH healthcare services. 
Ø SDG 4: Quality education through interventions under Sarva Shiksha Abhiyan, Rashtriya Madhyamik Shiksha Abhiyan, Rashtriya Uchhtar Shiksha Abhiyan, promotion of higher education in the State through expansion of education infrastructure, providing qualified teachers, promotion of SC/BC students through monthly stipends, awards and scholarships.

2020-21 Budget

स्वास्थ्य तथा महिला एव ं बाल विकास ऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋऋ हरियाणा सरकार प्रदेश क े नागरिकों को उच्च कोटि की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करान े क े लिए वचनबद्व है। स्वास्थ्य विभाग भवनों, स्वास्थ्य अमला, उपकरणों, दवाओं को निरतंर तरीक े स े उपलब्ध करान े में अग्रसर है। स्वास्थ्य विभाग, हरियाणा प्रद ेश क े सभी नागरिकों (शिशु, बच्चे, युवाओं, माताआंे तथा आपातकालीन रोगियों) की स्वास्थ्य सम्बन्धी जरूरतों को पूर्ण करने में प्रयासरत है। इसक े अतिरिक्त संचारी व गैर-संचारी रोगों की भी सावधानीपूर्वक जांच तथा रिकार्डि ंग, रिपोर्टि  ंग और योजना की मजबूत प्रणाली बनाये रखन े क े लिए निर ंतर प्रयासरत है। स्वास्थ्य स ंरचना 6.2 राज्य सरकार राज्य के सभी नागरिकों को उच्च कोटि की एवं सस्ती स्वास्थ्य स ेवाएं प्रदान करने क े लिए प्रतिबद्व है। स ंचारी एवं गैर-संचारी रोगों की सावधानीपूर्वक जांच तथा रिकार्डिग, रिपोर्टि ंग और योजना की मजबूत प्रणाली बनाये रखन े के लिए निरत ंर प्रयासरत है। मुख्यमंत्री मुफ्त ईलाज योजना (एम.एम.आई.वाई.) 6.3 मुख्यमंत्री मुफ्त ईलाज योजना क े तहत सरकारी स्वास्थ्य स ंस्थाओं म ें 7 प्रकार की स ेवाएं नामतः सर्ज री, प्रयोगशाला जांच, डाईगनोसिस्ट (एक्सर े, ई.सी.जी. व अल्ट्रासाउंड स ेवाएं), आ े.पी.डी-आई.पी.डी. स ेवाएं, दवाईयां, र ेफरल परिवहन और डेन्टल उपचार की मुफ्त सुविधा दी जा रही है। इसक े अतिरिक्त हिमोडाईलिसिस, सी.टी स्केन/एम.आर.आई तथा क ैथ लैब की सेवाएं भी 7 श्रेणी के मरीजों को मुफ्त प्रदान की जा रही है जैसे बी.पी.एल., अन ुसूचित जाति (एस.सी.), शहरी मलिन बस्ती क े निवासी, विकलांग भत्ता प्राप्त करने वाले, हरियाणा सरकारी कर्मचारी एवं पै ंशनर तथा उन पर आश्रित रोगी, पंहुच स े बाहर सड़क के किनार े द ुर्घटना के शिकार और गरीब रोगिया ें को, जो उक्त श्रेणियों स े सम्बन्धित नहीं हैं। सार्वजनिक निजी भागीदारी 6.4 सार्वजनिक निजी भागीदारी क े तहत सरकार लोगों को सीटी स्क ैन, एम.आर.आई., हेमोडायलिसिस और कैथ लैब स ेवाएं प्रदान कर रही है। सी.टी. स्क ैन स ेवाएं 16 जिला सिविल अस्पतालों (भिवानी, फरीदाबाद, पंचक ुला, गुरूग्राम, क ैथल, क ुरुक्षेत्र, सोनीपत, यमुनानगर, पलवल, जीन्द, सिरसा, अम्बाला शहर, अम्बाला छावनी, रोहतक और पानीपत) में उपलब्ध है ं। एम.आर.आई. स ेवाएं 4 जिला सिविल अस्पतालों (पंचक ूला, फरीदाबाद, गुरूग्राम और भिवानी) में उपलब्ध है ं। हेमोडायलिसिस की सेवाएं 19 जिला सिविल अस्पतालों कार्डियोलॉजी सर्विस ेज अर्थात क ैथ लैब और कार्डिएक क ेयर यूनिट और एंजियोग्राफी, एंजियोप्लास्टी ज ैसी सेवाओं क े लिए 20 बिस्तरों वाला कार्डियक केयर यूनिट अम्बाला क ै ंट, पंचक ुला, फरीदाबाद और गुरुग्राम क े सिविल अस्पतालों म ें स्थापित किये गये है।