Wednesday, 16 June 2021

आज का दौर और हमारी सेहत

आज का दौर और हमारी सेहत

भारत की और हरियाणा के स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे में भी व्यापक स्तर की पुर्नगठन की प्रक्रियाएं जारी हैं और पिछले दशक से और तेजी पकड़ रही हैं बड़े पैमाने पर प्राईवेट मैडीकल सैक्टर का फैलाव ,  स्वास्थ्य सेवाओं में प्राईवेट इंशोरैंस कम्पनियों की दखलन्दाजी ,  सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में मैडीकल सर्विसिज के लिए पेमैंट सिस्टम की शुरुआत 

        पिछले दशकों में हुई तीन मुख्य तबदीलियां हैं। मैडीकल एजुकेशन का बड़े पैमाने पर व्यापारिकरण साफ नजर आने लगा है जब कई राज्यों में प्राईवेट मैडीकल कालेजों में एम बी बी एस कोर्स की फीस दो करोड़ रुपये कर दी गई है। हरियाणा के बुढ़ेड़ा मैडीकल कालेज में भी एक करोड़ की फीस बताई जा रही है। जिस तेजी के साथ ये बदलाव रहे हैं इससे एक संशय की बड़ी जगह संवेदनशील दिमागों में बनती है। हो सकता है कि यदि हम उस रफतार से चले तो आने वाले कुछ वर्षों में हम स्वास्थ्य क्षेत्र में अमरीकी मॉडल जो कि बहुत मंहगा है, मुनाफे से संचालित है, तकनीक(टैक्नोलोजी) इंटैंसिव है, अन्यायपूर्ण ना बराबरी पर टिका हुआ है, को भारत वर्ष में प्रस्थापित कर देंगे।पूरी पूरी सम्भावना है कि बहुत जल्द ही हमारा स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जायेगा। हम में से काफी लोग यह भी महसूस करते हैं कि इससे उपजा असंतोष जन मंचों के माध्यम से अभिव्यक्ति पा रहा है और आने वाले समय में और तीखे स्वरों में उठाया जायेगा। इसमें एक हैरानी की बात यह है कि सरकारें तथा उनकी एजैंसीज भी इस कोरस में शामिल हो रही हैं। कोरोना की महामारी ने इन सब बातों को जग जाहिर कर दिया है।

 

   गुड गर्वनैस के सिद्धान्त पर चलते हुए स्वास्थ्य सेवाओं की दोहरी व्यवस्था - एक अमीरों के लिए और एक गरीबों के लिए- के नियम को आगे बढ़ाया जा रहा है ताकि समता के मसले को आसानी से टैक्ल किया जा सके बिना उस प्रक्रिया के साथ छेड़खानी किये बगैर जिसके चलते विनिवेश की प्रक्रिया चालू रही रहे। समाज के एक छोटे से अमीर और सर्विस के हिस्से के लिए अर्न्तराष्ट्रीय  स्तर की उच्च तकनीक आधारित स्वास्थ्य सेवाओं का विकास किया जा रहा है और उसके माध्यम से फोरन एक्सचेंज कमाने का तर्क भी दिया जा रहा है। इसको हैल्थ टूरिज्म का नाम दिया गया है। गरीब लोगों के लिए सरकार विश्व बैंक की 1993 की रिपोर्ट पर आधारित सुझााव के हिसाब से ‘‘मुफत’’ ‘‘ मिनिमम क्लीनिकल पैकेज’’ देगी।

 मूलभूत सवाल यह उठता है कि गरीब लोगों की जो बीमारियों का परोफाइल क्या उसका जो ‘‘ मिनिमम एसैन्सियल क्लीनिकल पैकेज ’’ सुझाया जा रहा है , उसके साथ कोई तारतम्य भी है? इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि इस पैकेज से हम गरीबों की बीमारियों का इलाज सम्भव नहीं है। इसके साथ ही सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में लागू किये जा रहे यूजर चार्जिज के चलते समाज के इस हिस्से के लिए अपनी स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान के लिए कोई जगह शायद ही बच पायेगी। इसी कारण से गरीबों के हिस्सों में भी एक ऐसा रुझान देखने को मिलता है कि वे यदि सम्भव हो तो या कुछ बेचकर जुगाड़ करके प्राईवेट सैक्टर में अपना इलाज करवाते हैं। ऐसा वे तभी करते हैं जब उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता। बीमारी काफी गम्भीर होती है या इलाज काफी महंगा होता है तो वे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की शरण में आने को मजबूर होते हैं या प्राईवेट डाक्टर के पास लुट पिट कर सरकारी अस्पतालों में पहुंचते हैं इस आबजरवेशन की विडम्बना यह है कि लोगों और खासकर गरीब लोगों द्वारा अपने स्वास्थ्य पर किये जा रहे खर्च को उनकी इलाज के लिए ‘‘रजामन्दी’’ रुपी ब्यान के रुप में पेश किया जाता है। जबकि सच्चाई यही है कि दूसरे विकल्पों के अभाव में ऐसा किया जाता है कि एक च्वाइस के रुप में। उन सर्वेक्षणों को जो इलाज पर परिवार द्वारा किये गये खर्चों के संदर्भ में किये गये हैं दो क्रिटिकल फैक्टरज के संदर्भ में देखे जाने की जरुरत है। एक तो यही कि उस पैसे की उगाही किस तरह और किन हालात में की गई और दूसरा यह कि इस खर्चे का परिवार पर कुल मिलाकर क्या आर्थिक असर पड़ा। जहां इस प्रकार की स्टडीज में स्वास्थ्य पर हुए खर्च को तो उजागर किया जाता है मगर इस खर्च के कारण जो कर्ज में डूबने की बात है उस पर चुप्पी साध ली जाती है। यह बात गरीब लोगों के हितों के खिलाफ जाती है। मजबूरी में जमीन बेचते हैं लोग इस प्रकार की स्टडीज ने सर्विस के लिए पैसे वसूलने के सिद्धान्त को आधार दिया तथा पब्लिक अस्पतालों में भी ‘‘ यूजर चार्जिज’’ की शुरुआत हुई। यहां भी उदघोषित उद्येश्य बताया गया कि इन ‘‘ यूजर चार्जिजको गरीब लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा मगर असलियत यह है कि समाज का वह हिस्सा जो थोड़ा बहुत खर्च करने की क्षमता रखता है उसे भी ‘‘प्राईवेट हैल्थ सिस्टम’’ की और धकेल दिया गया है - साफ है कि यदि उसे पैसा खर्च करना है तो वह सैकेंड बैस्ट की च्वाइस क्यों करेगा ? और प्राईवेट अस्पतालों को राज्य सरकारों ने सरकारी कर्मचारियों के लिए एमपैनलमैंट पर रख कर और प्रोत्साहन दिया है। इन अस्पतालों में करीब 60 प्रतिशत मरीज सरकारी कर्मचारी होते हैं जिनका इलाज का खर्च सरकार वहन करती हैं। दूसरी तरफ पब्लिक सैक्टर के अस्पतालों मेंयूजर चार्जिजलागू होने के बावजूद वहां की गिरती हुई स्वास्थ्य सेवाओं के क्या कारण हैं? पंजाब में सरकारी अस्पतालों में मरीजों की संख्या काफी कम हुई है। इतना ही नहीं वर्तमान हालात में गरीब लोगों पर दोहरी मार पड़ रही है, जब वे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का इस्ते माल करते हैं तो एक तो पैसा देना पड़ता है अप्रत्यक्ष करों के रुप में और दूसरे सीधे टैक्स ‘‘ यूजर चार्जिज’’ के रुप में भी पैसा देना पड़ता है। प्राईवेट सैक्टर में कम्पीटीसन के नाम पर कम कीमत में स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने का तर्क दिया जाता है। मगर असली सच्चाई यही है कि जब बाजार व्यवस्था का एक मात्र लक्ष्य किसी भी कीमत पर अपना मुनाफा बढ़ाना हो तो प्राईवेट सैक्टर किसी भी कीमत पर किसी भी किस्म का कम्पीटीसन बर्दाश्त नहीं करता। सुधारीकरण के नाम पर सैकण्डरी और टरसरी स्तर की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को एक एक करके पी पी पी मॉडल के तहत प्राईवेट हाथों में देने के काम को एक तरह से प्राईवेटाइजेशन के सामने खड़े अवरोध को दूर करने की परिणीति के रुप में ही देखा जाना चाहिये। यहां तक भी तैयारी है कि सरकार अपनी भूमिका बदल ले। अब तक स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में सरकार की भूमिका  सर्विस प्रोवाइडर की रही है। मगर ब वह फाइनैंसर की भूमिका में रही है जो कि गरीबों के लिए प्राईवेट हैल्थ प्रोवाइडर से सेवाएं खरीद कर गरीबों को दिलवा सके। और यह बात प्राईवेट सैक्टर की स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वालों में कम्पीटीसन करवाकर गरीबों को क्वालिटी स्वास्थ्य सेवाएं हासिल करवाने का सरकार बहुत ही कारगर तरीका मान रही है। यह एक तरह से पहले से ही बड़े पैमाने पर सबसिडाइज्ड प्राईवेट हैल्थ सैक्टर को और अधिक सबसिडी देने का ही एक तरीका है।

 

    आज हम इतिहास के उस मुकाम पर हैं जहां भारतवर्ष ने उननिवेशवाद से मुक्ति पाये आजादी के 73 साल के करीब हो गये हैं।हम आज तिहास के उस मुकाम पर भी हैं जहां भारतवर्ष ने सहर्ष रुप में ढांचागत समायोजन कार्यक्रम स्वीकार करके नवउपेनिवेषवाद की नई गुलामी को एक बार फिर स्वीकार कर लिया है। इस 73 साल की आजादी के दौरान गरीब लोगों की एक ऐसी भी पीढी पैदा हुई जो अपने पूरे जीवन काल में ता उम्र दो जून की रोटी की लक्जरी के बगैर ही मर गई। दूसरी तरफ उन्होंने यह भी देखा कि उनके खून पसीने की कमाई से हुए विकास के फलों को समाज के एक छोटे हिस्से के कम्फरट और एन्ज्वायमैंट  के लिए सुरक्षित करके रख लिया गया- यह तबका है उच्च वर्ग और स्वर्ण जाति का। यह महज एक दुर्घटना की बात नहीं है कि हमारे समाज का यही हिस्सा जिसने हमारी आजादी के सबसे ज्यादा सुख भोगे आज हमारे देश की संप्रभुता और भविष्य को गिरवी रख कर अपने लिए  अर्न्तराष्ट्रीय स्तर के शासक वर्गों में अपना स्थान ढंढ़ रहा है। इस बात को समझना बहुत जरुरी है।

 

 73 साल के लगभग का समय कम नहीं होता  जिसमें हमें हमारे शासक वर्ग की नीतियों के बारे में, उनके इरादों के बारे में, लोगों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को लेकर अन्दाजा हुआ हो। पाले बन्दी साफ होती जा रही है। यह महज एक चांस की बात नहीं है बल्कि च्वाइस की बात है कि हमारे देश में लाखों लोग लम्बी भूख के दौर से गुजर रहे हैं जबकि गोदामों में अनाज पड़ा पड़ा सड़ रहा है। यह महज चांस नहीं मगर च्वाइस है जिसने अंतर्राष्ट्रीय पूंजी की डिक्टेटर सिप के लिए जमीन तैयार की है। हमारी राजसता से पार्लियामैंट को निष्क्रिय करवाने के इस पूंजी के गम्भीर प्रयास हो रहे हैं। उदाहरण के लिए यह महज चांस की बात नहीं है बल्कि च्वाइस का मसला है कि पिछले 73 साल में ‘‘ प्राइवेट मैडीकल सैक्टर’’ का किस तरह से विकास हुआ। हम इस बात का क्या जवाब दे सकते हैं कि 80 के आरम्भ के दशक में जो प्राइवेट हैल्थ सैक्टर 20 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कर रहा था वही अब 80 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कर रहा है। इस प्राइवेट हैल्थ सैक्टर में काम करने वाले डाक्टर कहां से आते हैं? क्या ये डाक्टर हमारे शिक्षा स्वास्थ्य शिक्षा के उत्पाद नहीं हैं जो बउ़े पैमाने पर गरीबों की मेहनत की कमाई में से सबसिडाइज्ड की जा रही है? गरीबों की यह कमाई इनडायरेक्ट टैक्सिज के द्वारा सरकार के पास पहंचती है। हमें क्यों नहीं झटका लगता है जब हम हिपोक्रेटिक औथ के बावजूद मैडीकल समुदाय के अन्दर जातिवाद और साम्प्रदायिकता बडे़ पैमाने पर महसूस करते हैं? क्या यह मैडीकल समुदाय की उसकी जाति वर्ग की लोकेशन के कारण नहीं है? क्या हमारी नीति में दोगलापन नहीं था या है? हमने आजादी के बाद लाइसैंसियेट डाक्टर जो कि हमारी बड़ी जनता की जरुरत था, की पढ़ाई जारी रखने की बजाय अर्न्तराष्ट्रीय दर्जे का डाक्टर बनाने की पढ़ाई पर जोर दिया जो पहले दुनिया के देशों में ब्रेनर्डेन के रुप में हमसे चला गया और आज देश में ही प्राइवेट सैक्टर में ब्रेन ड्रेन हो रहा हैं। हमारे गाव  तक हम इस डाक्टर को जाने के लिए अभी तक प्रोत्साहित नहीं कर पाये। कभी सोचा है हम कैसा डाक्टर पैदा कर रहे हैं? ऐसा आखिर क्यों किया गया?

 

    आज जब हम एक तरफ तो अर्न्तराष्ट्रीय  स्तर के ट्रेंड  डाक्टरों की बहुतायत हमारे पास हैतो क्या हम उन तथकथित सब स्टैंडर्ड लाइसैंसियेट डाक्टरों की गरीबों के इलाज के लिए बात कर सकते हैं ? जब हमने हमारी जनता के हिसाब से सफिसियैंट संख्या डाक्टरों की तैयार कर ली है तो हम रोजाना डाक्टरों की कमी का बहाना करके रोजाना और मैडीकल किस लिए  खोले जा रहे हैं? विश्व बैंक 1993 जिसने हमारे देश के स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे को दिशा निर्देश दिये वह सरप्लस डाक्टरों के बारे चुप्पी क्यों साधे हुए है? दूसरी तरफ सच्चाई यह है कि कई पश्चिमी देशों में भारत के डाक्टर बड़ी संख्या में मौजूद हैं हमारे देश की राष्ट्रीय  स्वास्थ्य नीति इस पर चुप क्यों है?उपनिवेशवाद की लिगेसी इसका जवाब नहीं हो सकती क्योंकि इसको पलटने के लिए हमारे पास ७३ साल का समय रहा है। महज इतना भर कह देना काफी नहीं है किपब्लिक हैल्थ केयर सिस्टमपर हमला बोला जा रहा है या इसे डिसमैंटल किया जा रहा है। बल्कि इसे परिभाषित करना बहुत आवश्यक  हो गया है। असल में किस चीज पर हमला किया जा रहा है और क्या डिसमैंटल किया जा रहा है इसे व्याख्यायित किया जाना बहुत जरुरी हो गया है। साथ ही यह भी देखना है कि किस तरह से यह सब गरीब लोगों के स्वास्थ्य को प्रभवित करेगा हालांकि गरीब लोग इन सब प्रक्रियाओं को एक इनडिफरैंस, क्रोध और बेचैनी के साथ देख रहे हैं। जब टूटी फूटी बिखरी उपस्वास्थ्य केन्द्रों की इमारतों से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की इमारतों तक; स्वास्थ्य क्षेत्र के उपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार के चलते, गरीब विरोधी, जातिगत,लिंगभेद वाला मैडीकल प्रोफैसन और खासकर डाक्टर बतौर टीम लीडर के व्यवहार के कारण, दवाओं की कमी के कारण; उपकरणों की कमी,उपकरण हैं भी तो उनके इस्तेमाल करने वाले विषेशज्ञों की कमी, पी एच सी., सी  एच. सी. और जिला अस्पतालों में ढीली स्वास्थ्य सेवाओं के चलते, गरीब विरोधी और महिला विरोधी जनसंख्या नियन्त्रण विभाग के हमलों के चलते- गरीब लोग जमीना स्तर पर मौजूद स्वास्थ्य सेवाओं के भ्रष्टीकरण के गरीब चश्मदीद गवाह हैं और उनपर इस बात का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ने वाला जब उनको बताया जाता है कि यह सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा खत्म किया जा रहा है क्योंकि उसके लिए तो एक तरह से यह पहले से ही बन्द हो चुका है। आगे क्या आने वाला है इस बात पर उन लोगों के बीच में भी जो इस स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे के बारे में गम्भीरता से सोचते हैं एक चुप सहमति सी लगती है। और इस बात पर भी चुप सहमति लगती है कि अब इन बााजार की ताकतों को आगे बढ़ने से नहीं रोका जा सकता है। किसी भी व्यक्ति द्वारा उसके व्यक्गित विश्व दृृष्टिकोन के हिसाब से सरकार की राष्ट्रीय  स्वास्थ्य नीति में बदलाव के लिए जो सोचा जाता है वह कुछ इस प्रकार कि विश्व बैंक और ट्रांसनेशनल  पूंजी ने जो ढांचा और जगह देशों की सरकारों के माध्यम से बनाया है उसी में गरीब मरीजों की जगह कैसे बनाई जाए और साथ ही इस ढांचे को कोई चुनौती भी दी जा सके। असल में मूलभूत ढंग से इन कमजोर तबकों की नजर से देखकर वैकल्पिक स्वास्थ्य ढांचे की परिकल्पना करना एक रणनीतिक काम है ताकि स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच इन तबकों तक हो सके।

 

 यह विषय अधूरा रहेगा यदि नोन गवर्नमैंटल आरगेनाइजेशन ; एनजीओ  (NGO ) के बारे में आलोचनात्मक विश्लेषन किया जाए ऐतिहासिक रुप से , एन जी सैक्टर जिसे पहले वालैन्टरी सैक्टर कहा जाता था, ने समीक्षात्मक  ढंग से राष्ट्रीय  स्वास्थ्य नीति एवं  प्रोग्रामों को मूर्त रुप देने में कंट्रीब्यूट  किया है। आरम्भ में सर्विस प्रोवाइडर की भूमिका में, अस्पतानों के स्थपित करने खासकर ग्रामीण इलाकों में और हर स्तर की मैन पावर को ट्रैनि देने के क्षेत्रों पर एम्फैसिस रेखांकित हुआ और इस दिशा में काम किया गया। कई सालों के बाद इस प्रकार के संगठनों ने व्यकित के स्वास्थ्य को ज्यादा व्यापक बनाते हुए समुदाय को शामिल करने की परिकल्पना विकसित की और वैकल्पिक स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में प्रयोग किये मसलन ग्रामीन स्वास्थ्य कार्य कर्ताओं को प्रशिक्षित करना, नीतिगत बदलाओं के लिए कैम्पेनिंग करना,असमानताओं के मामलों को  हाई लाइट करना जन पक्षीय नजर के साथ समीक्षात्मक डाटा तैयार करना आदि महत्वपूर्ण योगदान रहे हैं। मगर पिछले दो दशकों से इनकी प्राथमिकताएं ज्यादातर फंडिंग संस्थओं के एजैंडा के हिसाब से तय होनी शुरु हो गई जो कई प्रकार के सवालों के घेरे में गई हैं। लोगों के साथ सीधे रुप से काम करने के बजाय प्राथमिकता लोबिंग और एडवोकेसी नीति निर्धारकों के साथ, को बदलाव लाने के ज्यादा प्रभावी तौर तरीकों के रुप में देखा  गया। बीतते समय के साथ संघर्षशील लोगों के संघर्षों को समर्थन देने का काम धीरे धीरे कम होता चला गया तथा गरीब तबकों ने भी इन संस्थाओं को अविश्वास और सिनिसिज्म के साथ देखना शुरु कर दिया। एक सच्चाई यह भी है कि इस एन जी सैक्टर के अन्दर एक हिस्सालिबरल वोकल मिडल क्लासका भी है जिसकी सोसल एकाउन्टैबिलिटी बहुत कम है तथा कोई विचार धारा नहीं हे या लम्बे समय तक निरन्तरता के साथ काम करने का संकल्प नहीं है। इस सबके चलते यह तबकासिटिंग डॅकफोर कोओपसन बन गया है। बाहर की फंडिंग पर निर्भरता देशी हो या बदेशी , का मतलब यह हो गया है किसंकट के समययागम्भीर मसलोंपर इनको मैनुपुलेट या प्रैसराइज किया जा सकता है और उनका ध्यान लोगों  के जिन्दा रहने की जरुरतों के सवालों से हटाकर उनके अपने हितों के बचाव की तरफ कर दिया जाता है। यह वलनरेबलिटी तथा वैसीलेसन की तासीर की वजह से एन जी सैक्टर की तरफ विश्व बैंक और राज्य का भी आकर्षण बढ़ा है क्योंकि इसमें मौजूद डाइसैंट के पोटैंसियल को वे अपने ढंग से दिशा देना चाहते हैं। एक रणनीतिक ढंग से सोच के साथ इन सभी एन जी ओज को चाहे वे किसी भी तरह की हैं, एक ही खाते में डाल देना , इनके वैचारिक पक्ष को धूमिल करने की चेष्टा रही है। यह पहला कदम था किसी भी प्रकार की असहमति की घेरा बन्दी करके खत्म करने का  और इसका प्रतिरोध भी कमोबेश नहीं किया गया। इसीलिए इस एन जी आन्दोलन के नेता गण आमतौर पर एक वैचारक के रुप में अग्रणी कतारों में नजर आते हैं और इन नीतियों कार्यक्रमों को लागू करते दिखाई देते हैं जो सीधे सीधे ट्रांसनेशनल पूंजी के हित में हैं। इसके बावजूद यह अभी भी सम्भव है कि इस बड़ी उर्जा को सही दिशा में आगे बढाया जा सके ताकि जो शोषण कारी नीतियां हैं उनका विरोध किया जा सके। जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों , खतरनाक गर्भ निरोधकों, दवा उद्योग के खिलाफ इस प्रकार के विरोध के सटीक उदाहरण हैं। इसी प्रकारपीपल्ज हैल्थ असैम्बलीएक और इसी प्रकार का व्यापक प्रयास है। जन स्वास्थ्य अभियान भारत और हरियाणा के स्तर पर सक्रिय है।

 

   पिछले दशक में और भी खतरनाक बदलावों की शुरुआत 2005 में डबल्यू टी संधि लागू हो जाने के बाद सामने आने लगी और ये बदलाव जोर पकड़ते गये हैं। वैश्वीकरण के नाम पर सुधारीकरण की प्रक्रिया के चलते बढ़ती बेरोजगारी, कर्मचारियों की छंटनी,कैजुअल कॉन्ट्रेक्चुअल   लेबर की तरफ बढ़ते कदम, कम तनखाएं आदि रुझान सामने आने लगे जो अब और जोर पकड़ते जा रहे हैं।इसके साथ साथ स्वास्थ्य सुविधाओं के निजीकरण के कारण म्हंगा होता इलाज तथा म्हंगी होती दवाएं अपने दुष्प्रभाव दिखा रहे हैं। इस प्रकार के बदलाव गरीब लोगों के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल रहे हैं जिनके चलते बीमारियां तथा उनके कारण हो रही मौतें बढ़ती जा रही हैं।

   हम वर्तमान और भविष्य के बारे में बिना भूतकाल पर चर्चा किये बातचीत नहीं कर सकते इसके बावजूद हमें वर्तमान और भविष्य से सरोकार है। इसके अलावा 2001 की राष्ट्रीय  स्वास्थ्य नीति पर उठी बहस के बाद ऐसा महसूस किया जा रहा है कि पब्लिक हैल्थ की पुरानी परिभाषा में ही बदलाव रहा है। हमें आर्थिक , राजनीतिक सरोकारों मजबूरियों की जिनके चलते हमारे देश की राष्ट्रीय स्वास्थय नीतियां देश की आजादी से लेकर अब तक बनती रही हैं, एक बार फिर समीक्षा की जरुरत है तथा इसके जहां आवश्यक हो वहां इसके पिछले उपनिवेशवादी दौर परम्पराओं के संदर्भ में भी देखने की जरुरत है तभी नई स्वास्थ्य नीति जो कि  स्ट्रक्चरल  एडजैस्टमैंट  प्रोग्राम के तहत लागू की जा रही हैं को देखने का कोई मतलब है और तभी एक जन सापेक्ष स्वास्थ्य नीति तथा देश में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा सोच सकते हैं।

 

 

 

Monday, 14 June 2021

भारत में स्वास्थ्य संकट

  कमज़ोर स्वास्थ्य प्रणाली महामारी से नहीं निपट सकती है 


भारत में स्वास्थ्य संकट और मौतों के लिए अकेले महामारी जिम्मेदार नहीं है। स्वास्थ्य पर अपर्याप्त बजट आवंटन ने हमारी स्वास्थ्य प्रणाली को कुचल कर रख दिया है।
भरत डोगरा
29 May 2021
Translated by महेश कुमार
फोटो साभार: लक्ष्मी कंठ भारती
करीब दो महीने से भारत के लोगों को बेहद दुखद और चिंतनीय हालात का सामना करना पड़ा है। अस्पतालों में कोविड मरीजों के ऑक्सीजन की कमी से दम घुटने वाले दृश्य लंबे समय तक इंसानी स्मृति में रहेंगे। न जाने कितनी त्रासदियां हैं जिनका वर्णन किया जा सकता हैं। लेकिन जो सबसे बड़ा सवाल है: वह यह कि आखिर ऐसा क्या गलत हुआ? आखिरकार, स्वास्थ्य क्षेत्र में मौजूद कमियां जो महामारी से निपटने में सामने आई थी, वह करीब एक साल पहले की बात थी। पहले से मौजूद इस चेतावनी के बावजूद, सरकार दूसरी लहर से पनपे कहर का सामना करने के करीब भी नहीं पहुंची और आवश्यक जीवन रक्षक उपकरणों, दवाओं, ऑक्सीज़न आदि की संभावित कमी को दूर करने में विफल रही, नतीजतन बड़ी संख्या में हर तरफ मौतें।

सच बात तो यह है कि समस्या सिर्फ महामारी की नहीं है बल्कि तीन अन्य ऐसी घनघोर गड़बडियाँ हैं जो स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को प्रभावित करती हैं। ये समस्याएँ हाल के दिनों  में और बढ़ गई है, जिसने हमें दहशत भरे संकट की तरफ मोड़ दिया जहां आज हम खड़े हैं। सबसे पहली समस्या, सरकारें सभी को न्यूनतम स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने के लिए पर्याप्त संसाधन आवंटित करने में विफल रहीं है। दूसरा, स्वास्थ्य सेवा प्रणाली में असमानताएं काफी ऊंची और बड़ी हैं। हमारे देश में धनी लोगों के लिए पांच सितारा सुविधाओं वाले अस्पताल हैं जबकि  गरीब समुदायों के लिए बने सार्वजनिक अस्पतालों, सामुदायिक और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में आवश्यक दवाओं, बुनियादी उपकरणों, डॉक्टरों आदि की प्रचुर मात्रा में कमी है। तीसरा, आम लोगों की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों के लिए मंत्रालय से आवंटन काफी कम है। इसके ऊपर, संसाधनों पर दबाव बनाया जा रहा है कि वे ऐसे कार्यक्रम ले जिससे लाभ-उन्मुख निजी स्वास्थ्य संस्थानों को अधिक मुनाफा हो। कई बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां और अंतरराष्ट्रीय संगठन इन संस्थानों को चलाते हैं और इस तरह के नीतिगत बदलावों पर जोर देते हैं।

कोविड-19 महामारी के दौरान असमानताओं पर ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट (द इनइक्वलिटी वायरस एंड इट्स इंडिया सप्लीमेंट) इस बात पर प्रकाश डालती है कि कम आवंटन और कमजोर सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली किसी भी महामारी को नियंत्रित नहीं कर सकती है या बीमारों को उचित और समय पर देखभाल प्रदान नहीं कर सकती है। सरकारी खर्च के मामले में भारत का स्वास्थ्य बजट सबसे कम है। यह भारतीय सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को नाज़ुक, कमजोर और स्वास्थ्य कर्मी की संख्या में भारी कमी को दर्शाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के 15-20 प्रतिशत के मानदंड के विपरीत, भारतीय अपने स्वास्थ्य व्यय का 58.7 प्रतिशत अपनी जेब से खर्च करते हैं।

हालांकि, केंद्रीय बजट 2021-22 स्वास्थ्य पर खर्च के मामले में वृद्धि का आभास देता है। हालांकि, यह केवल दिखने वाला भ्रम है जो स्वास्थ्य और कल्याण की एक निर्मित श्रेणी के भीतर मौजूद पोषण, स्वच्छता और जल आपूर्ति बजट को भी शामिल करके बनाया गया है। यदि ये सभी खर्च (जिसमें कोविड-19 के टीके का बजट भी शामिल है) हटा दें तो स्वास्थ्य बजट में वृद्धि भी गायब नज़र आएगी। महामारी के दौरान, गैर-कोविड रोगियों की नियमित चिकित्सा बंद हो गई है। इसके बावजूद, सरकार ने सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए बजट आवंटन में कोई खास या महत्वपूर्ण बढ़ोतरी नहीं की है।

वास्तव में, हाल के वर्षों में, केंद्र और राज्य सरकारों, दोनों ने स्वास्थ्य पर सकल घरेलू उत्पाद का लगभग 0.35 प्रतिशत ही आवंटित किया है। यह आश्चर्यजनक रूप से कम है और सरकार ने स्वीकार भी किया है कि उसे इसे बढ़ाकर 2.50 प्रतिशत करने की जरूरत  है। सरकार का घोषित लक्ष्य हर साल खर्च का प्रतिशत बढ़ाना है जब तक कि वह इस लक्ष्य को पूरा नहीं कर लेती है। हालांकि, इस साल और पिछले वित्तीय वर्ष में, केंद्र सरकार का खर्च (कृत्रिम खर्च को घटाकर) लगभग 50,000 करोड़ रुपए कम रहा है।

जब हम केंद्रीय बजट के रूप में देखते हैं तो 2017-18 (वास्तविक व्यय) में स्वास्थ्य आवंटन 2.55 प्रतिशत से घटकर 2021-22 (बजट अनुमान) में 2.21 प्रतिशत रह जाता है। धन की यह कमी बताती है कि सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी 80 प्रतिशत के करीब क्यों है, जबकि इन केंद्रों की संख्या सरकार द्वारा स्वयं बताई गई जरूरत से लगभग 37 प्रतिशत कम है। (हमारे देश में करीब 23 प्रतिशत उप-केंद्रों और 28 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की भी कमी है।) भारत में प्रति 1,000 लोगों पर केवल 0.55 सरकारी अस्पताल के बिस्तर हैं जबकि डब्ल्यूएचओ का मानदंड इसके लिए प्रति 1,000 लोगों पर 5 बिस्तर का है।

इस तरह की आपातकालीन स्थिति के दौरान भी स्वास्थ्य क्षेत्र में धन की कमी मौजूद है, लेकिन सेंट्रल विस्टा और केन-बेतवा नदी-जोड़ने की परियोजना अभी भी आगे बढ़ रही है। इसके लिए  कई इस्तेमाल की जाने वाली ऐतिहासिक इमारतों और सार्वजनिक स्थानों को ध्वस्त कर दिया जाएगा। और बाद में, 20 लाख से अधिक पेड़ों को काट दिया जाएगा।

हमें स्वास्थ्य सेवा के गुणात्मक पहलुओं पर भी नज़र डालने की जरूरत है। जून 2020 में प्रकाशित सुनीला गर्ग, सौरव बसु और अन्य सामुदायिक चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में किए गए एक सर्वेक्षण के आधार पर किए अध्ययन में पाया गया कि उनमें से 57 प्रतिशत केन्द्रों में अपर्याप्त वेंटिलेशन यानि हवा की आवाजाही ठीक नहीं है, 75.5 प्रतिशत में हवा से होने वाले संक्रमण को रोकने का कोई साधन नहीं हैं, और 50 में एन95 मास्क उपलब्ध ही नहीं थे। यह बात मानने का कोई कारण नज़र नहीं आता कि एक वर्ष में स्थिति बदल गई है। वास्तव में, कई प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को अस्थायी रूप से बंद कर दिया गया - ताकि वहाँ के कर्मचारी ग्रामीण क्षेत्रों में कोविड-19 की ड्यूटी पर जा सकें – इसने भी ऐसी स्थिति में योगदान दिया, जिससे कमजोर लोगों के पास नियमित बीमारियों के इलाज के लिए कोई विश्वसनीय स्रोत नहीं बचा है।

यह कहना भी गलत नहीं होगा कि सरकार तत्काल स्वास्थ्य जरूरतों के लिए संसाधन जुटाने में नाकामयाब रही है। उसी ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार, अगर भारत सरकार देश में मौजूद शीर्ष 11 अरबपतियों पर महामारी के दौरान उनकी कुल संपत्ति पर मात्र 1 प्रतिशत का टैक्स लगा देती तो इससे जन औषधि योजना के आवंटन में 140 गुना की बढ़ोतरी हो जाती। यह योजना गरीबों और वंचित तबकों को सस्ती दवाएं उपलब्ध कराती है, जो इस संकट के दौरान सबसे ज्यादा पीड़ित हुए हैं।

अंत में, कोविड-19 संकट का सामना करने में लाभ-संचालित निजी स्वास्थ्य सेवा का योगदान काफी संदिग्ध लगता है। पिछले साल, बिहार के स्वास्थ्य मामलों के प्रमुख सचिव संजय कुमार ने अपनी चिंता व्यक्त करते हुए मैसेजिंग प्लेटफॉर्म ट्विटर का सहारा लिया था। उन्होंने लिखा: "राज्य में निजी स्वास्थ्य क्षेत्र का लगभग पूरी तरह से पीछे हटना निंदनीय और विचारोत्तेजक बात है। सार्वजनिक क्षेत्र के 22,000 बेड की तुलना में निजी स्वास्थ्य क्षेत्र में 48,000 बेड हैं और सभी ओपीडी (बाहरी रोगी विभाग) का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा है। कोविड-19 को भूल जाओ, यहां तक कि नियमित सेवाएं भी उपलब्ध नहीं हैं।"

ऑक्सफैम की रिपोर्ट यह भी बताती है कि महामारी के दौरान कई निजी अस्पतालों ने भारी मुनाफाखोरी की है। रिपोर्ट कहती है कि एक निजी अस्पताल में कोविड-19 के इलाज़ में  अत्यधिक गरीब आबादी वाले 13 करोड़ भारतीयों की मासिक आय का 24 गुना खर्च शामिल हो सकता है। अब तक तो यह कई भारतीयों के लिए एक जीवंत वास्तविकता बन गई है- और सरकार इस साल भी इसे नहीं रोक पाई है। स्वास्थ्य सेवाओं और सुविधाओं की दरों में कई गुना वृद्धि हुई है, अक्सर रातों-रात, ऐसी दरें पेल दी गई जिसे कई अमीरों के लिए भी सहन करना मुश्किल था। उदाहरण के लिए, दिल्ली के एक प्रमुख निजी अस्पताल ने वेंटिलेटर और आईसीयू बेड के इलाज़ की दैनिक लागत 72,500 रुपए वसूल की है, जो वसूली परामर्श शुल्क, दवाओं और अन्य उपभोग की सामग्रियों को अलग है। 

करीब एक साल बीत गया है, महामारी में कुछ महीनों की राहत को छोडकर, मध्यम वर्ग और गरीब तबका अपने बीमार दोस्तों, परिवार के सदस्यों को अस्पताल में बेड दिलाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, जबकि अमीर और शक्तिशाली तबका आईसीयू बेड “बुक” किए अस्पताल में पड़े थे भले ही उनमें कोविड-19 के लक्षण कुछ खास नहीं थे। हर तरह से देखा जाए तो, एम्बुलेंस, बेड, आईसीयू, वेंटिलेटर, जीवन रक्षक दवाओं और साधारण दवाओं की कमी आज भी स्वास्थ्य प्रणाली को प्रभावित कर रही है और इन सभी वस्तुओं की काला बाज़ारी फल-फूल रही है।

सरकार को हर किस्म की फिजूलखर्ची बंद करनी चाहिए और अपने संसाधनों को स्वास्थ्य क्षेत्र में लगाना चाहिए। सरकार को जरूरी जीवन रक्षक उपकरणों और दवाओं की भरपाई को प्राथमिकता देनी चाहिए। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य को मजबूत करने के लिए दीर्घकालिक प्रयास जरूरी हैं ताकि अधिक संसाधन दिए जा सके। यदि भारत को अपनी किसी भी किस्म की आकांक्षा को पूरा करना है तो इन मांगों और जरूरतों का कोई शॉर्टकट नहीं है।

भरत डोगरा एक पत्रकार और लेखक हैं। उनकी हाल की किताबों में प्रोटेक्टिंग अर्थ फॉर चिल्ड्रन एंड प्लेनेट इन पेरिल शामिल हैं। व्यक्त विचार व्यक्तिगत हैं।

अंग्रेज़ी में प्रकाशित मूल आलेख को पढ़ने के लिए नीचे दिये गये लिंक पर क्लिक करें

A Weak Healthcare Systems Cannot Deal with a Pandemic

Sunday, 13 June 2021

ग्राम स्वास्थ्य स्वच्छता और पोषण समिति

 



ग्राम स्वास्थ्य स्वच्छता और पोषण समिति

 राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन समुदाय को स्थानीय स्तर पर, स्वास्थ्य से संबंधित और इसके संबंधित मुद्दों पर नेतृत्व करने की परिकल्पना करता है। यह तभी संभव होगा जब समुदाय स्वास्थ्य के मामलों में नेतृत्व करने के लिए पर्याप्त रूप से सशक्त हो। स्पष्ट रूप से, इसमें स्वास्थ्य प्रणाली के प्रबंधन में पंचायती राज संस्थाओं की भागीदारी की आवश्यकता है। यह संभव हो सकता है यदि ग्राम पंचायत सदस्य और समुदाय के प्रतिनिधि जैसे महिला समूह और SC / ST / OBC / अल्पसंख्यक समुदाय आदि की अध्यक्षता में प्रत्येक गाँव में एक समिति का गठन किया जाए, इसलिए प्रत्येक गाँव, गाँव के विकास के लिए स्वास्थ्य स्वच्छता और पोषण समिति का गठन ग्राम स्तर की गतिविधियों के लिए असमान अनुदान प्रदान करके किया गया है।

अ) वीएचएसएनसीटीएच, वीएचएसएनसी की भूमिका एवं जिम्मेदारियां ---
1.समिति की भूमिका गांव के समग्र स्वास्थ्य के लिए जिम्मेदार होगी। यह समुदाय और स्वास्थ्य और पोषण देखभाल प्रदाताओं की समस्याओं को ध्यान में रखेगा और इसे हल करने के लिए तंत्र का सुझाव देगा।
2. यह स्वास्थ्य कार्यक्रमों की अनिवार्यताओं के बारे में लोगों में जागरूकता पैदा करेगा, जो निगरानी में उनकी भागीदारी को सक्षम करने के लिए हकदार लोगों के ज्ञान पर ध्यान केंद्रित करेगा।
3. यह ग्राम समुदाय द्वारा पहचानी गई गाँव की स्थिति और प्राथमिकताओं के आकलन के आधार पर एक गाँव स्वास्थ्य योजना पर चर्चा और विकास करेगा।
4. ग्राम स्तरीय स्वास्थ्य और पोषण गतिविधियों से संबंधित प्रमुख मुद्दों और समस्याओं का विश्लेषण करें, पीएचसी के चिकित्सा अधिकारी को इन पर प्रतिक्रिया दें।
5. समिति गाँव में संचालित सभी स्वास्थ्य गतिविधियों जैसे ग्राम स्वास्थ्य और पोषण दिवस, माताओं की बैठक आदि की निगरानी करेगी।
6. गाँव में घरेलू सर्वेक्षण करने की ज़िम्मेदारी ANM के साथ साथ VHSNC की होगी।
7. यह ग्राम स्वास्थ्य रजिस्टर और स्वास्थ्य सूचना बोर्ड को बनाए रखेगा जिसमें उप केंद्र / पीएचसी में अनिवार्य सेवाओं के बारे में जानकारी होगी।
8. यह सुनिश्चित करेगा कि एएनएम तय दिनों पर गांव का दौरा करें और उप केंद्र कार्यस्थल के अनुसार निर्धारित गतिविधि करें; गांव के स्वास्थ्य और पोषण अधिकारियों की देखरेख करें।
9. एएनएम अगले दो महीनों की योजना के साथ एक द्वि मासिक गांव रिपोर्ट समिति को प्रस्तुत करेगी। ग्राम स्वास्थ्य समिति द्वारा प्रारूप और सामग्री तय की जाएगी। ग्राम स्तरीय बैठक में एएनएम द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट पर चर्चा करें और उचित कार्रवाई करें।
10. यह उनके गाँव में होने वाली हर मातृ या नवजात मृत्यु पर चर्चा करेगा, इसका विश्लेषण करेगा और ऐसी मौतों को रोकने के लिए आवश्यक कार्रवाई का सुझाव देगा। इन मौतों को पंचायत में पंजीकृत करवाएं।
11. समिति गाँव में विभिन्न मुद्दों पर चर्चा करने और बैठक के कार्यवृत्त का दस्तावेजीकरण करने के लिए नियमित मासिक बैठक आयोजित करेगी। समिति यह सुनिश्चित करेगी कि प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के चिकित्सा अधिकारी की उपस्थिति में नियमित अंतराल पर (छह महीने में एक बार) सार्वजनिक संवाद का आयोजन किया जाता है। समिति यह सुनिश्चित करेगी कि चर्चा किए गए सभी मुद्दों को दर्ज किया जाए और चर्चा किए गए मुद्दों पर कार्रवाई की जाए।
12. VHSNC समुदाय से ASHA के चयन और समर्थन के लिए भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा, स्वास्थ्य संबंधी अन्य मुद्दों के अलावा VHSNC भी गाँव के विकास के लिए जिम्मेदार होगा।
13. वीएचएसएनसी उप केंद्र का भी ध्यान रखेगा।
14. वीएचएसएनसी सभी सरकारी योजनाओं के बारे में समुदाय को सूचित करने के लिए जिम्मेदार होगा।

ब) अनटाइटलड ग्रांट का यूटिलाइजेशन
1. असमान अनुदान स्थानीय स्तर पर सामुदायिक कार्रवाई के लिए एक संसाधन है।
2. समिति को वीएचएसएनसी की मासिक बैठक में संकल्प लेने के बाद फंड का उपयोग करना चाहिए।

3. समिति एक बार में 10,000 से ज्यादा रूपये की कुल राशि को वापिस नहीं ले सकती।
4. निधि का उपयोग ग्राम स्तर की गतिविधियों जैसे स्वच्छता और स्वच्छता अभियान, स्कूल स्वास्थ्य गतिविधियों, रोगी को स्वास्थ्य सुविधाओं, स्वास्थ्य जागरूकता गतिविधियों, हाउस होल्ड सर्वेक्षणों में स्थानांतरित करने के लिए आंगनवाड़ी केंद्र की सुविधाओं में सुधार के लिए किया जा सकता है और गाँव / समुदाय के लिए कोई अन्य विकासात्मक गतिविधियाँ।
5. बाढ़ या किसी महामारी जैसी आपात स्थिति के दौरान समिति राहत शिविरों के लिए फंड का उपयोग करेगी या पानी, ओआरएस, ब्लीचिंग पाउडर आदि की शुद्धि के लिए हैलोजन टैबलेट जैसी आपूर्ति करेगी।
6. समिति VHSNC के बैठक स्थान में साइनबोर्ड बनाने के लिए निधि का उपयोग कर सकती है।

स) धन का रखरखाव:
1. समिति रुपये के वार्षिक अनुदान के लिए हकदार है। गाँव स्तर की गतिविधियों के लिए 10,000।
2. VHSNC प्राप्त धन और व्यय का एक रजिस्टर बनाए रखेगा।
3. समिति को विभिन्न स्वास्थ्य गतिविधियों के लिए ग्राम स्वास्थ्य कोष का प्रबंधन करना चाहिए।
4. समिति को खातों को बनाए रखना चाहिए और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र को प्राप्त धन के लिए उपयोग प्रमाणपत्र और व्यय का विवरण प्रस्तुत करना चाहिए।
डी। रखरखाव का रजिस्टर
1. ग्राम स्वास्थ्य रजिस्टर
2. जन्म और मृत्यु रजिस्टर
3. सार्वजनिक संवाद रजिस्टर
4. रेफरल रजिस्टर
5. अनटाइड ग्रांट रजिस्टर

ग्राम स्वास्थ्य पोषण दिवस (VHND) को हर महीने में एक बार आयोजित किया जाता है (अधिमानतः बुधवार को, और उन गांवों के लिए जो उसी महीने के किसी अन्य दिन को छोड़ दिया गया है), गांव में AWC AWW VHND को समुदाय और स्वास्थ्य प्रणाली के बीच अंतर करने के लिए एक मंच के रूप में भी देखा जाना चाहिए। नियत दिन पर, (ASHA ) Accredited Social Health Activist (AWW) Anganwadi worker और अन्य ग्रामीणों, विशेषकर महिलाओं और बच्चों को निकटतम AWC में इकट्ठा करने के लिए जुटाएंगे। VHND के दिन ग्रामीण स्वास्थ्य कर्मियों के साथ स्वतंत्र रूप से बातचीत कर सकते हैं और बुनियादी सेवाएँ और जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। वे स्वास्थ्य देखभाल के निवारक और प्रचारक पहलुओं के बारे में भी जान सकते हैं, जो उन्हें उचित सुविधाओं पर स्वास्थ्य देखभाल प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करेगा। (VHND )Village Health and Nutrition Day के दिन निम्नलिखित मुद्दों पर चर्चा की जा सकती है।

मातृ स्वास्थ्य:
* गर्भधारण का प्रारंभिक पंजीकरण।
* ध्यान केंद्रित ए.एन.सी.
* गर्भावस्था के दौरान जटिलताओं के लक्षण वाली महिलाओं के लिए रेफरल और जिन्हें आपातकालीन देखभाल की आवश्यकता होती है।
* स्वीकृत एमटीपी केंद्रों को सुरक्षित गर्भपात के लिए रेफरल।
* पर परामर्श:
1. लड़कियों की शिक्षा।
2. शादी की उम्र।
3. गर्भावस्था के दौरान देखभाल।
4. गर्भावस्था के दौरान खतरे के संकेत।
5. जन्म की तैयारी।
6. पोषण का महत्व।
7. संस्थागत प्रसव।
8. रेफरल परिवहन की पहचान।
9. रेफरल ट्रांसपोर्ट के लिए श्रैल् के तहत फंड की उपलब्धता।
10. प्रसवोत्तर देखभाल।
11. स्तनपान और पूरक आहार।
12. एक नवजात शिशु की देखभाल।
13. गर्भनिरोधक।
* संभावित कारणों की पहचान करने और उनका विश्लेषण करने के लिए पिछले महीने के दौरान होने वाली मातृ मृत्यु पर समूह चर्चाओं का आयोजन करना।
* स्वच्छता
* मच्छरों के लिए प्रजनन स्थलों से परहेज।
* घरेलू उपयोग और कचरे के सुरक्षित निपटान के लिए सामुदायिक कार्रवाई का कार्यक्रम।
पोषण---
ऽ पोषण संबंधी कमियों के कारण होने वाली बीमारियों की जानकारी और परामर्श देकर रोका जा सकता है:
1. स्वस्थ भोजन की आदतें।
2. हाइजीनिक और सही कुकिंग प्रैक्टिस।
3. एनीमिया के लिए जाँच, विशेष रूप से किशोर लड़कियों और गर्भवती महिलाओं में; जाँच, सलाह, और जिक्र।
4. शिशुओं और बच्चों का वजन।
5. लोहे के पूरक, विटामिन और सूक्ष्म पोषक तत्वों का महत्व
6. भोजन जो स्थानीय स्तर पर उगाया जा सके।
7. 6 महीने से 2 साल की उम्र के किशोर, गर्भवती महिलाओं और शिशुओं पर ध्यान दें।