Tuesday 23 December 2014

राष्ट्रीय चिकित्सकीय संस्थान अधिनियम 2010



राष्ट्रीय  चिकित्सकीय संस्थान अधिनियम 2010
Clinical Establishment Act 2010. (CEA)
केंद्र सरकार द्वारा पारित अधिनियम निसःसंदेह स्वास्थ्य सेवा के व्यय और गुणवता मानकीकरण की तरफ एक कदम है।
केंद्रीय कानून के कुछ महतवपूर्ण तत्व-
अ. इलाज के लिए मानक दिषानिर्देष का प्रावधान
ब. दरों के मानकीकरण के तरफ प्रयास
क. संस्थानों द्वारा दरों का प्रदर्षन
ड. यह कानून लगभग सभी चिकित्सीय संस्थानों / सभी मेडीसन षाखाओं को पंजीकृत करता है, न कि सिर्फ ण्लोपैथी को ।
वर्तमान राष्ट्रीय   कानून में कमियां व समस्याएं
1. चिकित्सकीय संस्थान कानून ;ब्म्।द्ध के क्रियान्वयन के लिए अलग से स्वायत ढांचा , अतिरिक्त स्टाफ ;सम्बन्धित बजट, की कोई बात नहीं की गई है। निजी स्वास्थ्य सेवा में , आज शासकीय सेवाओं की तुलना में 5-6 गुणा ज्यादा डाक्टर हैं । इतने व्यापक निजी क्षेत्र की प्रभावी रुप से निगरानी करना बहुत कठिन काम है। इस कानून के मुताबिक राज्य स्तर पर पहले से ही बोझिल हो चुके स्वास्थ्य सेवा संचालनालय और जिला पंजीयन प्रधिकरण , जो जिला कलेक्टर व जिला स्वास्थ्य अधिकारी से मिल कर बना है, को दी गई है। अतिरिक्त स्टाफ के अभाव में यह खतरा है कि कानून सिर्फ कागजों में सिमिट कर रह जाएगा।
2. जिले पर कोई साझेदार( Multi-stakeholder)  समीक्षा समिति नहीं है, जिसमें मरीजों /ग्राहकों के प्रतिनिधि, स्वास्थ्य के क्षेत्र में कार्यरत स्वंसेवी संस्था और डाक्टर शामिल हों। जिला पंजीयन प्राधिकरण के सभी सदस्य या तो डाक्टर हैं या अधिकारी। स्वास्थ्य अधिकार संघटनों के प्रतिनिधि सहित अन्य साझेदारों के लिए इसमें कोई औपचारिक जगह नहीं है।
3. मरीजों के अधिकारों की रक्षा का कोई प्रावधान /जिक्र नहीं।
4. म्रीजों के लिए कोई षिकायत निवारण प्रणाली नहीं, शिकायत करने की व्यवस्था नहीं है।
5. जिस  तरह यह कानून सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा को देखता है, वह समस्यामूलक है। मानकों को पूरा न करने पर संस्थान को बंद करने या दंड भरने का प्रावधान , सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं की दृष्टि  से गैर वाजिब है। विशेषकर जहां सार्वजनिक सेवाओं का विस्तृत जन सरोकार होता है, और जहां निजी सुविधाओं से अलग ढंग से जवाब देही करने की जरुरत होती है। इसके साथ , नियमन के लिए अलग से सार्वजनिक अधिकारी रखने का प्रावधान , जो वर्तमान सरकारी स्वास्थ्य अधिकारियों से स्वायत हो ज्यादा अच्छा होगा।
6. नियमन ढांचे में क्लीनिकल संस्थानों के लिए पुलिस अधिकारी को रखना अवांछित है, और डाक्टरों का इस बारे में संषय वाजिब है।
7. यदि संस्थाओं  को स्थायी पंजीकृत कर दिया गया, तो किसी नागरिक /मरीज की उस संस्थान के प्रति शिकायत कि वह न्यूनतम मानकों का पालन नहीं कर रहा, के लिए कोई जगह नहीं बचेगी।
8. कनून में कुछ प्रावधान अव्ययवहारिक और अप्रासांगिक हैं-
क. मिशाल के तौर पर चिकित्सीय संस्थान में लाए गये किसी व्यक्ति की आपात मेडिकल स्थिति को स्थिर करने की बाध्यता समस्याग्रस्त है। मान लिजिए किसी हर्ट अटैक के मरीज को सिर्फ विशेषज्ञता प्राप्त यूनिट में ही स्थिर किया जा सकता है, न कि किसी आंख वाले अस्पताल में।
ख. व्यक्तिगत डॉक्टर के द्वारा चलाये जाने वाले बाह्यरोगी क्लिनिक के लिए भौतिक   आवश्यकताओं , जैसे क्लिनिक के लिए वर्ग फुट क्षेत्र  द्ध  को कानूनी तौर पर निष्चित करने का खास मायना नहीं है।

9. क्लीनिकल संस्थानों के लिए मानक तय करने की प्रक्रिया बेहद केंद्रीकृत है। इस कानून में यह राश्ट्रीय स्तर पर ही की जा सकती है। हाल की स्थिति से यह डर पनपा है कि कानून में ऐसे केंद्रीकृत फैंसलों को बड़े व्यावसायिक अस्पताल आसानी से अपने पक्ष में करके गैर जरुरी उंचे पैमाने तय करने के नियमों में अपना प्रभाव जमा सकते हैं। इन मानकों को छोटे अस्पताल पूरा नहीं कर पायेंगे।
रणबीर सिंह दहिया --जन स्वास्थ्य अभियान
हरयाणा ज्ञान विज्ञानं समिति
9812139001

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