निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र की सामाजिक जवाबदेही व उसका नियंत्रण होना जरूरी है
दुनिया का सबसे बड़ा निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र भारत में है । परन्तु पूरी तरह से गैर जवाबदेह और अनियंत्रित रहा है । मरीजों से मिले उनके अपने अनुभवों से पता चलता है कि किस प्रकार निजी अस्पताल व नर्सिंग होम में मरीजों का बार बार आर्थिक शोषण होता है । साथ ही उन्हें अक्सर निम्न स्तर की बेतुकी दवाएं दी जाती हैं । निजी स्वास्थ्य सेवाओं के दाम बेहताशा बढे हैं । सन 1980 और 1990 के मध्य वे दोगुने से भी ज्यादा हो गए हैं । अनुमान लगाया जाता है कि आधे से अधिक भारतीय परिवार , स्वास्थ्य सेवा सम्बन्धी खर्चे के कारण ही गरीब हो रहे हैं , जिनमें करीब 4 करोड़ भारतीय प्रति वर्ष इस खर्च के चलते गरीबी में धकेले जा रहे हैं । ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति से सभी परेशान हैं । एक तरफ आम मरीज बाजारीकरण व निजीकरण की मार से त्रस्त है और दूसरी तरफ संवेदनशील डाक्टर व जनहित के लिए काम करने वाली गिनी चुनी स्वास्थ्य सेवाएं बहुत दबाव महसूस हैं और उनके लिए नैतिक रूप से काम करना बहुत मुश्किल है ।
1990 के बाद से भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का बढ़ता वर्चश्व : कुछ आंकड़े
निजी स्वास्थ्य सेवाओं का आज देश की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था में खासा दबदबा है । भारत में सेवा के विभिन्न हिस्सों में निजी सेवा प्रदाता का अंश नीचे देखा जा सकता है ।
1 . ग्रेजुएट डॉक्टर ( M.B.B.S.)---90 %
2 . पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर ---95 %
3 . ओ पी डी सेवा ( बाह्य सेवा ) --- 80 %
4 . इनडोर ( अंत: रोगी ) सेवा ---60 %
5 . मैडीकल कालेज --- 30 %
6 . दवा उद्योग ---99 %
7 . चिकित्सा यंत्र उद्योग ---100 %
1990 के बाद से सरकार की नव उदार नीतियों के प्रभाव से वैश्वीकरण , निजीकरण और बाजारीकरण को बढ़ावा मिला है , जिसके फल स्वरूप निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है । डॉक्टर , मंत्री और स्वास्थ्य अधिकारी इन तीनों के लिए ही " स्वास्थ्य सेवा" एक व्यापार बन गया है । जबकि यह एक ऐसा पेशा है , जिसे मानवता की सेवा के लिए समर्पित होना चाहिए था । अब यह बहुत हद तक मुनाफा कमाने वाला उद्योग हो गया है , जो एक ओर दवा कंपनियों एवं दूसरी ओर मंहगी डाक्टरी शिक्षा के चंगुल में पूरी तरह फंसा
हुआ है ।
कैसे बदल सकते हैं यह हालत ?
आज सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना और निजीकरण की नीतियों को रद्द करना जनहित में आवश्यक है । इन व्यापक उपायों के संदर्भ में , हम निजी स्वास्थ्य सेवा के बारे में अपने सुझाव रखना चाहते हैं । निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र पर विस्तृत सामाजिक नियंत्रण की आज सख्त जरूरत है । इस नजरिये से पेश किये गए अपने पॉलिसी ब्रीफ में हम निजी स्वास्थ्य क्षेत्र की स्तिथि पर विस्तार से गौर करने की जरूरत है ताकि उससे प्रभावशाली ढंग से निपटने के लिए जरूरी ठोस तरीके सुझाये जा सकें ।
भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के कुछ प्रमुख पहलू :
1 . भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के बारे कुछ गंभीर मुद्दे :
* यह क्षेत्र आज तक पूरी तरह अनियंत्रित है । इसमें गुणवत्ता के कोई भी स्टैण्डर्ड नहीं हैं साथ ही तर्कहीनता भी व्यापक है । निजी क्षेत्र का अधिपत्य आज स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में है । अत: इसने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को भी कमजोर कर दिया है ।
* इसके बावजूद कुछ गुणवत्ता पूर्ण स्वास्थ्य सेवा सुविधाएँ और कुछ विश्वसनीय गैर लाभकारी अस्पताल गरीब , आदिवासी और कमजोर वर्गों की सेवा में लगे हुए हैं । लेकिन यह निजी प्रदाताओं का एक हिस्सा है , जबकि बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जहाँ बड़े कार्पोरेशन , बड़े प्राइवेट अस्पताल , फर्जी धर्मार्थ अस्पताल , छोटे नर्सिंग होम व अशिक्षत झोला छाप डॉक्टर ही छाये हुए हैं , जिनमें नियंत्रण का पूरा आभाव है ।
* वैश्वीकरण , निजीकरण और उदारीकरण के दौर में प्राइवेट मैडीकल कालेज और कॉर्पोरेट अस्पतालों की संख्या लगातार तेजी से बढ़ रही है ।
2 . वर्तमान निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र की मुख्य समस्याएं
* अस्पतालों में दर्जे से कम भौतिक सुविधाएँ -- यद्यपि कुछ निजी सेवा प्रदाताओं ने भारत में अपनी सुविधाआओं का भौतिक और व्यावसायिक स्टैण्डर्ड बनाये रखा है , लेकिन सेवाओं की गुणवत्ता एक जैसी नहीं है । आम तौर पर यह स्टैण्डर्ड से कम है । खासतौर पर मरीजों को जरूरी न्यूनतम भौतिक सुविधाएँ नहीं मिलती हैं जैसे --पर्याप्त जगह , प्राइवेसी , सफाई और प्रशिक्षित पैरामैडिकल स्टाफ इन सभी की कमी रहती ही है ।
* अनावश्यक दवाईयों से बेहद बर्बादी -- एंटीबायोटिक , विटामिन का अनावश्यक इस्तेमाल और दवाओं की गलत खुराक , तथा संदेहात्मक दवाएं देकर मरीजों से बेहिसाब पैसा लूटा जाता है ।
* गई जरूरी ऑपरेशन का बढ़ता सिलसिला -- इसका उदाहरण है गर्भाशयों को निकलने के अनावश्यक ऑपरेशन , जो देश भर में कई जगहों पर हुए अध्ययन से ज्ञात हुआ है ।
* सर्जनों द्वारा ली जाने वाली बहुत ज्यादा फीस -- भारत में एक सिजेरियन प्रसव खर्च प्रति व्यक्ति की मासिक आय ज्यादा है
* अनावश्यक जाँचें -- स्वास्थ्य सेवाओं में कार्पोरेट हितों के प्रवेश के साथ ही अत्यधिक पैथोलॉजिकल जाँच करने की प्रवृति बढ़ी है । पिछले एक दशक में एक भाव मुनाफे काम करने वाली कुछ पैथोलॉजी लैब और डायग्नोस्टिक केन्द्रों ने बेहिसाब प्रचार किया है व मार्केटिंग रणनीतियां तैयार की हैं , और ये केंद्र जनरल प्रक्टिसनर्स को कमीशन देकर मरीजों की गैजरूरी जाँच करवाते हैं ।
* डॉक्टरी नैतिकता का आभाव -- मरीजों की स्वाभाविक कमजोरी और असहायता के चलते चिकित्सा आचार
नीति अपेक्षा रखती है कि डॉक्टर का नैतिक कर्तव्य हो कि वह मरीज के हितों को सदैव सर्वोपरि रखे । लेकिन नैतिक सिद्धांत की अमूमन अवहेलना की जाती है । भारत में डॉक्टर द्वारा पिछले दशकों में सोनोग्राफी का दुरूपयोग कर के लाखों कन्या भ्रूण का गर्भपात किया गया है । व्यावसायिक सरोगेसी या स्थानापन्न मातृत्व , इस नयी प्रजनन मेडिकल तकनीक का दुरूपयोग हो रहा है । नयी दवाओं का ट्रायल करने के लिए मेडिकल नैतिकता को ताक पर रख कर मरीजों को ही गिनी पिग की तरह रहा है ।
* मरीजों के अधिकारों का हनन -- उदाहरण के तौर पर आपात सेवा अधिकार , सूचना का अधिकार , जानकारी सहमति का अधिकार , दूसरा विकल्प /राय लेने का अधिकार , विशेष उपचार के चयन का अधिकार आदि का लगातार उल्ल्ंघन होता है ।
* भारत सरकार द्वारा कराये गए अध्ययन से पता चलता है कि ऐसे अस्पताल जिन्हें राज्य द्वारा सब्सिडी दी जाती है और गरीब मरीजों का निशुल्क इलाज करना उनकी जिम्मेदारी है , वे ऐसा करने में असफल रहे हैं ।
* लाईसेंसी डाक्टरों द्वारा मेडिकल पेशे का दुरूपयोग और उनके विशेषाधिकारों दुरूपयोग आम बात है ।
आज का असफल नियंत्रण ,और निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के बारे में प्रभावहीन कानून :
1 . डॉक्टर खुद पर नियंत्रण रखने में असफल --मानक निश्चित हेतु तथा स्व नियंत्रण करने में मेडिकल असोसिएशन व काउंसिलें असफल रही हैं । दुनिया के सबसे बड़े निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रों होने के बावजूद , जो कि भारत में 80 % स्वास्थ्य सेवा सुविधा उपलब्ध कराता है , लगभग नियंत्रण विहीन ही है , यह एक चिंता का विषय है ।
2 . कानूनी व्यवस्था की असफलता -
भारत में तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमें ढेर सारे न्यायालयों में लम्बित पड़े हैं । विश्लेषकों का मानना है कि इस पूरे मामलों को निपटाने में 350 से 400 वर्षों का समय लग जायेगा । हमारी कानूनी व्यवस्था का यह हाल देखकर हमें कतई उम्मीद नहीं है कि मेडिकल लापरवाही के विरुद्ध शिकायत लेकर जाने से मरीजों को न्याय मिल पायेगा । साथ ही यह भी दिक्कत है कि डॉक्टर किसी दुसरे डाक्टर के खिलाफ ब्यान नहीं देना चाहता है। इसी प्रवृर्ति के कारण उपभोगता संरक्षण कोर्ट से भी मेडिकल लापरवाही के मामले साबित करना कठिन होता है । इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि न्यायपालिका या उपभोगता कोर्ट निजी मेडिकल सैक्टर का नियंत्रण करने में आज कोई भूमिका नहीं निभा है ।
3. क्लीनिक व अस्पतालों रजिस्ट्रेशन से संबंधित कमजोर कानून --
महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पंजीयन के लिए आज तक बॉम्बे नर्सिंग होम पंजीयन अधिनियम (BNHRA) ,1949 ही लागू है । यह कानून सिर्फ नर्सिंग होम के पंजीयन के लिए ही है । इसमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं है , जो निजी मेडिकल क्षेत्र को प्रभावी ढंग से विवेकपूर्ण व मानकीकृत करने में सक्षम हो । उसी तरह , कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों विभिन्न कानूनों की वही स्तिथि है । राष्ट्रीय चिकित्सकीय संस्थान अधिनियम 2010 को बहुत से राज्यों द्वारा अभी तक लागू नहीं किया गया है ।
निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का नियमन करने के लिए लोकाभिमुख ढांचे के कुछ महत्वपूर्ण तत्व -
नियमन करने वाली संरचना में यह पहलू होने जरूरी हैं --
* मरीजों के अधिकारों की रक्षा , पारदर्शिता , सूचित निर्णय चयन , पसंद और मना करने की मरीजों की आजादी ।
* प्रत्येक के लिए बेहतर गुणवत्ता सेवा , विवेकपूर्ण , साक्ष्य आधारित उपचार जो निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र द्वारा उचित दरों पर उपलब्ध कराये जाएँ ।
* नैतिक निजी प्रदाताओं , छोटे नर्सिंग होम, विश्वसनीय धर्मार्थ अस्पतालों और आदिवासी व कमजोर इलाकों में काम करने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं के मुद्दों का ख्याल रखना ।
* मानक और इलाज संबंधी दिशानिर्देशों के नाम पर कार्पोरेट अस्पतालों को अपने हित थोपने से रोकना ।
छोटे अस्पतालों और जनार्थ काम करने वाली स्वास्थ्य संस्थाओं के मुद्दों ध्यान में रखना ।
* बाबू राज लाने से बचाव : नागरिक , मरीजों के प्रतिनिधि , स्वयंसेवी संस्थाएं और डॉक्टर - इन सभी को मिलाकर बनी साझेदार संस्था के प्रति अधिकारीयों की जवाबदेही ।
* डाक्टर और मरीजों के लिए प्रभावी और जनोपयोगी शिकायत निवारण निवारण प्रणाली ।
दुनिया का सबसे बड़ा निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र भारत में है । परन्तु पूरी तरह से गैर जवाबदेह और अनियंत्रित रहा है । मरीजों से मिले उनके अपने अनुभवों से पता चलता है कि किस प्रकार निजी अस्पताल व नर्सिंग होम में मरीजों का बार बार आर्थिक शोषण होता है । साथ ही उन्हें अक्सर निम्न स्तर की बेतुकी दवाएं दी जाती हैं । निजी स्वास्थ्य सेवाओं के दाम बेहताशा बढे हैं । सन 1980 और 1990 के मध्य वे दोगुने से भी ज्यादा हो गए हैं । अनुमान लगाया जाता है कि आधे से अधिक भारतीय परिवार , स्वास्थ्य सेवा सम्बन्धी खर्चे के कारण ही गरीब हो रहे हैं , जिनमें करीब 4 करोड़ भारतीय प्रति वर्ष इस खर्च के चलते गरीबी में धकेले जा रहे हैं । ऐसी प्रतिकूल परिस्थिति से सभी परेशान हैं । एक तरफ आम मरीज बाजारीकरण व निजीकरण की मार से त्रस्त है और दूसरी तरफ संवेदनशील डाक्टर व जनहित के लिए काम करने वाली गिनी चुनी स्वास्थ्य सेवाएं बहुत दबाव महसूस हैं और उनके लिए नैतिक रूप से काम करना बहुत मुश्किल है ।
1990 के बाद से भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का बढ़ता वर्चश्व : कुछ आंकड़े
निजी स्वास्थ्य सेवाओं का आज देश की स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था में खासा दबदबा है । भारत में सेवा के विभिन्न हिस्सों में निजी सेवा प्रदाता का अंश नीचे देखा जा सकता है ।
1 . ग्रेजुएट डॉक्टर ( M.B.B.S.)---90 %
2 . पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर ---95 %
3 . ओ पी डी सेवा ( बाह्य सेवा ) --- 80 %
4 . इनडोर ( अंत: रोगी ) सेवा ---60 %
5 . मैडीकल कालेज --- 30 %
6 . दवा उद्योग ---99 %
7 . चिकित्सा यंत्र उद्योग ---100 %
1990 के बाद से सरकार की नव उदार नीतियों के प्रभाव से वैश्वीकरण , निजीकरण और बाजारीकरण को बढ़ावा मिला है , जिसके फल स्वरूप निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र दिन दूना रात चौगुना बढ़ रहा है । डॉक्टर , मंत्री और स्वास्थ्य अधिकारी इन तीनों के लिए ही " स्वास्थ्य सेवा" एक व्यापार बन गया है । जबकि यह एक ऐसा पेशा है , जिसे मानवता की सेवा के लिए समर्पित होना चाहिए था । अब यह बहुत हद तक मुनाफा कमाने वाला उद्योग हो गया है , जो एक ओर दवा कंपनियों एवं दूसरी ओर मंहगी डाक्टरी शिक्षा के चंगुल में पूरी तरह फंसा
हुआ है ।
कैसे बदल सकते हैं यह हालत ?
आज सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मजबूत करना और निजीकरण की नीतियों को रद्द करना जनहित में आवश्यक है । इन व्यापक उपायों के संदर्भ में , हम निजी स्वास्थ्य सेवा के बारे में अपने सुझाव रखना चाहते हैं । निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र पर विस्तृत सामाजिक नियंत्रण की आज सख्त जरूरत है । इस नजरिये से पेश किये गए अपने पॉलिसी ब्रीफ में हम निजी स्वास्थ्य क्षेत्र की स्तिथि पर विस्तार से गौर करने की जरूरत है ताकि उससे प्रभावशाली ढंग से निपटने के लिए जरूरी ठोस तरीके सुझाये जा सकें ।
भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के कुछ प्रमुख पहलू :
1 . भारत में निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के बारे कुछ गंभीर मुद्दे :
* यह क्षेत्र आज तक पूरी तरह अनियंत्रित है । इसमें गुणवत्ता के कोई भी स्टैण्डर्ड नहीं हैं साथ ही तर्कहीनता भी व्यापक है । निजी क्षेत्र का अधिपत्य आज स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र में है । अत: इसने सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा व्यवस्था को भी कमजोर कर दिया है ।
* इसके बावजूद कुछ गुणवत्ता पूर्ण स्वास्थ्य सेवा सुविधाएँ और कुछ विश्वसनीय गैर लाभकारी अस्पताल गरीब , आदिवासी और कमजोर वर्गों की सेवा में लगे हुए हैं । लेकिन यह निजी प्रदाताओं का एक हिस्सा है , जबकि बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जहाँ बड़े कार्पोरेशन , बड़े प्राइवेट अस्पताल , फर्जी धर्मार्थ अस्पताल , छोटे नर्सिंग होम व अशिक्षत झोला छाप डॉक्टर ही छाये हुए हैं , जिनमें नियंत्रण का पूरा आभाव है ।
* वैश्वीकरण , निजीकरण और उदारीकरण के दौर में प्राइवेट मैडीकल कालेज और कॉर्पोरेट अस्पतालों की संख्या लगातार तेजी से बढ़ रही है ।
2 . वर्तमान निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र की मुख्य समस्याएं
* अस्पतालों में दर्जे से कम भौतिक सुविधाएँ -- यद्यपि कुछ निजी सेवा प्रदाताओं ने भारत में अपनी सुविधाआओं का भौतिक और व्यावसायिक स्टैण्डर्ड बनाये रखा है , लेकिन सेवाओं की गुणवत्ता एक जैसी नहीं है । आम तौर पर यह स्टैण्डर्ड से कम है । खासतौर पर मरीजों को जरूरी न्यूनतम भौतिक सुविधाएँ नहीं मिलती हैं जैसे --पर्याप्त जगह , प्राइवेसी , सफाई और प्रशिक्षित पैरामैडिकल स्टाफ इन सभी की कमी रहती ही है ।
* अनावश्यक दवाईयों से बेहद बर्बादी -- एंटीबायोटिक , विटामिन का अनावश्यक इस्तेमाल और दवाओं की गलत खुराक , तथा संदेहात्मक दवाएं देकर मरीजों से बेहिसाब पैसा लूटा जाता है ।
* गई जरूरी ऑपरेशन का बढ़ता सिलसिला -- इसका उदाहरण है गर्भाशयों को निकलने के अनावश्यक ऑपरेशन , जो देश भर में कई जगहों पर हुए अध्ययन से ज्ञात हुआ है ।
* सर्जनों द्वारा ली जाने वाली बहुत ज्यादा फीस -- भारत में एक सिजेरियन प्रसव खर्च प्रति व्यक्ति की मासिक आय ज्यादा है
* अनावश्यक जाँचें -- स्वास्थ्य सेवाओं में कार्पोरेट हितों के प्रवेश के साथ ही अत्यधिक पैथोलॉजिकल जाँच करने की प्रवृति बढ़ी है । पिछले एक दशक में एक भाव मुनाफे काम करने वाली कुछ पैथोलॉजी लैब और डायग्नोस्टिक केन्द्रों ने बेहिसाब प्रचार किया है व मार्केटिंग रणनीतियां तैयार की हैं , और ये केंद्र जनरल प्रक्टिसनर्स को कमीशन देकर मरीजों की गैजरूरी जाँच करवाते हैं ।
* डॉक्टरी नैतिकता का आभाव -- मरीजों की स्वाभाविक कमजोरी और असहायता के चलते चिकित्सा आचार
नीति अपेक्षा रखती है कि डॉक्टर का नैतिक कर्तव्य हो कि वह मरीज के हितों को सदैव सर्वोपरि रखे । लेकिन नैतिक सिद्धांत की अमूमन अवहेलना की जाती है । भारत में डॉक्टर द्वारा पिछले दशकों में सोनोग्राफी का दुरूपयोग कर के लाखों कन्या भ्रूण का गर्भपात किया गया है । व्यावसायिक सरोगेसी या स्थानापन्न मातृत्व , इस नयी प्रजनन मेडिकल तकनीक का दुरूपयोग हो रहा है । नयी दवाओं का ट्रायल करने के लिए मेडिकल नैतिकता को ताक पर रख कर मरीजों को ही गिनी पिग की तरह रहा है ।
* मरीजों के अधिकारों का हनन -- उदाहरण के तौर पर आपात सेवा अधिकार , सूचना का अधिकार , जानकारी सहमति का अधिकार , दूसरा विकल्प /राय लेने का अधिकार , विशेष उपचार के चयन का अधिकार आदि का लगातार उल्ल्ंघन होता है ।
* भारत सरकार द्वारा कराये गए अध्ययन से पता चलता है कि ऐसे अस्पताल जिन्हें राज्य द्वारा सब्सिडी दी जाती है और गरीब मरीजों का निशुल्क इलाज करना उनकी जिम्मेदारी है , वे ऐसा करने में असफल रहे हैं ।
* लाईसेंसी डाक्टरों द्वारा मेडिकल पेशे का दुरूपयोग और उनके विशेषाधिकारों दुरूपयोग आम बात है ।
आज का असफल नियंत्रण ,और निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र के बारे में प्रभावहीन कानून :
1 . डॉक्टर खुद पर नियंत्रण रखने में असफल --मानक निश्चित हेतु तथा स्व नियंत्रण करने में मेडिकल असोसिएशन व काउंसिलें असफल रही हैं । दुनिया के सबसे बड़े निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्रों होने के बावजूद , जो कि भारत में 80 % स्वास्थ्य सेवा सुविधा उपलब्ध कराता है , लगभग नियंत्रण विहीन ही है , यह एक चिंता का विषय है ।
2 . कानूनी व्यवस्था की असफलता -
भारत में तीन करोड़ से ज्यादा मुकदमें ढेर सारे न्यायालयों में लम्बित पड़े हैं । विश्लेषकों का मानना है कि इस पूरे मामलों को निपटाने में 350 से 400 वर्षों का समय लग जायेगा । हमारी कानूनी व्यवस्था का यह हाल देखकर हमें कतई उम्मीद नहीं है कि मेडिकल लापरवाही के विरुद्ध शिकायत लेकर जाने से मरीजों को न्याय मिल पायेगा । साथ ही यह भी दिक्कत है कि डॉक्टर किसी दुसरे डाक्टर के खिलाफ ब्यान नहीं देना चाहता है। इसी प्रवृर्ति के कारण उपभोगता संरक्षण कोर्ट से भी मेडिकल लापरवाही के मामले साबित करना कठिन होता है । इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि न्यायपालिका या उपभोगता कोर्ट निजी मेडिकल सैक्टर का नियंत्रण करने में आज कोई भूमिका नहीं निभा है ।
3. क्लीनिक व अस्पतालों रजिस्ट्रेशन से संबंधित कमजोर कानून --
महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पंजीयन के लिए आज तक बॉम्बे नर्सिंग होम पंजीयन अधिनियम (BNHRA) ,1949 ही लागू है । यह कानून सिर्फ नर्सिंग होम के पंजीयन के लिए ही है । इसमें ऐसा कोई प्रावधान नहीं है , जो निजी मेडिकल क्षेत्र को प्रभावी ढंग से विवेकपूर्ण व मानकीकृत करने में सक्षम हो । उसी तरह , कर्नाटक और आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों विभिन्न कानूनों की वही स्तिथि है । राष्ट्रीय चिकित्सकीय संस्थान अधिनियम 2010 को बहुत से राज्यों द्वारा अभी तक लागू नहीं किया गया है ।
निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का नियमन करने के लिए लोकाभिमुख ढांचे के कुछ महत्वपूर्ण तत्व -
नियमन करने वाली संरचना में यह पहलू होने जरूरी हैं --
* मरीजों के अधिकारों की रक्षा , पारदर्शिता , सूचित निर्णय चयन , पसंद और मना करने की मरीजों की आजादी ।
* प्रत्येक के लिए बेहतर गुणवत्ता सेवा , विवेकपूर्ण , साक्ष्य आधारित उपचार जो निजी स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र द्वारा उचित दरों पर उपलब्ध कराये जाएँ ।
* नैतिक निजी प्रदाताओं , छोटे नर्सिंग होम, विश्वसनीय धर्मार्थ अस्पतालों और आदिवासी व कमजोर इलाकों में काम करने वाली स्वास्थ्य सुविधाओं के मुद्दों का ख्याल रखना ।
* मानक और इलाज संबंधी दिशानिर्देशों के नाम पर कार्पोरेट अस्पतालों को अपने हित थोपने से रोकना ।
छोटे अस्पतालों और जनार्थ काम करने वाली स्वास्थ्य संस्थाओं के मुद्दों ध्यान में रखना ।
* बाबू राज लाने से बचाव : नागरिक , मरीजों के प्रतिनिधि , स्वयंसेवी संस्थाएं और डॉक्टर - इन सभी को मिलाकर बनी साझेदार संस्था के प्रति अधिकारीयों की जवाबदेही ।
* डाक्टर और मरीजों के लिए प्रभावी और जनोपयोगी शिकायत निवारण निवारण प्रणाली ।
No comments:
Post a Comment