भारत में स्वास्थ्य सेवाएं: स्थिति, चुनौती एवं समाधान
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श्री प्रभाष झा (वरिष्ठ पत्रकार)
हमें बचपन से ही सिखाया जाता है कि स्वस्थ जीवन ही सफलता की कुंजी है। किसी भी व्यक्ति को अगर जीवन में सफल होना है तो इसके लिए सबसे पहले उसके शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है। व्यक्ति से इतर एक राष्ट्र पर भी यही सिद्धांत लागू होता है। नागरिक जितने स्वस्थ होंगे देश विकास सूचकांक की कसौटियों पर उतना ही अच्छा प्रदर्शन करेगा। उदारीकरण के बाद आर्थिक क्षेत्र में हमारी महत्वाकांक्षाएं आसमान छू रही हैं। भारत सकल राष्ट्रीय आय (पीपीपी के संदर्भ में) की दृष्टि से विश्व की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यस्था वाला देश है। लेकिन, जब बात देश में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति की आती है तो सारा उत्साह मानों काफूर हो जाता है। आज भारत के पास अपने नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रौद्योगिकियों और ज्ञान का भंडार है, लेकिन यह भी सत्य है कि इस क्षेत्र में उपलब्ध सुविधाओं और आवश्यकताओं के बीच अंतराल निरंतर बढ़ रहा है। रोग की रोकथाम और उपचार के लिए आज हमारे पास जिस स्तर की सुविधाएं, ससांधन एवं तकनीक उपलब्ध हैं उन्हें देखते हुए देश में व्याप्त असमय मृत्यु, अनावश्यक बीमारियां और अस्वस्थ परिस्थितियों को एक विडंबना कहना ही ठीक होगा। देश में मौजूदा स्वास्थ्य सुविधाएं उन व्यक्तियों को व्यापक और पर्याप्त पैमाने पर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराने में सक्षम नहीं हैं, जिन्हें इनकी सबसे अधिक आवश्यकता है। आर्थिक विकास को स्वास्थ्य सुविधाओं के स्तर में सुधार लाने के लिए प्रयोग किया जाना चाहिए तभी हम विषमता रहित समाज एवं स्वस्थ राष्ट्र बनाने में सफल होंगे।
जनसंख्या के बोझ, गरीबी और स्वास्थ्य क्षेत्र में कमजोर बुनियादी ढांचे की वजह से भारत को दुनिया के पिछड़े देशों से भी ज्यादा बीमारी के बोझ का सामना करना पड़ता है। स्वास्थ्य सेवा से जुड़े हर मानक पर हम दुनिया के फिसड्डी देशों से होड़ करते दिखाई देते हैं। प्रसव के समय होने वाली शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर 52 है, जबकि श्रीलंका में 15, नेपाल में 38, भूटान में 41 और मालदीव में यह आंकड़ा 20 का है। स्वास्थ्य सेवा पर खर्च का 70 प्रतिशत निजी क्षेत्र से आता है, जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 38 प्रतिशत है। विकसित देशों के साथ तुलना करने पर विषमता का यह आंकड़ा और भी ज्यादा चौंकाने वाला है। इसके अलावा, चिकित्सा पर व्यय का 86 प्रतिशत तक लोगों को अपनी जेब से चुकाना होता है, जो यह बताता है कि देश में स्वास्थय बीमा की पैठ कितनी कम है। भारत कुल स्वास्थ्य सेवा खर्च और बुनियादी ढांचे की आपूर्ति, दोनों के ही लिहाज से कई विकासशील देशों से काफी पीछे है। ब्राजील जैसे विकासशील देश में प्रति हजार लोगों पर अस्पतालों में बेडों की उपलब्धता 2.3 है पर भारत में यह आंकड़ा केवल 0.7 को छू पाता है। पड़ोसी देशों श्रीलंका में यह आंकड़ा 3.6 और चीन में 3.8 है। डॉक्टरों की उपलब्धता का वैश्विक औसत प्रति एक हजार व्यक्तियों पर 1.3 है, जबकि भारत में यह केवल 0.7 है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2011 में भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति कुल व्यय 62 अमेरिकी डॉलर (लगभग पौने चार हजार रुपये) था, जबकि अमेरिका में 8467 डॉलर और नॉर्वे में 9908 अमेरिकी डॉलर तक था। हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका तक हमसे प्रति व्यक्ति लगभग 50% तक ज्यादा (93 अमेरिकी डॉलर) खर्च कर रहा था। आंकड़ों के आधार पर हमारे पास 400,000 डॉक्टरों, 700,000 बेडों और लगभग 40 लाख नर्सों की कमी है। संसाधनों और स्वास्थ्य सुविधाओं के असमान वितरण के अलावा भारत में बीमारों की बढ़ती संख्या भी अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। उदाहरण के लिए, भारत में मधुमेह के मामलों की संख्या पहले 2020 तक 3.6 करोड़ आंकी गई थी, अब यह 7.5 करोड़ से पहले ही आगे निकल चुकी है। जल्द ही दुनिया में हर पांच मधुमेह के रोगियों में एक भारतीय होगा।
स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता और सरकारी कार्यक्रमों की स्थिति भी गंभीर चिंता का विषय है। इसकी वजह से स्वास्थ्य सुविधाओं की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, 90 प्रतिशत से अधिक गर्भवती महिलाओं को एक बार प्रसव पूर्व जांच की सुविधा प्राप्त होती है और उनमें से 87 प्रतिशत को टेटनस रोधी पूर्ण टीकाकरण की सुविधा प्राप्त होती है किंतु केवल 68.7 प्रतिशत महिलाएं ही अनिवार्य तीन प्रसव पूर्व जांच की सुविधा प्राप्त कर पाती हैं। परवार नियोजन ऑपरेशन (नसबंदी) के कारण जो मृत्यु हो जाती है और जिस पर रोक लगाया जा सकता है, प्रायः निम्न गुणवत्ता की सुविधा उपलब्ध कराने का ही परिणाम हैं। केवल 61 प्रतिशत बच्चों का ही पूर्ण टीकाकरण हो पाता है। सुरक्षित गर्भपात सेवाओं तक पहुंच और बीमार नवजात शिशु की देखरेख सेवाओं की उपलब्धता में भी काफी अंतर बना हुआ है। वर्तमान में मातृ मृत्यु दर सभी कारणों से होने वाली मृत्यु का 0.55 प्रतिशत है और 15-49 वर्ष के आयु समूह के अंतर्गत आने वाली महिलाओं की मृत्यु का 4 प्रतिशत है। अभी भी प्रति वर्ष 46,500 महिलाओं की गर्भावस्था के दौरान मृत्यु हो रही है, जो एक बहुत बड़ी संख्या है। हमें मातृ मृत्यु दर में और अधिक कमी लाने की दिशा में निरतंर काम करने की आवश्यकता है।
स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता में विषमता का मुद्दा भी काफी गंभीर है। शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति ज्यादा बदतर है। इसके अलावा बड़े निजी अस्पतालों के मुकाबले सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं का घनघोर अभाव है। उन राज्यों में भी जहां समग्र औसत में सुधार देखा गया है, उनके अनेक जनजातीय बहुल क्षेत्रों में स्थिति नाजुक बनी हुई है। निजी अस्पतालों की वजह से बड़े शहरों में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता संतोषजनक है, लेकिन चिंताजनक पहलू यह है कि इस तक केवल संपन्न तबके की पहुंच है। तीव्र और अनियोजित शहरीकरण के कारण शहरी निर्धन आबादी और विशेषकर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। आबादी का यह हिस्सा सरकारी और निजी अस्पतालों के समीप रहने के बावजूद स्वास्थ्य सुविधाओं को पर्याप्त रूप में नहीं प्राप्त कर पाता है। सरकारी घोषणाओं में तो राष्ट्रीय कार्यक्रमों के तहत सभी चिकित्सा सेवाएं सभी व्यक्ति को निःशुल्क उपलब्ध हैं और इन सेवाओं का विस्तार भी काफी व्यापक है। हालांकि, जमीनी सच्चाई यही है कि सरकारी स्वास्थ्य सुविधा आवश्यकताओं के विभिन्न आयामों को संबोधित करने में विफल रही है। इसकी वजह से आम आदमी के लिए चिकित्सा सुविधा की लागत नियंत्रित नहीं रह पाई। अध्ययन के आधार पर आकलन किया गया है कि केवल इलाज पर खर्च के कारण ही प्रतिवर्ष 6 करोड़ 30 लाख से अधिक लोग निर्धनता का शिकार हो रहे हैं। इसकी वजह यह है कि समाज के जिस तबके को इन सेवाओं की आवश्यकता है, उसके लिए सरकार की ओर से पर्याप्त वित्तीय संरक्षण उपलब्ध नहीं है। वर्ष 2011-12 में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाओं पर किए गए निजी व्यय की राशि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति घरेलू मासिक व्यय का 6.9 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 5.9 प्रतिशत थी। यह चिंता का विषय है कि पिछले कुछ वर्षों में ऐसे परिवारों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिन्हें आवश्यक चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधा प्राप्त करने के लिए अपनी क्षमता से कहीं अधिक खर्च करना पड़ा और वे गरीबी रेखा से नीचे आ गए। वर्ष 2004-05 में ऐसे परिवारों की संख्या 15 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2011-12 में बढ़कर 18 प्रतिशत हो गई।
वर्ष 2013 में राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (एनयूएचएम) ने शहरी आशा कार्यकर्ताओं, महिला आरोग्य समितियों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के नेटवर्क के माध्यम से प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा को सुदृढ़ करने पर ध्यान दिया, लेकिन लक्ष्य के अनुरूप परिणाम नहीं मिल रहे हैं। शहरी निर्धन जनसंख्या को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के लिए एनयूएचएम को निरंतर और पर्याप्त विस्तृत वित्तपोषण की तो जरूरत है ही, इसको भ्रष्टाचार और अनियमितताओं से मुक्त किया जाना भी आवश्यक है। इसी तरह, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) का उद्देश्य राज्य स्वास्थ्य प्रणाली को सुदृढ़ बनाना था, जिससे स्वास्थ्य से जुड़ीं सभी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। हालांकि, व्यवहार में यह केवल राष्ट्रीय कार्यक्रम से जुड़ीं प्राथमिकताओं तक ही सीमित होकर रह गया। यदि स्वास्थ्य सेवाओं का संपूर्ण एवं समतामूलक विकास करना हो तो इस तरह की कार्यनीति लंबे समय तक प्रभावी नहीं रह सकती है। इन योजनाओं की कामयाबी तभी है, जब देश में स्वास्थ्य सेवाओं का एक मजबूत ढांचा तैयार हो और देश के सभी हिस्सों तक किफायती और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ हो सके। आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को अस्पतालों में इलाज उपलब्ध कराने और परिवारों को अधिक चिकित्सा व्यय से बचाने के लिए सरकार द्वारा वित्तपोषित अनेक स्वास्थ्य बीमा योजनाएं शुरू की गईं, लेकिन इनमें कई तरह की समस्याएं हैं। भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने वर्ष 2008 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई) की शुरुआत की और उसके तहत बीमा योजना का लाभ उठाने वाले लोगों की संख्या 2014 में लगभग 37 करोड़ हो गई (आबादी का लगभग एक चौथाई भाग)। इस आबादी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा (18 करोड़ लोग) गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) से आते हैं। इसमें समस्या यह है कि लाभार्थियों को अक्सर योजना के तहत मिलने वाली सेवाओं की जानकारी नहीं होती है। दूसरी समस्या निजी अस्पतालों द्वारा कुछ श्रेणियों के रोगों के इलाज से इनकार करना और कुछ सेवाओं को अनावश्यक एवं अतिरिक्त मात्रा में उपलब्ध कराना है, जैसे कि आए दिन खबरों में यह पढ़ने को मिलता है कि ग्रामीण इलाकों में छोटी-मोटी समस्याओं पर भी महिलाओं के गर्भाशय निकाल दिए जा रहे हैं । इस तरह की समस्याओं से निपटने के लिए जागरूकता बेहद आवश्यक है।
भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है और इसकी वजह से स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक दबाव है। मृत्युदर घटी है, लेकिन जन्मदर दुनिया के ज्यादातर देशों से अधिक है। राष्ट्रीय कुल जनन दर 2.9 से घटकर 2.4 हो गया है। 21 बड़े राज्यों में से 12 राज्यों (जिनके आंकड़े हाल में प्राप्त हुए हैं) में जन्मदर 2.1 या इससे कम है। छह राज्यों- बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़- में चुनौती बनी हुई है। उल्लेखनीय है कि इन छह राज्यों में देश की कुल जनसंख्या के 42 प्रतिशत लोग निवास करते हैं और ये राज्य देश की कुल जनसंख्या में प्रतिवर्ष 56 प्रतिशत बढ़ोतरी के उत्तरदायी हैं। मेघालय को छोड़कर शेष सभी छोटे राज्यों और संघशासित राज्य क्षेत्रों में जन्मदर (सीबीआर) प्रति 1000 पर 21 से भी कम है। निष्कर्ष साफ है कि बीमारू राज्यों में परिवार नियोजन को नए सिरे से चलाने की आवश्यकता है, तभी सबको गुणवत्ता पूर्ण चिकित्सा उपलब्ध कराने का सपना सकार हो सकेगा।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2002 के 13 वर्षों बाद विकास और स्वास्थ्य के संदर्भ में चार प्रमुख बदलाव देखे जा सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान लक्ष्यों पर केंद्रित करके कार्यक्रम चलाए जाने से मातृ और शिशु मृत्युदर कमी आई है। देश में एक विशाल स्वास्थ्य सुविधा उद्योग पनपा है, जो 15 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ रहा है। यह सभी सेवाओं में विकास की दर की दुगुनी और राष्ट्रीय आर्थिक विकास दर से तिगुनी दर से है। हालांकि, इस सुनहरी तस्वीर का एक स्याह सच यह भी है देश में मौजूद इन सुविधाओं का उपभोग आर्थिक कारणों से आम आदमी नहीं कर पाते हैं। इसलिए, इस क्षेत्र के विकास की रूपरेखा राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियों और उद्देश्यों के अनुरूप होनी चाहिए विशेषकर आम आदमी की पहुंच और वित्तीय सुरक्षा की दृष्टि से। अतः स्वास्थ्य मंत्रालय का हस्तक्षेप इस उद्योग के विकास की दिशा एवं रूपरेखा निर्धारित करने के लिए आवश्यक है। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि निजी चिकित्सा उद्योग कुछ चुने हुए शहरों तक ही सीमित न रहें और सार्वजनिक क्षेत्र से वित्तपोषण के लिए अधिक दबाव न डाले। तीसरा, स्वास्थ्य सुविधा लागत के कारण आपातिक व्यय की घटना में बढ़ोतरी हो रही है और अब इसे गरीबी बढ़ने का एक प्रमुख कारण माना जाने लगा है। स्वास्थ्य सेवा लागत में बढ़ोतरी परिवार की बढ़ती हुई आय और गरीबी कम करने वाले सरकारी योजनाओं को निष्प्रभावी कर रही है। चौथा और अंतिम बदलाव यह है कि आर्थिक विकास के कारण उपलब्ध राजकोषीय क्षमता में वृद्धि हुई है। इसी के अनुरू स्वास्थ्य पर सरकार के बजट में भी बढ़ोतरी की जरूरत है। अमेरिका जहां अपने सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का 17 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करता है, वहीं भारत में यह आंकड़ा महज एक प्रतिशत के करीब है। अन्य विकसित देशों में कनाडा 10 प्रतिशत, आस्ट्रेलिया 9.2 प्रतिशत, बेल्जियम 10.1 प्रतिशत, डेनमार्क 8.9 प्रतिशत, फ्रांस 10.4 प्रतिशत, इटली 8.4, जापान 8 प्रतिशत, स्वीडन 9.3 प्रतिशत, इंग्लैंड 7.8 प्रतिशत खर्च स्वास्थ्य पर करते हैं। यहां तक कि श्रीलंका 1.8 प्रतिशत, बांग्लादेश 1.6 प्रतिशत और नेपाल 1.5 प्रतिशत खर्च करते हैं। देश की सरकारें लगातार वादा करती रही हैं कि सकल घरेलू उत्पादन का 2 से 3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करेंगी, जो आज भी कागजों की शोभा बढ़ा रहा है। अतः देश को एक ऐसी नई स्वास्थ्य नीति की आवश्यकता है, जो इन प्रासंगिक परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील एवं उत्तरदायी हो। मितव्ययी स्वास्थ्य सुविधा सेवाओं तक सभी लोगों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए आने वाले समय में सरकार को राष्ट्रीय इंश्योरेंस मिशन को लागू करने की दिशा में जल्द से जल्द आगे बढ़ना चाहिए।
जनसंख्या के बोझ, गरीबी और स्वास्थ्य क्षेत्र में कमजोर बुनियादी ढांचे की वजह से भारत को दुनिया के पिछड़े देशों से भी ज्यादा बीमारी के बोझ का सामना करना पड़ता है। स्वास्थ्य सेवा से जुड़े हर मानक पर हम दुनिया के फिसड्डी देशों से होड़ करते दिखाई देते हैं। प्रसव के समय होने वाली शिशु मृत्यु दर प्रति एक हजार पर 52 है, जबकि श्रीलंका में 15, नेपाल में 38, भूटान में 41 और मालदीव में यह आंकड़ा 20 का है। स्वास्थ्य सेवा पर खर्च का 70 प्रतिशत निजी क्षेत्र से आता है, जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 38 प्रतिशत है। विकसित देशों के साथ तुलना करने पर विषमता का यह आंकड़ा और भी ज्यादा चौंकाने वाला है। इसके अलावा, चिकित्सा पर व्यय का 86 प्रतिशत तक लोगों को अपनी जेब से चुकाना होता है, जो यह बताता है कि देश में स्वास्थय बीमा की पैठ कितनी कम है। भारत कुल स्वास्थ्य सेवा खर्च और बुनियादी ढांचे की आपूर्ति, दोनों के ही लिहाज से कई विकासशील देशों से काफी पीछे है। ब्राजील जैसे विकासशील देश में प्रति हजार लोगों पर अस्पतालों में बेडों की उपलब्धता 2.3 है पर भारत में यह आंकड़ा केवल 0.7 को छू पाता है। पड़ोसी देशों श्रीलंका में यह आंकड़ा 3.6 और चीन में 3.8 है। डॉक्टरों की उपलब्धता का वैश्विक औसत प्रति एक हजार व्यक्तियों पर 1.3 है, जबकि भारत में यह केवल 0.7 है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, वर्ष 2011 में भारत में स्वास्थ्य पर प्रति व्यक्ति कुल व्यय 62 अमेरिकी डॉलर (लगभग पौने चार हजार रुपये) था, जबकि अमेरिका में 8467 डॉलर और नॉर्वे में 9908 अमेरिकी डॉलर तक था। हमारा पड़ोसी देश श्रीलंका तक हमसे प्रति व्यक्ति लगभग 50% तक ज्यादा (93 अमेरिकी डॉलर) खर्च कर रहा था। आंकड़ों के आधार पर हमारे पास 400,000 डॉक्टरों, 700,000 बेडों और लगभग 40 लाख नर्सों की कमी है। संसाधनों और स्वास्थ्य सुविधाओं के असमान वितरण के अलावा भारत में बीमारों की बढ़ती संख्या भी अपने आप में एक बड़ी चुनौती है। उदाहरण के लिए, भारत में मधुमेह के मामलों की संख्या पहले 2020 तक 3.6 करोड़ आंकी गई थी, अब यह 7.5 करोड़ से पहले ही आगे निकल चुकी है। जल्द ही दुनिया में हर पांच मधुमेह के रोगियों में एक भारतीय होगा।
स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता और सरकारी कार्यक्रमों की स्थिति भी गंभीर चिंता का विषय है। इसकी वजह से स्वास्थ्य सुविधाओं की विश्वसनीयता पर गंभीर प्रभाव पड़ रहा है। उदाहरण के लिए, 90 प्रतिशत से अधिक गर्भवती महिलाओं को एक बार प्रसव पूर्व जांच की सुविधा प्राप्त होती है और उनमें से 87 प्रतिशत को टेटनस रोधी पूर्ण टीकाकरण की सुविधा प्राप्त होती है किंतु केवल 68.7 प्रतिशत महिलाएं ही अनिवार्य तीन प्रसव पूर्व जांच की सुविधा प्राप्त कर पाती हैं। परवार नियोजन ऑपरेशन (नसबंदी) के कारण जो मृत्यु हो जाती है और जिस पर रोक लगाया जा सकता है, प्रायः निम्न गुणवत्ता की सुविधा उपलब्ध कराने का ही परिणाम हैं। केवल 61 प्रतिशत बच्चों का ही पूर्ण टीकाकरण हो पाता है। सुरक्षित गर्भपात सेवाओं तक पहुंच और बीमार नवजात शिशु की देखरेख सेवाओं की उपलब्धता में भी काफी अंतर बना हुआ है। वर्तमान में मातृ मृत्यु दर सभी कारणों से होने वाली मृत्यु का 0.55 प्रतिशत है और 15-49 वर्ष के आयु समूह के अंतर्गत आने वाली महिलाओं की मृत्यु का 4 प्रतिशत है। अभी भी प्रति वर्ष 46,500 महिलाओं की गर्भावस्था के दौरान मृत्यु हो रही है, जो एक बहुत बड़ी संख्या है। हमें मातृ मृत्यु दर में और अधिक कमी लाने की दिशा में निरतंर काम करने की आवश्यकता है।
स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता में विषमता का मुद्दा भी काफी गंभीर है। शहरी क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण क्षेत्रों की स्थिति ज्यादा बदतर है। इसके अलावा बड़े निजी अस्पतालों के मुकाबले सरकारी अस्पतालों में सुविधाओं का घनघोर अभाव है। उन राज्यों में भी जहां समग्र औसत में सुधार देखा गया है, उनके अनेक जनजातीय बहुल क्षेत्रों में स्थिति नाजुक बनी हुई है। निजी अस्पतालों की वजह से बड़े शहरों में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता संतोषजनक है, लेकिन चिंताजनक पहलू यह है कि इस तक केवल संपन्न तबके की पहुंच है। तीव्र और अनियोजित शहरीकरण के कारण शहरी निर्धन आबादी और विशेषकर झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वालों की संख्या में तेजी से वृद्धि हुई है। आबादी का यह हिस्सा सरकारी और निजी अस्पतालों के समीप रहने के बावजूद स्वास्थ्य सुविधाओं को पर्याप्त रूप में नहीं प्राप्त कर पाता है। सरकारी घोषणाओं में तो राष्ट्रीय कार्यक्रमों के तहत सभी चिकित्सा सेवाएं सभी व्यक्ति को निःशुल्क उपलब्ध हैं और इन सेवाओं का विस्तार भी काफी व्यापक है। हालांकि, जमीनी सच्चाई यही है कि सरकारी स्वास्थ्य सुविधा आवश्यकताओं के विभिन्न आयामों को संबोधित करने में विफल रही है। इसकी वजह से आम आदमी के लिए चिकित्सा सुविधा की लागत नियंत्रित नहीं रह पाई। अध्ययन के आधार पर आकलन किया गया है कि केवल इलाज पर खर्च के कारण ही प्रतिवर्ष 6 करोड़ 30 लाख से अधिक लोग निर्धनता का शिकार हो रहे हैं। इसकी वजह यह है कि समाज के जिस तबके को इन सेवाओं की आवश्यकता है, उसके लिए सरकार की ओर से पर्याप्त वित्तीय संरक्षण उपलब्ध नहीं है। वर्ष 2011-12 में चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवाओं पर किए गए निजी व्यय की राशि ग्रामीण क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति घरेलू मासिक व्यय का 6.9 प्रतिशत और शहरी क्षेत्रों में 5.9 प्रतिशत थी। यह चिंता का विषय है कि पिछले कुछ वर्षों में ऐसे परिवारों की संख्या में वृद्धि हुई है, जिन्हें आवश्यक चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सुविधा प्राप्त करने के लिए अपनी क्षमता से कहीं अधिक खर्च करना पड़ा और वे गरीबी रेखा से नीचे आ गए। वर्ष 2004-05 में ऐसे परिवारों की संख्या 15 प्रतिशत थी, जो वर्ष 2011-12 में बढ़कर 18 प्रतिशत हो गई।
वर्ष 2013 में राष्ट्रीय शहरी स्वास्थ्य मिशन (एनयूएचएम) ने शहरी आशा कार्यकर्ताओं, महिला आरोग्य समितियों और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों के नेटवर्क के माध्यम से प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा को सुदृढ़ करने पर ध्यान दिया, लेकिन लक्ष्य के अनुरूप परिणाम नहीं मिल रहे हैं। शहरी निर्धन जनसंख्या को स्वास्थ्य सेवाएं मुहैया कराने के लिए एनयूएचएम को निरंतर और पर्याप्त विस्तृत वित्तपोषण की तो जरूरत है ही, इसको भ्रष्टाचार और अनियमितताओं से मुक्त किया जाना भी आवश्यक है। इसी तरह, राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) का उद्देश्य राज्य स्वास्थ्य प्रणाली को सुदृढ़ बनाना था, जिससे स्वास्थ्य से जुड़ीं सभी आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके। हालांकि, व्यवहार में यह केवल राष्ट्रीय कार्यक्रम से जुड़ीं प्राथमिकताओं तक ही सीमित होकर रह गया। यदि स्वास्थ्य सेवाओं का संपूर्ण एवं समतामूलक विकास करना हो तो इस तरह की कार्यनीति लंबे समय तक प्रभावी नहीं रह सकती है। इन योजनाओं की कामयाबी तभी है, जब देश में स्वास्थ्य सेवाओं का एक मजबूत ढांचा तैयार हो और देश के सभी हिस्सों तक किफायती और बेहतर स्वास्थ्य सेवाएं सुलभ हो सके। आर्थिक रूप से कमजोर तबकों को अस्पतालों में इलाज उपलब्ध कराने और परिवारों को अधिक चिकित्सा व्यय से बचाने के लिए सरकार द्वारा वित्तपोषित अनेक स्वास्थ्य बीमा योजनाएं शुरू की गईं, लेकिन इनमें कई तरह की समस्याएं हैं। भारत सरकार के श्रम एवं रोजगार मंत्रालय ने वर्ष 2008 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (आरएसबीवाई) की शुरुआत की और उसके तहत बीमा योजना का लाभ उठाने वाले लोगों की संख्या 2014 में लगभग 37 करोड़ हो गई (आबादी का लगभग एक चौथाई भाग)। इस आबादी का लगभग दो-तिहाई हिस्सा (18 करोड़ लोग) गरीबी रेखा से नीचे (बीपीएल) से आते हैं। इसमें समस्या यह है कि लाभार्थियों को अक्सर योजना के तहत मिलने वाली सेवाओं की जानकारी नहीं होती है। दूसरी समस्या निजी अस्पतालों द्वारा कुछ श्रेणियों के रोगों के इलाज से इनकार करना और कुछ सेवाओं को अनावश्यक एवं अतिरिक्त मात्रा में उपलब्ध कराना है, जैसे कि आए दिन खबरों में यह पढ़ने को मिलता है कि ग्रामीण इलाकों में छोटी-मोटी समस्याओं पर भी महिलाओं के गर्भाशय निकाल दिए जा रहे हैं । इस तरह की समस्याओं से निपटने के लिए जागरूकता बेहद आवश्यक है।
भारत दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है और इसकी वजह से स्वास्थ्य सेवाओं पर अत्यधिक दबाव है। मृत्युदर घटी है, लेकिन जन्मदर दुनिया के ज्यादातर देशों से अधिक है। राष्ट्रीय कुल जनन दर 2.9 से घटकर 2.4 हो गया है। 21 बड़े राज्यों में से 12 राज्यों (जिनके आंकड़े हाल में प्राप्त हुए हैं) में जन्मदर 2.1 या इससे कम है। छह राज्यों- बिहार, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, झारखंड और छत्तीसगढ़- में चुनौती बनी हुई है। उल्लेखनीय है कि इन छह राज्यों में देश की कुल जनसंख्या के 42 प्रतिशत लोग निवास करते हैं और ये राज्य देश की कुल जनसंख्या में प्रतिवर्ष 56 प्रतिशत बढ़ोतरी के उत्तरदायी हैं। मेघालय को छोड़कर शेष सभी छोटे राज्यों और संघशासित राज्य क्षेत्रों में जन्मदर (सीबीआर) प्रति 1000 पर 21 से भी कम है। निष्कर्ष साफ है कि बीमारू राज्यों में परिवार नियोजन को नए सिरे से चलाने की आवश्यकता है, तभी सबको गुणवत्ता पूर्ण चिकित्सा उपलब्ध कराने का सपना सकार हो सकेगा।
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति-2002 के 13 वर्षों बाद विकास और स्वास्थ्य के संदर्भ में चार प्रमुख बदलाव देखे जा सकते हैं। पिछले कुछ वर्षों के दौरान लक्ष्यों पर केंद्रित करके कार्यक्रम चलाए जाने से मातृ और शिशु मृत्युदर कमी आई है। देश में एक विशाल स्वास्थ्य सुविधा उद्योग पनपा है, जो 15 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर से बढ़ रहा है। यह सभी सेवाओं में विकास की दर की दुगुनी और राष्ट्रीय आर्थिक विकास दर से तिगुनी दर से है। हालांकि, इस सुनहरी तस्वीर का एक स्याह सच यह भी है देश में मौजूद इन सुविधाओं का उपभोग आर्थिक कारणों से आम आदमी नहीं कर पाते हैं। इसलिए, इस क्षेत्र के विकास की रूपरेखा राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियों और उद्देश्यों के अनुरूप होनी चाहिए विशेषकर आम आदमी की पहुंच और वित्तीय सुरक्षा की दृष्टि से। अतः स्वास्थ्य मंत्रालय का हस्तक्षेप इस उद्योग के विकास की दिशा एवं रूपरेखा निर्धारित करने के लिए आवश्यक है। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि निजी चिकित्सा उद्योग कुछ चुने हुए शहरों तक ही सीमित न रहें और सार्वजनिक क्षेत्र से वित्तपोषण के लिए अधिक दबाव न डाले। तीसरा, स्वास्थ्य सुविधा लागत के कारण आपातिक व्यय की घटना में बढ़ोतरी हो रही है और अब इसे गरीबी बढ़ने का एक प्रमुख कारण माना जाने लगा है। स्वास्थ्य सेवा लागत में बढ़ोतरी परिवार की बढ़ती हुई आय और गरीबी कम करने वाले सरकारी योजनाओं को निष्प्रभावी कर रही है। चौथा और अंतिम बदलाव यह है कि आर्थिक विकास के कारण उपलब्ध राजकोषीय क्षमता में वृद्धि हुई है। इसी के अनुरू स्वास्थ्य पर सरकार के बजट में भी बढ़ोतरी की जरूरत है। अमेरिका जहां अपने सकल घरेलू उत्पादन (जीडीपी) का 17 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करता है, वहीं भारत में यह आंकड़ा महज एक प्रतिशत के करीब है। अन्य विकसित देशों में कनाडा 10 प्रतिशत, आस्ट्रेलिया 9.2 प्रतिशत, बेल्जियम 10.1 प्रतिशत, डेनमार्क 8.9 प्रतिशत, फ्रांस 10.4 प्रतिशत, इटली 8.4, जापान 8 प्रतिशत, स्वीडन 9.3 प्रतिशत, इंग्लैंड 7.8 प्रतिशत खर्च स्वास्थ्य पर करते हैं। यहां तक कि श्रीलंका 1.8 प्रतिशत, बांग्लादेश 1.6 प्रतिशत और नेपाल 1.5 प्रतिशत खर्च करते हैं। देश की सरकारें लगातार वादा करती रही हैं कि सकल घरेलू उत्पादन का 2 से 3 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च करेंगी, जो आज भी कागजों की शोभा बढ़ा रहा है। अतः देश को एक ऐसी नई स्वास्थ्य नीति की आवश्यकता है, जो इन प्रासंगिक परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील एवं उत्तरदायी हो। मितव्ययी स्वास्थ्य सुविधा सेवाओं तक सभी लोगों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए आने वाले समय में सरकार को राष्ट्रीय इंश्योरेंस मिशन को लागू करने की दिशा में जल्द से जल्द आगे बढ़ना चाहिए।
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