Sunday, 26 June 2016

स्वास्थ्य, स्वच्छता और महिलाएं


(पीके खुराना,लेखक एक वरिष्ठ जनसंपर्क सलाहकार और विचारक हैं)
महंगाई, बीमारी, संघर्ष और प्राकृतिक व अन्य  आपदाओं से त्रस्त गरीबों के लिए स्वच्छता सचमुच एक बड़ी चुनौती है। देश के बहुत से क्षेत्रों में टायलेट न होना स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है और यहां तक कि शहरों में भी खुले में शौच जाने की विवशता एक आम बात है…
सब जानते  हैं कि पुरुषों और महिलाओं की समानताओं और विषमताओं की  बहस शाश्वत है और यह भविष्य में भी जारी रहेगी। महिला अधिकारों के झंडाबरदारों ने महिला और पुरुष अधिकारों की समानता की मांग उठाकर इसे एक अलग ही रंग दे दिया। भारतीय संसद अभी तक महिला आरक्षण के बारे में अनिश्चित है, भारतीय समाज इस समस्या से अनजान है और भारतीय मीडिया के लिए यह एक फैशनेबल मुद्दा मात्र है। अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर मीडिया में महिला आरक्षण, पुरुषों द्वारा महिलाओं के शोषण और महिला अधिकारों की बात की जाती है। कई कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं, सेमिनार होते हैं, जुलूस-जलसे होते हैं, संसद में शोर मचता है, खबरें छपती हैं और फिर हम अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को भूलकर अगले किसी ‘दिवस’ की तैयारी में मशगूल हो जाते हैं। इन सब से परे हटकर मैंने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर महिलाओं से संबंधित एक महत्त्वूपर्ण मुद्दा उठाया था, जिसे अकसर अनजाने में उपेक्षित कर दिया जाता है। यह सच है कि  महिला अधिकारों के झंडाबरदारों  ने महिला अधिकारों पर मीडिया का ध्यान आकर्षित करने में काफी सफलता प्राप्त की है। इसके अलावा कामकाजी महिलाओं की संख्या न केवल बढ़ी है, बल्कि बहुत सी सफल महिलाओं ने इतना नाम कमाया है कि वे पुरुषों के लिए ईर्ष्या का कारण बनी हैं, परंतु भारतीय समाज में हम महिलाओं की विशिष्ट आवश्यकताओं तथा मनःस्थितियों (फेमिनाइन नीड्स एंड मूड्स) के बारे में बात ही नहीं करते। सार्वजनिक स्थानों पर टायलेट की समस्या हो या माहवारी और गर्भावस्था के दौरान महिलाओं की देखभाल का मुद्दा हो, पुरुष इससे अनजान ही रहते हैं। जिन घरों में मां नहीं है, वहां बहनें या पुत्रियां अपने भाइयों और पिता को अपनी समस्या बता ही नहीं पातीं और अनावश्यक बीमारियों का शिकार बन जाती हैं। पिता, भाई एवं पति के रूप में बहुत से पुरुष, महिलाओं की आवश्यकताओं को समझ ही नहीं पाते। इसमें उनका दोष नहीं है, क्योंकि भारतीय समाज में पुरुषों को स्त्रैण आवश्यकताओं के बारे में शिक्षित ही नहीं किया जाता। सेक्स एजुकेशन अभी भारतीय समाज और शिक्षा तंत्र का हिस्सा नहीं बन पाया है, यही कारण है कि इस बारे में बात भी नहीं की जाती।
संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 2008 को अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता वर्ष घोषित किया था। स्वच्छ रहने के लिए साफ पानी की उपलब्धता अत्यंत आवश्यक है और स्वच्छता, पानी की उपलब्धता से जुड़ा हुआ मुद्दा है। विश्व भर में लगभग दो अरब 60 करोड़ लोगों को स्वच्छता संबंधी मूल सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। सन् 2008 को अंतरराष्ट्रीय स्वच्छता वर्ष घोषित करने के पीछे उद्देश्य यह था कि लोगों में स्वच्छता के प्रति जागरूकता बढ़ाई जाए और सन् 2015 तक स्वच्छता संबंधी सुविधाओं से वंचित लोगों की संख्या आधी की जा सके। संयुक्त राष्ट्र संघ इस सहस्नाब्दि में विकास के जिन लक्ष्यों की पूर्ति चाहता है, यह उसका एक महत्त्वपूर्ण भाग है।
महंगाई, बीमारी, संघर्ष और प्राकृतिक व अन्य  आपदाओं से त्रस्त गरीबों के लिए स्वच्छता सचमुच एक बड़ी चुनौती है। तरह-तरह की सरकारी घोषणाओं और सामाजिक कार्यकलापों के बावजूद भारतवर्ष में पानी और सफाई दो बड़े मुद्दे हैं। अभी केवल एक तिहाई भारतीय ही स्वच्छ लोगों की गिनती में आते हैं। देश के बहुत से क्षेत्रों में टायलेट न होना स्वास्थ्य के लिए एक बड़ा खतरा बन गया है और यहां तक कि शहरों में भी खुले में शौच जाने की विवशता एक आम बात है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सन् 2002 के एक सर्वे में कहा था कि भारतवर्ष में हर वर्ष लगभग सात लाख लोग दस्त से मरते हैं। दूसरी ओर हरियाणा के जिला कुरुक्षेत्र के एक छोटे से गांव में भी किफायती टायलेट का प्रबंध है, जिनके कारण वहां खुले में शौच की विवशता समाप्त हो गई है। यह उन ग्रामीण महिलाओं के लिए बड़ी राहत की बात है, जिन्हें अपनी प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए या तो सुबह-सवेरे या फिर सांझ गए घर से निकलना पड़ता था। मीडिया में भी इस विषय पर ज्यादा चर्चा नहीं होती और यह माना जाता है कि इस बारे में लिखना सिर्फ उन पत्रकारों  का काम है, जो विकास अथवा पर्यावरण संबंधी मामलों पर लिखते हैं। हालांकि यह एक ऐसा मुद्दा है, जो मानव मात्र से जुड़ा हुआ है। सरकार स्वास्थ्य योजनाओं पर हर साल अरबों रुपए खर्च कर डालती है, लेकिन पानी और सफाई के इस मूल मुद्दे पर अभी तक गंभीरता से फोकस नहीं किया गया है, परिणामस्वरूप यह लक्ष्य अभी तक अधूरा है। साफ पानी के अभाव और स्वच्छता से जुड़े मूल नियमों की जानकारी न होने से बहुत सी मौतें होती हैं, जिन्हें रोका जा सकता है। सरकारों और सामाजिक संगठनों को इसके प्रति जागरूक होकर ऐसे कार्यक्रम बनाने होंगे, ताकि सफाई के अभाव के कारण असमय मृत्यु से बचा जा सके। मुझे विश्वास है कि महिला अधिकारों के  झंडाबरदार तथा मीडियाकर्मी मिलकर प्रशासन को इस ओर ध्यान देने के लिए आगे आएंगे, ताकि फैशन के लिए अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने के बजाय हम महिलाओं की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति भी कर सकें। क्या मीडियाकर्मी पुरुष समाज को इन मुद्दों पर शिक्षित करने की जिम्मेदारी लेंगे या हम सिर्फ फैशनेबल मुद्दों तक ही सीमित रह जाएंगे? मैं मानता हूं कि कोई आवश्यक मुद्दा मीडिया के ध्यान में लाया जाए तो मीडिया उसकी उपेक्षा नहीं करता। इसी विश्वास के साथ मैं अपने पुरुष साथियों को यह भी याद दिलाना चाहता हूं कि कई बुनियादी आवश्यकताओं के मामले में पुरुष और स्त्रियां सचमुच इतने भिन्न हैं मानों हम मंगल ग्रह के निवासी हों और महिलाएं शुक्र ग्रह की निवासी हों। मुझे पूरा विश्वास है कि जागरूक भारतीय एवं मीडियाकर्मी स्वस्थ राष्ट्र के निर्माण के उद्देश्य से जुड़े इस मुद्दे की उपेक्षा नहीं करेंगे।

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