Monday, 17 November 2025

jan aushadhi

🩺 *Jan Aushadhi = Affordable Medicines*
In this episode of Access Denied, we unpack the Jan Aushadhi Scheme — how these stores work and why medicines can cost as little as 25% of regular retail prices.

Dr. Gopal Dabade explains that medicines are sold by salt name, not brand, removing marketing and middlemen costs. This makes treatment far more affordable, especially for those with chronic conditions like BP and diabetes.

He suggests a practical model:
✅ Free medicines in government hospitals
✅ Jan Aushadhi stores near private hospitals

A practical, affordable solution — already within existing government policy.

🎥 *Youtube* https://tinyurl.com/yz2vamww
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Saturday, 15 November 2025

meham

महम हस्पताल की कुछ जानकारी
डॉक्टर की संख्या 11
नर्स  22
अन्य मैडिकल स्टाफ 3
प्रबंधन स्टाफ 6
ओपरेशन स्टाफ 2
खून भण्डारण स्टाफ  खाली
पोस्टमार्टम स्टाफ खाली ।

Thursday, 13 November 2025

प्रेस नोट

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी जिला कमेटी रोहतक
       
          प्रैस नोट 
आज सीपीआईएम का प्रतिनिधिमंडल ने एस एम ओ उप मंडल महम सिविल हस्पताल के मार्फत मांग पत्र स्वास्थ्य मन्त्री हरियाणा के नाम दिया।जिसमे 100बैड,पूरे डाक्टर, पैरा मैडिकल स्टाफ लगाने,सीटी स्कैन मशीन लगाने,अल्ट्रासाउंड मशीन, एक्सरे मशीन, सभी तरह की मुफ्त जांच करने एवं फ्री इलाज करने की मांग की गई। 
अलग से एक लिखित शिकायत एस डी एम महोदय के नाम देते हुए निजी बस संचालक द्वारा बुजुर्गो के साथ सरकार के आदेश की घोर उलघना बारे दी जिसमे आधे किराए की बजाए जबरन पूरा किराया लिया जा रहा  है जो कि अतिनंदनीय है वही बुजुर्गो से दुर्व्यवहार की निन्दा की गई। ऐसे बस मालिको के खिलाफ कडी कारवाई की मांग की है।
आज के प्रतिनिधिमंडल मे सीपीआईएम जिला सचिव कामरेड सतवीर सिंह, किसान नेता मास्टर बलवान सिह, मजदूर नेता कामरेड प्रकाश चन्द्र तथा सत्यनारायण शामिल थे।
      जारी कर्ता कामरेड सतवीर सिंह जिला सचिव सीपीआईएम 
फोन  9466009930

Monday, 13 October 2025

CHC



गुमनाम वीरांगनाएँ

आदिवासी नंगेलीः जो 'स्तन कर' के खिलाफ लड़ी

(हमारे इतिहास में बहुत सी गुमनाम महिलाएं हैं जिन्होंने अपने समय और सदी में अपने तरीके से इतिहास बदला।
लेकिन नंगेली की कहानी सबसे अलग जान पड़ती है। ये वो साहसिक आदिवासी महिला थी जिस ने केरल की निचली जनजाति की महिलाओं को स्तन ना ढाकने देने के क्रूर नियम को हटवाने के लिए सत्ता में बैठे लोगों के खिलाफ आवाज उठाई और अपनी जान की कुर्बानी दी।)

यह करीब 150 साल से भी पुरानी घटना है। उस समय केरल के बड़े भाग में त्रावण कोर के राजा का शासन था। यह वो दौर था जब जातिवाद समाज पर बुरी तरह हावी था। निचली जातियां शोषित थीं और उच्च जाति वाले खुद को उनका मालिक समझते थे। छुआ-छूत, सामाजिक बहिष्कार जैसी चीजें आम थी। इसी जातिगत भेदभाव के तहत निचली जाति की महिलाओं को स्तन ढकने का अधिकार नहीं था। यानि उस क्षेत्र में उच्च वर्ग की महिलाएं ही स्तन ढक सकती थीं, निचली जाति की महिलाओं को सार्वजनिक स्थलों पर भी स्तन ढके बिना ही काम करना होता था। यह नियम कई तरह के आदिवासी समूहों और जनजातियों के लिए बनाया गया था। अगर निचली जाति की महिलाए अपना स्तन ढकने की इच्छा रखती थीं तो उन्हें राजा को टैक्स के रूप मे कुछ रुपये देने पड़ते थे, जिसे 'स्तन कर' या 'मुल्लकरम' कहा जाता था। यह कर क्षेत्रीय आर्थिक विकास के मामले देखने वाले अधिकारी के पास जमा करवाना जरूरी था। यह कर न दे पाने की स्थिति मे इन महिलाओं को स्तन ढाकने की इजाजत नहीं थी। हम जिस दौर की बात कर रहे हैं, उसमें निचला वर्ग बहुत गरीब था इसलिए इस वर्ग की महिलाओं ने इज्जत को दाव पर रखकर स्तन ढके बिना ही जीना स्वीकार किया।




***
बहिना बाईः भारत की पहली आत्मकथा लेखिका


(प्रायः विद्वानों ने भारतीय आत्मकथाओं के विकास का क्रम सन 1900 के बाद निर्धारित किया है। किन्तु गांधी युग से कई साल पहले 1700 में मूल मराठी भाषा में लिखी गयी बहिना बाई की आत्मकथा को भारतीय भाषाओं की पहली आत्मकथा माना जा सकता है। उस समय जबकि भारतीय स्त्री में खुद के बारे में सोचने की चेतना नहीं के बराबर थी. बहिना बाई ने शब्दो के माध्यम से अपनी बातों को अनजाने ही लोगों तक पहुंचाने का प्रयात्त किया। उन्होंने अपनी गृहस्थी की घुटन और अपनी लगन द्वारा ज्ञान प्राप्ति की छटपटाहट को सीधे-सीधे सरल शब्दों में बाधा। मूल मराठी भाषा में लिखी गयी यह आत्मकथा सन् 1914 तक पाण्डुलिपि के रूप में ही रही। सन 1914 में इसे प्रकाशित किया। आत्मकथा हाथों-हाथ विक गयी। सन् 1926 में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। मराठी जगने वाले अंग्रेज पादरी जस्टीन अबोट ने आत्मकथा का अंग्रेजी में अनुवाद किया और 1929 में ॐ यह रचना प्रकाशित हुई। अंग्रेजी संस्करण के प्रथम 1 पृष्ठों में बहिनाबाई की आत्मकया है पुस्तक के उत्तरार्दध में उनके द्वारा रचित अभंगों का अंग्रेजी अनुवाद है तथा अतिम भाग में बहिना बाई द्वारा मूल मराठी में लिखी गई आत्मकथा दी गई है।)
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गुमनाम वीरांगनाएँ

पार्वती बाई अठावलेः जो विधवाओं के हक के लिए लड़ी

(हमारे भारतीय समाज में ऐसी अनेक महिलाए हुई हैं जिन्होंने अपने जीवन की अधेरी राहों को तो रोशन किया ही, पूरे समाज की महिलाओं को भी प्रकाश का रास्ता दिखाया। ऐसी ही गुमनाम वीरागनाओं में पार्वतीबाई अठावले का नाम अगली कतार में आता है. जिन्होंने मराठी भाषा में अपनी आत्मकथा लिखी जिसका अंग्रेजी अनुवाद 1923 में 'द ऑटोबायोग्राफी ऑफ एन इण्डियन विडो' शीर्षक से प्रकाशित हुआ तथा 1986 में 'हिन्दू विडो-एन ऑटोबायोग्राफी शीर्षक से पुनः प्रकाशित हुआ। इस हृदय विदारक आत्मकथा का अनुवाद मराठी का ज्ञान रखने वाले एक अंग्रेज पादरी 'जस्टीन अबोट ने किया।)

      पार्वती बाई का जन्म सन् 1870 में कोंकण के रत्नागिरि जिले के देवरुख गाँव में हुआ। 14 वर्ष की अल्पआयु में उनका विवाह गोवा में सरकारी नौकरी करने वाले अठावले से हुआ। 20 वर्ष की उम्र में ही उनके पति की मृत्यु हो गई। उस समय वे एक वर्ष के शिशु की माँ बन चुकी थी। अठावले के निधन से उन पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा क्योंकि वे अपने पीछे पार्वती की जीविका के लिए कोई आधार नहीं छोड गये थे। उन्हें मजबूरन अपने मायके लौटना पड़ा, वह मायका, जहाँ उनकी दो बड़ी बहनें पहले से ही वैधव्य का दुःखद जीवन जी रही थीं। परम्परागत हिन्दू विधवाओं का अभिशप्त जीवन जीते हुए भी वे अपने एकाकीपन और दुःख को मन की गहराइयों में छिपाकर बनावटी मुस्कान ओढ़े रहती थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है 'माता-पिता की उपस्थिति में मैं हमेशा खुद को खुश दिखाने की कोशिश करती।' पार्वती बाई के बड़े भाई, नरहर पत, सुधारवादी विचारों के समर्थक थे। उन्होंने अपनी एक बाल विधवा बहन, बाया को, मुंबई पढ़ने भेजा था। नरहर पत के घनिष्ठ मित्र थे आचार्य 'कर्वे' जिनसे बाया के पुनर्विवाह के लिए किसी विधुर वर की तलाश के लिए पत ने आग्रह किया। कर्वे स्वय इस कार्य के लिए तैयार हो गये। विवाह के बाद इस दंपत्ति ने पार्वती बाई को पूना में रखकर पढ़ाने का विचार किया। पार्वती बाई की सास को इस पर सख्त ऐतराज था क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि उनकी बहू पर भी सुधारवाद की छाया पड़े।


***
फातिमा शेखः प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका

(फातिमा शेख एक भारतीय शिक्षिका थी, जिन्होंने 19 वीं शताब्दी मे समाज सुधारक ज्योतिबा फुले और सवित्रीबाई फुले के साथ शिक्षा के काम को आगे बढ़ाया। फातिमा शेख मियां उस्मान शेख की बहन थी, जिनके घर में ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले ने उस समय शरण ली थी. जब फुले के पिता ने दलितों और महिलाओं के उत्थान के लिए किए जा रहे उनके कामों की वजह से उन्हें घर से निकाल दिया था। उस्मान शेख ने फुले दम्पत्ती को अपने घर में रहने की पेशकश की और परिसर में एक स्कूल चलाने पर भी सहमति व्यक्त की। फातिमा ने हर संभव तरीके से ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ साथ, अन्य कई तरीकों से समाज सुधार आदोलन में साथ दिया।)

Sunday, 12 October 2025

Thursday, 9 October 2025

b eqbal

Prioritizing Public Health Over Patent Rights: Spinal Muscular Atrophy Treatment Crisis
Dr. B.Ekbal
The ongoing debate in India over access to treatment for Spinal Muscular Atrophy (SMA) highlights a fundamental conflict between public health imperatives and intellectual property rights. SMA is a rare autosomal recessive genetic neuromuscular disorder caused by mutations in the SMN1and SMN2 (Survival Motor Neuron 1, 2) gene, leading to insufficient production of SMN (Survival Motor Neuron) protein, essential for the maintenance of motor neurons. Degeneration of motor neurons results in progressive muscle weakness, respiratory failure, and, in severe cases, early death. In India, SMA is among the leading genetic causes of infant mortality, underscoring the urgency of ensuring equitable access to treatment.
The Cost Barrier: A Matter of Life and Death
Recent breakthroughs have made disease-modifying treatments for SMA available. However, their exorbitant costs render them inaccessible to most patients. Zolgensma, developed by Novartis Gene Therapies, is a one-time gene therapy costing approximately ₹18 crore. Risdiplam, marketed by Roche as Evrysdi, is an oral therapy requiring lifelong administration, priced at ₹6.2 lakh per bottle, amounting to about ₹1.8 crore annually for a 20 kg patient. 
These prohibitive costs deny patients their constitutional right to life and health under Article 21 of the Indian Constitution and drive families into financial ruin. The National Policy for Treatment of Rare Diseases (NPTRD) 2021 provides financial support up to ₹50 lakh, covering only a fraction of SMA treatment costs. Kerala Health Department’s  United against Rare Diseases (KARE) program, and crowdfunding campaigns are attempting  to bridge the gap. However, such efforts are not sufficient to address a systemic problem rooted in patent-protected monopolistic pricing.
Legal Interventions: The Case for Compulsory Licensing
India’s Patents Act contains robust provisions to protect public health, notably Section 84, which empowers the Patent Controller to grant compulsory licenses in cases of unreasonable pricing or non-availability of essential medicines. India has successfully utilized this mechanism before. In 2013, a compulsory license was granted to Natco Pharma to produce Sorafenib Tosylate (marketed by Bayer as Nexavar), a cancer drug priced at ₹2.8 lakh per month. Natco’s generic version brought the cost down to ₹6,000 per month, setting a global precedent for using public health safeguards in TRIPS-compliant patent law.
The Roche vs. Natco Pharma Battle: A Turning Point?
Building on this legacy, Natco Pharma sought to manufacture a generic version of Risdiplam, offering to sell it at ₹15,900 per bottle, a 90% reduction from Roche’s price. In response, Roche filed a patent infringement suit in the Delhi High Court, claiming exclusive rights under its patent. Natco countered that Roche’s pricing was excessive and exploitative, violating public interest, and that denying affordable treatment to SMA patients amounted to infringement of the fundamental right to life. On March 24, 2024, the Delhi High Court (single bench) dismissed Roche’s petition, emphasizing that public health considerations override patent monopolies when essential medicines are priced out of reach. The court observed that monetary compensation to the patent holder cannot substitute for the loss of human life due to lack of treatment. However, Roche has since appealed to a division bench, stalling Natco’s ability to supply the generic drug. This episode underscores how prolonged litigation can be weaponized by multinational corporations to maintain market exclusivity at the expense of human lives.
The Ethical and Policy Imperative
The SMA crisis illustrates a broader ethical dilemma in pharmaceutical patenting: Should profit-driven intellectual property regimes take precedence over human survival? The SMA context presents a, moral obligation. The central government must proactively invoke compulsory licensing for Risdiplam and similar high-cost therapies. State governments, patient advocacy groups, and public health professionals should collectively push for legislative and executive action to ensure affordable, uninterrupted access to life-saving SMA therapies, prioritization of public health over patent monopolies, and a sustainable framework for rare disease management in India.
The SMA treatment crisis is not merely a question of drug pricing; it is a test of India’s commitment to health equity and justice. The Constitution enshrines the right to life and health, and the state bears the responsibility to uphold these rights over corporate profit motives. The compulsory license is not just a legal tool; it is a moral imperative. By deploying it decisively, India can reaffirm its position as a global leader in affordable medicines and ensure that no child dies for want of treatment that exists but is priced beyond reach. Large multinational companies, with their immense financial power, can use the complexities of court proceedings to obstruct attempts to produce essential medicines at lower prices. In this situation, the central government must be prepared to use compulsory licensing under the Patents Act as needed. 
A resolution should be unanimously passed by the Kerala  state assembly urging the central government to use compulsory licensing for expensive, life-saving drugs like Risdiplam and grant other companies the right to produce their affordable generic versions.

Wednesday, 24 September 2025

Palliative care in Haryana

Palliative Care Status Update in India
We are excited to inform you that the IAPC has drawn upon this year’s World Hospice and Palliative Care Day (WHPCD) theme, ‘Leave no-one behind – equity in access to palliative care’, to put together a special feature with an update on the status of palliative care services from every State in the country.
The idea of this special feature is to generate awareness on how palliative care is being delivered in different parts of the country and to facilitate a cross fertilisation of ideas by encouraging networking and collaborations to improve the overall momentum of palliative care across the country. With this special feature, we also wish to draw your attention towards the inadequate integration of palliative care within the healthcare system and the subsequent inequity in access to Palliative care. 
This humble effort of the IAPC, with the immense support and cooperation from all the contributors, is an evolving project and only a start towards creating a database for the status of palliative care in the country.
To begin with, we are thrilled that palliative care services, in some capacity, are now locally available in all of India’s States and Union Territories, with the exceptions of the Andaman and Nicobar Islands, and Daman and Diu and Nagar and Haveli. It is also heartening to see the development of institution-based palliative care across the country, which was lacking in the past 3-4 decades. Several institutions of national importance now offer, or are beginning to offer, post graduate courses in palliative medicine; the cumulative efforts leading towards an improvement in the status of palliative care in the country.
While compiling this report, several interesting highlights came to the forefront. To name a few, the differing perspectives on whether a separate State palliative care policy is now actually needed in light of the NPPC’s implementation across the country, the ability of some States to provision care using only locally available resources, the adaptability of a State to continue providing virtual trainings for centers to receive RMI status despite the pandemic imposed limitations, the innovativeness of a State to integrate a cancer registry staff to be a part of their team to ensure statistics were collected, stood out. This list goes on.
It was also delightful to observe that palliative care provisioning in a few States was primarily led due to the initiatives of the respective State Governments’ in comparison to the commonly observed NGOs or private practitioners-led service provisioning.
We would like to reiterate that this report is only a step towards creating a concrete evidence base and that our contributors have done their best to share the information accessible to them despite their various limitations. The report will be available permanently on our website and will be converted to a more evidence based resource over time. We invite those interested to please connect with us and contribute towards making this database more robust and evidence based.
We once again extend our deepest gratitude to all the contributors for their enthusiasm, efforts, timely support and cooperation, without which this project would not have been possible. Thank you dear contributors!
With warm regards,
The Editorial Team, Indian Association of Palliative Care

palliative care

Palliative Care Status Update in India
We are excited to inform you that the IAPC has drawn upon this year’s World Hospice and Palliative Care Day (WHPCD) theme, ‘Leave no-one behind – equity in access to palliative care’, to put together a special feature with an update on the status of palliative care services from every State in the country.
The idea of this special feature is to generate awareness on how palliative care is being delivered in different parts of the country and to facilitate a cross fertilisation of ideas by encouraging networking and collaborations to improve the overall momentum of palliative care across the country. With this special feature, we also wish to draw your attention towards the inadequate integration of palliative care within the healthcare system and the subsequent inequity in access to Palliative care. 
This humble effort of the IAPC, with the immense support and cooperation from all the contributors, is an evolving project and only a start towards creating a database for the status of palliative care in the country.
To begin with, we are thrilled that palliative care services, in some capacity, are now locally available in all of India’s States and Union Territories, with the exceptions of the Andaman and Nicobar Islands, and Daman and Diu and Nagar and Haveli. It is also heartening to see the development of institution-based palliative care across the country, which was lacking in the past 3-4 decades. Several institutions of national importance now offer, or are beginning to offer, post graduate courses in palliative medicine; the cumulative efforts leading towards an improvement in the status of palliative care in the country.
While compiling this report, several interesting highlights came to the forefront. To name a few, the differing perspectives on whether a separate State palliative care policy is now actually needed in light of the NPPC’s implementation across the country, the ability of some States to provision care using only locally available resources, the adaptability of a State to continue providing virtual trainings for centers to receive RMI status despite the pandemic imposed limitations, the innovativeness of a State to integrate a cancer registry staff to be a part of their team to ensure statistics were collected, stood out. This list goes on.
It was also delightful to observe that palliative care provisioning in a few States was primarily led due to the initiatives of the respective State Governments’ in comparison to the commonly observed NGOs or private practitioners-led service provisioning.
We would like to reiterate that this report is only a step towards creating a concrete evidence base and that our contributors have done their best to share the information accessible to them despite their various limitations. The report will be available permanently on our website and will be converted to a more evidence based resource over time. We invite those interested to please connect with us and contribute towards making this database more robust and evidence based.
We once again extend our deepest gratitude to all the contributors for their enthusiasm, efforts, timely support and cooperation, without which this project would not have been possible. Thank you dear contributors!
With warm regards,
The Editorial Team, Indian Association of Palliative Care

Wednesday, 17 September 2025

आजाद

आजाद सिंह सिवाच 
जन्म दिन 24.03.1950
1975 फार्मेसी
1976 सर्विस सतनाली
23.06.1976
चिलानी 1977
महम   1978
 फरीदाबाद 1981..
1981..87 पुठी सैमन पीएचसी
1987 फरीदाबाद
1987 डिस्पेंसरी शिवाजी कॉलोनी
1991 डिस्ट्रिक्ट जेल भिवानी

1992 पीएचसी बनियानी
1992..1994 लिटरेसी कैंपेन
1994 पीएचसी बीरोड 
1995 सीएचसी खरर 
1996 पीएचसी लाखन माजरा

1998 डिस्ट्रिक्ट जेल रोहतक
1905 पीएचसी मोखरा
31.01.2007 vrs

Monday, 1 September 2025

पर्यावरण और हमारा स्वास्थ्य

पर्यावरण : स्वास्थ्य का एक प्रमुख निर्धारक

भारत के 20 राज्यों के लगभग 6 करोड़ लोग फ्लोराइड सन्दूषण के कारण दन्त फ्लोरोसिस, कंकाली फ्लोरोसिस जैसी गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीडति हैं। घुटनों के लड़ने और उनके मुड़ने के कारण विकलांगता के साथ-साथ आर्थिक कठिनाई जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती है। पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा की अधिकता से अस्थि विकास के लिये जरूरी कैल्शियम का अवशोषण बन्द हो जाता है और इसी कारण अस्थि में विरूपता उत्पन्न हो जाती है।

प्रायः रोग की उत्पत्ति पर्यावरण, रोगजनक कारक और होस्ट से (परपोषी) से जुड़े कारकों की पारस्परिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप होती है। पर्यावरण को व्यक्ति के परिवेश के भौतिक, रासायनिक और जैविक कारकों के साथ-साथ सभी सम्बद्ध व्यवहारों के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। पर्यावरण में उपस्थिति इन कारकों के प्रभाव से मानव स्वास्थ्य पर गहरा प्रभाव पड़ता है। चूँकि, इनमें से अधिकांश कारक मानव निर्मित हैं, अतः पर्यावरण को बचाना न केवल मानव हित में है बल्कि स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी यह एक उत्तम निवेश है। इस आलेख में पर्यावरण से जुड़े सामान्य खतरे वाले कारकों का वर्णन है, जो मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं।

पर्यावरण : स्वास्थ्य का एक प्रमुख निर्धारक

प्रत्येक वर्ष 1.3 करोड़ मौतें या दुनिया में होने वाली कुल लगभग एक चौथाई मौतें पर्यावरणी कारणों से होती हैं जिनमें मुख्यतया पानी, स्वच्छता एवं हाइजीन; घरेलू एवं बाह्य प्रदूषणय पेस्टीसाइड्स जैसे रसायनों का हानिकर प्रयोग और जलवायु परिवर्तन जैसी स्थितियाँ सम्मिलित हैं। ये सभी ऐसे खतरे हैं जिन्हें रोका जा सकता है अथवा उनसे बचा जा सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार 80 प्रतिशत से अधिक रोगों में इनकी कुछ-न-कुछ भूमिका रही है। विशेषतया निर्धन परिवार के बच्चे इन रोगों के कारण रोगों और मौतों के प्रति
अत्यन्त संवेदनशील होते हैं। हालांकि, सरल और सस्ते उपाय उपलब्ध व्य हैं जिन्हें यदि शुरुआत में ही और प्रभावी ढंग से लागू किया जाये तो गइनमें से अधिकांश मौतें रोकी जा सकती हैं।


पर्यावरण में आये बदलाव के कारण भी गम्भीर स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। मार्च 2011 में जापान के फुकुशिमा डाइची में आये भूकम्प के बाद आई सुनामी मानव इतिहास में सबसे बड़ी परमाणु और पर्यावरणी आपदाओं में से एक है। वर्ष 2010 में पाकिस्तान में आई बाढ़ में 1500 ट से अधिक मौतें हुई। वर्ष 2010-11 के दौरान भारत में लद्दाख के न साथ-साथ ऑस्ट्रेलिया के मेलबोर्न एवं ब्राजील के रियो-डि-जेनेरो नामक शहरों में आई अप्रत्याशित बाढ़ में भी भारी मौतें हुई थीं। भारत के विभिन्न भागों में आर्सेनिक एवं फ्लोराइड से सन्दूषित भूजल से जुड़ी चिरकालिक स्वास्थ्य समस्याएँ पर्यावरणी कारकों का उदाहरण हैं। भूमण्डलीकरण, तीव्र औद्योगिकीकरण, शहरीकरण, अनियोजित एवं अनियंत्रित विकासए परिवहन में वृद्धि, कृषि में कीटनाशक दवाइयों पर अतिनिर्भरता और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं पर तत्काल कार्यवाही नहीं की गई तो भविष्य में स्थिति और भी गम्भीर होने की सम्भावना है।

पर्यावरणी खतरों से उत्पन्न संचारी और असंचारी रोग

विश्व में स्वस्थ जीवन वर्षों की क्षति के सन्दर्भ में 24 प्रतिशत भार और कुल 23 प्रतिशत मौतों के पीछे पर्यावरणी कारकों का हाथ पाया गया है। जहाँ पर्यावरणी कारकों द्वारा विकासशील देशों में कुल 25 प्रतिशत मौतें होती हैं वहीं विकसित देशों में कुल 17 प्रतिशत मौतों के पीछे ऐसे कारकों का हाथ पाया गया है। इससे बच्चे सर्वाधिक प्रभावित होते हैं। पन्द्रह वर्ष से कम आयु के बच्चों में होने वाली लगभग 24 प्रतिशत मौतें अतिसारीय रोगों, मलेरिया और श्वसनी रोगों के कारण होती हैं जो सभी पर्यावरण से सम्बद्ध हैं।

अधिकांश रोगों के पीछे विशिष्ट खतरे वाले कारकों का हाथ होता है। इनमें असुरक्षित पेयजल एवं स्वच्छता, रसोई में प्रयुक्त ईंधन से उत्पन्न धुएँ से प्रभावित होने, बाहरी वायु प्रदूषण, आर्सेनिक जैसे रसायनों से प्रभावित होने और जलवायु परिवर्तन जैसी स्थितियाँ सम्मिलित हैं। केवल भारत में लगभग 45 हजार मौतें असुरक्षित पेयजल, स्वच्छता और अपर्याप्त सफाई के कारण होती हैं।

हालांकि, पेयजल की उपलब्धता से काफी प्रगति हुई है परन्तु एशिया के अधिकांश देशों में स्वच्छता की स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी हुई है। वर्तमान में, 25 लाख लोग स्वच्छता सुविधाओं से वंचित हैं। भारत की लगभग 6.29 करोड़ आबादी को स्वच्छता सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। यूनिसेफ के अनुसार, भारत की लगभग 67 प्रतिशत ग्रामीण आबादी अभी भी खुले में शौच करती है। वर्ष 2010 के दौरान दक्षिण-पूर्व एशिया के बांग्लादेश, भूटान, श्रीलंका और भारत जैसे देशों में क्रमश: 44, 56, 8 और 66 प्रतिशत आबादी स्वच्छता सुविधा से वंचित पाई गई थी। इस स्थिति को देखते हुए सम्भवतः वर्ष 2015 तक जल और स्वच्छता के सम्बन्ध में सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य (एम डी जी)-7 की प्राप्ति नहीं की जा सकेगी।

अतिसारीय रोग के लगभग 94 प्रतिशत मामलों के पीछे असुरक्षित पेयजल और स्वच्छता का हाथ होता है। सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता सुविधाओं को प्राथमिकता प्रदान कर रोग भार कम किया जा सकता है जो व्यक्तिगत एवं राष्ट्रीय प्रगति में सहायक होगा। दक्षिण पूर्व एशिया क्षेत्र के देशों में भारत की तुलना में केवल नेपाल में ऐसी आबादी का अनुपात अधिक (60 प्रतिशत) है जिसे स्वच्छता सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं। घरेलू और बाहरी प्रदूषण से मानव स्वास्थ्य गम्भीर रूप से प्रभावित होता है। प्रत्येक वर्ष लोवर श्वसनी पथ संक्रमणों अथवा न्युमोनिया के लगभग 42 प्रतिशत मामलों के पीछे घरेल और बाह्य प्रदूषण का हाथ होता है। घरों में लकड़ी जैसे ईंधन के जलाने से उत्पन्न प्रदूषण (सस्पेंडेड पार्टिकुलेट मैटर) से लम्बी अवधि तक प्रभावित होने पर विशेषतया बच्चों में न्युमोनिया, दमा, चिरकारी अवरोधी फुफ्फस रोग (सी ओ पी डी) जैसे प्रमुख श्वसनी रोग उत्पन्न होते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विश्व में प्रत्येक वर्ष लगभग 8 लाख मौतें बाहरी वायु प्रदूषण के कारण होती हैं। उनमें 60 प्रतिशत मौतें एशिया में होती हैं जो मुख्यतया घरेलू ईंधन, डीजल चालित वाहनों, उद्योगों और सभी प्रकार के कचरे को जलाने जैसे कारकों के साथ-साथ धूम्रपान से उत्पन्न अरक्तताजन्य हृदय रोग, तीव्र श्वसनी संक्रमणों, दमा और फेफड़े के कैंसर की चपेट में आने के कारण होती हैं।

आर्थिक विकास के कारण हुए पर्यावरणी परिवर्तनों का स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर पड़ता है। एशिया और अफ्रीका में मलेरिया के लगभग 42 प्रतिशत मामले भूप्रयोग, निर्वनीकरण और जल संसाधन प्रबन्धन जैसे पर्यावरणी कारकों के कारण होते हैं। इसी प्रकार, धान की कृषि, सूकर पालन, रोगवाहकों का प्रजनन और असुरक्षित पेयजल के प्रयोग जैसी स्थितियाँ तीव्र मस्तिष्कशोथ सिण्ड्रोम के संचरण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। केवल वर्ष 2011 में ही भारत में इसके 6800 मामले प्रकाश में आये और 820 मौतें हुईं, जिनमें अधिकांशतः 15 वर्ष से कम आयु के बच्चे थे। यह स्थिति मुख्यतया उत्तर प्रदेश में देखी गई। चीन और इंडोनेशिया सहित अधिकांश देशों में डेंगू की महामारी और सिस्टोसोमिएसिस के संचरण में मुख्यतया पर्यावरणी कारक जिम्मेदार होते हैं। विश्व भर में होने वाली मौतों के पीछे प्रमुख कारणों में कैंसर का द्वितीय स्थान है। कैंसर से होने वाली कुल दो तिहाई से अधिक मौतें विकासशील देशों में होती हैं। प्रतिवर्ष इसके 12.7 मिलियन मामलों में अनुमानतः 19 प्रतिशत मामलों के पीछे पर्यावरणी कारकों का हाथ होता है। फेफड़े के कैंसर में होने वाली कुल 71 प्रतिशत मौतों में धूम्रपान का हाथ पाया गया है। हेलिकोबैक्टर पाइलोरी के संक्रमण से होने वाला पेट का कैंसर द्वितीय अति सामान्य कैंसर है जो अपर्याप्त स्वच्छता और भीड़ युक्त आवास जैसी स्थितियों से सम्बद्ध है। हाल के दिनों में पंजाब के कृषि क्षेत्र में कैंसर की बढ़ती घटनाएँ प्रकाश में आई हैं जिसके पीछे पर्यावरणी कारकों की सम्बद्धता का संकेत मिलता है, जैसे कि पेस्टीसाइड्स का प्रयोग, जो पानी और मिट्टी दोनों में पाया गया है।

घरों के भीतर ठोस ईंधन जलाने से उत्पन्न धुएँ अथवा तम्बाकू के धूम्रपान से प्रभावित होने पर विशेषतया सर्दी के मौसम में दमा की शुरुआत हो जाती है। भारत के कई शहरों में इसके परिणामस्वरूप दमा की चपेट में आये बच्चों की संख्या काफी बढ़ी है। नई दिल्ली में सम्पन्न एक अध्ययन में दमा और चिरकारी अवरोधी फुफ्फस रोग (COPD) के कारण अस्पताल के आपातकालीन विभाग में आने वाले व्यक्तियों की संख्या में क्रमशः 21 और 24 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई जो उच्च स्तर के घरेलू वायु प्रदूषण के कारण प्रभावित हुए थे। COPD के कारण होने वाली एक तिहाई से अधिक मौतें पर्यावरणी कारणों से जुड़ी होती हैं।

पर्यावरण से सम्बद्ध स्वास्थ्य समस्याएँ

आज भारत के 30 प्रतिशत शहरी और 90 प्रतिशत ग्रामीण घरों में पेयजल के रूप में गैर-शोधित अथवा भूजल का प्रयोग किया जाता है, जिनका स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। भूजल से प्राप्त पेयजल के फ्लोराइड और आर्सेनिक से सन्दूषित होने के कारण गम्भीर स्वास्थ्य समस्याएँ उत्पन्न होती हैं।

भारत के 20 राज्यों के लगभग 6 करोड़ लोग फ्लोराइड सन्दूषण (1.5 मिग्रा-ली. से अधिक) के कारण दन्त फ्लोरोसिस, कंकाली फ्लोरोसिस जैसी गम्भीर स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित हैं। घुटनों के लड़ने और उनके मुड़ने के कारण विकलांगता के साथ-साथ आर्थिक कठिनाई जैसी स्थितियाँ उत्पन्न होती हैं। पेयजल में फ्लोराइड की मात्रा की अधिकता से अस्थि विकास के लिये जरूरी कैल्शियम का अवशोषण बन्द हो जाता है और इसी कारण अस्थि में विरूपता उत्पन्न हो जाती है। हालांकि शोधित पेयजल के प्रयोग से इन स्थितियों से बचा जा सकता है। भूजल में आर्सेनिक की उच्च उपस्थिति पश्चिम बंगाल में एक प्रमुख स्वास्थ्य समस्या के रूप में पाई गई है, जहाँ की लगभग 5 करोड़ आबादी इससे प्रभावित है। बांग्लादेश में आर्सेनिक समस्या को एक आपातकालीन स्वास्थ्य समस्या का दर्जा दिया गया है। जहाँ 64 जिलों के 59 जिलों और 463 उपजिलों के 249 उपजिलों में आर्सेनिक सन्दूषण की पहचान की गई है। बांग्लादेश के 60 से 80 लाख ट्यूबवेल्स में अनुमानतः एक चौथाई ट्यूबवेल्स में आर्सेनिक का स्तर राष्ट्रीय मानक 50 ppb अथवा 0.05 मिग्रा/ली. से अधिक पाया गया है। अनुमानतः 3 से 4 करोड़ लोग पेयजल में आर्सेनिक की उपस्थिति के कारण सम्भावित खतरे की श्रेणी में हैं। एक लम्बी अवधि तक कम मात्रा में भी आर्सेनिक से प्रभावित होने पर हाइपरकेरैटोसिस जैसे त्वचा रोगों और कैंसर के कारण मौत जैसी स्थितियाँ देखी गई हैं। अध्ययनों में पता चला है कि आर्सेनिक के प्रभाव में मधुमेह भी उत्पन्न हो सकता है। आर्सेनिक रहित पेयजल की व्यवस्था से ही इस जनस्वास्थ्य समस्या से बचा जा सकता है।

इसके अतिरिक्त, पर्यावरणी स्थितियाँ दक्षिण एशिया में बाढ़ और भूकम्प जैसी आपदाएँ उत्पन्न करती हैं जो कष्ट के साथ-साथ आर्थिक क्षति का कारण बनती हैं। जलवायु परिवर्तन से स्थिति और खराब होने की सम्भावना है और विकासशील देशों विशेषतया एशिया और अफ्रीका की निर्धन आबादी के स्वास्थ्य पर सम्भवतः गम्भीर प्रभाव पड़ेगा। इससे रोगवाहक जन्य और जलजन्य रोगों, लू लगने, दमा, हृदय वाहिकीय रोगों में वृद्धि होने के साथ-साथ अधिक बाढ़ और सूखा स्थितियों के कारण खाद्य सुरक्षा को खतरा उत्पन्न हो जाएगा। जहाँ ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को रोकना एक व्यक्तिगत जिम्मेदारी है वहीं निगरानी और कार्य क्षमता को सुदृढ़ बनाते हुए तत्काल कार्यवाही आवश्यक है जिससे देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभाव से निपटने में सक्षम बनाया जा सके।

**स्वास्थ्य पर पर्यावरण के प्रभाव का मूल्यांकन :**

नीति और कार्यक्रम विकास के लिये आवश्यक-

मानव स्वास्थ्य पर पर्यावरणी कारकों के साथ-साथ - सामाजिक, आर्थिक कारकों, मौजूदा प्रथाओं और रिवाजों, कार्यक्रमों एवं नीतियों की उपस्थिति तथा प्रभावित समुदायों में स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता एवं उनके प्रयोग जैसी स्थितियों का भी प्रभाव पड़ता है। राष्ट्रीय स्तर पर इस सूचना की कमी सहायता प्रदान करने में एक प्रमुख बाधा है। इस सूचना अन्तराल को मिटाने के लिये स्वास्थ्य पर पर्यावरण के प्रभाव के मूल्यांकन से नीतियों कार्यक्रमों अथवा विकास सम्बन्धी गतिविधियों की पहचान करने में मदद मिल सकती है। इस तरह के मूल्यांकन से भवन निर्माण, परिवहन, गृह प्रबन्धन, ऊर्जा, उद्योग, शहरीकरण, जल, पोषण आदि जैसी गतिविधियों से सम्बन्धित स्वास्थ्य समस्याओं के लिये जिम्मेदार कारकों की भी पहचान की जा सकती है। इस प्रकार की सूचना विभिन्न परियोजनाओं के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को ज्ञात करने, नवीन योजनाओं के नियोजन एवं कार्यान्वयन के समय स्वास्थ्य को ध्यान में रखने और अन्ततः नवीन परियोजनाओं अथवा विकास सम्बन्धी गतिविधियों के दौरान स्थानीय आबादी के स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने में भी सहायक हो सकती है।


***स्वस्थ पर्यावरण के माध्यम से स्वास्थ्य का संरक्षण एवं रोग का निवारण**

यह स्पष्ट है कि पर्यावरणी कारकों से निरन्तर भावी प्रभाव पड़ेंगे और वस्तुतः इस स्थिति के और खराब होने की सम्भावना है। पर्यावरणी कारकों से उत्पन्न स्वास्थ्य समस्याओं में कमी लाने तथा स्वास्थ्य एवं पर्यावरण की चुनौतियों का सामना करने में सहायक कुछ नवीन नीतिगत प्रयास निम्न हैं :

(i) कार्यवाही हेतु एक प्रमाण-आधार विकसित करना : फिलहाल, देशों में पर्यावरण के कारण स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों, रोग संचरण के मार्गों और सम्भावित खतरे सहित आबादी पर जानकारी की कमी है। जल, वायु, आहार और जलवायु के सम्बन्ध में स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों पर अधिक विस्तृत एवं सुस्पष्ट आँकड़ों की आवश्यकता है जो उपयुक्त राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियों के विकास और प्राथमिकता निर्धारण में सहायक हो सकते हैं। पर्यावरणी कारकों तथा आर्थिक विकास एवं लोगों के दैनिक जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझने के लिये अधिक केन्द्रित अध्ययनों की आवश्यकता है। स्वास्थ्य और पर्यावरण पर एक राष्ट्रीय डाटाबेस के उपलब्ध होने से पर्यावरणी खतरे वाले कारकों से जुड़े विभिन्न रोगों की उपस्थिति और प्रवृत्ति के बीच सम्बन्ध स्थापित करने, अधिक खतरे की सम्भावना वाले क्षेत्रों की पहचान करने तथा पर्यावरणी एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी इंटरवेंशन कार्यक्रमों की अधिकतम आवश्यकता सहित आबादी की पहचान करने में सहायता मिलेगी।

पर्यावरण और स्वास्थ्य पर सूचना एकत्र करने और उसके आदान-प्रदान करने की एक प्रक्रिया उपयोगी हो सकेगी। इस दिशा में भारत में कुछ महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं जो इस प्रकार है।
   सड़क निर्माण कार्य में प्लास्टिक का प्रयोग, मनाली में वाहनों के प्रवेश पर ग्रीन टैक्स की वसूली जिसका प्रयोग हिमाचल प्रदेश में पर्यावरण संरक्षण में किया जाता है, उत्तराखण्ड में आबादी को गैस ग, सिलेण्डर उपलब्ध कराना जिसमें ईंधन के रूप में जलावन लकड़ी की कटाई रुके और साथ ही वनीय संरक्षण हो सके, गुजरात में सौर-ऊर्जा (सोलर एनर्जी) का विस्तार, हरियाणा जैसे राज्यों में पूर्ण स्वच्छता कार्यक्रम, कम लागत के शौच घरों के निर्माण में सुलभ का अनुभव, मध्य प्रदेश तथा देश के 7 अन्य राज्यों में गुटका और पान मसाला के प्रयोग पर प्रतिबन्ध, नेपाल में पारिस्थितिकीय अनुकूल शौच घरों का निर्माण आदि। इन सभी गतिविधियों से सम्बन्धित सूचना के आदान-प्रदान से और उसके कार्यान्वयन से देश का एक बड़ा हिस्सा पर्यावरणी खतरों से उत्पन्न होने वाली स्थितियों से बच सकता है।


(ii) राष्ट्रीय पर्यावरणी स्वास्थ्य नीति, योजना और मूलभूत ढाँचे को सुदृढ़ बनाना : स्वास्थ्य और पर्यावरण से सम्बन्धित समस्याएँ दूर करने के लिये एक राष्ट्रीय पर्यावरण और स्वास्थ्य कार्य योजना (नेशनल एनवायरनमेंट एंड हेल्थ एक्शन प्लान) के माध्यम से एक व्यापक एवं अन्तक्षेत्रीय प्रयास की आवश्यकता है। स्वास्थ्य पर पर्यावरण के प्रभाव के मूल्यांकन से प्राप्त आँकड़ों से पर्यावरण, स्वास्थ्य एवं अन्य क्षेत्रों के प्रतिनिधियों से बने एक कार्यकारी द्वारा प्राथमिकताओं की पहचान की जा सकती है जिसे बाद में स्वास्थ्य और पर्यावरण मंत्रालयों द्वारा अपनाया जा सकता है। यदि गम्भीरता के साथ यह योजना लागू की जाये तो पर्यावरण सम्बद्ध स्वास्थ्य समस्याओं को कम करने में लम्बी अवधि तथा प्रभावी हो सकती है। पर्यावरण और स्वास्थ्य पर एक राष्ट्रीय सलाहकार दल द्वारा समय-समय पर इस योजना के कार्यान्वयन पर निगरानी रखी जा सकती है।

राष्ट्रीय और स्थानीय सरकारों के मूल-भूत ढाँचे को सुदृढ़ करने की दिशा में गम्भीरता के साथ और तत्काल कार्यवाही की जानी चाहिए। जिनकी जिम्मेदारियों में सम्मिलित हैं :- सुरक्षित पेयजल की आपूर्ति, मलजल शोधन प्रणाली की व्यवस्था, मोटर वाहनों के लिये प्रदूषण-रहित ईंधन, स्वच्छ धूम्ररहित चूल्हे, बायोगैस और ठोस अपशिष्ट प्रबन्धन आदि की व्यवस्था करना। यदि सामान्य आबादी द्वारा इस प्रकार की सेवाओं के लिये उपयुक्त संसाधनों की माँग की जाती है तो नीति. निर्माताओं के लिये एक प्राथमिकता होनी चाहिए।

(iii) सतत अन्तक्षेत्रीय समन्वयन और भागीदारी : पर्यावरण से जुड़े अधिकांश खतरे वाले कारक स्वास्थ्य क्षेत्र से परे होते हैं। इसलिये मानव स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने में पर्यावरण, कृषि, परिवहन, ऊर्जा, शहरी विकास, जल संसाधन एवं ग्रामीण विकास मंत्रालयों के साथ-साथ निजी क्षेत्रों द्वारा समन्वित कार्यवाही की जानी चाहिए।

वर्तमान में अधिकांश देशों में इन क्षेत्रों के बीच प्रभावी समन्वयन की कमी है। उच्चतम स्तर की सरकारी अध्यक्षता में विभिन्न प्रासंगिक सरकारी मंत्रालयों, गैर सरकारी संगठनों, निजी क्षेत्रों के प्रतिनिधियों को सम्मिलित करते हुए एक उच्च स्तरीय राष्ट्रीय संचालन समिति की नियमित अन्तराल पर सम्पन्न बैठकों के परिणामस्वरूप Nehip के कार्यान्वयन के लिये सभी क्षेत्रों को गतिशील बनाया जा सकता है।

(iv) सार्वजनिक भागीदारी को बढ़ाना पर्यावरण को बचाना प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है। पर्यावरण को स्वच्छ बनाए रखने तथा भावी पीढीयों के लिये मीठे जल के स्त्रोतों को सुरक्षित रखने, उत्तम स्वच्छता व्यवहार और व्यक्तिगत स्वच्छता अपनाने तथा पर्यावरण को हानि पहुँचाने वाले कार्यों को निरुत्साहित करने के लिये जनसामान्य की सहायता प्राप्त करना आवश्यक है। शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में जनसामान्य में जागरुकता उत्पन्न करने में मीडिया और समुदाय-आधारित संगठनों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है।

खुले में शौच करने, सड़कों पर प्लास्टिक की बोतलें, थैलियाँ फेंकने, सभी प्रकार के कचरे को जलाने जैसी आदतों को निरुत्साहित करने और हाथ धोने एवं व्यक्तिगत स्वच्छता, कागज के प्रयोग को घटाने, उनकी रिसाइक्लिंग करने, केवल पारिस्थितिक अनुकूल सामग्रियों को प्रयोग करने, सार्वजनिक परिवहन का प्रयोग करने, अधिक वृक्षों का रोपण करने जैसी स्थितियों को बढ़ावा देने और धूम्रपानकर्ता धुएँ के प्रभाव से बचने जैसी स्थितियों के लिये एक सामाजिक अभियान चलाने की आवश्यकता है।

(v) स्वास्थ्य और क्षमता निर्माण की भूमिका : स्वास्थ्य

और पर्यावरण के क्षेत्र में योगदान देने वाले अन्य क्षेत्रों को गतिशील बनाने में स्वास्थ्य पेशेवरों की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का मूल्यांकन भी स्वास्थ्य क्षेत्र द्वारा किया जा सकता है। साथ ही मानव स्वास्थ्य को सुरक्षित रखने में अन्य क्षेत्रों को नीतियाँ विकसित करने में परामर्श दी जा सकती है। इसके अतिरिक्त, स्वास्थ्य पेशेवरों, सिविल सोसाइटी के सदस्यों और अन्य सहयोगियों को पर्यावरणी स्वास्थ्य से जुड़े पहलुओं और प्राथमिकताओं पर समय. समय पर नवीनतम जानकारी उपलब्ध कराने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

भारत के विभिन्न भागों में आर्सेनिक एवं फ्लोराइड से संदूषित भूजल से जुड़ी चिरकालिक स्वास्थ्य समस्याएं पर्यावणी कारकों का उदाहरण हैं । भूमंडलीकरण , शहरीकरण , अनियोजित एवं अनियंत्रित विकास, परिवहन में वृद्धि, कृषि में कीटनाशक दवाइयों पर अतिनिर्भरता और जलवायु परिवर्तन जैसे कारकों से जुडी स्वास्थ्य समस्याओं पर तत्काल कार्यवाही नहीं की गई तो भविष्य में स्थिति और भी गम्भीर होने की सम्भावना है।स्वास्थ्य पर पर्यावरण का एक प्रमुख प्रभाव पड़ता है और पर्यावरणी स्वास्थ्य में निवेश करना एक उत्तम निवेश है। त्वरित शहरीकरण, औद्योगीकरण, भूमण्डलीकरण और आबादी में वृद्धि जैसी स्थितियाँ पर्यावरण पर और दबाव डालती हैं। यदि सभी क्षेत्रों द्वारा तत्काल कार्यवाही नहीं की गई तो समस्या और गम्भीर हो सकती है जिसका मानव स्वास्थ्य पर सीधा प्रभाव पड़ सकता है। इसका प्रभाव निर्धन और अतिसंवेदनशील वर्गों पर अत्यधिक पड़ेगा। सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्य के सभी आठ पहलुओं से पर्यावरण की निकट सम्बद्धता के बावजूद पर्यावरण और स्वास्थ्य के बीच पारस्परिक क्रिया के लिये प्राथमिकता निर्धारण के बिना सहस्त्राब्दि विकास लक्ष्यों को प्राप्त करना एक चुनौती होगी। इस ग्रह का भविष्य अब पूर्णतया इस पर - निर्भर है कि हम क्या निर्णय लेते हैं और आज क्या कदम उठाते हैं।

-आई सी एम आर और एकेडमी ऑफ फिनलैण्ड के बीच सहमति -ज्ञापन पर हस्ताक्षर : भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद (आई- सी एम आर) मुख्यालय में दिनांक 2 नवम्बरए 2012 को परिषद और एकेडमी ऑफ फिनलैण्ड (एएफ) के बीच चिरकारी असंचारी रोगों, मधुमेह और स्वास्थ्य सेवाओं में चुनौतियों के क्षेत्र में पारस्परिक सहयोग के लिये एक सहमति ज्ञापन पर हस्ताक्षर किये गए। यह सहयोग संयुक्त कार्यशालाओं के आयोजन और सहयोगी शोध परियोजनाओं के संचालन पर आधारित होगा। इस सहमति ज्ञापन पर एकेडमी ऑफ फिनलैण्ड के प्रतिनिधि के रूप में नई दिल्ली स्थित फिनलैण्ड दूतावास के काउंसलर (इकोनॉमिक्सए कॉमर्शियल तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी) श्री जुहा पाइको और आई सी एम आर की ओर से स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालयए भारत सरकार के अन्तर्गत स्वास्थ्य अनुसन्धान विभाग के सचिव एवं भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसन्धान परिषद के महानिदेशक डॉ. विश्व मोहन कटोच ने हस्ताक्षर किये। इस अवसर पर परिषद मुख्यालय के असंचारी रोग प्रभाग की प्रमुख डॉ बेला शाह, वरिष्ठ उपमहानिदेशक (प्रशासन) श्री अरुण बरोका, वैज्ञानिक 'जी' एवं समन्वयक डी एच आर डॉ. के. सत्यनारायण और अन्य अधिकारियों की उपस्थिति रही।

साभार : आईसीएमआर पत्रिका, नवम्बर, 2012
Health Dialogue April..June.2018

Wednesday, 27 August 2025

बुखार

बुखार से संबंधित जानकारियां 

डॉ रवि मोहन ( MD Medicine)
डॉ लक्ष्मी नारायण  ( MD Medicine)

**बुखार क्या है?**

मनुष्य का सामान्य तापमान 36.8± 0.4°c या 98.4± 0.7°f होता है। इससे ऊपर मुँह के अन्दर का तापमान बुखार माना जाएगा।

सामान्य तापमान क्या है? और यह क्यों हैं?

* जैविक प्रक्रियाएँ सबसे जटिल रसायनिक प्रक्रियाएँ होती हैं।

* ज्यादा विकसित जीवों में (जैसे की स्तनधारी जीव) ये ज्यादा जटिल होती हैं।

* सभी प्रकार की रसायनिक प्रक्रियाओं के इष्टतम रूप के लिए एक उचित वातावरण जरूरी है।

* तापमान इन रसायनिक प्रक्रियाओं के लिए वातावरण का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है।

* ये इष्टतम तापमान ही इन रसायनिक प्रक्रियाओं के लिए सबसे उचित है- सामान्य तापमान माना जाएगा। मनुष्य का सामान्य तापमान 36.8± 0.4°c या 98.4± 0.7°f होता है।

**मनुष्य तापमान को सामान्य कैसे रखता है?**

* मानव मस्तिष्क का एक हिस्सा जिसे हाईपोथैलेमस कहते है-थर्मोस्टैंट के रूप में काम करता है. यानि की एक सामान्य तापमान को बनाए रखना।

* यह कार्य वह शरीर द्वारा ऊष्मा उत्पादन तथा उष्मा निकासी के सतुलन को बना कर करता है।

* शरीर में ऊष्मा उत्पादन मुख्य रूप से मांसपेशियों के काम के दौरान एवं जिगर द्वारा होती है।

* ऊष्मा निकासी त्वचा द्वारा सतह से सीधी एवं पसीने से होती है।

* कुछ ऊष्मा हम सांस द्वारा भी शरीर से निकालते है।

* इसी ऊष्मा उत्पादन एवं निकासी का सतुलन ही तापमान को सम बनाए रखता है।

**शरीर के तापमान मापने का सही तरीका क्या है?**

* शरीर का तापमान थर्मामीटर द्वारा ही नापा जाता है।

* थर्मामीटर को हमेशा धो कर ही प्रयोग करें।

* तापमान नापने से पहले थर्मामीटर के पारे को झटका देकर नीचे उतार लें।

* फिर थर्मामीटर को कम से कम दो से तीन मिनट तक जीभ के नीचे रखें।

* और बुखार देख लें।

*बच्चों एवं बेहोश मरीजों में बगल में भी बुखार देखा जा सकता है एवं जो तापमान आए उसमें एक डिग्री फॉरन्हाईट जोड़ लें।

*आजकल डिजिटल थर्मामीटर ज्यादा प्रयोग में होते हैं। जिसमें पारा नही होता सीधा धोने के बाद प्रयोग किया जा सकता है।

**बुखार क्यों होता है?**

* बुखार कई प्रकार के हानिकारक उत्तेजक के खिलाफ शरीर की एक प्रक्रिया है।

*हानिकारक तत्वों से हमारे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली उत्तेजित हो जाती है ताकि उसके दुष्प्रभाव को दूर किया जा सके।

* बुखार भी उसी प्रतिरक्षा प्रणाली का एक महत्वपूर्ण काम है- उस हानिकारक तत्व को खत्म करने के लिए।

* परन्तु कई बार यह संतुलन नही बन पाता एवं बुखार ही स्वयं के शरीर पर दुष्प्रभाव डाल देता है।

**बुखार कैसे होता है?**

* जब भी कोई हानिकारक उत्तेजक हमारे शरीर में दाखिल होता है तो हमारे खून की सफेद कोशिकाओं से कुछ ऐसे रसायन निकलते है जो मस्तिष्क में हाईपोथैलेमस स्थित थर्मोस्टेट को ऊपर वाले तापमान पर निर्धारित कर देती है।

*इस स्थिति में हमारा शरीर इस तरह से काम करता है-

*जिससे ऊष्मा अधिक उत्पन्न हो,।

* क्योंकि मांसपेशियां ही ऊष्मा उत्पादन का मुख्य स्त्रोत हैं।

*वह तेजी से सिकुड़नी शुरू हो जाती हैं और व्यक्ति को कम्पन होने लगती है।

* दूसरा शरीर से ऊष्मा निकासी कम हो। यह कार्य वह त्वचा में स्थित खून की नसों में सिकुड़न पैदा कर के करता है। यही कारण है कि जब बुखार होता है तो व्यक्ति को ठण्ड महसूस होती है।

* अपने आप या दवाओं के प्रभाव से जब बुखार में सुधार होता है तो मस्तिष्क स्थित हाईपोथैलेमस अपने सामान्य तापमान पर निर्धारित हो जाता है तो ऐसी स्थिति में ऊष्मा का उत्पादन सामान्य जैसा हो जाता है और शरीर से ऊष्मा की निकासी बढ़ जाती है। इस स्थिति में शरीर से ऊष्मा की निकासी पसीने द्वारा होती है।

**बुखार के लक्षण**

* शरीर का गर्म महसूस होना।

* शरीर में दर्द होना।

* शारीरिक क्षमता में कमी आना।

* मानसिक रूप से भी कमजोर महसूस करना।

* बुखार के ये सभी लक्षण हर प्रकार के बुखार में होंगे चाहे वो किसी भी कारण से क्यों न हो।

**बुखार होने की स्थिति में क्या करें?**

* सबसे पहले थर्मामीटर द्वारा बुखार का सही आकलन करें।

* बुखार महसूस होना एवं बुखार होना अलग-अलग बाते हैं।

* कई बार व्यक्ति किसी और कारण से ठीक महसूस न होने को ही बुखार मान लेता है-जबकि उसका निदान बिल्कुल अलग है।

* समय के अनुसार बुखार की तालिका बनाई जाए जिससे बुखार का कारण जानने में डाक्टर को मदद मिलती है।

*स्वयं औषधि लेने में जल्दी न करें, मुख्य रूप से एटीबायोटिकस ।

*एंटीबायोटिकस एक दो खुराक लेने से कोई फायदा तो नही होता लेकिन डाक्टर के लिए बुखार का कारण जानना मुश्किल एवं कई बार असभव हो जाता है।

* इस तरह दवाई लेने से आसानी से ठीक होने वाले संक्रमण का इलाज भी काफी मुश्किल हो जाता है।

*स्वयं मरीज को केवल पैरासिटेमोल ही लेनी चाहिए।

* ठण्डे पानी से शरीर की टकोर कर सकते हैं।

*यदि मरीज ज्यादा ही बीमार दिखता है. बड़-बड़ा रहा है, सांस लेने में दिक्कत है. बहुत ज्यादा ट्टी एवं उल्टी है, इस स्थिति में तो डाक्टर को दिखाना और भी जरूरी है।

*ऐसा मानना है कि केवल मलेरिया की दवाई मरीज ले सकता है। वह भी गांव के किसी स्वास्थ्य कर्मचारी द्वारा पहले अपने खून की स्लाइड बनवा कर या ई०डी०टी०ए० की शीशी में थोड़ा सा खून का सैम्पल ले लिया जाए। उसके बाद ही मलेरिया की दवाई ली जा सकती है। इस सैंपल को अगले दिन टैस्ट किया जा सकता है।

**बुखार के कारण**

*बुखार के कारणों को हम मुख्य रूप से तीन कारणों में विभाजित करेंगें।

* संक्रमण (Infections)

* प्रतिरक्षा विकिरण (Autoimmune/Inflammatory)

* कैसर (Cancer)

* संक्रमण बुखार का सबसे मुख्य कारण है एवं कम अवधि से होने वाले बुखार मुख्यतः संक्रमण की वजह से ही होते हैं।

*संक्रमण से होने वाले बुखार पूरे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली के परिणाम का ही एक हिस्सा हैं, फिर भी हम अनेक संक्रमणों को दो प्रकार से अध्ययन कर सकते हैं।

*शरीर के प्रभाव होने के अनुसार*

एकल अंग तंत्र संक्रमण (Single Organ System Infections)

सामान्यीकृत सक्रमण (Generalised Infections)

संक्रमण के अनुसार: बैक्टीरिया संक्रमण, वायरस संक्रमण

परजीवी संक्रमण (प्रोटोजुआ एवम् शरीर को सक्रमण करने वाले कीडे) फफूंदी

**एकल अंग तंत्र संक्रमण (Single Organ System Infection)**

* किसी एक विशेष अंग प्रणाली के संक्रमण इस में बुखार के लक्षणों के साथ विशिष्ट प्रभावित अंग प्रणाली के लक्षण मुख्य होते हैं।

1 श्वास प्रणाली के संक्रमण (Respiratory tract infections)

2. पेट और आत्र संक्रमण (Gastro intestinal tract infections)

3. गुर्दे एवं मूत्र प्रणाली के संक्रमण (Kidney and Urinary tract infections)

4. त्वचा के संक्रमण (Skin infections)

5. मस्तिष्क के संक्रमण (Meningitis and encephalitis infections)

**सामान्यीकृत संक्रमण (Generalised Infection)**

ऐसे संक्रमण जो किसी एक अंग प्रणाली को विशेष रूप से प्रभावित नहीं करते बल्कि पूरे शरीर को एक जैसा ही प्रभावित करते हैं। मुख्य हैं -

* मलेरिया

*टायफाइड

कई तरह के वायरस से होने वाले बुखार -

जिसमें चिकन गुनिया एवं डेंगू भी दो प्रकार के वायरस से होने वाले संक्रमण हैं।

* रिक्टेशियल बुवार-जैसे कि टाइफस बुखार

**तापघात (Heat Stroke) यह बुखार अन्य बुखारों से भिन्न है-- 

* यह संक्रमण नहीं है।

*यह वातावरण में बड़ी गर्मी की वजह से होता है।

* इस में शरीर अपनी ऊष्मा अधिक नही बनाता परन्तु वातावरण का तापमान अधिक होने की वजह से शरीर से ऊष्मा निकासी नही कर पाता, बल्कि वातावरण से ऊष्मा ग्रहण करनी शुरू कर देता है।

* इसमें यदि उपचार समय पर न हो तो बहुत ही घातक सिद्ध होता है।

*हमारे देश में इसके बारे में जानना बहुत जरूरी है क्योंकि हमारे देश मुख्यतः गर्म प्रदेश है।

* हमारे देश की आधी से ज्यादा आबादी खेत के काम से जुड़ी हुई है।

* तेज गर्मी का शुरू होना एवं खेतों में काम अधिक हो जाना दोनों इक्ट्ठे ही शुरू होते है। इसलिए हमारे देश की बहुत बड़ी आबादी इस बीमारी के जोखिम में रहती है।

*तापघात में शुरू में केवल थकावट महसूस होती है जिसका कारण शरीर में पानी तथा नमक की कमी होता है। (Heat Exhaustion)

*इसके उपरान्त शरीर में जकड़न आने लग जाती है जो पोटाशियम एवं मैगनिशयम जैसे लवणों की कमी की वजह से होती है। (Heat Cramps)

* इसके बाद मरीज को तेजी से बुखार होने लगता है। (Heat Pyrexia)

*तेज बुखार होने के बाद मरीज की स्थिति बहुत जल्दी ही खराब होने लगती है और उसके शरीर के महत्वपूर्ण अंग जैसे की गुर्दे, फेफडे, हृदय एवं जिगर काम करना बन्द कर देते हैं और जल्दी ही मरीज बेहोशी की हालत में पहुँच जाता है। (Heat Stroke)

*कुछ बीमारियां तापघात से होने वाले खतरों को बढ़ा देती हैं। जैसे की मलेरिया, आंत्रों का संक्रमण, टी० बी०, खून की कमी, शुगर व थायरायड की बीमारी इत्यादि ।

* शराब एवं अन्य नशे भी तापघात के लिए बहुत हानिकारक हैं।

**तापघात की रोकथाम**

* हल्के और सूती कपड़े पहनें।

* ज्यादा से ज्यादा पानी व तरल पदार्थ लें।

*बाहर जाते समय चश्में, टोपी या छतरी और चप्पल का प्रयोग करें।

* पहले आधे दिन में ही बाहर या मजदूरी के कामों का निपटारा करें।

* लस्सी, नींबू पानी, छाछ, सीत और बाहर जाते समय पानी लेकर जाएं।

*छोटे बच्चों या पालतू जानवरों को खड़े किए गए वाहनों पर नहीं छोड़ें।

* 12 से 3.30 बजे तक बाहर जाने से बचें।

घर के खिड़की व दरवाजे खोल कर खाना बनाएं।

**तापघात का इलाजः** उए तापघात के इलाज के मुख्य नियम हैं -

* इलाज शीघ्र ही शुरू कर देना चाहिए, क्योंकि शुरू में इलाज आसान है और कहीं भी हो सकता है।

* मरीज को ठण्डे स्थान पर ले जाया जाए।

* ठण्डे पानी व बर्फ की पट्टी पूरे शरीर व मुख्य रूप से सिर पर जरूर की जाए।

* पानी एवं अन्य लवण जैसे कि सोडियम, पोटाशियम, मैगनिशयम की कमी को पूरा किया जाए।

*जब बीमारी ज्यादा बढ़ जाए यानि कि हीट स्ट्रोक की हालत में जब मरीज के मुख्य अंग काम करना बन्द कर देते हैं उस स्थिति में इलाज बड़े अस्पताल में ही संभव हो पाता है।

*इस दौरान भी ठंडे पानी व बर्फ की पट्टी करना न भूलें।

* तापघात में मलेरिया का इलाज साथ में ही कर देना गलत बात नहीं है।

**वायु सबन्धी रोगों की रोकथाम (Prevention of Air Borne diseases)**

उदाहरणः साधारण सर्दी, निमोनिया, इन्फ्लूएंजा, खसरा, तपेदिक, कनपेड़, छोटी माता (चिकनपोक्स)

**रोकथाम**

* ताजी हवा में सांस लें।

* छींकने या खाँसी करते समय रूमाल का उपयोग करें।

* दूसरों को रोगग्रस्त व्यक्ति से दूर रखें।

* संक्रमण रोकने के लिए चेहरे पर पट्टी लगाएं।

* यहाँ-वहाँ थूकना नही चाहिए।

* टी० बी० के मरीज की बलगम को जला दें।

* मरीज से हाथ मिलाने से बेहतर नमस्कार करना बेहतर है।

*कम से कम 20 सैकड के लिए पानी व साबुन से हाथ धोना चाहिए।

**जलजनित रोगों की रोकथाम (Prevention of Water Borne diseases)**

उदाहरण:
 दस्त, खूनी दस्त, हैजा, टाइफाइड, पीलिया (हेपेटाइटिस), पोलियों पेट के कीडे आदि।

*रोकथाम:

* फिल्टर किया हुआ / उबाला हुए पानी का प्रयोग करें।

* खाना खाने से पहले हाथ अवश्य धोएं।

* बर्तनों को नियमित रूप से साफ करें।

*अच्छी तरह धोकर ही फल खायें और खाना अच्छी तरह पका कर ही खाना चाहिए।

*नाखूनों को नियमित रूप से काटें और साफ रखें।

*साफ शौचालय का प्रयोग करें।

नोट:
 ऐसा माना गया है कि जन स्वास्थ्य विभाग द्वारा साफ या फिल्टर किया गया पानी ही बीमारियों को दूर करने में लाभ दायक होता है. यदि जन स्वास्थ्य विभाग द्वारा दिया गया पानी शुद्धता के मापदंड पर उचित नहीं है तो भी पारिवारिक या व्यक्तिगत तौर पर साफ (फिल्टर) किया गया पानी बीमारियां दूर करने में ज्यादा लाभदायक नहीं रहता। पीने के पानी और रोजमर्रा की जरूरत के पानी को अलग-अलग रख पाना आम व्यक्ति के लिए बहुत ही कठिन है।

**मच्छरों से होने वाली बीमारियों की रोकथाम**

(मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया)

*मच्छरों से होने वाली बीमारियों को दूर करने के लिए व्यक्ति, समाज और सरकार को सबको मिलकर समन्वय के साथ कार्य करना पड़ता है।

*सरकार का काम स्वास्थ्य संबंधी जानकारी उपलब्ध करवाना।

*नगरपालिका व पंचायत का काम साफ वातावरण उपलब्ध करवाना एवं मच्छरों के पैदा होने की जगह अनचाहे पानी को इक‌ट्ठा होने से रोकना।

*पारिवारिक जिम्मेदारी घर के अदर सफाई रखना एवं मच्छरों को पैदा होने से रोकना।

*व्यक्तिगत तौर पर स्वयं को कपडों तथा रहन-सहन के तरीके से मच्छरों से काटे जाने से खुद को रोकना।

**मच्छरों के पैदा होने की जगह व उनका समाधान**

(मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया)

पानी का बहाव में कोई रूकावट तो नहीं है।

Tuesday, 5 August 2025

d raghunandan lekh

#फार्मा
**डी.रघुनंदन जी के अंग्रेजी के लेख से**
2015-16 में, भारत सरकार ने चुपचाप दरवाजे खोल दिए: स्वास्थ्य सेवा में 100% एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) की अनुमति दी गई। कोई ऊपरी सीमा नहीं. कोई रणनीतिक निरीक्षण नहीं. कोई स्थानीयकरण आदेश नहीं. *जो कभी सेवा और त्याग के मूल्यों से प्रेरित एक गहरा मानवीय पारिस्थितिकी तंत्र था - वह वैश्विक स्प्रेडशीट पर एक बाज़ार बन गया*।

और तब से, विदेशी पूंजी चल नहीं रही है - यह तूफान से आ गई है।
            *द ग्रेट हॉस्पिटल हैंडओवर*

पिछले कुछ वर्षों में, भारत की कुछ सबसे बड़ी अस्पताल श्रृंखलाओं को वैश्विक निजी इक्विटी फर्मों, सॉवरेन फंडों और विदेशी पेंशन समूहों द्वारा पूरी तरह या आंशिक रूप से अधिग्रहण कर लिया गया है:

*मणिपाल हॉस्पिटल्स* - टेमासेक और टीपीजी कैपिटल द्वारा समर्थित

*एस्टर डीएम* - ओलंपस कैपिटल और अन्य वैश्विक फंडों से जुड़ा हुआ है

*मैक्स हेल्थकेयर* - रेडियंट लाइफ केयर के स्वामित्व में है, और *बीएमएच* केकेआर द्वारा समर्थित है

*केयर हॉस्पिटल्स* - एक टीपीजी-सीडीसी वाहन, एवरकेयर द्वारा नियंत्रित

*फोर्टिस हेल्थकेयर* - मलेशिया के IHH हेल्थकेयर द्वारा अधिग्रहित

*मेडिका सिनर्जी* - अखिल एशियाई निवेशक नेटवर्क द्वारा वित्तपोषित

*सह्याद्रि अस्पताल* - हाल तक, कनाडा के ओंटारियो शिक्षक पेंशन योजना (ओटीपीपी) द्वारा नियंत्रित, अब मणिपाल द्वारा ₹6,400 करोड़ के सौदे में खरीदा गया

ये अब भारतीय अस्पताल नहीं हैं।
                वे विदेशी वित्तीय संपत्तियां हैं जो न्यूयॉर्क, सिंगापुर, टोरंटो और अबू धाबी में वार्षिक रिपोर्टों में फैली हुई हैं।

*जो कभी उपचार का मंदिर था वह अब रणनीतिक मुद्रीकरण का एक उपकरण है*।

सिस्टम वास्तव में किसकी सेवा करता है?

आम भारतीयों के लिए इस बदलाव का क्या मतलब है?

• उपचार की लागत बढ़ गई है - बेहतर देखभाल के कारण नहीं, बल्कि बोर्डरूम लाभ लक्ष्यों को पूरा करने के लिए।
                  • निदान और प्रक्रियाओं से जुड़े प्रदर्शन प्रोत्साहन के साथ, डॉक्टरों पर बिक्री एजेंट के रूप में कार्य करने का दबाव डाला जाता है।

• गरीबों, ग्रामीण और जटिल मामलों को - जब तक कि "उच्च-मार्जिन" न हो - चुपचाप दूर कर दिया जाता है।

• चिकित्सा की नैतिकता त्रैमासिक रिटर्न, निवेशकों की अपेक्षाओं और बीमांकिक गणनाओं पर हावी है।

• महत्वपूर्ण देखभाल क्षेत्रों में एकाधिकार बन रहा है, जहां एक समूह निदान, फार्मेसी, बीमा और अस्पताल देखभाल को शुरू से अंत तक नियंत्रित करता है।
               और इस सबके नीचे सोने की एक नई भीड़ है - अंगों या भूमि के लिए नहीं, बल्कि डेटा के लिए।

*डेटा गोल्डमाइन*: आपका शरीर उनका बिजनेस मॉडल है

एक निजी अस्पताल में प्रत्येक यात्रा - प्रत्येक रक्त परीक्षण, एमआरआई, जीन पैनल, आईसीयू मॉनिटर रीडिंग, दवा प्रोफ़ाइल - को चुपचाप कैप्चर किया जाता है, संग्रहीत किया जाता है, और मुद्रीकृत किया जाता है। अस्पताल अब डेटा अर्थशास्त्र पर चलते हैं। आपके मेडिकल रिकॉर्ड का उपयोग विदेशी स्वामित्व वाले एआई डायग्नोस्टिक्स को प्रशिक्षित करने, स्वास्थ्य बीमा हामीदारी के लिए पूर्वानुमानित मॉडल बनाने और दवा लक्ष्यीकरण एल्गोरिदम को परिष्कृत करने के लिए किया जाता है - अक्सर आपकी स्पष्ट सहमति के बिना।
                  भारत की नियामक शून्यता - जहां रोगी डेटा न तो संप्रभु है और न ही संरक्षित है - ने अपने लोगों को वैश्विक उत्तर के लिए नैदानिक ​​प्रयोगशाला चूहों में बदल दिया है।

*मरीजों से पेटेंट तक*: कैसे फार्मा दिग्गज भारतीय डेटा का शोषण करते हैं

विदेशी फार्मा कंपनियां अब भारतीय अस्पतालों को वास्तविक समय की दवा विकास प्रयोगशालाओं के रूप में देखती हैं। यह ऐसे काम करता है:

    रोगी डेटा को अज्ञात (या नहीं) किया जाता है और अपतटीय अनुसंधान एवं विकास केंद्रों में स्थानांतरित कर दिया जाता है।

हरियाणा में स्वास्थ्य में लैंगिक मुद्दे

हरियाणा में स्वास्थ्य में लैंगिक मुद्दे 
डॉ. आर.एस. दहिया पूर्व सीनियर प्रोफेसर, सर्जरी, पीजीआईएमएस, रोहतक। 

यह एक अच्छी तरह से स्थापित तथ्य है कि जैविक रूप से महिलाएं एक मजबूत सेक्स हैं। जिन समाजों में महिलाओं और पुरुषों के साथ समान व्यवहार किया जाता है, वहां महिलाएं पुरुषों से अधिक जीवित रहती हैं और वयस्क आबादी में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक है। हमारे देश में गर्भावस्था के दौरान सबसे ज्यादा लड़कियों की मौत होती है।

स्वाभाविक रूप से जन्म के समय 100 लड़कियों पर 106 लड़के होते हैं क्योंकि जितने अधिक लड़के शैशवावस्था में मरते हैं, अनुपात संतुलित होता है। असमान स्थिति, संसाधनों तक असमान पहुंच और लिंग के कारण लड़कियों और महिलाओं द्वारा अनुभव की जाने वाली निर्णय लेने की शक्ति की कमी के परिणामस्वरूप स्वास्थ्य में नुकसान होगा। इन नुकसानों में स्वास्थ्य जोखिम की उच्च संभावना, जोखिम के परिणामस्वरूप प्रतिकूल स्वास्थ्य परिणामों की अधिक संवेदनशीलता और समय पर, उचित और पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल प्राप्त करने की कम संभावना शामिल है।

विभिन्न सेटिंग्स में किए गए अध्ययनों के आधार पर यह व्यापक रूप से स्वीकार किया गया है कि जनसंख्या समूहों में स्वास्थ्य में असमानताएं बड़े पैमाने पर सामाजिक और आर्थिक स्थिति में अंतर और बिजली और संसाधनों तक अलग-अलग पहुंच के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती हैं। खराब स्वास्थ्य का सबसे बड़ा बोझ उन लोगों पर पड़ता है जो न केवल आर्थिक रूप से, बल्कि साक्षरता स्तर और सूचना तक पहुंच जैसी क्षमताओं के मामले में भी सबसे अधिक वंचित हैं। नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन के शब्दों में, 1 अरब की वर्तमान आबादी वाले भारत को लगभग 25 मिलियन लापता महिलाओं का हिसाब देना होगा।

ऊपर से आज की आधुनिक दुनिया में इस भेदभाव ने लिंग-संवेदनशील भाषा को विकसित नहीं होने दिया है। मनुष्य जाति तो है, परन्तु स्त्री जाति नहीं है; हाउस वाइफ तो है लेकिन हाउस हस्बैंड नहीं; घर में माँ तो है पर घर में पिता नहीं; रसोई नौकरानी तो है लेकिन रसोई वाला कोई नहीं है। अविवाहित महिला कुंआरी लड़की से लेकर सौतेली नौकरानी और बूढ़ी नौकरानी तक की दहलीज पार कर जाती है लेकिन अविवाहित पुरुष हमेशा कुंवारा ही रहता है।

भेदभाव का अर्थ है 'किसी निर्दिष्ट समूह के एक या अधिक सदस्यों के साथ अन्य लोगों की तुलना में गलत व्यवहार करना।' इस मुद्दे पर 1979 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा महिलाओं के खिलाफ भेदभाव के एसीआई रूपों (सीईडीएडब्ल्यू) के उन्मूलन पर एक सम्मेलन आयोजित किया गया था। उस सम्मेलन में लिंग भेदभाव को इस प्रकार परिभाषित किया गया था: "सेक्स के आधार पर किया गया कोई भी भेदभाव, बहिष्करण या प्रतिबंध जिसका प्रभाव या उद्देश्य राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, नागरिक या किसी अन्य क्षेत्र में पुरुषों और महिलाओं की समानता, मानवाधिकारों और मौलिक स्वतंत्रता के आधार पर, उनकी भौतिक स्थिति के बावजूद, महिलाओं द्वारा मान्यता, आनंद या अभ्यास को ख़राब या रद्द करने का है"।

यह लिंग भेदभाव उस विचारधारा से उत्पन्न होता है जो पुरुषों और लड़कों का पक्ष लेती है और महिलाओं और लड़कियों को कम महत्व देती है। यह शायद भेदभाव के सबसे व्यापक और व्यापक रूपों में से एक है। लिंग सशक्तिकरण माप (जीईएम) के उपाय बताते हैं कि दुनिया भर में लिंग भेदभाव है। कई देशों में, विशेषकर विकासशील देशों में, पुरुषों की तुलना में महिलाओं का एक बड़ा हिस्सा निरक्षर है। दुनिया भर में महिलाएँ केवल 26.1% संसद सीटों पर काबिज हैं।

व्यावहारिक रूप से विकासशील और औद्योगिक रूप से विकसित सभी देशों में, श्रम बाजार में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों की तुलना में कम है, महिलाओं को समान काम के लिए कम भुगतान किया जाता है और पुरुषों की तुलना में अवैतनिक श्रम में कई घंटे अधिक काम करना पड़ता है। महिलाओं के प्रति भेदभाव की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति गर्भ में लिंग निर्धारण और फिर चयनात्मक लिंग गर्भपात की प्रथा है। आधुनिक तकनीक अब भेदभाव की संस्कृति को कायम रखने में मदद के लिए आई है, जिसके परिणामस्वरूप पिछले वर्षों में भारत के कई अन्य राज्यों के अलावा हरियाणा में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के अनुपात में गिरावट आई है। कुल मिलाकर, गर्भावस्था के दौरान पुरुषों की तुलना में अधिक महिलाओं की मृत्यु होती है। इसीलिए जन्म के समय पुरुषों की संख्या अधिक होती है,'' ऑर्ज़ैक ने कहा, जिन्होंने इस मुद्दे पर शोध प्रकाशित किया है।24-जनवरी-2019 जन्म के बाद अधिकतर लड़के मर जाते हैं।

निदेशक नीरजा शेखर ने अनंतिम जनगणना डेटा का विवरण साझा करते हुए साक्षरता दर और लिंग अनुपात के बीच सह-संबंध बनाए रखा, विपरीत संबंध का सुझाव दिया, हालांकि अंतिम डेटा संकलित होने के बाद सटीक संबंध का अनुमान लगाया जाएगा। 
हरियाणा में 6 वर्ष से कम आयु के 18.02 लाख लड़के थे; इसी आयु वर्ग में लड़कियों की संख्या 14.95 लाख थी। (2011 की जनगणना)

2011 की जनगणना के अनुसार, सबसे अधिक लिंगानुपात मेवात में 907, उसके बाद फतेहाबाद में 902 देखा गया। 2021 की जनगणना के अनुसार, हरियाणा का बाल लिंग अनुपात (0-6 आयु समूह) प्रति 1000 पुरुषों पर 902 महिलाएं है। हरियाणा में लिंगानुपात 2011 में भारत की अंतिम जनगणना के अनुसार, हरियाणा में भारत में सबसे कम लिंगानुपात (834 महिलाएँ) है। यह राज्य कन्या भ्रूण हत्या के लिए पूरे भारत में जाना जाता है। हालाँकि, सरकारी योजनाओं और पहलों के साथ, हरियाणा में लिंगानुपात में सुधार दिखना शुरू हो गया है। राज्य में दिसंबर, 2015 में पहली बार बाल लिंग अनुपात (0-6 आयु वर्ग) 900 से अधिक दर्ज किया गया। 2011 के बाद यह पहली बार है कि हरियाणा लिंग अनुपात 900 के आंकड़े को पार कर गया है। 2011 की जनगणना के अनुसार, सबसे अधिक लिंगानुपात मेवात में 907, उसके बाद फतेहाबाद में 902 देखा गया।

राज्य के स्वास्थ्य विभाग के अनुसार हरियाणा का लिंग अनुपात 903 (2016) था। . 2021 की जनगणना के अनुसार, हरियाणा का बाल लिंग अनुपात (0-6 आयु समूह) प्रति 1000 पुरुषों पर 902 महिलाएं है। हरियाणा का विषम लिंगानुपात गोद लेने के आंकड़ों में भी प्रतिबिंबित होता है। हरियाणा से प्राप्त गोद लेने के आवेदनों के बारे में विशेष विवरण प्रदान करते हुए, सीएआरए के केंद्रीय सार्वजनिक सूचना अधिकारी ने कहा कि हरियाणा में लड़कियों को गोद लेने की वर्तमान प्रतीक्षा सूची 367 है और हरियाणा में पुरुष बच्चों को गोद लेने की प्रतीक्षा सूची 886 है।

लिंग भेदभाव की जड़ें हमारी पुरानी सांस्कृतिक प्रथाओं और जीवन जीने के तरीके में भी हैं, बेशक इसे एक भौतिक आधार भी मिला है। हरियाणा की सांस्कृतिक प्रथाओं में लैंगिक पूर्वाग्रह है। लड़के के जन्म के समय थाली बजाकर जश्न मनाया जाता है जबकि लड़की के जन्म पर किसी न किसी तरह से मातम मनाया जाता है; प्रसव के समय, यदि बच्चा लड़का है, तो माँ को 10 किलो घी (दो धारी घी) दिया जाएगा और यदि बच्चा लड़की है, तो माँ को 5 किलो घी दिया जाएगा; नर संतान का छठा दिन (छठ) मनाया जाएगा; यदि बच्चा लड़का है तो नामकरण संस्कार किया जाएगा; लड़कियों को परिवार के सदस्यों के अंतिम संस्कार में आग लगाने की अनुमति नहीं है, जबकि वे घर में चूल्हे में लकड़ी के ढेर जला सकती हैं। जैसे-जैसे हरियाणा में महिलाओं की संख्या कम होती जा रही है, वे समाज में और अधिक असुरक्षित होती जा रही हैं।

     हरियाणा में घर और बाहर हिंसा बढ़ गई है और इससे महिलाओं के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। समाचार पत्रों में इस संबंध में प्रतिदिन अनेक समाचार प्रकाशित होते रहते हैं। लैंगिक मुद्दों पर पूरा समाज जैसा व्यवहार करता है, वैसा ही व्यवहार स्वास्थ्य विभाग हरियाणा भी करता है। सरकार में स्त्री रोग विशेषज्ञों की संख्या अस्पताल महिलाओं के स्वास्थ्य को और भी अधिक खराब कर रहे हैं।

हरियाणा में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में तेज वृद्धि के साथ ही बलात्कार के मामले भी बढ़े हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि 2014 में 944, 2015 में 839, 2016 में 802, 2017 में 955, 2018 में 1178, 2019 में 1360, 2020 में 1211 और 2021 में 1546 बलात्कार के मामले हुए। (04-मार्च-2022 https://www.dailypioneer.com ›रैप...) 2022 में 1 जनवरी से 11 जुलाई की अवधि में दहेज हत्या की कुल 13 मौतें दर्ज की गईं, जबकि 2021 में यह संख्या 4 रही।(9 मौतें अधिक) (24-जुलाई-2022 https://www.tribuneindia.com › समाचार)

हरियाणा महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए कुख्यात है और भारत में यौन अपराधों में इसकी हिस्सेदारी 2.4 प्रतिशत है, जो पंजाब और हिमाचल से भी अधिक है। लगभग 32 प्रतिशत महिलाएँ वैवाहिक हिंसा की शिकार हैं। इसके अलावा, 2015 से हर महीने बाल यौन शोषण के 88 मामले और बलात्कार के 93 मामले दर्ज किए गए हैं। (04-अगस्त-2018 https://www.tribuneindia.com › समाचार) अपंजीकृत मामले बहुत अधिक हैं. इससे पता चलता है कि महिलाओं की कीमत या उनकी महत्ता उनकी संख्या घटने से नहीं बढ़ी है, जैसा कि हरियाणा में कई लोगों ने कल्पना की थी।

इसी तरह यदि कुछ बढ़ोतरी हुई भी तो महिलाओं पर अत्याचार कम नहीं हो रहे हैं। हिंसा महिलाओं के स्वास्थ्य को कई तरह से प्रभावित करती है। आज भी महिलाओं को छोटे-बड़े कई संघर्षों से गुजरना पड़ता है। महिलाओं ने अपने संघर्षों के दम पर यह दिन हासिल किया है और इस मौके पर महिलाओं को भेदभाव, अन्याय और हर तरह के उत्पीड़न के खिलाफ लड़ना चाहिए।

क्योंकि आज भी महिलाओं द्वारा किए गए काम की कोई कीमत नहीं आंकी जाती, जबकि बाजार में उसी काम के लिए पैसे चुकाने पड़ते हैं। महिलाएं खुद भी अपना काम रजिस्टर नहीं करा पातीं जो उन्हें कराना चाहिए। उन्होंने बताया कि महिलाओं में पुरुषों की तुलना में अधिक सहनशक्ति होती है और वे बेहद खराब परिस्थितियों में भी अपने बच्चों का पालन-पोषण करती हैं। . उस स्थिति के बारे में सोचें जब एक सपने में एक आदमी को गर्भवती होने और बच्चे को जन्म देने की परेशानी से गुजरना पड़ा। तभी उसे प्रसव पीड़ा महसूस हुई. इसलिए पुरुषों को भी इस बात का एहसास होना चाहिए कि महिलाओं को बच्चे को जन्म देते समय काफी तकलीफों से गुजरना पड़ता है और पुरुष उन तकलीफों को कभी सहन नहीं कर पाते हैं। लेकिन दुर्भाग्य से, बच्चा पैदा करने और पालन-पोषण की पूरी प्रक्रिया को कभी भी एक बड़े काम के रूप में दर्ज नहीं किया गया है।

महिलाओं को न्याय, सम्मान और समानता की सबसे ज्यादा जरूरत है, इसीलिए उन्हें बार-बार संघर्ष करना पड़ता है। जबकि शारीरिक संरचना के अलावा पुरुष और महिला में कोई अंतर नहीं है। लेकिन फिर भी महिलाओं को वो सारे मौके नहीं मिल पाते जिनकी वो हक़दार हैं. दूसरी बात जो हरियाणा के अधिकांश गांवों में हो रही है वह यह है कि अविवाहित पुरुषों की संख्या बढ़ रही है। प्रत्येक गांव में 30 वर्ष से अधिक उम्र के अनेक पुरुष बिना विवाह के देखे जा सकते हैं। लड़कों और लड़कियों दोनों में बेरोजगारी बढ़ रही है। इसके अलावा कई कारकों के कारण पुरुषों में नपुंसकता की प्रवृत्ति भी बढ़ रही है।

अधिकांश गांवों में दूल्हे की खरीदारी एक स्वीकृत सांस्कृतिक प्रथा बनती जा रही है। ये सभी कारक हरियाणा में महिलाओं की मुश्किलें बढ़ा रहे हैं। साथ-साथ बेटे को प्राथमिकता देना और बेटी को कम महत्व देना, बेटियों के खिलाफ भेदभावपूर्ण प्रथाओं में प्रकट होता है, जैसे कि कन्या शिशु की असामयिक और रोकी जा सकने वाली मृत्यु। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण - 5 और एनएफएचएस 4 से डेटा

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण 5 और 4 के आंकड़े यही संकेत देते हैं शिशु एवं बाल मृत्यु दर (प्रति1000 जीवित जन्म) नवजात मृत्यु दर..एनएनएमआर.. ..21.6 शिशु मृत्यु दर (आईएमआर)..33.3 एनएफएचएस 4..32.8 पाँच से कम मृत्यु दर(U5MR)..38.7 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे जो बौने हैं (उम्र के अनुसार लंबाई)%..27.5 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे जो कमज़ोर हैं (ऊंचाई के अनुसार वज़न)%..11.5 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे जो गंभीर रूप से कमज़ोर हैं (ऊंचाई के अनुसार वज़न)%..4.4 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे जिनका वजन कम है (उम्र के अनुसार वजन)%..21.5 5 वर्ष से कम उम्र के बच्चे जिनका वजन अधिक है (ऊंचाई के अनुसार वजन)%..3.3

बच्चों में एनीमिया 6-59 महीने की आयु के बच्चे जो एनीमिया (11 ग्राम/डेसीलीटर से कम)% से पीड़ित हैं।.70.4 एनएफएचएस4..71.7 एनएफएचएस 5 डेटा से पता चला कि स्टंटिंग, वेस्टिंग, कम वजन, पर्याप्त आहार और एनीमिया 27.5%, 11.5%, 21.5%, 11.8% और 70.4% है, जबकि एनएफएचएस 4 34.0%, 21.2%, 29.4%, 7.5% और 71.7% है। एनीमिया बहुत अधिक है, लगभग पिछले सर्वेक्षण के समान ही। आहार सेवन में 4.3% का सुधार हुआ है लेकिन अभी भी बहुत कम प्रतिशत है। वी. गुप्ता और सभी ने अपने अध्ययन में पाया है कि लड़कियों में बौनेपन और कम वजन की समस्या अधिक है। . लड़कियों के लिए स्तनपान की औसत अवधि लड़कों के लिए स्तनपान की औसत अवधि से थोड़ी कम है।

बचपन में यह अभाव बड़ी संख्या में महिलाओं के कुपोषित होने और वयस्क होने पर उनका विकास अवरुद्ध होने में योगदान देता है। 15-49 वर्ष की गर्भवती महिलाएं जो एनीमिक हैं (एचबी 11 ग्राम से कम) 56.5% हैं जबकि एनएफएचएस 4 में वे 55% थीं। पिछले पांच वर्षों में इसमें वृद्धि हुई है। 15-19 वर्ष की सभी महिलाएं 62.3% हैं जबकि इस उम्र के 29.9% पुरुष एनीमिया से पीड़ित हैं। यहां लिंग भेद स्पष्ट करें। किशोर भारतीय लड़कियों के एक महत्वपूर्ण अनुपात के लिए, जल्दी शादी और उसके तुरंत बाद गर्भावस्था आदर्श है।

2019-21 के बीच किए गए नवीनतम राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के अनुसार, 18-29 आयु वर्ग की लगभग 25 प्रतिशत महिलाओं और 21-29 आयु वर्ग के 15 प्रतिशत पुरुषों की शादी शादी की न्यूनतम कानूनी उम्र तक पहुंचने से पहले हो गई। कामुकता और प्रजनन पर महिलाओं का कोई अधिकार नहीं है। किशोरावस्था में बच्चे पैदा करने से महिलाओं पर कई तरह से प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है; सामाजिक, आर्थिक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक रूप से। यह उनकी शिक्षा को छोटा कर देता है, उनकी आय अर्जित करने के अवसरों को सीमित कर देता है और उस उम्र में उन पर जिम्मेदारियों का बोझ डाल देता है जब उन्हें जीवन की खोज करनी चाहिए। विकासशील देशों में, 20-24 वर्ष की आयु की महिलाओं की तुलना में बचपन में गर्भधारण और प्रसव के दौरान मृत्यु का जोखिम अधिक होता है। भारत का मातृ मृत्यु दर चूहा (एमएमआर) 2017-19 की अवधि में सुधरकर 103 हो गया, लेकिन हाल ही में जारी आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार, पश्चिम बंगाल, हरियाणा, उत्तराखंड और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में अनुपात खराब हो गया है।

यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारी कानूनी व्यवस्था मौजूदा सामाजिक पूर्वाग्रहों को दूर करने में सक्षम नहीं है। पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता की संवैधानिक गारंटी के बावजूद कानून कार्यान्वयन एजेंसियां ​​अपने कार्यान्वयन में विफल रहीं। यही कारण है कि महिलाओं के पास अक्सर अपने स्वास्थ्य देखभाल संबंधी निर्णय स्वयं लेने का अधिकार नहीं होता है। हालाँकि संविधान बनने के बाद आधी सदी बीत गई है, लेकिन हमारे सामाजिक रीति-रिवाज संविधान की भावना के अनुरूप नहीं बदले हैं। अभी भी प्रथागत कानूनों और परंपराओं को पितृसत्तात्मक मानदंडों के साथ संवैधानिक प्रतिबद्धता पर महत्व दिया जाता है जो महिलाओं को उनकी कामुकता, प्रजनन और स्वास्थ्य के संबंध में निर्णय लेने के अधिकार से वंचित करते हैं। हरियाणा में महिलाओं को रुग्णता और मृत्यु दर के टाले जा सकने वाले जोखिमों का सामना करना पड़ता है। 
डॉ. आर.एस.दहिया पूर्व वरिष्ठ प्रोफेसर, पीजीआईएमएस,रोहतक।

Sunday, 3 August 2025

indranil

*India’s Silent Emergency* : 
How Foreign Hands Are Hijacking Our Healthcare, 
One Patient at a Time

A covert national security brief, disguised as a headline. 
*For the eyes of every Indian who still believes hospitals exist to heal-not to harvest*.

In the shimmering corridors of India’s private hospitals, beneath the glint of new-age diagnostic machines and corporate efficiency, a silent takeover is unfolding. It began without a bang-no coup, no tanks, no headlines.

In 2015–16, the Government of India quietly threw open the gates: 100% FDI (Foreign Direct Investment) in healthcare was allowed. No upper cap. No strategic oversight. No localisation mandates. *What was once a deeply human ecosystem-driven by values of service and sacrifice — became a marketplace on a global spreadsheet*.

And since then, foreign capital hasn’t walked-it has stormed in.

*The Great Hospital Handover*

Over the last few years, some of India's largest hospital chains have been fully or partially acquired by global private equity firms, sovereign funds, and foreign pension conglomerates:

*Manipal Hospitals* – backed by Temasek & TPG Capital

*Aster DM* – tied to Olympus Capital & other global funds

*Max Healthcare* – owned by Radiant Life Care, & *BMH* backed by KKR

*CARE Hospitals* – controlled by Evercare, a TPG–CDC vehicle

*Fortis Healthcare* – acquired by Malaysia’s IHH Healthcare

*Medica Synergie* – financed by pan-Asian investor networks

*Sahyadri Hospitals* – until recently, controlled by Canada’s Ontario Teachers’ Pension Plan (OTPP), now bought by Manipal in a ₹6,400 crore deal

These are no longer Indian hospitals.

They are foreign financial assets-spread across annual reports in New York, Singapore, Toronto, and Abu Dhabi.

*What was once a temple of healing is now a tool of strategic monetisation*.

Who Does the System Truly Serve?

What does this transformation mean for ordinary Indians?

• Treatment costs have soared — not due to better care, but to meet boardroom profit targets.

• Doctors are pressured to act as sales agents, with performance incentives tied to diagnostics and procedures.

• The poor, the rural, and the complex cases — unless “high-margin” — are quietly turned away.

• The ethics of medicine are overpowered by quarterly returns, investor expectations, and actuarial calculations.

• Monopolies are forming in critical care regions, where one conglomerate controls diagnostics, pharmacy, insurance, and hospital care — end-to-end.

And underneath all of this is a new gold rush — not for organs or land, but for data.

*The Data Goldmine*: Your Body Is Their Business Model

Every visit to a private hospital — every blood test, MRI, gene panel, ICU monitor reading, medication profile — is quietly captured, stored, and monetised. Hospitals now run on data economics. Your medical records are used to train foreign-owned AI diagnostics, build predictive models for health insurance underwriting, and refine drug targeting algorithms — often without your explicit consent.

India’s regulatory vacuum — where patient data is neither sovereign nor protected — has turned its people into clinical lab rats for the Global North.

*From Patients to Patents*: How Pharma Giants Exploit Indian Data

Foreign pharma companies now view Indian hospitals as real-time drug development labs. Here's how it works:

    Patient data is anonymised (or not) and transferred to offshore R&D centres.

    AI platforms mine this data to discover new drug targets, simulate treatment responses, and design early vaccine trials.

    Indian diversity — genetically, geographically, and demographically — becomes a testing ground for products priced far beyond Indian affordability.

From cancer immunotherapies to cardiac biologics to vaccine booster models, Indian suffering has become a substrate for Western patents.

No royalties. No IP transfer. No public benefit. Just one-sided extraction.

*The Insurance–Hospital–Data Cartel: A Systematic Loot*

A new cartel has emerged: 
1. Private insurers, 
2. Hospital chains, and 
3. Data analytics firms are colluding to squeeze the last rupee from Indian healthcare. 
Here’s the playbook:

Insurers only approve treatments within “standardised packages”, regardless of patient needs.

Hospitals game the system-
1. Inflate bills, 
2. Exaggerate disease severity, 
3. ⁠Overprescribe tests-just to hit reimbursement targets.

Doctors are subtly incentivised to over-medicalise, because their own incomes are tied to how much they "generate".

Data from all this flows back into insurer AI models-which tighten approvals, predict rejections, and even flag high-risk patients for premium hikes.

*This is not care*. It is a commoditised, gamified loot — played at the cost of a common Indian’s life savings.

The Hidden Crime Scene: 
*When Medicine Becomes a Business of Fear*

Doctors-once the last line of moral defence-are now trapped in this machine. 
Many are forced to:

Inflate diagnoses to justify expensive tests.

Recommend surgeries patients may not need.

Convince families that “urgent intervention” is their only chance-even if the condition is benign.

A new disease is invented for every financial quarter.

What looks like treatment is often just a highly choreographed sales pitch-driven by fear, disguised as expertise.

*This isn’t medicine. It’s crime-with degrees*.


*The Biowarfare Vector*: 
Why India Must Treat Health Data as a National Security Asset

Now we must address the darkest possibility-biological weaponisation.

In the hands of a hostile state, the genomic and clinical data of Indians-now freely flowing to foreign servers — can be reverse-engineered to create targeted bioagents. These could exploit:

Caste- or region-specific genetic traits

Immune vulnerabilities unique to Indian subgroups

Environmental and nutritional weaknesses

China has already written about “precision pathogenic weapons”. 

The U.S. military studied “genetic targeting” as early as the 1990s. In today’s AI age, this is no longer science fiction.

Hospitals that seem harmless may be building the blueprint for a future asymmetric biowar-where a silent virus could disable an entire demographic, economic class, or region without firing a bullet.

We don’t write this to scare. We write it because it’s already happening. And India, once again, is sleepwalking.

*The Final Diagnosis*: It’s Time to Reclaim India’s Healthcare Sovereignty

India cannot afford to treat healthcare as just another industry. Not when:

It controls life and death

It holds the most private data of our citizens

It can be turned into a geopolitical vector of attack

    And when 1.4 billion lives are at stake

We must wake up.

What must be done?

*Impose strict caps on foreign ownership of hospitals*

*Mandate data residency and protection laws with criminal penalties*

*Break insurance-hospital monopolies*

*Recognise health data as critical infrastructure under national security law*

*Create a sovereign National Health Intelligence Agency to audit all healthcare data flow*

*Incentivise ethical medical practice*-and protect whistleblowers from inside the system

This is not a policy suggestion.

This is a national survival protocol.

Because in the end, a country that cannot protect its patients…
...has already lost the war-without even knowing it began.

Eqbal article

 भारत-ब्रिटेन व्यापार समझौता भारतीय फार्मास्युटिकल क्षेत्र के लिए हानिकारक

डॉ बी एकबाल

वर्षों की लंबी चर्चा के बाद, भारत-ब्रिटेन मुक्त व्यापार समझौता (एफटीए) प्रभावी होने के लिए तैयार है। वाणिज्यिक और कृषि क्षेत्रों पर इसके अनुकूल और प्रतिकूल प्रभाव वर्तमान में चर्चा में हैं। हालाँकि, यह तथ्य कि यह समझौता देश को सार्वजनिक स्वास्थ्य क्षेत्र में कई संकटों में ले जाएगा, विशेष रूप से जीवन रक्षक दवाओं की उपलब्धता के संबंध में, किसी का ध्यान नहीं गया है।
एफटीए को विशेष द्विपक्षीय और बहुपक्षीय समझौता माना जाता है जिसका उद्देश्य देशों के बीच व्यापार को सुविधाजनक बनाना और आर्थिक सहयोग को मजबूत करना है। इन समझौतों में अक्सर उत्पादों पर आयात शुल्क को कम करने या पूरी तरह से समाप्त करने के प्रावधानों के साथ-साथ सेवाओं, निवेश और बौद्धिक संपदा अधिकार संरक्षण से संबंधित प्रावधान शामिल होते हैं। अमेरिका और अन्य विकसित देश अब मुक्त व्यापार समझौतों (एफटीए) के माध्यम से ट्रिप्स समझौते में उन शेष धाराओं को हटाने की कोशिश कर रहे हैं जो भारत जैसे विकासशील देशों के लिए अनुकूल हैं।
.             1972 का भारतीय पेटेंट अधिनियम, जिसने भारत को दवा उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करने और दुनिया भर के देशों को कम कीमत पर गुणवत्तापूर्ण दवाएं उपलब्ध कराने में मदद की, को विश्व व्यापार संगठन के ट्रिप्स समझौते के अनुसार जनवरी 2005 में संशोधित किया गया था। इस परिवर्तन के साथ, वैकल्पिक उत्पादन विधियों का उपयोग करके महंगी पेटेंट दवाओं के कम लागत वाले जेनेरिक संस्करण का उत्पादन करने का भारत का अधिकार खो गया। इसके अलावा, पेटेंट की अवधि 7 से बढ़ाकर 20 वर्ष कर दी गई। नतीजतन, दवा की कीमतें बढ़ गईं।
.         अनिवार्य लाइसेंसिंग के ख़िलाफ़

बौद्धिक संपदा संरक्षण के संबंध में, एफटीए में अक्सर मौजूदा डब्ल्यूटीओ ट्रिप्स समझौते की तुलना में सख्त प्रावधान शामिल होते हैं, जो पहले से ही विकासशील देशों के लिए प्रतिकूल है। इन्हें आम तौर पर ट्रिप्स-प्लस प्रावधानों के रूप में जाना जाता है। धनी राष्ट्र और शक्तिशाली बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियां अपने पेटेंट संरक्षण को और मजबूत करने और अपने वैश्विक एकाधिकार को बनाए रखने के लिए एक रणनीतिक उपकरण के रूप में एफटीए का उपयोग करती हैं।
.                हाल ही में हस्ताक्षरित भारत-यूके समझौते में एक प्रावधान शामिल किया गया है जो अनिवार्य लाइसेंसिंग खंड को प्रभावी ढंग से रद्द कर देता है, जिसे ट्रिप्स के तहत अनुमति है। दवा की अत्यधिक कीमतें, दवा की कमी, राष्ट्रीय मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त मात्रा में दवा का उत्पादन करने में कंपनियों की असमर्थता, पेटेंट अनुदान के बाद एक निश्चित अवधि के भीतर पेटेंट दवा का उत्पादन करने में विफलता जैसी स्थितियों में, पेटेंट कार्यालय अनिवार्य लाइसेंस के तहत गैर-पेटेंट कंपनियों को दवा का उत्पादन करने का अधिकार दे सकता है।
            2013 में, भारत ने भारतीय कंपनियों को अनिवार्य लाइसेंस के तहत कैंसर की दवा का उत्पादन करने की अनुमति देकर इतिहास रचा। तत्कालीन पेटेंट महानियंत्रक श्री पी.एच. कुरियन ने एक आदेश जारी कर एक भारतीय कंपनी नैटको को अनिवार्य लाइसेंस के तहत नेक्सावर ब्रांड नाम के तहत जर्मन कंपनी बायर कॉर्पोरेशन द्वारा बेची जाने वाली सोराफेनीब टॉसिलेट का उत्पादन करने का अधिकार दिया। नतीजतन, यह दवा, जिसके इलाज में पहले हजारों रुपये खर्च होते थे, अब भारतीय कंपनियों द्वारा बहुत कम कीमत पर उत्पादन और विपणन किया जा रहा है। हालाँकि, अनिवार्य लाइसेंसिंग के लिए भारतीय कंपनियों द्वारा प्रस्तुत किए गए कई आवेदन, यह दावा करते हुए कि वे कम कीमतों पर कई दवाओं का उत्पादन कर सकते हैं, बाद में खारिज कर दिए गए।
.     ..... मौजूदा समझौते में अनिवार्य लाइसेंसिंग के खिलाफ एक खंड शामिल है, जिसमें कहा गया है कि पेटेंट दवाओं का उत्पादन करने के लिए अन्य कंपनियों को लाइसेंस दिया जा सकता है। हालाँकि, जब ऐसे लाइसेंस दिए जाते हैं, तो पेटेंट कंपनी भारी रॉयल्टी वसूलती है, जो लाइसेंस प्राप्त कंपनियों द्वारा कम कीमत वाली दवाओं के विपणन में काफी बाधा डालती है। समझौते में रॉयल्टी राशि का उल्लेख नहीं है। कोविड-19 महामारी के दौरान देश ने लाइसेंसिंग प्रणाली की सीमाओं का अनुभव किया। उस समय अमेरिकी कंपनी गिलियड ने सिप्ला, डॉ. रेड्डीज लैब, हेटेरो और जायडस कैडिला जैसी कंपनियों को रेमडेसिविर के उत्पादन का लाइसेंस दिया था। हालाँकि, उच्च रॉयल्टी शुल्क के कारण, ये कंपनियाँ गिलियड की तुलना में काफी कम कीमत पर दवा नहीं बेच सकीं। केरल सरकार ने वित्तीय संकट के बावजूद मरीजों को रेमडेसिविर उपलब्ध कराने के लिए बड़ी रकम खर्च की। केंद्र सरकार ने अनिवार्य लाइसेंसिंग का उपयोग करके भारतीय कंपनियों को कम कीमत पर रेमडेसिविर का उत्पादन करने की अनुमति देने की मांग को खारिज कर दिया।

 जेनेरिक दवाओं के खिलाफ

समझौते ने उस प्रावधान (पेटेंट की कार्यप्रणाली) को बढ़ा दिया है जिसके तहत दवाओं के लिए पेटेंट प्राप्त करने के एक वर्ष के भीतर विनिर्माण शुरू करने की आवश्यकता होती है, जिसे तीन साल तक बढ़ा दिया गया है। इसका मतलब यह है कि यदि पेटेंट दवाओं के उत्पादन में देरी होती है, तो अन्य कंपनियों को अनिवार्य लाइसेंसिंग का उपयोग करके दवा का उत्पादन करने की अनुमति नहीं दी जाएगी। यह पेटेंट अवधि को कृत्रिम रूप से बढ़ाने का एक प्रयास है। स्वाभाविक रूप से, पेटेंट अवधि समाप्त होने के बाद कम लागत वाली जेनेरिक दवाओं के उत्पादन की अवधि और बढ़ जाएगी।

 यूनिवर्सल पेटेंट की ओर?

समझौते में सबसे खतरनाक प्रावधान ब्रिटेन और भारत में बौद्धिक संपदा कानूनों में सामंजस्य बनाने की मांग है। वर्तमान में, दुनिया भर के सभी देशों में लागू कोई "यूनिवर्सल पेटेंट" प्रणाली नहीं है। प्रत्येक देश में अलग-अलग पेटेंट आवेदन प्रस्तुत और अनुमोदित किए जाने चाहिए। हालाँकि, एफटीए और अन्य अंतरराष्ट्रीय दबावों के माध्यम से, विश्व स्तर पर समान और सख्त पेटेंट कानून और सुरक्षा अवधि शुरू करने के लिए मजबूत प्रयास चल रहे हैं। विश्व बौद्धिक संपदा संगठन (डब्ल्यूआईपीओ), संयुक्त राष्ट्र के तहत एक एजेंसी जो देशों को बौद्धिक संपदा कानूनों के मानकीकरण और सामंजस्य पर सलाह देती है, सख्त पेटेंट कानून बनाने और उन्हें अनुमोदन के लिए विश्व व्यापार संगठन के सामने पेश करने के लिए काम कर रही है।
.         विश्व स्तर पर पेटेंट प्रणालियों में सामंजस्य स्थापित करना विकसित देशों और बहुराष्ट्रीय निगमों के आर्थिक प्रभुत्व को बढ़ाने के उद्देश्य से एक और रणनीति के रूप में देखा जाता है। प्राथमिक लक्ष्य भारतीय पेटेंट अधिनियम की धारा 3(डी) को हटाना है, जो अनावश्यक पेटेंट को रोकता है। एक बार जब यह प्रावधान हटा दिया जाता है, तो इससे फालतू दवाओं के विपणन को बढ़ावा मिलेगा और पेटेंट अवधि कृत्रिम रूप से बढ़ जाएगी, एक घटना जिसे "पेटेंट की हरियाली" या "सतत पेटेंट" के रूप में जाना जाता है। इसके साथ ही महंगी और अनावश्यक दवाओं की संख्या भी काफी बढ़ जाएगी।
.     सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने पहले ही भारत-ब्रिटेन व्यापार समझौते के उन प्रावधानों का खुलासा करते हुए अभियान और विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया है जो भारतीय फार्मास्युटिकल क्षेत्र के लिए हानिकारक हैं। संसद सदस्य मांग कर रहे हैं कि समझौते के विवरण पर संसद में चर्चा की जाए और भारतीय हितों के लिए हानिकारक धाराओं को हटाया जाए।