भारत की और हरियाणा के स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे में भी व्यापक स्तर की पुर्नगठन की प्रक्रियाएं जारी हैं और पिछले दशक से और तेजी पकड़ रही हैं।बड़े पैमाने पर प्राईवेट मैडीकल सैक्टर का फैलाव , स्वास्थ्य सेवाओं में प्राईवेट इंशोरैंस कम्पनियों की दखलन्दाजी , सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में मैडीकल सर्विसिज के लिए पेमैंट सिस्टम की शुरुआत पिछले दशकों में हुई तीन मुख्य तबदीलियां हैं। मैडीकल एजुकेशन का बड़े पैमाने पर व्यापारिकरण साफ नजर आने लगा है जब कई राज्यों में प्राईवेट मैडीकल कालेजों में एम बी बी एस कोर्स की फीस दो करोड़ रुपये कर दी गई है। हरियाणा के बुढ़ेड़ा मैडीकल कालेज में भी एक करोड़ की फीस बताई जा रही है। जिस तेजी के साथ ये बदलाव आ रहे हैं इससे एक संशय की बड़ी जगह संवेदनशील दिमागों में बनती है। हो सकता है कि यदि हम उस रफतार से चले तो आने वाले कुछ वर्षों में हम स्वास्थ्य क्षेत्र में अमरीकी मॉडल जो कि बहुत मंहगा है, मुनाफे से संचालित है, तकनीक;टैक्नोलोजीद्ध इंटैंसिव है, अन्यायपूर्ण व ना बराबरी पर टिका हुआ है, को भारत वर्ष में प्रस्थापित कर देंगे।पूरी पूरी सम्भावना है कि बहुत जल्द ही हमारा स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा आम आदमी की पहुंच से बाहर हो जायेगा। हम में से काफी लोग यह भी महसूस करते हैं कि इससे उपजा असंतोष जन मंचों के माध्यम से अभिव्यक्ति पा रहा है और आने वाले समय में और तीखे स्वरों में उठाया जायेगा। इसमें एक हैरानी की बात यह है कि सरकारें तथा उनकी एजैंसीज भी इस कोरस में शामिल हो रही हैं।
गुड गर्वनैस के सिद्धान्त पर चलते हुए स्वास्थ्य सेवाओं की दोहरी व्यवस्था - एक अमीरों के लिए और एक गरीबों के लिए- के नियम को आगे बढ़ाया जा रहा है ताकि समता के मसले को आसानी से टैक्ल किया जा सके बिना उस प्रक्रिसा के साथ छेड़खानी किये बगैर जिसके चलते विनिवेश की प्रक्रिया चालू रही रहे। समाज के एक छोटे से अमीर और सर्विस के हिस्से के लिए अर्न्तराष्ट ªीय स्तर की उच्च तकनीक आधारित स्वास्थ्य सेवाओं का विकास जा रहा है और उसके माध्यम से फोरन एक्सचेंज कमाने का तर्क भी दिया जा रहा है। इसको हैल्थ टूरिज्म का नाम दिया गया है। गरीब लोगों के लिए सरकार विश्व बैंक की 1993 की रिपोर्ट पर आधारित सुझााव के हिसाब से ‘‘मुफत’’ ‘‘ मिनिमम क्लीनिकल पैकेज’’ देगी।
मूलभूत सवाल यह उठता है कि गरीब लोगों की जो बीमारियों का परोफाइल क्या उसका जो ‘‘ मिनिमम एसैन्सियल क्लीनिकल पैकेज ’’ सुझाया जा रहा है , उसके साथ कोई तारतम्य भी है? इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि इस पैकेज से हम गरीबों की बीमारियों का इलाज सम्भव नहीं है। इसके साथ ही सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में लागू किये जा रहे यूजर चार्जिज के चलते समाज के इस हिस्से के लिए अपनी स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान के लिए कोई जगह शायद ही बच पायेगी। इसी कारण से गरीबों के हिस्सों में भी एक ऐसा रुझान देखने को मिलता है कि वे यदि सम्भव हो तो या कुछ बेचकर जुगाड़ करके प्राईवेट सैक्टर में अपना इलाज करवाते हैं। ऐसा वे तभी करते हैं जब उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता। बीमारी काफी गम्भीर होती है या इलाज काफी महंगा होता है तो वे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की शरण में आने को मजबूर होते हैं या प्राईवेट डाक्टर के पास लुट पिट कर सरकारी अस्पतालों में पहुंचते हे।
गुड गर्वनैस के सिद्धान्त पर चलते हुए स्वास्थ्य सेवाओं की दोहरी व्यवस्था - एक अमीरों के लिए और एक गरीबों के लिए- के नियम को आगे बढ़ाया जा रहा है ताकि समता के मसले को आसानी से टैक्ल किया जा सके बिना उस प्रक्रिसा के साथ छेड़खानी किये बगैर जिसके चलते विनिवेश की प्रक्रिया चालू रही रहे। समाज के एक छोटे से अमीर और सर्विस के हिस्से के लिए अर्न्तराष्ट ªीय स्तर की उच्च तकनीक आधारित स्वास्थ्य सेवाओं का विकास जा रहा है और उसके माध्यम से फोरन एक्सचेंज कमाने का तर्क भी दिया जा रहा है। इसको हैल्थ टूरिज्म का नाम दिया गया है। गरीब लोगों के लिए सरकार विश्व बैंक की 1993 की रिपोर्ट पर आधारित सुझााव के हिसाब से ‘‘मुफत’’ ‘‘ मिनिमम क्लीनिकल पैकेज’’ देगी।
मूलभूत सवाल यह उठता है कि गरीब लोगों की जो बीमारियों का परोफाइल क्या उसका जो ‘‘ मिनिमम एसैन्सियल क्लीनिकल पैकेज ’’ सुझाया जा रहा है , उसके साथ कोई तारतम्य भी है? इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि इस पैकेज से हम गरीबों की बीमारियों का इलाज सम्भव नहीं है। इसके साथ ही सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में लागू किये जा रहे यूजर चार्जिज के चलते समाज के इस हिस्से के लिए अपनी स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान के लिए कोई जगह शायद ही बच पायेगी। इसी कारण से गरीबों के हिस्सों में भी एक ऐसा रुझान देखने को मिलता है कि वे यदि सम्भव हो तो या कुछ बेचकर जुगाड़ करके प्राईवेट सैक्टर में अपना इलाज करवाते हैं। ऐसा वे तभी करते हैं जब उनके पास दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता। बीमारी काफी गम्भीर होती है या इलाज काफी महंगा होता है तो वे सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की शरण में आने को मजबूर होते हैं या प्राईवेट डाक्टर के पास लुट पिट कर सरकारी अस्पतालों में पहुंचते हे।
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