एक लापरवाह और अमानवीय व्यवस्था
कहते हैं जब रोम जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था। आज भी ऐसे बेमौके की बांसुरी बजाने वालों की भरमार है, जो सार्वजनिक स्वावस्थ्य व्यवस्था की विफलता पर खुश होते हैं और उस दिन के इंतजार में हैं जब आखिरकार इसके दम ही तोड़ देेने का एलान कर दिया जाएगा। इसीलिए तो, स्वास्थ्य मंत्रालय की इसका हल्का सा इशारा करने की कोशिश पर भी, कि राष्टï्रीय स्वास्थ्य नीति के मसौदे में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता मिलनी जाहिए, नीति आयोग द्वारा बुरी तरह से झिडक़ दिया जाता है। स्वास्थ्य मंत्रालय को भेजी अपनी चि_ïी में (जिसके कुछ अंश अब से एक-दो हफ्ते पहले प्रैस के हाथ लग गए थे) नीति आयोग ने लिखा था: ‘यह भले ही किसी को नैतिक रूप से गर्हित ही क्यों न लगे, दो-तल्ला स्वास्थ्य रक्षा की इस व्यवस्था को--एक उनके लिए जिनके पास साधन हैं तथा जिनकी आवाज सुनी जाती है और दूसरी उनके लिए जो बेआवाज तथा निरुपाय हैं, अल्पावधि में तथा यहां तक कि मध्यम अवधि में भी बने रहना होगा क्योंकि मरीजों के बोझ के बड़े हिस्से को निजी से हटाकर सार्वजनिक क्षेत्र पर डालना साज-सामान के लिहाज से नामुमकिन होगा।’’ नीति आयोग ने इसके अलावा स्वास्थ्य पर सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी की सिफारिश करने की नीति की भी यह कहते हुए आलोचना की है कि, ‘‘हमें इसका आकलन करना पड़ेगा कि कहीं निवेश में भारी बढ़ोतरी करना, बढ़ोतरी के घटते लाभ के नियम का शिकार तो नहीं हो जाएगा और इससे राज्य स्वास्थ्य प्रणालियों की बढ़ोतरी खपाने की सामथ्र्य के लिए जो चुनौती पैदा होगी, वह अलग।
जब इस तरह के बांसुरी बजाने वाले नीति गढऩे का जिम्मा संभाले हुए हैं, अगर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत खस्ता है तो इसमें अचरज की क्या बात है? बेशक, एकाध महीने में दिल्ली की कड़ाके की सर्दी, डेंगू की महामारी पर खुद ही रोक लगा देगी। लेकिन, मौजूूदा शासक वर्ग में ममता का लेशमात्र भी न होना, देश भर में हजारों बच्चों के लाचार माता-पिता को तो फिर भी सालता ही रहेगा। अविनाश के साथ जो हुआ, पूंजीवाद की संवेदनहीन तथा अमानवीय प्रकृति की ही याद दिलाता है।
कहते हैं जब रोम जल रहा था, नीरो बांसुरी बजा रहा था। आज भी ऐसे बेमौके की बांसुरी बजाने वालों की भरमार है, जो सार्वजनिक स्वावस्थ्य व्यवस्था की विफलता पर खुश होते हैं और उस दिन के इंतजार में हैं जब आखिरकार इसके दम ही तोड़ देेने का एलान कर दिया जाएगा। इसीलिए तो, स्वास्थ्य मंत्रालय की इसका हल्का सा इशारा करने की कोशिश पर भी, कि राष्टï्रीय स्वास्थ्य नीति के मसौदे में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को प्राथमिकता मिलनी जाहिए, नीति आयोग द्वारा बुरी तरह से झिडक़ दिया जाता है। स्वास्थ्य मंत्रालय को भेजी अपनी चि_ïी में (जिसके कुछ अंश अब से एक-दो हफ्ते पहले प्रैस के हाथ लग गए थे) नीति आयोग ने लिखा था: ‘यह भले ही किसी को नैतिक रूप से गर्हित ही क्यों न लगे, दो-तल्ला स्वास्थ्य रक्षा की इस व्यवस्था को--एक उनके लिए जिनके पास साधन हैं तथा जिनकी आवाज सुनी जाती है और दूसरी उनके लिए जो बेआवाज तथा निरुपाय हैं, अल्पावधि में तथा यहां तक कि मध्यम अवधि में भी बने रहना होगा क्योंकि मरीजों के बोझ के बड़े हिस्से को निजी से हटाकर सार्वजनिक क्षेत्र पर डालना साज-सामान के लिहाज से नामुमकिन होगा।’’ नीति आयोग ने इसके अलावा स्वास्थ्य पर सार्वजनिक निवेश में बढ़ोतरी की सिफारिश करने की नीति की भी यह कहते हुए आलोचना की है कि, ‘‘हमें इसका आकलन करना पड़ेगा कि कहीं निवेश में भारी बढ़ोतरी करना, बढ़ोतरी के घटते लाभ के नियम का शिकार तो नहीं हो जाएगा और इससे राज्य स्वास्थ्य प्रणालियों की बढ़ोतरी खपाने की सामथ्र्य के लिए जो चुनौती पैदा होगी, वह अलग।
जब इस तरह के बांसुरी बजाने वाले नीति गढऩे का जिम्मा संभाले हुए हैं, अगर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की हालत खस्ता है तो इसमें अचरज की क्या बात है? बेशक, एकाध महीने में दिल्ली की कड़ाके की सर्दी, डेंगू की महामारी पर खुद ही रोक लगा देगी। लेकिन, मौजूूदा शासक वर्ग में ममता का लेशमात्र भी न होना, देश भर में हजारों बच्चों के लाचार माता-पिता को तो फिर भी सालता ही रहेगा। अविनाश के साथ जो हुआ, पूंजीवाद की संवेदनहीन तथा अमानवीय प्रकृति की ही याद दिलाता है।
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