अविनाश को बचाया जा सकता था
सात वर्षीय अविनाश के मां-बाप ने दिल्ली के कुछ सबसे चमक-दमक वाले ओैर महंगे अस्पतालों में अपने बच्चे को भर्ती कराने की हताश कोशिशों में अपनी जिंदगी के कुछ सबसे मुश्किल घंटे गुजारे थे। अगर एक के बाद एक अस्पताल ने बैड खाली न होने के नाम पर उसे भर्र्ती करने से मना नहीं कर दिया होता, तो अविनाश जिंदा होता और शायद बिस्तर पर बैठा खाना मांग रहा होता। इन अस्पतालों में से किसी ने भी इसकी जांच-पडताल करने के जरूरत ही नहीं समझे कि उसके रोग लक्षण कितने गंभीर हो चुके थे। वास्तव में अविनाश के मां-बाप तो दिल्ली के उन अपेक्षाकृत खुशनसीब लोगों में आते थे, जो कुछ मुश्किलें उठाकर ही सही, इस तरह के पांच सितारा अस्पतालों में वसूल की जाने वाली फीस दे सकते हैं, हालांकि अविनाश के मामले में इन अस्पतालों ने इसका मौका ही नहीं दिया। सचाई यह है कि हर रोज दिल्ली में कितने ही अस्पतालों से, तकलीफ से हांफते हुए मरीजों को सिर्फ इसलिए लौटा दिया जाता है कि वे अस्पतालों की फीस नहीं भर सकते हैं। निजी अस्पतालों में, आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोगों को सुरक्षित बैड, जान-बूझकर खाली रखे जाते हैं। आज देश में जिस तरह की अमानवीय स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली का निर्माण किय जा रहा है, वह मुनाफे से चलती है न कि इंसानी जिंदगियां बचाने में अपनी कामयाबी से।
यह विडंबनापूर्ण है कि अविनाश के मां-बाप दिल्ली के दो सबसे बड़े सरकारी अस्पतालों--सफदरजंग तथा ए आइ आइ एम एस--से चंद किलोमीटर की ही दूरी पर रहते थे। लेकिन, उनके ख्याल में भी नहीं आया कि अपने बच्चे को इनमें से किसी अस्पताल में ले जाते। लेकिन, इसके लिए अविनाश के मां-बाप को दोष नहीं दिया जा सकता है। वे तो उसी धारणा से संचालित थे, जो एक के बाद एक आयी सरकारों द्वारा बराबर फैलायी तथा पनपायी जाती रही है। हर रोज हमें तरह-तरह से यही सिखाया जाता है कि सार्वजनिक सेवा का मतलब ही है, घटिया सेवा। इतना ही नहीं, हर गुजरने वाले दिन के साथ सार्वजनिक सेवाओं को संसाधनों से ज्यादा से ज्यादा वंचित किया जाए जा रहा है और ऐसी स्थितियां पैदा की जा रही हैं कि उन पर से जनता का भरोसा पूरी तरह से ही उठ जाए। याद रहे कि अविनाश की मौत के चंद रोज बाद, छ: वर्षीय अमन की मौत से पहले, उसके माता-पिता ने पांच-पांच निजी अस्पतालों के अलावा सरकारी अस्पताल सफदरजंग का भी दरवाजा खटखटाया बताते हैं, लेकिन उनके बच्चे का इलाज नहीं हुआ और अंतत उसने भी अविनाश की तरह दम तोड़ दिया।
अगर एक संवेनशील सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था मौजूद होती तो हम इसकी कल्पना कर सकते हैं कि दोनों बच्चों को नजदीकी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा में जाया गया होता, वहां उनकी दशा पर नजर रखी गयी होती और अगर जरूरत पड़ती तो उन्हें तमाम जरूरी सुविधाओं से संपन्न सार्वजनिक अस्पताल में उपचार मिला होता। अंत में एक हंसता-खिलखिलाता बच्चा, अपने मां-बाप के हाथ थामे अस्पताल से घर लौटता। ज्यादातर सभ्य समाजों में यह दृश्य आम है। लेकिन, भारत में तो हमें ज्यादातर कुछ और ही तस्वीर देखने को मिलती है। यह तस्वीर है ऐसी निष्ठïुर व्यवस्था की, जिसकी मुनाफे की हवस और जनता के कल्याण की निर्मम उदासीनता, पूरे के पूरे परिवारों के लिए जानलेवा साबित होती है।
सात वर्षीय अविनाश के मां-बाप ने दिल्ली के कुछ सबसे चमक-दमक वाले ओैर महंगे अस्पतालों में अपने बच्चे को भर्ती कराने की हताश कोशिशों में अपनी जिंदगी के कुछ सबसे मुश्किल घंटे गुजारे थे। अगर एक के बाद एक अस्पताल ने बैड खाली न होने के नाम पर उसे भर्र्ती करने से मना नहीं कर दिया होता, तो अविनाश जिंदा होता और शायद बिस्तर पर बैठा खाना मांग रहा होता। इन अस्पतालों में से किसी ने भी इसकी जांच-पडताल करने के जरूरत ही नहीं समझे कि उसके रोग लक्षण कितने गंभीर हो चुके थे। वास्तव में अविनाश के मां-बाप तो दिल्ली के उन अपेक्षाकृत खुशनसीब लोगों में आते थे, जो कुछ मुश्किलें उठाकर ही सही, इस तरह के पांच सितारा अस्पतालों में वसूल की जाने वाली फीस दे सकते हैं, हालांकि अविनाश के मामले में इन अस्पतालों ने इसका मौका ही नहीं दिया। सचाई यह है कि हर रोज दिल्ली में कितने ही अस्पतालों से, तकलीफ से हांफते हुए मरीजों को सिर्फ इसलिए लौटा दिया जाता है कि वे अस्पतालों की फीस नहीं भर सकते हैं। निजी अस्पतालों में, आर्थिक रूप से कमजोर तबके के लोगों को सुरक्षित बैड, जान-बूझकर खाली रखे जाते हैं। आज देश में जिस तरह की अमानवीय स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली का निर्माण किय जा रहा है, वह मुनाफे से चलती है न कि इंसानी जिंदगियां बचाने में अपनी कामयाबी से।
यह विडंबनापूर्ण है कि अविनाश के मां-बाप दिल्ली के दो सबसे बड़े सरकारी अस्पतालों--सफदरजंग तथा ए आइ आइ एम एस--से चंद किलोमीटर की ही दूरी पर रहते थे। लेकिन, उनके ख्याल में भी नहीं आया कि अपने बच्चे को इनमें से किसी अस्पताल में ले जाते। लेकिन, इसके लिए अविनाश के मां-बाप को दोष नहीं दिया जा सकता है। वे तो उसी धारणा से संचालित थे, जो एक के बाद एक आयी सरकारों द्वारा बराबर फैलायी तथा पनपायी जाती रही है। हर रोज हमें तरह-तरह से यही सिखाया जाता है कि सार्वजनिक सेवा का मतलब ही है, घटिया सेवा। इतना ही नहीं, हर गुजरने वाले दिन के साथ सार्वजनिक सेवाओं को संसाधनों से ज्यादा से ज्यादा वंचित किया जाए जा रहा है और ऐसी स्थितियां पैदा की जा रही हैं कि उन पर से जनता का भरोसा पूरी तरह से ही उठ जाए। याद रहे कि अविनाश की मौत के चंद रोज बाद, छ: वर्षीय अमन की मौत से पहले, उसके माता-पिता ने पांच-पांच निजी अस्पतालों के अलावा सरकारी अस्पताल सफदरजंग का भी दरवाजा खटखटाया बताते हैं, लेकिन उनके बच्चे का इलाज नहीं हुआ और अंतत उसने भी अविनाश की तरह दम तोड़ दिया।
अगर एक संवेनशील सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था मौजूद होती तो हम इसकी कल्पना कर सकते हैं कि दोनों बच्चों को नजदीकी सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधा में जाया गया होता, वहां उनकी दशा पर नजर रखी गयी होती और अगर जरूरत पड़ती तो उन्हें तमाम जरूरी सुविधाओं से संपन्न सार्वजनिक अस्पताल में उपचार मिला होता। अंत में एक हंसता-खिलखिलाता बच्चा, अपने मां-बाप के हाथ थामे अस्पताल से घर लौटता। ज्यादातर सभ्य समाजों में यह दृश्य आम है। लेकिन, भारत में तो हमें ज्यादातर कुछ और ही तस्वीर देखने को मिलती है। यह तस्वीर है ऐसी निष्ठïुर व्यवस्था की, जिसकी मुनाफे की हवस और जनता के कल्याण की निर्मम उदासीनता, पूरे के पूरे परिवारों के लिए जानलेवा साबित होती है।
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