Wednesday, 11 April 2018

डेंगू और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था

डेंगू और सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था
 
          डेंगू के लक्षणों का हमने पीछे जो विवरण दिया है, उससे डेंगू की महामारी के लिए आवश्यक सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की ओर से जरूरी प्रत्युत्तर भी परिभाषित हो जाते हैं। जैसाकि हम पहले ही कह आए हैं डेंगू के संक्रमण के ज्यादातर रोगियों के मामले में, पैरासिटामॉल के अलावा किसी खास उपचार की जरूरत ही नहीं होती है और घर पर ही उनकी देखभाल की जा सकती है। समस्या यह है कि इसका अनुमान लगाने का कोई शर्तिया उपाय नहीं है कि कहीं संबंधित रोगी में, अंतरिक रक्तस्राव तथा रक्त-प्रवाह प्रणाली के बैठने जैसे गंभीर लक्षण तो प्रकट नहीं होने जा रहे हैं। चूंकि डेंगू की शर्तिया पहचान मुश्किल है और डेंगू जैसे लक्षण चिकुनगुनिया, मलेरिया आदि दूसरे कई रोगों के मामले में भी दिखाई देते हैं, जब डेंगू की महामारी फैली हुई हो, यह जरूरी हो जाता है कि ऐसे सभी बीमारों को जिन्हें बुखार हो, संभावित रूप से डेंगू का मरीज मानकर उनके मामले में सावधानी से निगरानी की जानी चाहिए। अगर डेंगू रोग के लक्षण खास गंभीर नहीं हैं, डेंगू के टैस्ट करने से कोई खास फायदा नहीं होगा क्योंकि रोग के शुरूआती तौर पर रोगियों के मामले में भी टैस्ट का नतीजा नकारात्मक आ सकता है। दूसरी ओर रोग के  अन्य उग्र लक्षणों के साथ, प्लेटलेट काउंट टैस्ट को, जो सरल है तथा बहुत ज्यादा महंगा भी नहीं है, बीमारी के गंभीर रूप की पहचान के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। इस तरह, यह पूरी तरह से संभव है कि डेंगू के रोगियों को घर पर रखकर ही उनकी तबीयत पर नजर रखी जाए, बुखार तथा बदन दर्द के लिए पेरासिटामॉल देकर उनका उपचार किया जाए और उसी स्थिति में भर्ती कराया जाए जब रोग के गंभीर लक्षण दिखाई दें और/ या प्लेटलेट का स्तर तेजी से गिर रहा हो।
          डेंगू की महामारी का ऐसा सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रत्युत्तर, अनेक ऐसी व्यवस्थाओं की मांग करता है, जिनमें से कोई भी किसी समुदाय में बाकायदा महामारी के फूट पडऩे के बाद स्थापित नहीं की जा सकती है। इस तरह के प्रत्यत्तर के लिए सबसे पहले तो एक उम्दा, भरोसेमंद तथा सस्ती प्राथमिक स्वास्थ्य सुविधा की ही जरूरत होगी। इसका अर्थ है चिकित्सकीय देख-रेख की ऐसी व्यवस्था, जो कार्यस्थलों में तथा रिहाइश की जगहों पर लोगों को आसानी से उपलब्ध हो। ऐसी व्यवस्था का आधार होगी एक प्रभावी सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था, जो आबादी के बीच अच्छी तरह से फैली हुई डिस्पेंसरियों व बुनियादी लैबोरेटरी सुविधाओं से संपन्न स्वास्थ्य केंद्रों के ताने-बाने पर टिकी होगी। दूर-दूर तक भी ऐसी व्यवस्था से मेल खाती हुई कोई व्यवस्था न तो दिल्ली में है और न ही देश के दूसरे किसी भी हिस्से में है। यहां तक निजी क्षेत्र में भी सामान्य चिकित्सक करीब-करीब खत्म ही होते जा रहे हैं और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में बड़ी तेजी से उनकी जगह कार्पोरेट अस्पताल तथा उनके फ्रेंचाइजी लेते जा रहे हैं। जहां तक कार्पोरेट अस्पताल शृंखलाओं का सवाल है, उनकी मरीजों को बिना भर्ती किए इलाज मुहैया कराने में कोई रुचि नहीं होती है क्योंकि उनके असली मुनाफे तो अस्पताल के बैड की तगड़ी फीस, महंगी तथा अक्सर अनावश्यक जांचों और तरह-तरह के विशेषज्ञों की हर रोज की फीस से आते हैं। इन शृंखलाओं की अस्पताल से बाहर के रोगियों के उपचार की सुविधाएं भी इसी हिसाब से काम करती हैं कि रोगी को फंसाया जाए और उसे अस्पताल में भर्ती करना चाहे जरूरी हो या नहीं हो, अस्पताल में भर्ती किया जाए।
          इस तरह, हमारा सामना ऐसी स्थिति से है जहां यह सुनिश्चित करने का कोई विश्वसनीय तरीका ही नहीं है कि बुखार के पीडि़तों की हालत पर भरोसेमंद तरीके से नजर रखी जाएगी। इन स्थितियों में मरीजों के लिए इसके सिवा और कोई उपाय ही नहीं रह जाता है कि इस डर से उनका बुखार कहीं जानलेवा न हो जाए, अस्पताल में भर्ती हो जाएं। 1 करोड़ 70 लाख की आबादी वाले दिल्ली शहर में, डेेंगू के कुछ हजार पहचानशुदा मामले कभी भी दहशत का कारण नहीं बने होते, बशर्ते चिकित्सा सेवाएं ही पूरी तरह से बैठ नहीं गयी होतीं। और चिकित्सा सेवाएं कोई इसलिए नहीं बैठ गयी हैं कि डेंगू की महामारी फूट पड़ी है बल्कि चिकित्सा सेवाएं तो पहले से ही बैठी हुई थीं और जब भी कोई मामूली सी भी स्वास्थ्य संबंधी चुनौती सामने आती है, मिसाल के तौर पर अब से कुछ ही महीने पहले फ्लू की महामारी फूटी थी और अब डेंगू की महामारी फूटी है, चिकित्सा सेवाओं के इस तरह बैठ चुके होने की सचाई बलपूर्वक सामने आ जाती है। आज स्थिति यह है कि दिल्ली के सार्वजनिक तथा निजी, सभी अस्पताल, डेंगू के ऐसे मरीजों से ठसाठस भर गए हैं, जो अस्पताल में भर्ती ही नहीं हुए होते, बशर्ते बुनियादी स्वास्थ्य रक्षा सुविधाएं उपलब्ध होतीं और उनकी पहुंच में होतीं।
          यह भी याद रखना चाहिए कि दिल्ली में डेंगू फूटने का अनुमान लगाने के लिए, किसी बहुत भारी विशेषज्ञता की भी जरूरत नहीं थी। जैसाकि हमने पहले ही कहा, दिल्ली में डेंगू की तीव्रता में हर तीन से पांच साल में एक बार तेजी आती है और पिछली बार ऐसी बड़ी तेजी, पांच साल पहले आयी थी। इसके बावजूद, इस बार जब यह महामारी फूटी, दिल्ली की पूरी स्वास्थ्य व्यवस्था इसके लिए जरा सी भी तैयार नहीं थी। काफी समय बर्बाद हो जाने के बाद, अब कहीं जाकर इसकी पहचान की कोशिशें हो रही हैं कि इस बार इस रोग के फैलने के पीछे वाइरस की कौन सी किस्म है और कुछ रिपोर्टें बताती हैं कि इस बार, कहीं ज्यादा नुकसानदेह टाइप-2 तथा टाइप-4 का विस्फोट हुआ है।
 

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