Saturday, 12 June 2021

ग़रीबों के स्वास्थ्य देखभाल की हालत दयनीय

 

ग़रीबों के स्वास्थ्य देखभाल की हालत दयनीय, इससे असमानता बढ़ती है: संसदीय समिति

BY भाषा ON 07/01/2018 •

 

संसद की एक समिति ने कहा, केंद्र सरकार को यह बहाना बनाना बंद कर देना चाहिए कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है और मिशन मोड में काम करना चाहिए.

नई दिल्ली: देश में नई राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति और सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा मिशन मोड में काम करने की जरूरत बताते हुए संसद की एक समिति ने कहा है कि केंद्र सरकार को बार बार यह बहाना बनाना बंद कर देना चाहिए कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है.

 

देश में चिकित्सा शिक्षा एवं स्वास्थ्य परिचर्या पर प्राक्कलन समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण के 71वें दौर के मुताबिक देश में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में बीमारियों के लगभग 70 प्रतिशत से अधिक मामलों में उपचार के स्रोत के रूप में निजी चिकित्सक और निजी क्षेत्र सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारक बनकर उभरा है.

 

शुक्रवार को समाप्त हुए संसद के शीतकालीन सत्र में लोकसभा में प्रस्तुत स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय से संबंधित इस रिपोर्ट में कहा गया है कि इसके चलते ब्रिक्स अर्थव्यवस्थाओं में भारत एक ऐसा देश बनकर उभरा है जहां स्वास्थ्य देखभाल पर प्रति व्यक्ति अपनी जेब से किया जाने वाला खर्च सबसे ज्यादा है जिससे यह स्पष्ट होता है कि देश में गरीबों की स्वास्थ्य देखभाल संबंधी कितनी दयनीय है क्योंकि स्वास्थ्य पर अपनी जेब से किया जाने वाला खर्च समाज के गरीब तबके को और अधिक निर्धन बना देता है और इससे सामाजिक असमानता बढ़ती है.

 

भाजपा के वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी की अध्यक्षता वाली समिति ने कहा कि स्वास्थ्य के सतत विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के अनुसार सरकार को सुनिश्चित करना है कि वर्ष 2030 तक स्वास्थ्य देखभाल संबंधी सुविधाएं सभी को सुलभ हों जिससे कि सभी आयुवर्गों के लोगों का जीवन बेहतर हो सके.

 

समिति की रिपोर्ट में कहा गया, विभिन्न राज्यों के साथ विचार विमर्श करते हुए स्वास्थ्य देखभाल के लिए आवश्यक, आधारभूत संरचना की स्थापना के लिए सही ढंग से योजना बनाने की अत्यंत आवश्यकता है ताकि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति और सतत विकास लक्ष्यों के तहत निर्धारित लक्ष्यों को हासिल किया जा सके.

 

समिति ने कहा, नीति क्रियान्वयन के विभिन्न स्तरों पर सशक्त निगरानी प्रणाली की स्थापना के लिए शीघ्र कार्रवाई भी करने की जरूरत है. अत: केंद्र सरकार स्वास्थ्य मंत्रालय को मिशन मोड में काम करना चाहिए और यह बहाना नहीं बनाना चाहिए जो वे बार बार बनाते हैं कि स्वास्थ्य राज्य का विषय है.

 

साथ ही उसने यह भी कहा कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के तहत निर्धारित लक्ष्यों की सही ढंग से तय समयसीमा में प्राप्ति के लिए सभी राज्य सरकारों को उपयुक्त कार्यक्रम बनाने के लिए बाध्य किया जाना चाहिए तथा वित्तीय मामले में कमजोर राज्यों को आवश्यक सुविधाओं के निर्माण के लिए अतिरिक्त धनराशि प्रदान की जानी चाहिए.

Friday, 11 June 2021

जनहित में नहीं है मैडिकल कमीशन कानून 2019

 जनहित में नहीं है मैडिकल कमीशन कानून 2019

डा0 रणबीर सिंह दहिया


वर्तमान केन्द्र सरकार द्वारा हाल में चल रहे संसद के सत्र के दौरान मेडीकल एन.एम.सी. विधेयक पारित हो

गया। जिसका मुख्य उद्देश्य ‘‘भ्रष्टाचार का खात्मा और नियमनकारी मुद्दों से जुड़े कामों को और चिकित्सकीय

नैतिकता बनाए रखने के कामों को, एक-दूसरे से अलग करना‘‘ बताया जा रहा है। लेकिन सच्चाई तो ये है कि

मैडिकल कॉउसिल ऑफ इण्डिया(एम.सी.आई.) में भ्रष्टाचार का प्रमुख स्रोत 1990 के बाद से भारत में लागू

की जा रही मैडिकल शिक्षा के तेजी से निजीकरण की नीतियों के साथ जुड़ा हुआ है। वर्तमान में केन्द्र सरकार

द्वारा पारित किये गये इस कानून के प्रावधान तो वास्तव में भ्रष्टाचार, केन्द्रीयकरण और निजीकरण को और ज्यादा

प्रोत्साहन देने वाले ही हैं। 1980 में देशभर में 100 सरकारी तथा कुल 12 निजी मैडिकल कॉलेज थे, जिनमें क्रमशः

 16570 तथा 1770 अंडर ग्रेजुएट सीटें थीं। 2016 तक आते-आते यह अनुपात लगभग पूरी तरह से उलट चुका था,

 जहां 205 सरकारी मैडिकल कॉलेजों में 27490 सीटें थी, वहीं 221 निजी मैडिकल कॉलेजों में 24480 अंडर ग्रैजुएट

 सीटें थी। मैडिकल शिक्षा पर सरकारी खर्च में भारी बढ़ोतरी किए जाने की सिफारिश करने की बजाय एन.एम.सी.

 विधेयक नियमनकारी कदमों में ही ढील देने का प्रस्ताव करता है जो यह सुनिश्चित करते हैं कि मैडीकल कालेज

 इन अधिसूचित मानकों का पालन करें। इसमें मुख्यतः लाभ मिलेगा निजी मैडीकल कालेजों को, जिनमें से अनेक

 का तो भ्रष्ट तौर तरीके अपनाने का पुराना इतिहास रहा है। नेशनल मैडिकल कमिशन विधेयक 2017, जिसका

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने पिछले ही दिनों अनुमोदन कर दिया था और अब यह राज्य सभा के एक दो सुझावों के साथ

लोक सभा ने पास कर दिया है।यह बिल 1956 के इंडियन मैडिकल काउंसिल कानून की जगह लेने के लिए बनाया

है। भ्रष्टाचार की रिपोर्टों के चलते यह बिल इंडियन मैडिकल काउंसिल को लेकर पिछले एक दशक के दौरान

सामने आए अनेक घोटालों की पृष्ठभूमि में तैयार किया गया है। इन घोटालों में 2010 में सीबीआई द्वारा मैडिकल

कॉउसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ केतन देसाई की एक निजी मैडिकल कॉलेजों के

अनुमोदन के मामले में रिश्वतखोरी के गंभीर आरोपों में गिरफ्तारी भी शामिल थी। इसी पृष्ठभूमि में, स्वास्थ्य व

परिवार कल्याण से संबंधित स्थायी समिति की एक रिपोर्ट  में (रिपोर्ट सं-82, जो 8 मार्च 2016 को राज्यसभा में पेश

की गई थी) यह सिफारिश की गई थी कि चिकित्सकीय नैतिकता तथा मैडिकल शिक्षा के नियमन (जो एमसीआई

के जुड़वा काम हैं) की व्यवस्था में आमूल-चूल बदलाव किया जाए। रिपोर्ट में यह दर्ज किया गया था कि कमेटी

एमसीआई के अध्यक्ष के यह कबूल करने पर गौर करती है कि जहां तक मैडिकल कालेजों का अनुमोदन करने या

मैडिकल सीटें बढ़ाने या घटाने का सवाल है, उनमें भ्रष्टाचार है। पुनः यह रिपोर्ट कहती है कि ‘‘ऐसा लगता है

एमसीआई, जनहित में अपनी इमानदारी से संचालित होने के बजाय, निजी वाणिज्यिक हितों की बंधक हो गयी है।‘‘

एमसीआई के बहुत ही कलंकित अतीत को देखते हुए वर्तमान स्थिति में इस संस्था का कोई बचाव नहीं कर

सकता है। यह कहना गलत नहीं होगा कि यह देश की सबसे बड़ी भ्रष्ट नियमनकारी संस्थाओं में से एक है।

पिछले अनेक वर्षों में एमसीआई भ्रष्टाचार का अड्डा बन गई है और इस पर निजी डॉक्टरी करने वालों की एक छोटी

सी लॉबी का कब्जा हो गया है। आला दर्जे के प्रोफेसनलों को अपनी और खींच पाने के बजाय, एमसीआई का

संचालन एक छोटे से गुट के हाथ में चला गया, जो इस भरोसे के आधार पर काम करता आया है कि राजनीतिज्ञ

तथा नौकरशाह उसे बचा लेंगे। दावा किया जा रहा है कि 2017 के एनएमसी विधेयक के कुछ प्रमुख प्रावधान 1956

 के इंडियन मैडिकल काउंसिल कानून में ही निहित खामियों को दूर करते हैं। इसमें यह प्रस्ताव किया गया है कि

 एमसीआई के जो जुड़वां भाग काम रहे हैं- जिनमें एक, मैडिकल शिक्षा का नियमन तथा दूसरा, मैडिकल नैतिकता

 का नियमन, उन्हें एक दूसरे से अलग कर दिया जाए। विधेयक यह प्रस्ताव करता है कि नेशनल मैडिकल 

 कमिशन के नाम से एक शीर्ष संस्था का गठन किया जाए, जो चार अलग-अलग बोर्डों के कामकाज पर निगरानी

 रखेगी। ये बोर्ड़ क्रमशः अंडर ग्रैजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट मैडिकल शिक्षा (अंडर ग्रैजुएट व पोस्ट ग्रेजुएट मैडिकल

 शिक्षा बोर्ड), मैडीकल संस्थाओं की रेटिंग (मैडिकल असैसमेंट एंड रेटिंग बोर्ड), मैडिकल प्रैक्टिस करने वालों के

 रजिस्ट्रेशन तथा मैडीकल नैतिकता के परिपालन (बोर्ड फॉर मेडिकल रजिस्ट्रेशन) देखेंगे। यह एक तरह से तार्किक

 प्रस्ताव लगता है, क्योंकि भ्रष्टाचार का मुख्य स्रोत मैडिकल कालेजों को चलाने के लिए आवश्यक अनुमतियां देने

 तथा उनका नवीनीकरण की प्रक्रिया में और मैडिकल नैतिकता का पालन कराने वाली संस्था के रूप में एमसीआई

 की विकृत भूमिका में ही निहित रहा है।

विधेयक के विवादित प्रस्ताव

बहरहाल विधेयक के कुछ अन्य प्रावधान कहीं ज्यादा समस्यापूर्ण हैं। एमसीआई के सुधार इस तरह से किए जा

सकते थे कि मैडिकल नैतिकता तथा शिक्षा के नियमन की इस शीर्ष संस्था का प्रभावी तरीके से जनतांत्रीकरण होता

और इसमें मैडिकल प्रोफेशनलों, अकादमिकों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए जगह बनाई जाती।

इसके बजाय, एनएमसी विधेयक, 2017 में पेश किया गया नुस्खा यही है कि ऐसा ढांचा खड़ा किया जाए, जो

 सरकार द्वारा नामजद पदेन सदस्यों से ही भरा होगा और 25 सदस्यीय शीर्ष कमीशन के ज्यादातर सदस्य मनोनीत

किये जायेंगे। कुछ ही शायद मैडिकल पेशे के सदस्यों के द्वारा चुने जाएंगे। यह, एमसीआई का जिस तरह से गठन

हुआ था, उससे एक बड़ा विचलन है। अपने इस रूप में एमसीआई में तमाम रजिस्टरसुदा मैडिकल डाक्टरों के

लिए कम से कम सिद्धांत के तौर पर इसका मौका था कि एमसीआई के अधिकांश सदस्यों को चुन सकें। बेशक,

 यह सही है कि चुनाव की प्रक्रिया पर एक छोटी सी लॉबी ने कब्जा कर लिया था, जिसके खिलाफ भ्रष्टाचार तथा

 भाईभतीजावाद के आरोप थे। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि नेशनल मैडिकल कमीशन, जो मुख्य रूप से तरह-तरह

 से सरकार द्वारा तथा स्वास्थ्य नौकरशाही द्वारा नामजद सदस्यों से ही बना होगा, कैसे भ्रष्ट प्रभावों से मुक्त बना

रहेगा? अगर किसी जनतांत्रिक प्रतिनिधित्व पर आधारित व्यवस्था को इस तरह तोड़ा-मरोड़ा जा सकता है कि वह

निहित स्वार्थ पूरे करने लगे, तो इसकी क्या गारंटी है कि मुख्यतः नामजद सदस्यों से बना कोई निकाय, भ्रष्ट करने

वाले प्रभावों से मुक्त रहेगा ? इसके अलावा केंद्रीयकरण भी हद दर्जे का होगा। एमसीआई का गठन इंग्लैंड की

 जनरल मैडिकल काउंसिल (जीएमसी) के नमूने पर किया गया था। जीएमसी में सरकार द्वारा नियुक्त सदस्य भी

 होते हैं, लेकिन उसके सदस्यों में बहुसंख्या इंग्लैंड के रजिस्टर्ड मैडिकल चिकित्सकों द्वारा निर्वाचित सदस्यों की ही

 होती है। इसी प्रकार के निकाय ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, सिंगापुर, दक्षिण अफ्रीका आदि में भी हैं। इन निकायों का

कामकाज बताता है कि एक मुख्य रूप से निर्वाचित परिषद, का भ्रष्टाचारी प्रभावों का शिकार होना कोई जरूरी

 नहीं है। इसके बावजूद अगर सरकार ने प्रस्तावित नई काउंसिल को अपने ही नियुक्त किए गए लोगों से भरने

का फैसला लिया है, तो यह इसी बात का सबूत है कि सरकार नई काउंसिल पर अपना पूर्ण नियंत्रण रखना

चाहती है। इसके दुष्परिणाम हो सकते हैं और यह मैडिकल प्रोफेशन से संबंधित नियमनकारी ढांचों पर

जनतांत्रिक नियंत्रण स्थापित करने में तो कोई मदद नहीं करने जा रहा है। मौजूदा सरकार के इसके रुझान को

देखते हुए कि निर्णय प्रक्रियाओं का केंद्रीयकरण किया जाए और सार्वजनिक संस्थाओं को सत्ताधारी पार्टी का

पुछल्ला बनाकर, उन पर कब्जा कर लिया जाए। इसलिए केंद्रीय महत्व के इस नेशनल मैडिकल कमिशन विधेयक

के हर पहलू की गंभीरता से छानबीन किए जाने की जरूरत है।

निजीकरण को बढ़ावा देने का खेल

इस विधेयक के प्रस्ताव तो निजीकरण को ओर प्रोत्साहन देने वाले ही हैं। नया विधेयक कहता है कि पहले से

 रजिस्टरशुदा मैडिकल कॉलेजों को अंडर ग्रेजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट शिक्षा की सीटें बढ़ाने के लिए

पूर्वानुमति हासिल करने की जरूरत ही नहीं होगी। इस विधेयक में निजी मेडिकल कॉलेजों के संबंध में जो प्रस्ताव

किए गए हैं, उन्हें उन कदमों के साथ जोड़कर देखा जाना चाहिए, जो मैडिकल शिक्षा के क्षेत्र में मुनाफे के लिए

 काम करने वाले संगठनों का प्रवेश सुगम बनाने के लिए हैं, जिनमें कॅरपोरेट संगठन भी शामिल हैं। मिसाल के तौर

पर 2012 में पहले की रीति-नीति से स्पष्ट रूप से हटते हुए कंपनी कानून के अंतर्गत रजिस्टरशुदा कंपनियों को

भी मैडिकल कॉलेज खोलने की इजाजत दे दी गई थी। फिर भी इसमें पीछे से एक शर्त जरूर लगा दी गई थी कि

ऐसे कालेज व्यापारीकरण (कॉमर्शियलाइजेशन) का सहारा नहीं ले सकते हैं। इसका अर्थ यह था कि मैडिकल

कालेजों को मुनाफा कमाने वाले पौधों में नहीं बदला जा सकता है। बहरहाल, 2016 में नीति आयोग के तत्वाधान में

गठित की गई एक कमेटी ने कहा था ‘‘इस समय सिर्फ मुनाफे के लिये नहीं, बल्कि संगठनों को ही मैडीकल

कालेज खोलने की इजाजत है... कमेटी सिफारिस करती है कि संबद्धताध्मान्यता की शर्त को, मैडिकल कॉलेज के

प्रमोटर की प्रकृति से अलग किया जाए। आगे चलकर स्वास्थ्य मंत्रालय ने इस प्रस्ताव पर काम करते हुए

मैडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया को लिखा था कि पात्रता के मानदंड की उपधारा (6) को हटाकर ,व्यापारीकरण

 के उल्लेख को निकाल दिया जाए। एनएमसी विधेयक, मैडिकल शिक्षा से कमाई को वैधता प्रदान करने के इस

कदम को और आगे ले जाता है और यह प्रस्ताव कहता है कि नेशनल मैडिकल कमिशन, निजी मैडिकल

 इंस्टीट्यूटों में तथा डीम्ड विश्वविद्यालयों में, जो इस कानून के प्रावधानों से प्रशासित होंगे, सीटों के ऐसे हिस्से के लिए

जो, 40 फीसद से ज्यादा नहीं होगा ,फीस तय करने के लिए दिशा निर्देश तय करेगा। दूसरे शब्दों में प्रावधान

इसके लिए कानूनी अनुमति दे देगा कि निजी मैडिकल कॉलेजों की 60 प्रतिशत सीटों पर अनाप-शनाप फीस

वसूल सकते हैं । साफ है कि एनएमसी विधेयक के पीछे मैडिकल शिक्षा की जो परिकल्पना है, उसमें इस पर

सार्वजनिक निवेश में उल्लेखनीय बढ़ोतरी की कोई बात नहीं है, उल्टे उसमें तो इसी का रास्ता साफ करने की बात

है कि मैडिकल शिक्षा को मुनाफा बटोरने के लिए एक आकर्षक उद्योग में बदला जाए।

इंडियन मैडिकल एसोसिएशन द्वारा विरोध

इंडियन मैडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने प्रस्तावित विधेयक के स्वीकार किए जाने का कई आधारों

पर विरोध किया है। उनकी कुछ आपत्तियाँ इस टिप्पणी में हमने प्रस्तावित एनएमसी के गठन की जनतांत्रिक

 प्रकृति को लेकर जो सवाल उठाए हैं, उनके अनुरूप हैं। लेकिन एमसीआई में चलते आये भ्रष्ट तौर-तरीकों पर

अपनी चुप्पी बल्कि उसके लिए परोक्ष अनुमोदन के चलते, आईएमए ने दुर्भाग्य से अपनी साख पर चोट पहुंचाई है।

उसने तो केतन देसाई को पदोन्नति देकर, वर्ल्ड मैडीकल एसोसिएशन का अध्यक्ष बनाये जाने का प्रस्ताव कर,

उसकी करतूतों का अनुमोदन तक कर डाला। आईएमए ने विधेयक के उस प्रस्ताव का भी विरोध

किया है जो आयुष के डॉक्टरों (आयुर्वेद यूनानी तथा में होम्योपैथी के स्नातकों ) को इसकी इजाजत दे देगा कि

एक सेतु पाठ्यक्रम पूरा करने के बाद वे आधुनिक एलोपैथिक उपचार कर सकते हैं। ऐसा लगता है कि यह

प्रस्ताव जल्दबाजी में जोड़ दिया गया है और इसके संभावित परिणामों पर पूरा विचार नहीं किया गया है। एक

बात तो यह है कि आयुष प्रणालियों की शिक्षा की हालत, आधुनिक मैडिकल शिक्षा से भी खराब है। पुनः आयुष

प्रणालियां खासतौर पर होम्योपैथी, ऐसे सिद्धान्तों पर आधारित हैं, जो आधुनिक चिकित्सा शास्त्र की पढ़ाई के

पीछे मौजूद सिद्धान्तों से बहुत ही भिन्न(और कई बार तो उनसे उल्टे ही) हैं। इसलिए, अगर आयुष के ग्रेजुएटों को

आधुनिक शिक्षा चिकित्सा शास्त्र की प्रैक्टिस करने का लाइसेंस देना हो, तो उन्हें बुनियादी तौर पर उस प्रणाली

के तमाम सिद्धांतों को ही भूलना होगा, जिसके लिए उन्हें प्रशिक्षित किया गया होगा। यह समझ पाना मुश्किल है कि

कोई सेतू पाठ्यक्रम यह कैसे सुनिश्चित कर सकता है ?

वास्तव में समस्या इसके आग्रह से ही ग्रस्त होने में है कि किसी भी कीमत पर ज्यादा संख्या में डॉक्टर पैदा किए

जाएं, फिर चाहे ऐसे डॉक्टरों की गुणवत्ता कैसी भी हो। अगर वैकल्पिक चिकित्सा प्रणालियों के ग्रजुएटों का

उपयुक्त तरीके से उपयोग करना है तो उनके पाठ्यक्रम पर और देश की स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली में उनके उपयोग के

मौकों पर, पूरी तरह से बहस होनी चाहिए और उन सब में आमूल-चुल बदलाव किया जाना चाहिए। यह अतार्किक

है कि किसी को चार-पांच साल में प्रशिक्षित किया जाए और उससे यह उम्मीद की जाए कि 6 महीने के प्रशिक्षण

में ही पूरी तरह से भिन्न चिकित्सा प्रणाली में माहिर हो जाएगा। वास्तव में जरूरत इस बात की है कि कहीं बड़ी

संख्या में नर्सों, दाइयों तथा हेल्थ वर्करों को तैनात किया जाए। इन स्वास्थ्य कर्मियों को स्वास्थ्य प्रणाली में ऐसे ही

काम पूरे करने के लिए प्रशिक्षित किया जाना चाहिए, जिनके बारे में हम गलती से यह मानते हैं कि यह काम

डॉक्टर द्वारा ही किए जा सकते हैं। सबसे बढ़कर यह है कि उन्हें समुचित भुगतान किया जाना चाहिए, न कि अब

तक की रीति चलनी चाहिए, जहां स्वास्थ्य कर्मियों के अनेक हिस्सों(मिसाल के तौर पर आशा कर्मियों को)

नाममात्र का ही भुगतान किया जाता है। 

केंद्रीयकरण और निजीकरण पर जोर-----

संक्षेप में यह है कि एनएमसी विधेयक, एमसीआई में भ्रष्टाचार की लंबे समय से चली आती आलोचना को

संबोधित करने के लिए तैयार किया गया है। इसमें कुछ उपयोगी व्यवस्थाएँ भी हैं, जैसे नियमनकारी मुद्दों से जुड़े

कामों को और चिकित्सकीय नैतिकता बनाए रखने के कामों को, एक-दूसरे से अलग करना। बहरहाल, यह

विधेयक ऐसी संस्था खड़ी करने की कोशिश करता है जो एक तरफ सरकार तथा नौकरशाही के हाथों में सत्ता का

केंद्रीकरण करेगी और दूसरी ओर मैडिकल शिक्षा के निजीकरण को बढ़ावा देने के लिए बड़ी भारी रियायतें

देगी। वास्तव में इस विधेयक के अनेक प्रस्ताव, ‘‘तुरंत समाधान‘‘ की प्रकृति के हैं जो व्यवस्थाओं में गहरे बदलाव

से कतराते हैं। अपने प्रस्तावित रूप में नेशनल मैडिकल कमिशन, भारत में स्वास्थ्य रक्षा तथा मैडिकल शिक्षा के

हित साधने नहीं जा रहा है। यह उम्मीद की जाती है कि विभिन्न संगठनों तथा संस्थाओं के पुरजोर प्रयासों से इस

बिल के प्रतिगामी प्रस्तावों को हटवाया जाए और जनपक्षीय पक्षों को शामिल करवाया जाए।

मच्छरों से होने वाली बीमारियां----


मच्छरों से होने वाली बीमारियां----

*मलेरिया

* डेंगू

* चिकनगुनिया

** मच्छरों से पैदा होने वाली बीमारियों को दूर करने के लिए व्यक्ति, समाज और सरकार को सबको मिलकर

 समन्वय के साथ कार्य करना पड़ता है।

* सरकार का काम स्वास्थ्य संबन्धी जानकारियां उपलब्ध करवाना ।

* नगर पालिका व पंचायत का काम साफ वातावरण उपलब्ध करवाना एवम मच्छरों के पैदा होने की जगह

अनचाहे पानी को इकट्ठा होने से रोकना

* पारिवारिक जिम्मेवारी घर के अंदर सफाई रखना एवं मच्छरों को पैदा होने से रोकना।

* व्यक्तिगत तौर पर स्वयं को कपड़ों तथा रहन-सहन के तरीके से मच्छरों से काटे जाने से खुद को रोकना।

मच्छर पैदा होने की जगहें व उनका समाधान----

मलेरिया, डेंगू, चिकनगुनिया

* पानी के बहाव में कोई रुकावट तो नहीं ।

* घर में कहीं पर भी बिना मतलब पानी इकट्ठा तो नहीं है।

* पानी के सभी बर्तन नियमित रूप से साफ होते हैं ।

* जमीन में कही खड्डे तो नहीं हैं जहां बरसात का पानी इकट्ठा हो।

* खासतौर पर रफ्रिजरेटर एवम ए. सी. में पानी इकट्ठा न होने दें ।

* एयर कूलर में पानी नियमित रूप से सप्ताह में दो बार पूरी तरह से साफ करके पानी बदलें।

व्यक्तिगत सावधानियां-----

* पूरी बाजू की कमीज व पायजामा या पैंट पहनें।

* सोते समय मच्छरदानी का प्रयोग करें

* एयकण्डेशनर भी मलेरिया, डेंगू व चिकनगुनिया के मच्छरों से सावधानी देता है।

* मच्छरों को दूर करने वाली क्रीम भी लाभकारी है । यह केवल शरीर के खुले भाग पर ही लगाएं।

* छोटे बच्चों पर मच्छरों को भगाने वाली क्रीम नहीं लगानी चाहिए।

* जख्मों पर भी मच्छर भगाने वाली क्रीम नहीं लगानी चाहिए ।

* बीमार होने की स्थिति में डॉक्टर को शीघ्र ही सम्पर्क करें ।

शिक्षा और स्वास्थ्य

 शिक्षा और स्वास्थ्य

प्रतिगामी ताकतां नै देखो किसा उधम मचाया रै।।

यो सारा सरकारी ढांचा प्राइवेट की भेंट चढ़ाया रै।।

1

शिक्षा स्वास्थ्य के सरकारी ढांचे पहले तो खराब करै

खराबी के दोष जान कै डॉक्टर टीचर पै ल्याण धरै

कितै ढांचे का टोटा होरया कितै कम स्टाफ दुखी फिरै

सच कहता हुया मानस यो सरकार तैं आज घणा डरै

बिठा दिया सरकारी ढांचा प्राइवेट का धर्राटा ठाया रै।।

यो सारा सरकारी ढांचा प्राइवेट की भेंट चढ़ाया रै।।

2

यो ढांचा पड़ेगा बचाना गरीब की जिब पार जावैगी

एक बात स्टाफ समझले जनता की मदद चाहवैगी

नहीं बचे स्कूल अस्पताल तो जनता खूबै धक्के खावैगी

महंगी शिक्षा और इलाज का बोझ किस तरियां ठावैगी

भक्षक बनकै रक्षक छागे अंधविश्वास खूब फैलाया रै।।

यो सारा सरकारी ढांचा प्राइवेट की भेंट चढ़ाया रै।।

3

पढ़ लिख कै बालक म्हारे कदे बेरा पाड़लें लुटेरयां का

उलझाल्यो जात धर्म पै जितना तबका सै कमेरयां का

कमेरे समझे कोण्या इब लग जाल घल्या बघेरयां का

कावड़ कदे कुम्भ का मेला ध्यान बांट दिया चितेरयां का

शिक्षा स्वास्थ्य के ढांचे का जानबूझ भट्ठा बिठाया रै।।

यो सारा सरकारी ढांचा प्राइवेट की भेंट चढ़ाया रै।।

4

रोडवेज का हाल देखल्यो जमा धरती कै मार रहे

प्राइवेट बस चलाकै नै ये जनता का पीसा डकार रहे

जनता सड़कों पै आ बैठी ये मुकदमे कर तयार रहे

जनता को कोये ख्याल नहीं कर्मचारी नै दुत्कार रहे

रणबीर सिंह सरकारी ढांचा सोचो कैसे जा बचाया रै।।

यो सारा सरकारी ढांचा प्राइवेट की भेंट चढ़ाया रै।।

केरल एक बार फिर प्रथम स्थान पर

 स्वस्थ्य के स न्दर्भ मे केरल के बध ते कदम-- डॉक्टर  बी इकबाल  

Haryana Rural Health Services

 चंडीगढ़,

*प्रैस विज्ञप्ति*

*सरकार को सभी स्वास्थ्य कर्मियों एवं नागरिकों के स्वास्थ्य और जीवन रक्षा का दायित्व निभाना चाहिए।*

हरियाणा में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति विश्व स्वास्थ्य संगठन(WHO) द्वारा तय मानकों के मुकाबले बहुत ही दयनीय है। इन मानकों अनुसार ग्रामीण इलाकों में हर नागरिक को संपूर्ण स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए 5000 की आबादी पर एक उप स्वास्थ्य केंद्र, 30,000 की आबादी के लिए एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) और 80 हजार से 1 लाख 20 की आबादी पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) होना चाहिए। इसी प्रकार हर उपमंडल व जिला मुख्यालय पर एक नागरिक हस्पताल भी होना चाहिए। लेकिन वर्तमान में हरियाणा के ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा (मार्च-जून 2020 के उपलब्ध आंकड़ों अनुसार) जितना होना चाहिए, उतना नहीं है और जितना है, उसमें भी स्पेशलिस्ट डॉक्टरों, मेडिकल डॉक्टरों, स्टॉफ नर्सों, रेडियोग्राफरों, फार्मासिस्टों, लैब तकनीशियों और मल्टीपर्पज कैडर की भारी कमी है। फिलहाल प्रदेश में 2667 उप स्वास्थ्य केंद्र, 532 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और 119 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। जबकि वर्तमान आबादी की जरूरतों के हिसाब से हमारे पास 634 उपस्वास्थ्य केंद्रों, 18 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और 18 सामुदायिक केंद्रों की कमी बनी हुई है।
(2011 की 1.65 करोड़ जनसंख्या के हिसाब से )

इसी प्रकार स्वास्थ्य ढांचे में डॉक्टरों, पेरामेडिक्स और अन्य स्टॉफ की स्थिति देखें तो फिलहाल ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 491 डॉक्टर हैं जबकि होने 1064 चाहिए। *यानि आधे से ज्यादा प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में एक भी डॉक्टर नहीं है।* इसी प्रकार एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में 6 विशेषज्ञ डॉक्टरों (एक सर्जन, एक स्त्री रोग विशेषज्ञ, एक फिजिशियन, एक शिशु रोग विशेषज्ञ, एक हड्डी रोग विशेषज्ञ और एक बेहोशी देने वाला विशेषज्ञ ) होने चाहिए। इसके हिसाब से वर्तमान में 714 स्पेशलिस्ट डॉक्टर होने चाहिए। जबकि फिलहाल राज्य भर में केवल मात्र 27 स्पेशलिस्ट ही मौजूद हैं यानि *687* स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की कमी बनी हुई है। ऐसे में कोरोना महामारी से लड़ने के बड़े-बड़े दावे भ्रामक करने वाले हैं।

इसी तरह पीएचसी और सीएचसी में नर्सिंग स्टाफ की हालत ज्यादा बेहतर नहीं है। हरियाणा की वर्तमान अनुमानित ग्रामीण जनसंख्या 1.81 करोड़ के अनुसार पीएचसी और सीएचसी में स्टाफ नर्सों की संख्या 2571 होनी चाहिए। जबकि मार्च/जून 2020 के उपलब्ध आंकड़ों अनुसार स्टाफ नर्सों की वर्तमान/वास्तविक स्थिति 2193 है। *यानी 378 नर्सों की कमी हो जायेगी।*
हर सीएचसी में एक रेडियोग्राफर की एक पोस्ट के हिसाब से 119 पोस्ट होनी चाहिए लेकिन इनकी संख्या केवल 38 हैं यानि 81 रेडियोग्राफर्स की कमी है। इसी प्रकार पीएचसी में एक और सीएचसी दो से तीन फार्मासिस्ट्स की पोस्ट अनुसार करीब 770 फार्मासिस्ट्स होने चाहिए लेकिन केवल 405 फार्मासिस्ट ही कार्यरत हैं। यानि आज 365 फार्मासिस्ट्स की कमी है। लैब टेक्नीशियन के 770 पदों के मुकाबले 400 लैब तकनीशियन ही कार्यरत हैं। यानि 370 लैब टेक्नीशियन की कमी बनी हुई है। उधर ग्रामीण आबादी तक वास्तविक स्वास्थ्य सुविधाओं को पहुंचाने और कोरोना मरीजों को होम आईशोलेशन तथा कोविड सेंटरों में देखभाल की जिम्मेदारी निभा रहे और जान जोखिम में डालकर काम करने वाले मल्टीपर्पज कैडर में एमपीएचडब्ल्यू (पुरूष और महिला) के स्वीकृत 5110 पदों के मुकाबले 3800 ही कार्यरत हैं जबकि एक उपस्वास्थ्य केंद्र पर 3 कर्मचारियों के हिसाब से करीब 10800 एमपीएचडब्ल्यू (पुरूष और महिला) होने चाहिए। वहीं स्वास्थ्य निरीक्षक(पुरूष व महिला) के 1100 पदों के मुकाबले करीब 700 ही कार्यरत हैं यानि 400 पद खाली पड़े हैं। इनके अलावा राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के तहत 12000 से ज्यादा कर्मचारी कार्यरत कर्मचारियों को नियमित तक नहीं किया जा रहा है। उधर आउटसोर्सिंग पॉलिसी के तहत भर्ती कॉन्ट्रैक्ट के स्टाफ का भारी शोषण विभाग और ठेकेदारों द्वारा किया जा रहा है। पिछले लंबे अरसे से कार्यरत करीब 14 हजार से ज्यादा ठेका कर्मियों की नए ठेकेदार द्वारा गत एक मई से हाजिरी ही नहीं लगवाई जा रही है।

कुल मिलाकर देखें तो ग्रामीण क्षेत्र की वर्तमान आबादी को स्वास्थ्य सुविधाएं देने के लिए वर्तमान आबादी के अनुपात में स्वास्थ्य विभाग में डॉक्टरों के कुल स्वीकृत पदों में 95 प्रतिशत से ज्यादा विशेषज्ञ डॉक्टरों, 50 प्रतिशत से ज्यादा तथा पैरामेडीकल स्टॉफ के कुल नियमित स्वीकृत पदों 10371 पर 40 प्रतिशत से ज्यादा पद रिक्त पड़े हैं। जबकि आबादी के अनुपात में नियमानुसार अकेले पेरामेडिक्स स्टाफ के ही 25000 से ज्यादा नियमित पद स्वीकृत होने चाहिए। साथ ही मिनिस्ट्रियल स्टॉफ और चतुर्थ श्रैणी कर्मचारियों का भी बड़ा अमला शामिल किए जाने की जरुरत है। इनके अलावा विभिन्न स्वास्थ्य संस्थाओं का भी भारी पैमाने पर विस्तार होना चाहिए। लेकिन सरकारों की अमीर प्रस्त नीतियों के चलते अधिकतर पीएचसी/सीएचसी में न तो महिला रोग विशेषज्ञ डॉक्टर हैं और न ही बाल रोग विशेषज्ञ डॉक्टर हैं। इसी प्रकार अधिकतर सिविल हस्पतालों में भी न तो अल्ट्रासाउण्ड मशीनें हैं और न ही एक्स-रे मशीन व सी.टी. स्कैन। यदि कहीं पर ये मशीनें हैं भी तो उनके संचालक नहीं या ये अक्सर खराब रहती हैं। *या कुछ में पीपीपी मोड़ में हैं*
प्रदेश की एकमात्र पी.जी.आई.एम.एस. रोहतक में भी सी.टी. स्कैन, ई.ई.जी. व विभिन्न आप्रेशनों के लिये कई-कई महीनों बाद का समय मिलता है। जिससे मरीजों को मजबूरन निजी व मंहगे हस्पतालों में जांच व इलाज पर हजारों-लाखों की राशी खर्च करनी पड़ती है। ऐसे हालातों में हरियाणा सरकार द्वारा बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं देने के दावे बेहद खोखले दिखाई देते हैं।

अब भले ही देश में कोरोना महामारी की दूसरी लहर धीरे-धीरे उतार पर दिखाई दे रही है मगर इस दूसरी लहर ने सरकार और स्वास्थ्य ढांचे की पोल खोल कर रख दी है। सभी लोगों को टीका लगाने के बड़े-बड़े दावों पर तो माननीय सुप्रीम कोर्ट तक ने देश में टीकाकरण की प्रक्रिया को मनमानी व तर्कहीन कहने को बाध्य होना पड़ा है। इसके अलावा पिछले दिनों हमने देखा कि देश-प्रदेश के अधिकांश प्रमुख शहरों और जिला मुख्यालयों पर मरीज अपने उपचार के लिए हस्‍पतालों में उपयुक्त बेड, ऑक्सीजन और आवश्यक दवाओं के लिए संघर्ष कर रहे थे। जाँच रिपोर्ट बहुत देरी से मिल रही थी और यहां तक ​​कि शमशानों में भी शवों के अंतिम संस्‍कार के लिए असाधारण रूप से लंबा इंतजार करना पड़ा था। ऐसे में सरकार को इससे सबक लेकर तमाम कमियों को दूर करने के लिए स्थाई समाधान निकालने की ओर आगे बढ़ना चाहिए। इसके लिए एक जरुरी कदम स्वास्थ्य क्षेत्र के बजट में 10 प्रतिशत तक बढ़ौतरी करके सार्वजनिक स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे को मजबूत करते हुए डॉक्टरों, पेरामेडिक्स और अन्य स्टाफ की बड़े पैमाने पर नियमित भर्ती करके उठाया जा सकता है। लेकिन सरकार द्वारा ऐसे ठोस कदम उठाने की बजाए स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग की संसदीय स्थायी समिति की नवंबर 2020 में जारी 123 वीं रिपोर्ट *"कोविड -19 महामारी का प्रकोप और उसका प्रबंधन"* में चेतावनी देने के बावजूद बिना किसी शारीरिक दूरी की चिंता किए महाकुंभ में बड़ी संख्या मे लोगों के शामिल होने की अनुमति और विशाल चुनावी रैलियों ने महामारी का ग्राफ कई गुना तेजी से बढ़ाया। जबकि सरकार स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे के चरमराने के कारण और कोविड -19 की गाइडलाइंस का ठीक से पालन न होने तथा नए म्यूटेंट/स्ट्रेन (वायरस का परिवर्तित रुप) का आना बताकर अपनी नाकामी पर पर्दा डाल रही है।


सुरेश कुमार
संपर्क सुत्र: 9416232339

Saturday, 5 June 2021

Haryana Rural Health Services

 Health services in rural Haryana 

There should be one sub health centre on 5000 population .
There needs to be one Primary Health Centre (PHC) for 30,000 population.
It is recommended that there should be one Community Health Centre(CHC) on
80000 hilly area and plain area 1,20000 population.
(As per data by Rural Health Statistics 2019-2020)
The condition of rural health services in Haryana is very miserable as per the parameters of the Govt. of India are taken in to consideration.
There are 3 points to be taken note of .

1. The condition of Haryana Health Services which should have been as per the required norms set by Govt. of India as per rural population of Haryana 1.65 crores in Census 2011.
2. The condition of Haryana Health Services as per projected April 2021 rural population of Haryana 181 crores in 2021.
3.The actual condition of Haryana Health Services infrastructure and staffing as per the available data of Mar/Jun 2020.
Haryana Rural Health Services Infrastructure Position
Sub Health Centre :-
*Required Sub Health Centres with respect to Rural Population of Haryana 1.65 crores in Census 2011 should be 3301
**Required Sub Health Centres with respect to Projected Rural Population of Haryana 1.81 crores in 2021 should be 3609
***Current /Actual Position of Sub Health Centres in Mar/Jun 2020 is 2667

Primary Health Centre :-
*Required Primary Health Centres with respect to Rural Population of Haryana 1.65 crores in Census 2011 should be 550
**Required Primary Health Centres with respect to Projected Rural Population of Haryana 1.81 crores in 2021 should be 606
***Current /Actual Position of Primary Health Centres in Mar/Jun 2020 is 532

Community Health Centre :-
*Required Community Health Centres with respect to Rural Population of Haryana 1.65 crores in Census 2011 should be 137
**Required Community Health Centres with respect to Projected Rural Population of Haryana 1.81 crores in 2021 should be 151
***Current /Actual Position of Community Health Centres in Mar/Jun2020 is 119
If we go through the data of rural health services in Haryana , as per 2011 rural population of Haryana norms , we do not find required infrastructure upto the mark.
*We have deficiency of 634 Sub Health Centres, 18 Primary Health Centres and 18 Community Health Centres.*
Similarly if we consider the Haryana projected rural population of April,2021, then it is still more miserable.
*Then we have deficiency of 942 Sub Health Centres, 74 Primary Health Centres and 32 Community Health Centres*
The staff which is required in these is also not as per required norms.
Haryana Rural Health Services Staff Position :
1) Specialists in CHCs:
It is recommended that there should following specialists in each CHC:-
General Surgeon-1
Physician- 1
Obstetrician &
Gynaecologist-1
Paediatrucian-1
Orthopedic surgeon 1
Orthopedics surgeon 1
Anaethetist-1
*Required specialists with respect to Rural Population of Haryana 1.65 crores in census 2011 should be 822
**Required specialists with respect to Projected Rural Population of Haryana 1.81 crores in 2021 should be 906
***Current /Actual Position of specialists in Mar/Jun 2020 is 27
There are only 27 specialists in position whereas we need 906 specialists with respect to Projected Rural Population of Haryana 1. 81 crores . So there is shortfall of 879 specialists.
2) Medical officers in PHC :
We have at present 491 Medical officers for 532 Primary Health Centres where as we need 1212 Medical officers with respect to Projected Population of Haryana 1.81 crores in 2021. There is shortfall of 721 Medical officers .

3) Nursing staff at PHC and CHC:
* Required nurses at PHC and CHC with respect to Rural Population of Haryana 1.65 crores in census 2011 should be 2333
**Required nurses at PHC and CHC with respect to Projected Population of Haryana 1.81 crores should be 2571
***Current /Actual Position of staff nurses in Mar/Jun 2020 is 2193
So there is shortfall of 378 nurses with respect to projected Rural Population of Haryana 1.81 crores in 2021.
4) Radiographers at CHC
At present in 119 CHCs,
there are 38 radiographers where as we need 119. There is a shortfall of 81 radiographers. As per 2011 population there should be 137 CHCs , then shortfall will be of 99 radiographers.
As per April,2021 projected population, there should be 151 chc's , then there should have been 151 radiographers . But position at present the
radiographers are 38. So we will need 113 radiographers more in that case .
5) Pharmacist at PHC and CHC
There are at present 405 pharmacists in position. As per 2011 , the need of pharmacists is 790, there by shortfall of 385. As per projected population in April, 2021, we need 908 pharmacists. Shortfall comes out to be of 503 pharmacists .

6) Lab technicians at PHC and CHC
There are at present 400 lab technicians in position. As per 2011 rural population, the need of lab technicians is 790, there by shortfall of 390. As per projected rural haryana population in April, 2021, we need 908 lab technicians. Shortfall comes out to be of 508 lab technicians .
Seeing these conditions of Haryana Rural Health Services,
Jan Swasthya Abhiyan Haryana suggests and demands :
1. The health services infrastructure should be immediately updated to face probable third wave of Covid pandemic or otherwise to provide quality health care facilities to citizens of Haryana
2. Allocate immediately more funds for health services infrastructure strengthening.
3. Guarantee comprehensive , accessible, quality health services for all,Covid and non Covid patients.
4. Along with this there should be proper and immediate training of health work force on line or otherwise for covid 19 norms and post covid 19 situations.
5. At the same time the government should work on the social determinants of health which include
A) Promotion of food security by universalisation and expansion of the public distribution system.
B) Safe drinking water for all C) Sanitation facilities
D) Full employment to all
E) Education for all
F) Decent and adequate housing.
G)The gender dimensions of health should also be addressed adequately.
6. Guarantee comprehensive , accessible, quality health services for all women for all their health needs which includes but is not limited to maternal care.
7. Create more posts for the entire range of health personnel in the public health system as per latest population requirements .
8. Regularise contractual employees and provide ASHAs ANMs and all levels of public health system staff with adequate skills, salaries and decent working conditions.
Extreme inequality in access to health care services and the poor living conditions of people are responsible for the poor conditions of health in India and Haryana as well.
While people who can pay are able to receive world class treatment facilities , for most people in the state a major illness in the family plunges the family in to extreme poverty and destitution .
The corona pandemic also shows this rich poor gap in the management of covid cases who need hospitalisation. The Govt should see remedies for these inequalities also.
It is sincere effort of JAN SAWASTHAYA ABHIYAN HARYANA to make the people aware about these issues so that people make Health as people's agenda and struggle for it collectively and request the Haryana Govt. to take immediate remedial measures.
With regards
Professor Satnam Singh Convenor
+91 94662 90728
Suresh Kumar Co convenor
+91 94162 32339
Mrs Savita JMS
+91 94169 74185
Mrs Surekha CITU
+91 97283 51260
Mr Virender Malik CITU
+91 94163 51090
Pramod Gouri HGVS
+91 98120 44915
Dr R.S.Dahiya HGVS
+91 9812139001
Professor Mrs Amita
+91 94163 80762
Sandeep Kumar DYFI
+91 94673 38550


(Data Source :Rural Health Statistics 2019-20)
And
http://haryanahealth.nic.in/Documents/CHC.pdf
Documents/PHCsubcenter.pdf
http://haryanahealth.nic.in/infrastructure.htm/
Mission https://ejalshakti.gov.in