आयुष्मान भारत योजना को लागू हुए 100 से अधिक दिन होने जा रहे हैं। साल 2018 के बजट में केंद्र सरकार ने इस योजना का बड़े ही दमखम के साथ ऐलान किया था। ऐलान के समय के शब्द थे कि यह योजना देश में स्वास्थ्य क्षेत्र की अभी तक की सबसे बड़ी योजना है। इस योजना की प्रकृति एक तरह के बीमा योजना की तरह है। इस योजना के तहत 10 करोड़ परिवार यानी कि 50 करोड़ लोगों को बीमा दिया जाना है। इन परिवारों को सालाना 5 लाख का हेल्थ कवरेज देने की बात है। जिससे एक साथ तकरीबन 50 करोड़ लोगों को हेल्थ संबंधी परेशानियों से मुक्ति मिल जाएगी।
अभी तक इस योजना से जुड़ चुके अस्पतालों की संख्या तकरीबन साढ़े पंद्रह हजार है। तकरीबन 4145727 लोगों को इस योजना के तहत गोल्डन कार्ड मिल गया है। यानी अभी तक इस योजना के तहत बीमा कवर से जुड़ चुके लोगों की संख्या 4145727 हो चुकी है, जिसमें से तकरीबन साढ़े सात लाख लोगों ने किसी प्राइवेट या पब्लिक हॉस्पिटल से इस योजना का फायदा उठाना शुरू कर दिया है। अभी भी इस योजना को दिल्ली, तेलंगाना और ओडिशा जैसे राज्यों ने नहीं अपनाया है और अभी हाल में ही बंगाल ने भी इस योजना को स्वीकार करने से मना कर दिया था।
अभी इस योजना को काम करते हुए तकरीबन 100 दिन हुए हैं। इस लिहाज से इस योजना की कामयाबी और नाकामयाबी का खुलकर पता लगा पाना मुश्किल है, लेकिन फिर भी कुछ बातें हैं जिन पर गौर करना ज़रूरी है। बहुत सारे लोगों की यह शिकायत है कि सरकारी अस्पतालों और प्राइवेट अस्पतालों में एक ही बीमारी के इलाज की अलग-अलग कीमत वसूली जा रही है। सरकारी अस्पतालों में जहां यह कीमत कम है वहीं प्राइवेट अस्पतालों में यह कीमत बहुत अधिक है। इस बीमा योजना के तहत दूसरे और तीसरे स्वास्थ्य स्तर की 1350 बीमारियाँ शामिल हैं। यानी अस्पताल में भर्ती होने और भर्ती होने के बाद किसी बीमारी से लेकर किसी जरूरी अंग के प्रत्यारोपण से सम्बंधित 1350 इलाज इस बीमा योजना के तहत कवर होते हैं। यहाँ सबसे बड़ी परेशानी है कि अस्पतालों के बदलने के साथ इलाजों की कीमत भी बदलती जाती है। इस तरह कागज पर यह योजना भले ही ठीक-ठाक दिखे लेकिन जमीन पर इसकी सच्चाई बहुत अलग है।
भारतीय राज्य स्वास्थ्य क्षेत्र में अभी भी जीडीपी का केवल 1.3 फीसदी खर्च करता है। जो पूरे विश्व द्वारा अपने नागरिकों पर खर्च किये जाने वाले औसत तकरीबन छह फीसदी से भी कम है। हमारे यहाँ की जनता प्राइवेट सेक्टर से जुड़े अस्पतालों पर सबसे अधिक खर्च करती है। पूरे स्वास्थ्य खर्चे का तकरीबन 70 फीसदी से अधिक खर्चे से होने वाली कमाई प्राइवेट सेक्टर को होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे यहाँ सरकारी अस्पतालों की कमी है और जो काम कर रहे हैं, उनकी हालत बहुत अधिक खराब है। ऐसे में हमारी देश की आम जनता प्राइवेट क्षेत्र के हॉस्पिटल में जाने के लिए मजबूर होती है। भारत की तकरीबन चार करोड़ जनता हर साल अपनी बीमारी की खर्चें की वजह से कर्जें में डूब जाती है। ऐसे में बीमा योजनाओं के सहारे स्वास्थ्य क्षेत्र की कायापलट की उम्मीद बहुत कमजोर लगती है।
सभी जानकारों का कहना है कि दूसरे स्तर यानी कि जिला स्तर और मेडिकल कॉलेज की स्वास्थ्य बुनियादी संरचनाओं का बहुत बुरा हाल है। तहसील और जिला स्तर में पर्याप्त मानव क्षमता की कमी है। सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पताल अपनी क्षमताओं से ज्यादा काम कर रहे हैं। एक सर्जरी के लिए एक मरीज को ऐसे अस्पतालों में एक से दो सालों तक का इंतजार करना पड़ता है। स्वाथ्य क्षेत्र की हालत तभी सुधरेगी जब स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे या संरचनाओं पर अधिक खर्च किया जाएगा। यानी अस्पताल बनाने से लेकर डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने और मरीजों के लिए बेड की संख्या बढ़ाने से लेकर दवा की कीमत कम करने तक में काम करना होगा। अभी हाल फिलहाल भारत के 11 हजार जनसंख्या पर तकरीबन एक डॉक्टर मौजूद है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (ॅभ्व्) के मानक के तहत यह संख्या एक हजार लोगों पर एक होनी चाहिए। साथ में अभी भी ॅभ्व् मानक के तहत भारत में मरीजों के लिए बेड़ों की संख्या कम है।
इस तरह से यह साफ़ नजर आता है कि इस योजना कि कामयाबी प्राइवेट हॉस्पिटलों के रहमों करम पर निर्भर है। लेकिन क्या प्राइवेट सेक्टर के अस्पताल इस योजना पर निर्भर हैं? बहुत सारे मरीजों का कहना है कि प्राइवेट सेक्टर के अस्पताल में इलाज की बहुत अधिक कीमत, पारदर्शिता की कमी और अनैतिक व्यवहार से हमें निजात मिलना बहुत मुश्किल है। ये अस्पताल हमे आसानी से ठग लेते हैं। आयुष्मान भारत के सौ दिन बीत गए लेकिन किसी भी प्राइवेट हॉस्पिटल में यह देखने को नहीं मिला कि घुटना बदलवाने की कीमत साढ़े तीन लाख से कम होकर सरकारी अस्पतालों के कीमत के बराबर यानी तकरीबन अस्सी हजार हो गई हो या बाईपास सर्जरी की कीमत प्राइवेट अस्पतालों में चार लाख से कम होकर सरकारी अस्पतालों के कीमत यानी डेढ़ लाख के बराबर हो गई हो।
साथ में ऐसा भी है कि बड़े प्राइवेट हॉस्पिटल इस योजना में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। उन्हें अपने फायदे से समझौता करना नागवार है। इसके बाद इस योजना के लिए केवल दूसरे और तीसरे स्तर की बीमारियां ही शामिल हैं। यानी हॉस्पिटल में भर्ती होने या अंग प्रत्यारोपण से जुड़े इलाज ही इसमें शामिल है। यानी इसके अलावा जो भी बीमारियां हैं, जिनके लिए हॉस्पिटल में भरती होने की जरूरत नहीं होती है भले ही बीमारी गंभीर हो और दवा सालों साल चले, उसे इस योजना में शामिल नहीं किया गया है। ऐसे में केवल दूसरे और तीसरे स्तर के इलाज से जुड़ी योजनाओ को इस बीमा योजना में कवर करने से भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की हालत सुधर जाए, यह भी नामुमकिन लगता है।
इस योजना को केंद्र और राज्य सरकार दोनों के साझे कोशिश द्वारा लागू किया जाना है। जो 60रू40 में इसका खर्च आपस में बाटेंगे। अब भी दिल्ली, ओडिशा और तेलंगाना जैसे राज्यों ने इस पर अपनी सहमति नहीं जताई है। इनका कहना है कि यहां पर पहले से ही बीमा कवर की योजनाएं मौजूद हैं तो इन्हें किसी दूसरी योजना की जरूरत नहीं है। बंगाल ने तो इस योजना से यह कहते हुए हाथ खींच लिया कि वह इसका चालीस फीसदी खर्चा उठाने के लिए तैयार नहीं है। सरकार ने इस साल आयुष्मान भारत के लिए केवल 3 हजार करोड़ रुपये की राशि निर्धारित की है। जबकि इस साल इस पर तकरीबन 11 हजार करोड़ खर्च का अनुमान है। ऐसे में आयुष्मान भारत की हालत पहले की राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा कवर योजनाओं की तरह हो सकती है। जो फंड की कमी की वजह नाकामयाब रही थीं। इस योजना के आलोचक कहते हैं कि यह योजना इस तरह है जैसे बीमारी से ठीक हो चुके मरीज को दवा दी जाती है। जबकि जरूरत स्वास्थ्य क्षेत्र की बीमारी को दूर करने की है जो स्वास्थ्य क्षेत्र के हर स्तर पर सरकारी अस्पतालों की कमी और आधारभूत संरचनाओं के बुरे हालत से जुड़ी है
अभी तक इस योजना से जुड़ चुके अस्पतालों की संख्या तकरीबन साढ़े पंद्रह हजार है। तकरीबन 4145727 लोगों को इस योजना के तहत गोल्डन कार्ड मिल गया है। यानी अभी तक इस योजना के तहत बीमा कवर से जुड़ चुके लोगों की संख्या 4145727 हो चुकी है, जिसमें से तकरीबन साढ़े सात लाख लोगों ने किसी प्राइवेट या पब्लिक हॉस्पिटल से इस योजना का फायदा उठाना शुरू कर दिया है। अभी भी इस योजना को दिल्ली, तेलंगाना और ओडिशा जैसे राज्यों ने नहीं अपनाया है और अभी हाल में ही बंगाल ने भी इस योजना को स्वीकार करने से मना कर दिया था।
अभी इस योजना को काम करते हुए तकरीबन 100 दिन हुए हैं। इस लिहाज से इस योजना की कामयाबी और नाकामयाबी का खुलकर पता लगा पाना मुश्किल है, लेकिन फिर भी कुछ बातें हैं जिन पर गौर करना ज़रूरी है। बहुत सारे लोगों की यह शिकायत है कि सरकारी अस्पतालों और प्राइवेट अस्पतालों में एक ही बीमारी के इलाज की अलग-अलग कीमत वसूली जा रही है। सरकारी अस्पतालों में जहां यह कीमत कम है वहीं प्राइवेट अस्पतालों में यह कीमत बहुत अधिक है। इस बीमा योजना के तहत दूसरे और तीसरे स्वास्थ्य स्तर की 1350 बीमारियाँ शामिल हैं। यानी अस्पताल में भर्ती होने और भर्ती होने के बाद किसी बीमारी से लेकर किसी जरूरी अंग के प्रत्यारोपण से सम्बंधित 1350 इलाज इस बीमा योजना के तहत कवर होते हैं। यहाँ सबसे बड़ी परेशानी है कि अस्पतालों के बदलने के साथ इलाजों की कीमत भी बदलती जाती है। इस तरह कागज पर यह योजना भले ही ठीक-ठाक दिखे लेकिन जमीन पर इसकी सच्चाई बहुत अलग है।
भारतीय राज्य स्वास्थ्य क्षेत्र में अभी भी जीडीपी का केवल 1.3 फीसदी खर्च करता है। जो पूरे विश्व द्वारा अपने नागरिकों पर खर्च किये जाने वाले औसत तकरीबन छह फीसदी से भी कम है। हमारे यहाँ की जनता प्राइवेट सेक्टर से जुड़े अस्पतालों पर सबसे अधिक खर्च करती है। पूरे स्वास्थ्य खर्चे का तकरीबन 70 फीसदी से अधिक खर्चे से होने वाली कमाई प्राइवेट सेक्टर को होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि हमारे यहाँ सरकारी अस्पतालों की कमी है और जो काम कर रहे हैं, उनकी हालत बहुत अधिक खराब है। ऐसे में हमारी देश की आम जनता प्राइवेट क्षेत्र के हॉस्पिटल में जाने के लिए मजबूर होती है। भारत की तकरीबन चार करोड़ जनता हर साल अपनी बीमारी की खर्चें की वजह से कर्जें में डूब जाती है। ऐसे में बीमा योजनाओं के सहारे स्वास्थ्य क्षेत्र की कायापलट की उम्मीद बहुत कमजोर लगती है।
सभी जानकारों का कहना है कि दूसरे स्तर यानी कि जिला स्तर और मेडिकल कॉलेज की स्वास्थ्य बुनियादी संरचनाओं का बहुत बुरा हाल है। तहसील और जिला स्तर में पर्याप्त मानव क्षमता की कमी है। सार्वजनिक क्षेत्र के अस्पताल अपनी क्षमताओं से ज्यादा काम कर रहे हैं। एक सर्जरी के लिए एक मरीज को ऐसे अस्पतालों में एक से दो सालों तक का इंतजार करना पड़ता है। स्वाथ्य क्षेत्र की हालत तभी सुधरेगी जब स्वास्थ्य क्षेत्र के बुनियादी ढांचे या संरचनाओं पर अधिक खर्च किया जाएगा। यानी अस्पताल बनाने से लेकर डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने और मरीजों के लिए बेड की संख्या बढ़ाने से लेकर दवा की कीमत कम करने तक में काम करना होगा। अभी हाल फिलहाल भारत के 11 हजार जनसंख्या पर तकरीबन एक डॉक्टर मौजूद है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (ॅभ्व्) के मानक के तहत यह संख्या एक हजार लोगों पर एक होनी चाहिए। साथ में अभी भी ॅभ्व् मानक के तहत भारत में मरीजों के लिए बेड़ों की संख्या कम है।
इस तरह से यह साफ़ नजर आता है कि इस योजना कि कामयाबी प्राइवेट हॉस्पिटलों के रहमों करम पर निर्भर है। लेकिन क्या प्राइवेट सेक्टर के अस्पताल इस योजना पर निर्भर हैं? बहुत सारे मरीजों का कहना है कि प्राइवेट सेक्टर के अस्पताल में इलाज की बहुत अधिक कीमत, पारदर्शिता की कमी और अनैतिक व्यवहार से हमें निजात मिलना बहुत मुश्किल है। ये अस्पताल हमे आसानी से ठग लेते हैं। आयुष्मान भारत के सौ दिन बीत गए लेकिन किसी भी प्राइवेट हॉस्पिटल में यह देखने को नहीं मिला कि घुटना बदलवाने की कीमत साढ़े तीन लाख से कम होकर सरकारी अस्पतालों के कीमत के बराबर यानी तकरीबन अस्सी हजार हो गई हो या बाईपास सर्जरी की कीमत प्राइवेट अस्पतालों में चार लाख से कम होकर सरकारी अस्पतालों के कीमत यानी डेढ़ लाख के बराबर हो गई हो।
साथ में ऐसा भी है कि बड़े प्राइवेट हॉस्पिटल इस योजना में शामिल होने के लिए तैयार नहीं हो रहे हैं। उन्हें अपने फायदे से समझौता करना नागवार है। इसके बाद इस योजना के लिए केवल दूसरे और तीसरे स्तर की बीमारियां ही शामिल हैं। यानी हॉस्पिटल में भर्ती होने या अंग प्रत्यारोपण से जुड़े इलाज ही इसमें शामिल है। यानी इसके अलावा जो भी बीमारियां हैं, जिनके लिए हॉस्पिटल में भरती होने की जरूरत नहीं होती है भले ही बीमारी गंभीर हो और दवा सालों साल चले, उसे इस योजना में शामिल नहीं किया गया है। ऐसे में केवल दूसरे और तीसरे स्तर के इलाज से जुड़ी योजनाओ को इस बीमा योजना में कवर करने से भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र की हालत सुधर जाए, यह भी नामुमकिन लगता है।
इस योजना को केंद्र और राज्य सरकार दोनों के साझे कोशिश द्वारा लागू किया जाना है। जो 60रू40 में इसका खर्च आपस में बाटेंगे। अब भी दिल्ली, ओडिशा और तेलंगाना जैसे राज्यों ने इस पर अपनी सहमति नहीं जताई है। इनका कहना है कि यहां पर पहले से ही बीमा कवर की योजनाएं मौजूद हैं तो इन्हें किसी दूसरी योजना की जरूरत नहीं है। बंगाल ने तो इस योजना से यह कहते हुए हाथ खींच लिया कि वह इसका चालीस फीसदी खर्चा उठाने के लिए तैयार नहीं है। सरकार ने इस साल आयुष्मान भारत के लिए केवल 3 हजार करोड़ रुपये की राशि निर्धारित की है। जबकि इस साल इस पर तकरीबन 11 हजार करोड़ खर्च का अनुमान है। ऐसे में आयुष्मान भारत की हालत पहले की राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा कवर योजनाओं की तरह हो सकती है। जो फंड की कमी की वजह नाकामयाब रही थीं। इस योजना के आलोचक कहते हैं कि यह योजना इस तरह है जैसे बीमारी से ठीक हो चुके मरीज को दवा दी जाती है। जबकि जरूरत स्वास्थ्य क्षेत्र की बीमारी को दूर करने की है जो स्वास्थ्य क्षेत्र के हर स्तर पर सरकारी अस्पतालों की कमी और आधारभूत संरचनाओं के बुरे हालत से जुड़ी है
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