Friday, 13 March 2020

****जन स्वास्थ्य अभियान हरियाणा ****


स्वास्थ्य एक मौलिक अधिकार होना चाहिए , और यह कोई नई मांग या नया सिद्धांत नहीं है । 'सबके लिए स्वास्थ्य' की मांग को लेकर दुनिया भर में अनेक आंदोलन और अभियान होते रहे हैं । इन्हीं तमाम अभियानों की वजह से '1978 में हुई आल्मा आटा उद्घोषणा एक मील का पत्थर साबित हुई है। आल्मा आटा उद्घोषणा को हुए 40 वर्ष पूरे हो गए हैं लेकिन आज भी दुनिया की बड़ी आबादी वैश्विक स्वास्थ्य संकट से जूझ रही है । आज भी स्वास्थ्य के सामाजिक कारकों मसलन साफ हवा , साफ पानी, पोषक आहार जैसी चीजों व स्वास्थ्य सेवाओं तक सब की पहुंच नहीं है । सभी स्तरों पर भारी असमानताएं हैं और ये पिछले कुछ वर्षों में तेजी से बढ़ी हैं।
*** भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था :एक पृष्ठभूमि ***
भारत में सरकारी स्वास्थ्य तंत्र को दिन प्रतिदिन कमजोर किया जा रहा है। अपर्याप्त बजट आबंटन की वजह से स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धता व गुणवत्ता लगातार गिरती जा रही है। आम लोगों की जेब से स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाला खर्च भी बढ़ता जा रहा है। वहीं दूसरी और व्यवसायिक निजी क्षेत्र तेजी से प्रगति कर रहा है। हम जानते हैं कि निजी क्षेत्र के लिए यह एक व्यापारिक गतिविधि मात्र है जिसका एकमात्र उद्देश्य सिर्फ मुनाफा कमाना है । जन स्वास्थ्य और लोक कल्याण से इनका कोई लेना देना नहीं है। आजादी के 71 साल के बाद भी हमारी सरकार ने अपने नागरिकों को वहनीय स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने में नाकाम रही है। भारतीय संविधान के नीति निर्देशक सिद्धांत भारत सरकार को यह जिम्मेदारी देते हैं कि वह इस देश के सभी नागरिकों को सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध करवाए । भोरे कमेटी की रिपोर्ट में भी वर्ष 1960 तक सभी लोगों तक सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने का उद्देश्य दिया गया था । यह उद्देश्य आज तक पूरा नहीं हो पाया है। 'आल्मा आटा डेकोरेशन- 1978' में वर्ष 2000 तक 'सभी के लिए स्वास्थ्य ' के लक्ष्य के बाद देश में एक दौर वह भी आया जब इस मुद्दे को गंभीरता से लिया गया और इसे 1983 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में भी शामिल किया गया । परंतु 10 साल के अंदर ही सभी को व्यापक प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए प्रतिबद्धता और गंभीरता चुनिंदा स्वास्थ्य सेवाओं मसलन परिवार नियोजन व मलेरिया रोकथाम के कार्यक्रम तक ही सिमट गई । प्रजनन स्वास्थ्य के नाम पर भी केवल गर्भावस्था के दौरान देखभाल और बाल टीकाकरण जैसी सेवाओं पर ही थोड़ा बहुत ध्यान दिया गया। 90 के दशक के दौरान बजट आवंटन व मानव संसाधन विकास और नियुक्तियों में कटौती के द्वारा सुनियोजित ढंग से सार्वजनिक स्वास्थ्य के ढांचे को कमजोर किया गया। यही वह दौर है जब देश में जहां निजी स्वास्थ्य क्षेत्र फल फूल रहा था और दूसरी तरफ आम आदमी की जेब से स्वास्थ्य सुविधाओं पर होने वाले खर्चों में अभूतपूर्व वृद्धि हो रही थी। 2004 के चुनाव प्रांत केंद्र में बनी नई सरकार यूपीए 1 से लोगों के लिए कल्याणकारी योजनाएं चलाने की उम्मीद बंधी थी । इसी कड़ी में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की शुरुआत भी हुई इस मिशन के अंतर्गत स्वास्थ्य क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश बढ़ाते हुए नए सिरे से सभी लोगों तक संपूर्ण प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने व सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे को मजबूत करने के उद्देश्य पर बल दिया गया। लेकिन साल दर साल घटता स्वास्थ्य बजट व प्रशासनिक कमियों और निजी स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा देने वाली आर्थिक नीतियों की वजह से राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन अपना निर्धारित लक्ष्य प्राप्त करने में असफल रहा । सार्वभौमिक स्वास्थ्य सेवाओं के नाम पर सरकारी पैसे आउट सोर्सिंग, बीमा योजनाएं व पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के माध्यम से निजी क्षेत्र को दिया जाता रहा , जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा कमजोर होता चला गया। शायद भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां बड़े पैमाने पर स्वास्थ्य सेवाओं का निजीकरण हुआ है।
पिछले 20 सालों का अनुभव बताता है कि 'पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप' ने ना केवल सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को कमजोर किया है पर बल्कि निजी स्वास्थ्य क्षेत्र को बढ़ावा दिया है। इस बात को समझना बहुत जरूरी है कि निजीकरण कोई हल नहीं बल्कि एक मुख्य समस्या है ।
भारत में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में 80% खर्च लोगों द्वारा अपनी जेब से किया जाता है। कितनी ही रिपोर्ट इस बात को साबित करती हैं कि हमारी आबादी का बड़ा हिस्सा वंचित और गरीब तबका सिर्फ स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च की वजह से ही गरीबी रेखा से नीचे पहुंच जाता है । हमारे नीति निर्माताओं(जिनका झुकाव निजी स्वास्थ्य सेवाओं को बढ़ावा देने पर ही रहता है) को समझने की जरूरत है कि वह निजी क्षेत्र का मुख्य उद्देश्य सिर्फ मुनाफा कमाना है उसके माध्यम से स्वास्थ्य संबंधित समस्याओं का हल नहीं हो सकता । दुनिया भर के शोध यह बताते हैं कि स्वास्थ्य में निजीकरण और पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप के प्रयास यहां तक कि अमरीका में भी सफल नहीं हुए हैं।
***राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 निजी क्षेत्र को और अधिक प्रोत्साहन ***
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति- 2017, स्वास्थ्य में निजी क्षेत्र की भागीदारी पर जोर देती है। यह नीति 'स्ट्रैटेजिक पर्चेजिंग' के दृष्टिकोण पर आधारित है जो उनके हिसाब से सार्वजनिक सेवाओं को प्राथमिकता देती है। लेकिन इसी दस्तावेज में जब क्रियान्वन की प्रक्रिया की बात आती है तो सारे प्रयास सरकारी स्वास्थ्य संस्थानों को बेकार साबित करके निजी खिलाड़ियों को ही अवसर प्रदान करने के दिखाई देते हैं। हाल ही में आरंभ हुई 'नेशनल हेल्थ प्रोटेक्शन स्कीम ' (एनएचपीएस) का उद्देश्य सार्वजनिक निवेश के माध्यम से आधी आबादी को स्वास्थ्य बीमा सेवा उपलब्ध कराना है। मीडिया में इसे ' यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज' (UHC) के लिए योजना के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। परन्तु यह योजना ' यूनिवर्सल हेल्थ केयर ' की राजकीय जिम्मेदारी को सिर्फ स्वास्थ्य बीमा तक ही सीमित करती है, और वह भी केवल देश की कुछ प्रतिशत आबादी के लिए। निजी स्वास्थ्य बीमा कंपनियां और अस्पताल सब 'एनएचपीएस' से सिर्फ भारी फायदे की ही की उम्मीद कर रहे हैं ।
दूसरी तरफ स्वास्थ्य नीति समुदाय द्वारा लम्बे समय से की जा रही सर्वसमावेशी स्वास्थ्य प्रावधानों की मांग के आधार पर , सरकार ने 'सर्व समावेशी प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा'( कंप्रिहेंसिव प्राइमरी हेल्थ केयर- सीपीएचसी) प्रोग्राम लांच किया है । इस कार्यक्रम के द्वारा मौजूदा 1.5 लाख उपस्वास्थ्य केंद्रों और सभी प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को मजबूत कर उन्हें 'हेल्थ एंड वेलफेयर सेंटर' में बदल कर उनके माध्यम से लोगों को तमाम स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने की योजना है । हालांकि, इसके सफल क्रियान्वन के लिए बजट आबंटन में स्वास्थ्य कर्मचारियों की भर्ती व उनके प्रशिक्षण की उचित व्यवस्था के साथ-साथ स्वास्थ्य ढांचे को भी मजबूत करने की जरूरत है ।
**जन स्वास्थ्य अभियान- विश्व , भारत और हरियाणा में:**
' आल्मा आटा घोषणा 1978 ' में किया गया सभी के लिए स्वास्थ्य का वादा जब सदी के अंत तक पूरा होता नहीं दिख रहा था, तब विश्व भर में स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले अनेक संगठनों, संस्थाओं व व्यक्तियों ने मिलकर सक्रिय 'पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट' (PHM) की शुरुआत की। यह शुरुआत दिसंबर 2000 में बांग्लादेश में आयोजित पहली 'पीपल्स हेल्थ असेंबली ' के साथ हुई जहां 'पीपुल्स हेल्थ मूवमेंट' (PHM) का गठन किया गया। इस आंदोलन ने 'सभी के लिए स्वास्थ्य अभी' के नारे के साथ कमजोर होते सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा तंत्र को मजबूत करने की मांग सामने रखी। आंदोलन में वैश्विक स्वास्थ्य संकट से उबरने के लिए दुनिया के स्तर पर बेहतर स्वास्थ्य स्वास्थ्य नीतियों , स्वास्थ्य सेवाओं तक सबकी पहुंच और स्वास्थ्य के सामाजिक कारको में असमानता के संकट को दूर करने की मांग उठाई ।
'जन स्वास्थ्य अभियान' ' पीपल्स हेल्थ मूवमेंट' का भारतीय अध्याय है जिसमें जमीनी स्तर पर काम करने वाले अलग-अलग जाति,मजहब,जेंडर से जुड़े अनेक सामाजिक संगठन, आंदोलन, संस्थाएं व कार्यकर्ता शामिल हैं । सबका उद्देश्य एक है- 'सभी के लिए स्वास्थ्य अभी'। जन स्वास्थ्य अभियान, अपनी विभिन्न राज्य, क्षेत्रीय व स्थानीय स्तर की समितियों के माध्यम से सरकारी स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने, दवाइयों की उपलब्धता एवं स्वास्थ्य सेवाओं के हनन के मुद्दों पर काम कर रहा है ताकि स्वास्थ्य और उससे जुड़े लोगों के मुद्दे मुद्दों को उनकी मांगों को मजबूती मिले। जन स्वास्थ्य अभियान, स्वास्थ्य को एक मौलिक अधिकार बनाने के लिए निरंतर आंदोलनरत है, ताकि कोई भी व्यक्ति अपने जीने के संवैधानिक मूलभूत अधिकार से वंचित ना रहे। जन स्वास्थ्य अभियान हरियाणा भी इसी बड़े नेटवर्क का एक हिस्सा है जो हरियाणा के स्तर पर इन्हीं सब मुद्दों व मांगों को लेकर संघर्षरत है।
***हरियाणा की स्वास्थ्य व्यवस्था और जन स्वास्थ्य अभियान की भूमिका:***
पिछले कुछ वर्षों के दौरान हरियाणा में स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनेक ढांचागत व नीतिगत बदलाव के साथ-साथ उद्देश्यों के स्तर पर भी बदलाव हुए हैं । पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान तीन नए राजकीय मेडिकल कॉलेज खुले व हुए पीजीआईएमएस रोहतक को हेल्थ यूनिवर्सिटी के तौर पर अपग्रेड किया गया। लेकिन पहले से मौजूद स्वास्थ्य ढांचे की सुध कम ली गई । वो चाहे पीएचसी हों , सीएचसी हों या फिर सामान्य अस्पताल सभी जगह चिकित्सकों ,अन्य स्वास्थ्य कर्मियों जैसे लैब तकनीशियन , फार्मासिस्ट , स्टाफ नर्स इत्यादि की कमी ज्यों की त्यों बनी हुई है । जो स्वास्थ्य कर्मचारी पहले से काम कर रहे हैं , उनके शिक्षण व प्रशिक्षण की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। सभी स्वास्थ्य कर्मचारी सरकार की मौजूदा नीतियों से परेशान हैं। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं जैसे आशा वर्कर्स, आंगनवाड़ी वर्कर आदि की स्थिति भी बाकी कर्मचारियों जैसी ही है । पिछले कुछ वर्षों में इन तमाम तबकों ने अनेक हड़तालें व प्रदर्शन इन्हीं मांगों को लेकर किए हैं । दूसरी ओर मरीजों व बीमारियों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है , कोई भी बीमारी महामारी का रूप धारण कर लेती है । गर्भवती महिलाओं व छोटी बच्चियों में खून की कमी हरियाणा की पहचान बनी हुई है ।अस्पतालों में दवाइयों की उपलब्धता न के बराबर है। जांच सेवाएं उपलब्ध कराने के नाम पर निजी कंपनी को पीपीपी के ठेके दिए गए हैं। इससे लोगों के एक तबके को कुछ राहत तो मिली है लेकिन निजीकरण की मुहिम ज्यादा तेज हो गई है । राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना भी पिछले करीब 4 साल से बजट उपलब्धता के बावजूद ठप्प पड़ी है । स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार और विकास के नाम पर सिर्फ बड़ी-बड़ी बिल्डिंग ही बनी हैं । यह सारी परिस्थितियां स्वास्थ्य ढांचे व सेवाओं के प्रति सरकार की उदासीनता को ही दर्शाती हैं ।
एक तरफ जहां सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचा लोगों की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को संबोधित करने में नाकाफी सिद्ध हो रहा है वहीं दूसरी तरफ स्वास्थ्य के साथ-साथ दूसरे सामाजिक क्षेत्र जैसे शिक्षा आदि के क्षेत्र में भीसार्वजनिक निवेश नियमित रूप से साल दर साल कम होता जा रहा है ।जरूरी हो जाता है कि स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने के लिए और सार्वजनिक सेवाओं के तेजी से हो रही निजीकरण के खिलाफ लोग अपनी आवाज बुलंद करें । यह सब चुनौतियां जन स्वास्थ्य अभियान हरयाणा की भूमिका को अहम बना रही हैं ।
कुछ मुख्य मुद्दे:
1.सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र का सशक्तिकरण
2 . निजीकरण और स्वास्थ्य सेवाएं
3 . जेंडर और स्वास्थ्य
4 . दवाइयों और जांच सेवाओं की उपलब्धता
5 . स्वास्थ्य के सामाजिक कारक
जन स्वास्थ्य अभियान हरियाणा ।

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