आज का दौर और हमारी सेहत
भारत की और हरियाणा के स्वास्थ्य
सेवाओं के ढांचे में भी व्यापक स्तर की
पुर्नगठन की प्रक्रियाएं जारी हैं और पिछले दशक से और तेजी पकड़ रही हैं।
बड़े पैमाने पर प्राईवेट मैडीकल सैक्टर का फैलाव , स्वास्थ्य सेवाओं में प्राईवेट
इंशोरैंस कम्पनियों की दखलन्दाजी ,
सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में मैडीकल
सर्विसिज के लिए पेमैंट सिस्टम की
शुरुआत पिछले दशकों में हुई तीन मुख्य तबदीलियां हैं। मैडीकल एजुकेशन का बड़े पैमाने पर
व्यापारिकरण साफ नजर आने लगा है
जब कई राज्यों में प्राईवेट मैडीकल
कालेजों में एम. बी. बी. एस. कोर्स की
फीस दो करोड़ रुपये कर दी गई है। हरियाणा के बुढ़ेड़ा मैडीकल कालेज में
भी एक करोड़ की फीस बताई जा रही है। जिस तेजी के साथ ये बदलाव आ रहे हैं
इससे एक संशय की बड़ी जगह
संवेदनशील दिमागों में बनती है। हो सकता है कि यदि हम इस रफतार से चले तो आने वाले कुछ वर्षों में हम
स्वास्थ्य क्षेत्र में अमरीकी मॉडल जो कि
बहुत मंहगा है, मुनाफे से संचालित है, तकनीक(टैक्नोलोजी) इंटैंसिव है, अन्यायपूर्ण व ना बराबरी पर टिका हुआ है, को भारत वर्ष में प्रस्थापित कर देंगे।पूरी पूरी सम्भावना है कि बहुत जल्द ही
हमारा स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा आम
आदमी की पहुंच से बाहर हो जायेगा। हम में से काफी लोग यह भी महसूस
करते हैं कि इससे उपजा असंतोष जन
मंचों के माध्यम से अभिव्यक्ति पा रहा है और आने वाले समय में और तीखे स्वरों में उठाया जायेगा। इसमें एक हैरानी की बात यह है कि
सरकारें तथा उनकी एजैंसीज भी इस
कोरस में शामिल हो रही हैं। कोरोना की महामारी ने इन सब बातों को और साफ ढंग से जग जाहिर कर दिया है।
गुड गर्वनैस के सिद्धान्त पर चलते हुए
स्वास्थ्य सेवाओं की दोहरी व्यवस्था - एक अमीरों के लिए और एक गरीबों के लिये के नियम को आगे बढ़ाया जा रहा है ताकिसमता के मसले को आसानी से टैक्ल
किया जा सके बिना उस प्रक्रिया के साथ छेड़खानी किये बगैर जिसके चलते
विनिवेश की प्रक्रिया चालू रही रहे। समाज के एक छोटे से अमीर और सर्विस के हिस्से के लिए अर्न्तराष्ट्रीय स्तर की
उच्च तकनीक आधारित स्वास्थ्य सेवाओं का विकास किया जा रहा है और उसके
माध्यम से फोरन एक्सचेंज कमाने का
तर्क भी दिया जा रहा है। इसको हैल्थ टूरिज्म का नाम दिया गया है। गरीब लोगों के लिए सरकार विश्व बैंक की 1993 की रिपोर्ट पर आधारित सुझााव के हिसाब से ‘‘मुफत’’ ‘‘ मिनिमम क्लीनिकल पैकेज’’ देगी।
मूलभूत सवाल यह उठता है कि गरीब
लोगों की बीमारियों के परोफाइल का क्या
उसका जो ‘‘ मिनिमम एसैन्सियल क्लीनिकल पैकेज ’’ सुझाया जा रहा है , उसके साथ कोई तारतम्य भी है? इसमें कोई दो
राय नहीं हैं कि इस पैकेज से हम गरीबों
की बीमारियों का इलाज सम्भव नहीं है। इसके साथ ही सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं में लागू किये जा रहे यूजर चार्जिज के
चलते समाज के इस हिस्से के लिए अपनी स्वास्थ्य समस्याओं के समाधान के लिए कोई जगह शायद ही बच पायेगी। इसी कारण से गरीबों के हिस्सों में भी
एक ऐसा रुझान देखने को मिलता है कि वे यदि सम्भव हो तो या कुछ बेचकर
जुगाड़ करके प्राईवेट सैक्टर में अपना
इलाज करवाते हैं। ऐसा वे तभी करते हैं जब उनके पास
दूसरा कोई विकल्प नहीं बचता। बीमारी काफी गम्भीर होती है या इलाज काफी महंगा होता है तो वे सरकारी
स्वास्थ्य सेवाओं की शरण में आने को
मजबूर होते हैं या प्राईवेट डाक्टर के पास लुट पिट कर सरकारी अस्पतालों में
पहुंचते हैं। इस आबजरवेशन की विडम्बना यह है कि लोगों और खासकर गरीब लोगों द्वारा
अपने स्वास्थ्य पर किये जा रहे खर्च को
उनकी इलाज के लिए ‘‘रजामन्दी’’ रुपी
ब्यान के रुप में पेश किया जाता है। जबकि सच्चाई यही है कि दूसरे विकल्पों के अभाव में ऐसा किया जाता है न कि
एक च्वाइस के रुप में। उन सर्वेक्षणों को जो इलाज पर परिवार द्वारा किये गये खर्चों के संदर्भ में किये गये हैं दो क्रिटिकल फैक्टरज के संदर्भ में देखे जाने की जरुरत है। एक तो यही कि उस पैसे की उगाही किस तरह और किन हालात में की गई और
दूसरा यह कि इस खर्चे का परिवार पर
कुल मिलाकर क्या आर्थिक असर पड़ा। जहां इस प्रकार की स्टडीज में स्वास्थ्य
पर हुए खर्च को तो उजागर किया जाता हैमगर इस खर्च के कारण जो कर्ज में डूबनकी बात है उस पर चुप्पी साध ली जाती है। यह बात गरीब लोगों के हितों के खिलाफ जाती है। मजबूरी में जमीन बेचते हैं लोग । इस प्रकार की स्टडीज ने सर्विस के लिए पैसे वसूलने के सिद्धान्त को आधार दिया तथा पब्लिक अस्पतालों में भी ‘‘ यूजर
चार्जिज’’ की शुरुआत हुई। यहां भी उदघोषित उद्येश्य बताया गया कि इन ‘‘ यूजर चार्जिज ’’ को गरीब लोगों के लिए इस्तेमाल किया जाएगा मगर
असलियत यह है कि समाज का वह
हिस्सा जो थोड़ा बहुत खर्च करने की
क्षमता रखता है उसे भी ‘‘प्राईवेट हैल्थ
सिस्टम’’ की और धकेल दिया गया है - साफ है कि यदि उसे पैसा खर्च करना है तो वह सैकेंड बैस्ट की च्वाइस क्यों करेगा ? और प्राईवेट अस्पतालों को राज्य
सरकारों ने सरकारी कर्मचारियों के लिए
एमपैनलमैंट पर रख कर प्राइवेटाइजेशन को और प्रोत्साहन दिया है। इन अस्पतालों में करीब 60 प्रतिशत
मरीज सरकारी कर्मचारी होते हैं जिनका
इलाज का खर्च सरकार वहन करती हैं। दूसरी तरफ पब्लिक सैक्टर के अस्पतालों में ‘यूजर चार्जिज ’ लागू होने के बावजूद वहां की गिरती हुई स्वास्थ्य सेवाओं के
क्या कारण हैं? पंजाब में सरकारी
अस्पतालों में मरीजों की संख्या काफी
कम हुई है। इतना ही नहीं वर्तमान हालात में गरीब
लोगों पर दोहरी मार पड़ रही है, जब वे
सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का इस्ते माल
करते हैं तो एक तो पैसा देना पड़ता है
अप्रत्यक्ष करों के रुप में और दूसरे सीधे
टैक्स ‘‘ यूजर चार्जिज’’ के रुप में भी पैसा देना पड़ता है। प्राईवेट सैक्टर में कम्पीटीसन के नाम पर कम कीमत में स्वास्थ्य सुविधाएं मिलने का तर्क दिया जाता है। मगर असली सच्चाई यही है कि जब
बाजार व्यवस्था का एक मात्र लक्ष्य किसी भी कीमत पर अपना मुनाफा बढ़ाना हो
तो प्राईवेट सैक्टर किसी भी कीमत पर
किसी भी किस्म का कम्पीटीसन बर्दाश्त
नहीं करता। सुधारीकरण के नाम पर सैकण्डरी और
टरसरी स्तर की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को एक एक करके पी पी पी मॉडल के
तहत प्राईवेट हाथों में देने के काम को एक तरह से प्राईवेटाइजेशन के सामने खड़े
अवरोध को दूर करने की परिणीति के रुप में ही देखा जाना चाहिये। यहां तक भी तैयारी है कि सरकार अपनी भूमिका बदल ले। अब तक स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में
सरकार की भूमिका सर्विस प्रोवाइडर की रही है। मगर अब वह फाइनैंसर की भूमिका में आ रही है जोकि गरीबों के लिए प्राईवेट हैल्थ प्रोवाइडर से सेवाएं खरीद कर गरीबों को दिलवा
सके। और यह बात प्राईवेट सैक्टर की स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने वालों में कम्पीटीसन
करवाकर गरीबों को क्वालिटी स्वास्थ्य
सेवाएं हासिल करवाने का सरकार बहुत
ही कारगर तरीका मान रही है। यह एक तरह से पहले से ही बड़े पैमाने
पर सबसिडाइज्ड प्राईवेट हैल्थ सैक्टर को और अधिक सबसिडी देने का ही एक
तरीका है।
आज हम इतिहास के उस मुकाम पर हैं जहां भारतवर्ष ने उननिवेशवाद से मुक्ति पाये आजादी के 73 साल के करीब हो गये हैं।हम आज इतिहास के उस मुकाम पर भी हैं जहां भारतवर्ष ने सहर्ष रुप में ढांचागत समायोजन कार्यक्रम स्वीकार करके
नवउपेनिवेषवाद की नई गुलामी को एक बार फिर स्वीकार कर लिया है। इस 73 साल की आजादी के दौरान
गरीब लोगों की एक ऐसी भी पीढी पैदा
हुई जो अपने पूरे जीवन काल में ताउम्र दो जून की रोटी की लक्जरी के बगैर ही मर गई। दूसरी तरफ उन्होंने यह भी देखा कि
उनके खून पसीने की कमाई से हुए
विकास के फलों को समाज के एक छोटे हिस्से के कम्फरट और एन्ज्वायमैंट के लिए सुरक्षित करके रख लिया गया-यह तबका है उच्च वर्ग और स्वर्ण जाति
का।यह महज एक दुर्घटना की बात नहीं है किहमारे समाज का यही हिस्सा जिसने
हमारी आजादी के सबसे ज्यादा सुख भोगे,आज हमारे देश की संप्रभुता और भविष्य को गिरवी रख कर अपने लिए
अर्न्तराष्ट्रीय स्तर के शासक वर्गों में अपना स्थान ढूंढ रहा है।इस बात को समझना बहुत जरुरी है।
73 साल के लगभग का समय कम नहीं होता जिसमें हमें हमारे शासक वर्ग की
नीतियों के बारे में, उनके इरादों के बारे में, लोगों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को लेकर अन्दाजा न हुआ हो।पाले बन्दी साफ होती जा रही है। 200 से ज्यादा दिन से चल रहे किसान आंदोलन ने यह बात भी बिल्कुल साफ करदी है। यह महज एक चांस की बात नहीं है ,
बल्कि च्वाइस की बात है कि हमारे देश में लाखों लोग लम्बी भूख के दौर से गुजर
रहे हैं जबकि गोदामों में अनाज पड़ा पड़ा सड़ रहा है। यह महज चांस नहीं मगर च्वाइस है
जिसने अंतर्राष्ट्रीय पूंजी की डिक्टेटर सिप के लिए जमीन तैयार की है। हमारी राजसता से पार्लियामैंट को
निष्क्रिय करवाने के इस पूंजी के गम्भीर
प्रयास हो रहे हैं। उदाहरण के लिए यह महज चांस की बात नहीं है बल्कि च्वाइस का मसला है कि
पिछले 73 साल में ‘‘ प्राइवेट मैडीकल
सैक्टर’’ का किस तरह से विकास हुआ। हम इस बात का क्या जवाब दे सकते हैं कि 80 के आरम्भ के दशक में जो प्राइवेट हैल्थ सैक्टर 20 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कर रहा था वही अब 80 प्रतिशत
स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान कर रहा है। इस प्राइवेट हैल्थ सैक्टर में काम करने
वाले डाक्टर कहां से आते हैं? क्या ये
डाक्टर हमारे शिक्षा व स्वास्थ्य शिक्षा के
उत्पाद नहीं हैं जो बउ़े पैमाने पर गरीबों
की मेहनत की कमाई में से सबसिडाइज्ड की जा रही है? गरीबों की यह कमाई
इनडायरेक्ट टैक्सिज के द्वारा सरकार के पास पहंचती है। हमें क्यों नहीं झटका लगता है जब हम हिपोक्रेटिक औथ के बावजूद मैडीकल
समुदाय के अन्दर जातिवाद और
साम्प्रदायिकता बडे़ पैमाने पर महसूस
करते हैं ? क्या यह मैडीकल समुदाय की उसकी जाति व वर्ग की लोकेशन के
कारण नहीं है? क्या हमारी नीति में
दोगलापन नहीं था या है? हमने आजादी के बाद लाइसैंसियेट डाक्टर जो कि हमारी बड़ी जनता की जरुरत था, की पढ़ाई
जारी रखने की बजाय अर्न्तराष्ट्रीय दर्जे का डाक्टर बनाने की पढ़ाई पर जोर दिया जो पहले दुनिया के देशों में ब्रेनर्डेन के रुप में हमसे चला गया और आज देश में ही
प्राइवेट सैक्टर में ब्रेन ड्रेन हो रहा है। हमारे गांव तक हम इस डाक्टर को जाने के लिए अभी तक प्रोत्साहित नहीं कर
पाये। कभी सोचा है हम कैसा डाक्टर पैदा कर रहे हैं? ऐसा आखिर क्यों किया गया?
आज जब हम एक तरफ तो अर्न्तराष्ट्रीय स्तर के ट्रेंड डाक्टरों की बहुतायत हमारे पास हरियाणा में है तो क्या हम उन तथकथित सब स्टैंडर्ड
लाइसैंसियेट डाक्टरों की गरीबों के इलाज के लिए बात कर सकते हैं ? जब हमने
हमारी जनता के हिसाब से सफिसियैंट
संख्या डाक्टरों की तैयार कर ली है तो हमरोजाना डाक्टरों की कमी का बहाना करके रोजाना और मैडीकल किस लिए खोले जा रहे हैं? विश्व बैंक 1993 जिसने हमारे देश के स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे को दिशा निर्देश दिये वह सरप्लस डाक्टरों के बारे
चुप्पी क्यों साधे हुए है? दूसरी तरफ
सच्चाई यह है कि कई पश्चिमी देशों में
भारत के डाक्टर बड़ी संख्या में मौजूद हैं । हमारे देश की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति इस पर चुप क्यों है?उपनिवेशवाद की लिगेसी इसका जवाब
नहीं हो सकती क्योंकि इसको पलटने के लिए हमारे पास ७३ साल का समय रहा है। महज इतना भर कह देना काफी नहीं है कि ‘पब्लिक हैल्थ केयर सिस्टम ’ पर
हमला बोला जा रहा है या इसे डिसमैंटल किया जा रहा है। बल्कि इसे परिभाषित करना बहुत
आवश्यक हो गया है। असल में किस चीज पर हमला किया जा रहा है और क्या डिसमैंटल किया जा रहा है इसे व्याख्यायित किया जाना बहुत
जरुरी हो गया है। साथ ही यह भी देखना है कि किस तरह से यह सब गरीब लोगों के स्वास्थ्य को
प्रभवित करेगा हालांकि गरीब लोग इन
सब प्रक्रियाओं को एक इनडिफरैंस, क्रोध और बेचैनी के साथ देख रहे हैं। जब टूटी फूटी बिखरी उपस्वास्थ्य केन्द्रों की इमारतों से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य
केन्द्रों की इमारतों तक; स्वास्थ्य क्षेत्र के
उपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार के चलते, गरीब विरोधी, जातिगत,लिंगभेद वाला
मैडीकल प्रोफैसन और खासकर डाक्टर
बतौर टीम लीडर के व्यवहार के कारण,
दवाओं की कमी के कारण; उपकरणों की कमी,उपकरण हैं भी तो उनके इस्तेमाल
करने वाले विषेशज्ञों की कमी, पी एच सी., सी एच. सी. और जिला अस्पतालों में
ढीली स्वास्थ्य सेवाओं के चलते, गरीब
विरोधी और महिला विरोधी जनसंख्या
नियन्त्रण विभाग के हमलों के चलते- गरीब लोग जमीनी स्तर पर मौजूद
स्वास्थ्य सेवाओं के भ्रष्टीकरण के गरीब
चश्मदीद गवाह हैं और उनपर इस बात का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ने वाला जब उनको बताया जाता है कि यह सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा खत्म किया जा रहा है
क्योंकि उसके लिए तो एक तरह से यह
पहले से ही बन्द हो चुका है। आगे क्या आने वाला है इस बात पर उन लोगों के बीच में भी जो इस स्वास्थ्य
सेवाओं के ढांचे के बारे में गम्भीरता से
सोचते हैं एक चुप सहमति सी लगती है। और इस बात पर भी चुप सहमति लगती है कि अब इन बााजार की ताकतों को
आगे बढ़ने से नहीं रोका जा सकता है। किसी भी व्यक्ति द्वारा उसके व्यक्गित
विश्व दृृष्टिकोन के हिसाब से सरकार की
राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में बदलाव के लिए जो सोचा जाता है वह कुछ इस प्रकार कि विश्व बैंक और ट्रांसनेशनल पूंजी ने जो
ढांचा और जगह देशों की सरकारों के
माध्यम से बनाया है उसी में गरीब मरीजों की जगह कैसे बनाई जाए और साथ ही
इस ढांचे को कोई चुनौती भी न दी जा
सके। असल में मूलभूत ढंग से इन कमजोर तबकों की नजर से देखकर वैकल्पिक
स्वास्थ्य ढांचे की परिकल्पना करना एक
रणनीतिक काम है ताकि स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच इन तबकों तक हो सके।
कोरोना महामारी के बाद इन तबकों में भी स्वास्थ्य को लेकर चर्चा बनी है।
यह विषय अधूरा रहेगा यदि नोन गवर्नमैंटल आरगेनाइजेशन ; एनजीओ (NGO ) के बारे में आलोचनात्मक विश्लेषन न किया जाए । ऐतिहासिक रुप से , एन जी ओ सैक्टर जिसे पहले वालैन्टरी सैक्टर कहा जाता
था, ने समीक्षात्मक ढंग से राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति एवं प्रोग्रामों को मूर्त रुप देने में
कंट्रीब्यूट किया है। आरम्भ में सर्विस प्रोवाइडर की भूमिका में, अस्पतानों के स्थपित करने खासकर ग्रामीण इलाकों में और हर स्तर की मैन
पावर को ट्रैनिग देने के क्षेत्रों पर एम्फैसिस रेखांकित हुआ और इस दिशा में काम किया गया। कई सालों के बाद इस प्रकार के संगठनों ने व्यकित के स्वास्थ्य को ज्यादा व्यापक बनाते हुए समुदाय को शामिल करने की
परिकल्पना विकसित की और वैकल्पिक स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में प्रयोग किये
मसलन ग्रामीन स्वास्थ्य कार्य कर्ताओं को प्रशिक्षित करना, नीतिगत बदलाओं के
लिए कैम्पेनिंग करना,असमानताओं के
मामलों को हाई लाइट करना जन पक्षीय नजर के साथ समीक्षात्मक डाटा तैयार
करना आदि महत्वपूर्ण योगदान रहे हैं। मगर पिछले दो दशकों से इनकी
प्राथमिकताएं ज्यादातर फंडिंग संस्थओं के एजैंडा के हिसाब से तय होनी शुरु हो
गई,जो कई प्रकार के सवालों के घेरे में आगई हैं। लोगों के साथ सीधे रुप से काम करने के बजाय प्राथमिकता लोबिंग और
एडवोकेसी नीति निर्धारकों के साथ, को
बदलाव लाने के ज्यादा प्रभावी तौर
तरीकों के रुप में देखा गया। बीतते समय के साथ संघर्षशील लोगों के संघर्षों को समर्थन देने का काम धीरे धीरे कम होता चला गया तथा गरीब तबकों ने भी इन संस्थाओं को अविश्वास और
सिनिसिज्म के साथ देखना शुरु कर दिया। एक सच्चाई यह भी है कि इस एन जी ओ सैक्टर के अन्दर एक हिस्सा ‘लिबरल
वोकल मिडल क्लास’ का भी है जिसकी सोसल एकाउन्टैबिलिटी बहुत कम है तथा कोई विचार धारा नहीं हे या लम्बे समय
तक निरन्तरता के साथ काम करने का संकल्प नहीं है। इस सबके चलते यह तबका ‘सिटिंग
डॅक ’ फोर कोओपसन बन गया है। बाहर की फंडिंग पर निर्भरता देशी हो या बदेशी , का मतलब यह हो गया है कि
‘संकट के समय’ या ‘गम्भीर मसलों’ पर
इनको मैनुपुलेट या प्रैसराइज किया जा
सकता है और उनका ध्यान लोगों के
जिन्दा रहने की जरुरतों के सवालों से हटाकर उनके अपने हितों के बचाव की तरफ कर दिया जाता है। यह वलनरेबलिटी तथा वैसीलेसन की
तासीर की वजह से एन जी ओ सैक्टर की तरफ विश्व बैंक और राज्य का भी
आकर्षण बढ़ा है क्योंकि इसमें मौजूद
डाइसैंट के पोटैंसियल को वे अपने ढंग से दिशा देना चाहते हैं। एक रणनीतिक ढंग से सोच के साथ इन सभी एन जी ओज को चाहे वे किसी भी
तरह की हैं, एक ही खाते में डाल देना ,
इनके वैचारिक पक्ष को धूमिल करने की चेष्टा रही है। यह पहला कदम था किसी भी प्रकार की असहमति की घेरा बन्दी करके खत्म
करने का और इसका प्रतिरोध भी
कमोबेश नहीं किया गया। इसीलिए इस एन जी ओ आन्दोलन के
नेता गण आमतौर पर एक वैचारक के रुप में अग्रणी कतारों में नजर आते हैं और
इन नीतियों व कार्यक्रमों को लागू करते
दिखाई देते हैं जो सीधे सीधे ट्रांसनेशनल पूंजी के हित में हैं। इसके बावजूद यह अभी भी सम्भव है कि इस बड़ी उर्जा को सही दिशा में आगे
बढाया जा सके ताकि जो शोषण कारी
नीतियां हैं उनका विरोध किया जा सके। जनसंख्या नियंत्रण कार्यक्रमों , खतरनाक गर्भ निरोधकों, दवा उद्योग के खिलाफ
इस प्रकार के विरोध के सटीक उदाहरण हैं। इसी प्रकार ‘पीपल्ज हैल्थ असैम्बली’ एक और इसी प्रकार का व्यापक प्रयास है। जन स्वास्थ्य अभियान भारत और
हरियाणा के स्तर पर सक्रिय है।
पिछले दशक में और भी खतरनाक
बदलावों की शुरुआत 2005 में डबल्यू टी ओ संधि लागू हो जाने के बाद सामने
आने लगी और ये बदलाव जोर पकड़ते
गये हैं। वैश्वीकरण के नाम पर सुधारीकरण की
प्रक्रिया के चलते बढ़ती बेरोजगारी, कर्मचारियों की छंटनी,कैजुअल व कॉन्ट्रेक्चुअल लेबर की तरफ बढ़ते कदम, कम
तनखाएं आदि रुझान सामने आने लगे जोअब और जोर पकड़ते जा रहे हैं।इसके साथ साथ स्वास्थ्य सुविधाओं के
निजीकरण के कारण म्हंगा होता इलाज
तथा म्हंगी होती दवाएं अपने दुष्प्रभाव
दिखा रहे हैं। इस प्रकार के बदलाव गरीब लोगों के
स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर डाल रहे हैं
जिनके चलते बीमारियां तथा उनके कारणहो रही मौतें बढ़ती जा रही हैं।
हम वर्तमान और भविष्य के बारे में
बिना भूतकाल पर चर्चा किये बातचीत
नहीं कर सकते । इसके बावजूद हमें वर्तमान और भविष्य से सरोकार है। इसके अलावा 2001 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति पर उठी बहस के बाद ऐसा महसूस किया जा रहा है कि पब्लिक हैल्थ की
पुरानी परिभाषा में ही बदलाव आ रहा है। हमें आर्थिक , राजनीतिक सरोकारों व
मजबूरियों की जिनके चलते हमारे देश की राष्ट्रीय स्वास्थय नीतियां देश की आजादी से लेकर अब तक बनती रही हैं, एक बार फिर समीक्षा की जरुरत है तथा इसके
जहां आवश्यक हो वहां इसके पिछले
उपनिवेशवादी दौर व परम्पराओं के संदर्भ में भी देखने की जरुरत है तभी नई
स्वास्थ्य नीति जो कि स्ट्रक्चरल
एडजैस्टमैंट प्रोग्राम के तहत लागू की जा रही हैं को देखने का कोई मतलब है और तभी एक जन सापेक्ष स्वास्थ्य नीति तथा देश में स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा सोच
सकते हैं।
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