Wednesday, 31 May 2017

संपादकीयः दवा का आधार (जनसत्ता) December 3, 2016

संपादकीयः दवा का आधार (जनसत्ता)

दिल्ली हाईकोर्ट में केंद्र सरकार यह साबित नहीं कर पाई कि दस मार्च को 344 एडीसी (फिक्स डोज कांबिनेशन) दवाओं को प्रतिबंधित करने का उसका फैसला विधिसम्मत था। लिहाजा, न्यायालय ने स्वास्थ्य मंत्रालय के इस आदेश को गुरुवार को निरस्त कर दिया। लिहाजा कोरेक्स कफ सीरप, विक्स एक्शन-500 समेत कई एंटीबायोटिक दवाओं के फिर से बिक्री के रास्ते खुल गए हैं। केंद्र सरकार ने एक विशेषज्ञ समिति की सिफारिश पर इन दवाओं को प्रतिबंधित किया था। समिति ने पाया था कि इन दवाओं का साइड-इफेक्ट होता है और कई दवाएं तो अपने दावे के हिसाब से बीमारियों से लड़ने में सहायक भी नहीं होतीं। लेकिन न्यायालय ने अपने आदेश में कहा है कि केंद्र सरकार ने निहायत ‘बेतरतीब तरीके’ से इन दवाओं को प्रतिबंधित किया है। पफीजर, सिपला जैसी नामी-गिरामी कंपनियों समेत 454 दवा कंपनियों की ओर से दाखिल याचिकाओं पर फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने यह भी कहा कि सरकार ने जो निर्णय लिया, परिस्थितियों के हिसाब से वैसा करने की कोई अनिवार्यता नहीं थी।
दवा कंपनियों की दलील थी कि सरकार ने फैसला लेते समय दवा व प्रसाधन अधिनियम की प्रक्रियाओं पर ठीक से अमल नहीं किया। दवा तकनीकी सलाहकार बोर्ड या औषधीय सलाहकार समिति से भी इस बारे में राय नहीं ली गई, बल्कि एक तकनीकी समिति गठित करके उसकी सिफारिश सरकार ने मान ली। ऐसा करना कानूनन ठीक नहीं था। इसके अलावा, किसी दवा को प्रतिबंधित करने से पहले निर्माता कंपनी को तीन महीने का नोटिस दिया जाना चाहिए था। दवा कंपनियों ने यह भी कहा कि जिस तकनीकी समिति की सिफारिश पर पाबंदी लागू की गई, वह एक गैर-स्वायत्त समिति थी, जिसेऐसी सलाह देने का वैध अधिकार नहीं था। इन दवाओं का सरकार ने न तो कोई क्लीनिकल परीक्षण कराया और न ही होने वाले नुकसान का कोई आंकड़ा दिया, बस सीधे-सीधे उन्हें ‘बेकार’ बता दिया। केंद्र सरकार की ओर से कहा गया कि दवा कंपनियां, जिन समितियों की सलाह लेने की बात कर रही हैं, उसकी कोई जरूरत नहीं थी, क्योंकि दवाओं का नुकसानदेह होना ही पर्याप्त था। और पाबंदी ही इसका एकमात्र जवाब था। इसके अलावा, ऐसी किसी भी दवा का लाइसेंस दवा एवं औषधि महानियंत्रक से लेना जरूरी होता है, न कि किसी राज्य की ड्रग लाइसेंसिंग एजेंसी से, जैसा कि तमाम कंपनियों ने कर रखा है। फिर, कानून सरकार को यह अधिकार देता है कि वह ‘अपनी संतुष्टि’ के आधार पर कार्रवाई कर सकती है।
काबिलेगौर है इससे पहले भी इस तरह की दवाओं को प्रतिबंधित करने की मांग उठती रही है। दुनिया भर में हुए कई अध्ययनों में भी यह पाया गया कि इस तरह की इकलौती खुराक वाली दवाइयों से कोई लाभ नहीं होता। मंत्रालय की संसदीय स्थायी समिति ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि एफडीसी दवाओं को लेकर स्पष्ट और पारदर्शी नीति बननी चाहिए। अब जबकि न्यायालय ने इन दवाओं से रोक पूरी तरह से हटा ली है तो यह मानना जल्दबाजी होगी कि ये फौरन बाजार में उपल्बध हो सकेंगी। पूरी संभावना है कि केंद्र सुप्रीम कोर्ट में अपील करे, क्योंकि उसने वहां पहले ही यह याचिका दायर कर रखी है कि इस बारे में सभी याचिकाओं की सुनवाई वहीं हो।
सौजन्य – जनसत्ता, 03-12-2016

योजना का सच

योजना का सच (दैनिक जागरण)

योजना की प्रासंगिकता तभी होती है, जब लक्षित वर्ग तक उसका लाभ पहुंचे। अगर ऐसा नहीं हो पाता तो योजना के औचित्य पर सवाल उठना लाजिमी हो जाता है। ऐसा नहीं होता तो योजना की असफलता तय है व उनका कार्यान्वयन करने वाली संस्थाओं की कार्यप्रणाली पर सवाल उठना लाजिमी हो जाता है। प्रदेश व केंद्र सरकार द्वारा आम जनता की सुविधा के लिए कई योजनाएं संचालित की जा रही हैं। रोगियों को निशुल्क दवाएं उपलब्ध करवाने के लिए केंद्र सरकार से प्रदेश को सालाना करोड़ो रुपये दिए जा रहे हैं। तीन साल में केंद्र सरकार 50 करोड़ रुपये से अधिक इस योजना के तहत प्रदेश सरकार को उपलब्ध करवा चुका है। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत भी प्रदेश को करोड़ों रुपये का बजट मिल रहा है। तीन साल में इस योजना के तहत प्रदेश को करीब 681 करोड़ मिले हैं। पिछले वित्तीय वर्ष में प्रदेश को 30. 85 करोड़ रुपये निशुल्क दवाओं के लिए व राष्ट्रीय ग्रामीण मिशन के तहत 246.49 करोड़ रुपये जारी किए। विभागीय आंकड़ों की मानें तो केंद्र से मिली राशि के मुकाबले 281. 26 करोड़ की राशि खर्च की गई है। लेकिन हकीकत यह है कि सरकारी चिकित्सा संस्थानों में मरीजों को निशुल्क दवाएं उपलब्ध नहीं करवाई जा रहीं। केंद्र सरकार ने पांच दर्जन से अधिक दवाओं को सूचीबद्ध भी किया है, लेकिन चिकित्सालयों में सस्ती माने जाने वाली पैरासीटामोल या सर्दी जुकाम की दवा के अलावा दूसरी दवाएं मरीजों को दी ही नहीं जा रहीं। महंगी दवा के लिए रोगी को बाजार पर निर्भर रहना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल उठता है कि करोड़ों रुपये खर्च कर जो दवाएं खरीदी जा रही हैं, वे कहां जा रही हैं? महंगी मानी जाने वाली दवाएं मरीजों को क्यों नहीं दी जाती? क्या इन दवाओं की खरीद सिर्फ कागजों में ही की जा रही है? अगर ऐसा है तो केंद्र से मिली राशि कहां जा रही है? ऐसा क्यों है कि स्वास्थ्य से जुड़ी कल्याणकारी योजना का लाभ लोगों तक पहुंच ही नहीं रहा है? अगर कुछ लोगों की लापरवाही के कारण ऐसा हो रहा है तो उनका सच सामने लाकर ऐसे लोगों पर भी नकेल कसनी होगी। दुर्भाग्यपूर्ण है कि शिकायत करने पर कार्रवाई आश्वासनों तक ही सिमटकर रह जाती है। जरूरी है कि पड़ताल हो कि जनहित से जुड़ी योजना के साथ खिलवाड़ रोकने के लिए प्रदेश सरकार प्रभावी कदम उठाए। नीति-नियंताओं को दवा खरीद व वितरण में पारदर्शिता लाने के लिए ठोस योजना बनानी होगी। औषधि केंद्रों के बाहर यह सूचना सार्वजनिक तौर पर लगानी चाहिए कि कौन सी दवा की कितनी उपलब्धता है। औषधि वितरण केंद्र के बाहर शिकायत के लिए सक्षम अधिकारियों के नाम पद व मोबाइल फोन सहित ईमेल पते दर्ज होने चाहिए, जिससे लोग शिकायत तुरंत दर्ज कर सकें। स्वस्थ राज्य का सपना तभी साकार होगा जब सरकार की योजनाओं का लाभ जनता को मिलता रहे।
[ स्थानीय संपादकीय : हिमाचल प्रदेश ]
सौजन्य – दैनिक जागरण।

दवा की कीमत (जनसत्ता

दवा की कीमत (जनसत्ता)

देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं और इलाज पर होने वाले खर्च की तस्वीर छिपी नहीं है। ऐसे मामले आम हैं कि कोई व्यक्ति या उसका परिवार बीमारी का जरूरी और बेहतर इलाज सिर्फ इसलिए नहीं करा पाता कि उस पर होने वाला खर्च वहन कर सकने में वह सक्षम नहीं है। इसमें अस्पताल और डॉक्टर की फीस से ज्यादा मुश्किल दवाओं की कीमतों के चलते पेश आती है। इसलिए कि डॉक्टर जो दवाएं लेने की सलाह देते हैं वे आमतौर पर किसी खास दवा कंपनी की होती हैं और उनकी कीमत काफी ऊंची होती है। इसके मुकाबले जेनेरिक दवाएं दरअसल ब्रांडेड दवाओं का सस्ता और बेहतर विकल्प हैं, जो असर की कसौटी पर बिल्कुल उनके समान होती हैं। बिल्कुल समान कंपोजिशन यानी रासायनिक सम्मिश्रण होने के बावजूद इनके निर्माण पर बहुत कम खर्च आता है और इनके प्रसार के लिए बेहिसाब पैसा नहीं बहाया जाता, इसलिए इनकी कीमतें काफी कम होती हैं।
जबकि ब्रांडेड दवाओं के विज्ञापन से लेकर डॉक्टरों आदि को प्रभावित करने तक पर इतना खर्च किया जाता है कि कंपनियां इन दवाओं की कीमत कई बार लागत के मुकाबले कई सौ प्रतिशत ज्यादा रखती हैं।इसके बावजूद लोग जेनेरिक दवाओं की ओर रुख इसलिए भी नहीं करते कि या तो उन्हें इनके बारे में जानकारी नहीं होती या फिर चिकित्सक उन्हें प्रत्यक्ष या परोक्ष तरीके से ऐसा करने से रोकते हैं। एक बड़ा कारण यह भी है कि जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता की जगहें बहुत कम हैं और अगर कहीं हैं भी तो उनके बारे में ज्यादातर जरूरतमंद लोगों को जानकारी नहीं होती। इस मसले पर काफी समय से सरकार की ओर से कोशिशें हो रही हैं कि अस्पतालों से लेकर आम पहुंच वाली जगहों पर जेनेरिक दवाएं रखने वाले केंद्रों का प्रसार किया जाए, ताकि चिकित्सा खर्च के मामले में लोगों को कुछ राहत मिल सके। इसी संदर्भ में सरकार ने मंगलवार को लोकसभा में एक सवाल के जवाब में बताया कि देश भर में अब तक जेनेरिक दवाओं के पांच सौ चौंतीस स्टोर खुल चुके हैं और अगले साल मार्च तक ऐसे तीन हजार स्टोर और खोले जाने का प्रस्ताव है। गौरतलब है कि सरकार ने विशेष विक्रय केंद्रों के जरिए सभी को किफायती कीमत पर गुणवत्तायुक्त जेनेरिक दवाएं मुहैया कराने के मकसद से प्रधानमंत्री जन औषधि योजना की शुरुआत की है।
सच यह है कि कम कीमत पर समान गुणवत्ता और असर वाली दवाओं तक जन-सामान्य और खासतौर पर गरीब तबकों की पहुंच सुनिश्चित करने के लिहाज से अब तक जितना कुछ किया गया है, वह न के बराबर है। जबकि नामी कंपनियों की दवाओं के बराबर गुणवत्ता वाली जेनेरिक दवाएं साधारण लोगों तक पहुंचाने के मसले पर पिछले कई सालों से चर्चा चल रही है। दवाओं की कीमत की वजह से किसी बीमारी का सही इलाज न करा पाने वाले लोगों की तादाद काफी बड़ी है। मगर जेनेरिक दवाओं के रूप में महंगी दवाओं का विकल्प होने के बावजूद अगर साधारण लोगों की पहुंच इन तक नहीं है तो निश्चित रूप से यह व्यवस्था की इच्छाशक्ति में कमी का नतीजा है। यह ध्यान रखने की बात है कि भारत जेनेरिक दवाओं का उत्पादन करने वाले देशों में प्रमुख है, जो अमेरिका जैसे विकसित देशों समेत विभिन्न देशों को भी इनकी आपूर्ति कर रहा है। सवाल है कि जरूरतमंद लोगों तक इनकी पहुंच क्यों नहीं तय की जा सकी है?
सौजन्य – जनसत्ता, 24-11-2016

राष्ट्रीय सहारा

पेटेंट कानून में बदलाव की दरकार (राष्ट्रीय सहारा )


ड्स-कैंसर व अन्य जीवाणुजनित बीमारियों की रोकथाम में इस्तेमाल होने वाली दवा डाराप्रिम की कीमत साढ़े 13 डॉलर से रातोंरात पांच हजार प्रतिशत बढ़ाकर 750 डॉलर कर दिए जाने की घटना ने दुनिया को हिलाकर रख दिया है। यह इसका उदाहरण है कि जो जीवनरक्षक दवाएं पहले से आम मरीजों की पहुंच से बाहर हैं, उन्हें कमाई में अंधी हो चुकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां किस तरह और महंगा करती जा रही हैं। मुश्किल यह है कि यह मामला सिर्फ डाराप्रिम दवा तक सीमित नहीं है। एक-एक करके तमाम जीवनरक्षक दवाएं महंगी होती जा रही हैं जिससे इलाज का खर्च सहन करना लोगों के बूते से बाहर हो गया है। हाल-फिलहाल टीबी के उपचार की अहम दवा ‘‘साइक्लोसेराइन’ की 30 गोलियों की कीमत 500 डॉलर से बढ़ाकर 10,800 डॉलर कर दी गई, क्योंकि इसका पेटेंट रॉडेलिस थेरेप्यूटिक्स ने एक अन्य कंपनी से खरीदा है।
हृदय रोगों के इलाज की दो मुख्य दवाओं- आइस्यूपिल्र व नाइट्रोप्रेस को मैराथन फार्मास्यूटिकल ने एक अन्य कंपनी से खरीदा तो इनकी कीमत में क्रमश: 525 व 202 प्रतिशत का इजाफा कर दिया। कुछ ऐसा ही हाल प्रसिद्ध एंटीबायोटिक दवा डॉक्सीसाइक्लेन का हुआ जिसकी कीमत अक्टूबर 2013 से अप्रैल 2014 के बीच 20 डॉलर से बढ़ाकर 1849 डॉलर कर दी गई। दो साल पहले अप्रैल, 2013 में दवाओं की कीमत का एक बड़ा मुद्दा भारत में भी तब उठा था, जब स्विट्जरलैंड की बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी नोवार्टसि-एजी द्वारा बनाई जाने वाली ब्लड कैंसर की दवा ग्लाइवेक की एक महीने की खुराक की कीमत सीधे एक लाख 30 हजार रुपये तक पहुंचा दी गई थी। दावा किया गया कि इसी दवा के जेनेरिक संस्करण की इतनी ही खुराक सिर्फ दस हजार रुपये में आ जाती है, तो ग्लाइवेक को इतना महंगा करने की वजह क्या है?जीवनरक्षक दवाएं दिनोंदिन महंगी क्यों हो रही है, इसे डाराप्रिम दवा बनाने व बेचने के सारे अधिकार हासिल करने वाली अमेरिकी कंपनी ट्यूरिंग फार्मास्युटिकल ने साबित कर दिया है। अन्य दवा कंपनियों की तरह ट्यूरिंग फार्मा इसके लिए अधिग्रहण, पेटेंट हासिल करने में हुए खर्च आदि जैसे कारणों को गिना रही है। इन कंपनियों के मत में पेटेंटेड दवाओं के महंगा होने का कारण उनके शोध और विकास पर लगने वाला श्रम व पैसा है। ये बहुराष्ट्रीय कंपनियां दावा करती हैं कि जीवनरक्षक दवाओं के विकास में किसी-किसी दवा पर 100 अरब डॉलर तक का खर्च हो सकता है और इसमें दस साल का वक्त भी लग सकता है।
हालांकि ये दावे पूरा सच नहीं बताते। खास तौर से इस बारे में कि अमेरिका की जो फार्मा लॉबी है, वह वहां के राजनीतिक सिस्टम को कितनी अधिक पैसा मुहैया कराती है। जब ये फार्मा कंपनियां राजनेताओं को पैसे देंगी, तो वे अपने हितों को पोसने का काम भी करेंगी। ऐसी स्थिति में कानून बदलवा लेना और दवाओं की कीमतों को आसमान पर पहुंचा देना उनके लिए कहां मुश्किल रह जाता है?यह बात इससे साबित हुई है कि पिछले करीब आठ-दस वर्षो से बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने नए पेटेंट कानूनों की आड़ में दवा कारोबार पर एकाधिकार कायम करने की मुहिम छेड़ रखी है। उन्होंने यह काम व्यापार से जुड़े बौद्धिक संपदा अधिकार (ट्रिप्स) समझौते की आड़ में किया है, जिसके तहत 1995 में तय हुआ था कि सभी देश एक जनवरी 2005 तक बौद्धिक संपदा के नए नियम को लागू कर देंगे। इस डेडलाइन से ठीक पहले भारत सरकार ने भी एक ऑर्डिनेंस के जरिए यह शर्त पूरी कर ली थी।
यह करना इसलिए जरूरी हो गया था, क्योंकि ऐसा न होने पर विश्व व्यापार संगठन सख्त कार्रवाई कर सकता था। वैसे तो पेटेंट के नए नियम तकनीक के हर क्षेत्र में लागू होते हैं लेकिन फार्मा इंडस्ट्री पर इनका असर साफ दिखाई पड़ता है,जहां प्रोसेस पेटेंट की जगह अब प्रॉडक्ट पेटेंट का नियम लागू किया गया है। असल में, प्रोसेस पेटेंट सिस्टम के तहत भारतीय दवा कंपनियों को छूट मिलती रही है कि वे किसी भी दवा (प्रॉडक्ट) को किसी और प्रक्रिया यानी प्रोसेस के जरिए तैयार कर बाजार में बेच लें। लेकिन नए पेटेंट कानून के अंतर्गत यह छूट नहीं रही। इसीलिए बीच-बीच में यह आशंका भी जताई जाती रही है कि हमारे देश के दवा बाजार पर भी उन बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा हो जाएगा, जो अपने संसाधनों से नई दवाएं ईजाद करने में सक्षम हैं। सवाल है कि कड़े पेटेंट कानून और बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के गोरखधंधे से छुटकारा कैसे मिले? इसका एक उपाय हमारे देश के कानून में है। एक संबंधित कानून के मुताबिक 1995 के पहले खोजी गई दवाओं के जेनेरिक वर्जन देश में तैयार किए जा सकते हैं, जबकि इसके बाद अस्तित्व में आई दवाओं को इस विधि से तैयार नहीं किया जा सकता है। ऐसी दवाओं के मामले में उसे बनाने या पेटेंट खरीदने वाली कंपनी का ही एकाधिकार रहेगा। लेकिन बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने इस कानून के प्रावधानों का भी तोड़ निकालने के तरीके ईजाद कर लिए। ये कंपनियां अपनी पहले से मौजूद दवाओं के फार्मूलों में थोड़ा बहुत परिवर्तन कर उसका नया पेटेंट हासिल करने की कोशिशें करने लगी हैं।
कानून कहता है कि नया पेटेंट तभी दिया जाएगा, जब दवाओं के मॉलिक्यूल नए हों, न कि उन्हें बनाने का फार्मूला। इसलिए कई कंपनियां पुरानी दवाओं के मॉलिक्यूल में मामूली बदलाव करके नई दवाएं तैयार कर रही हैं और उनका नए सिरे से पेटेंट कराने का आवेदन कर रही हैं। बहरहाल, दवाओं के भारतीय जेनिरक संस्करण देश के फार्मा उद्योग को ही नहीं, अमेरिमें भी मरीजों को फायदा पहुंचा रहे हैं क्योंकि उनकी दवाओं की काफी कम कीमत देनी पड़ती है। ट्यूरिंग फार्मा का मामला सामने आने के दौरान ही भारत ने कैंसर की दवा के एक जेनेरिक संस्करण की अमेरिका को आपूत्तर्ि का फैसला किया है, जिससे अमेरिकी समाज राहत महसूस कर रहा है।
राष्ट्रपति पद के लिए होड़ में चल रही हिलेरी क्लिंटन ने भी जेनेरिक दवाओं के लिए कॉरपोरेट पाबंदियां हटाने की मांग की है। इसे उस भारतीय फार्मा उद्योग के लिए एक प्रोत्साहन माना जा रहा है जिसने 2014 में अमेरिका में बाहर से मंगाई गई 64170 प्रकार की कुछ दवाओं में 13 फीसद की आपूत्तर्ि अपने दम पर की थी। सच यह है कि भारत के फार्मा उद्योग ने जेनेरिक दवाओं का निर्माण करके पूरी दुनिया में परचम लहराया है। मूल दवाओं की तरह ही अचूक ढंग से काम करने वाली जेनेरिक दवाओं के उत्पादन के कारण बेहद महंगी दवाओं की कीमतों में भी 60-80 फीसद तक कमी आई है। चूंकि भारतीय फार्मा उद्योग का यह रवैया बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों को रास नहीं आ रहा है, लिहाजा वे जेनेरिक दवाओं की क्वॉलिटी पर सवाल उठाने के साथ अपनी दवाओं पर पेटेंट लेने की कोशिश करती हैं। उम्मीद करें कि देश में अदालती दखल और सरकार की कड़ी शर्तें बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों के गोरखधंधे पर कुछ रोक लगा सकें और मरीजों को सस्ती दवाएं हासिल हों।
यह भी एड्स, कैंसर, टीबी जैसी भयानक बीमारियों की दवाओं के दाम तय करने के अधिकार सरकार के हाथ में रहे। साथ में, पेटेंट कानून की कमजोरियों को भी खत्म करना होगा। मौजूदा पेटेंट कानून की समीक्षा जरूरी है ताकि भविष्य में कोई भी दवा कंपनी मरीजों के हितों के साथ खिलवाड़ नहीं कर सके।
सौजन्य :-राष्ट्रीय सहारा ,9.10.2015, लेखक :- अभिषेक कुमार

जनसत्ता।

दवा की कीमत (जनसत्ता)


केंद्र सरकार ने एक बार फिर ऐसे कानून पर विचार करने की बात कही है, जिसके बाद डॉक्टर किसी मरीज के लिए केवल जेनेरिक दवाइयां लिखेंगे। निश्चित रूप से यह एक अच्छी पहल साबित हो सकती है, अगर यह अपने घोषित मकसद के साथ कानूनन भी जमीन पर उतरे। मुश्किल यह है कि काफी समय से सरकारें ब्रांडेड दवाओं के मुकाबले जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने की बात कहती रही हैं लेकिन उस पर अमल करना अब तक जरूरी नहीं समझा गया। जिनकी आर्थिक हैसियत ठीक है, वे किसी बीमारी की हालत में अच्छी चिकित्सा हासिल कर पाते हैं। लेकिन गरीब तबकों को उन सरकारी अस्पतालों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिनकी बदहाली किसी से छिपी नहीं है। ऐसे मामले आम हैं कि किसी मरीज या उसके परिवार के लिए इलाज कराना सिर्फ इसलिए संभव नहीं हो पाता कि उस पर होने वाला खर्च वहन कर सकने में वह सक्षम नहीं है। कई बार डॉक्टर मरीज की जांच करने के बाद जो दवाइयां लेने की सलाह देते हैं, उनकी कीमत बहुत-से लोगों के लिए भारी पड़ती है।
इसकी मुख्य वजह यह है कि नामी-गिरामी कंपनियों की दवाओं की कीमत काफी अधिक होती हैं। जबकि उन्हीं रासायनिक सम्मिश्रणों वाली दवाएं अगर जेनेरिक श्रेणी की हों तो वे काफी कम कीमत में मिल सकती हैं। ये दवाएं वैसा ही असर करती हैं जैसा ब्रांडेड दवाएं। समान कंपोजीशन यानी समान रासायनिक सम्मिश्रण होने के बावजूद इनके निर्माण पर बहुत कम खर्च आता है। इनके प्रचार-प्रसार पर बेहिसाब धन भी नहीं खर्च किया जाता, इसलिए भी इनकी कीमतें काफी कम होती हैं। लेकिन दवा बाजार पर निजी कंपनियों के कब्जे का जो पूरा संजाल है, उसमें जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता इतनी कम है कि उसका लाभ बहुत-से जरूरतमंद लोग नहीं उठा पाते। दूसरी ओर, ब्रांडेड दवाओं के विज्ञापन से लेकर डॉक्टरों आदि को प्रभावित करने पर खर्च की गई रकम को भी कंपनियां दवा की कीमत में जोड़ देती हैं। ऐसे आंकड़े कई बार आ चुके हैं कि दवा की लागत के मुकाबले बाजार में उसकी कीमत कई सौ प्रतिशत ज्यादा रहती है। मगर आम लोग समान असर वाली सस्ती जेनेरिक दवाएं इसलिए भी नहीं ले पाते कि या तो उन्हें इनके बारे में जानकारी नहीं होती या फिर डॉक्टरी सलाह पर चलते हुए उन्हें ब्रांडेड दवाएं खरीदनी पड़ती हैं।
सरकार की ओर से समय-समय पर ऐसी घोषणाएं सामने आती रही हैं, जिनमें अस्पतालों से लेकर आम पहुंच वाली जगहों पर जेनेरिक दवाएं मुहैया कराने वाले केंद्रों की व्यवस्था करने की बातें कही जाती हैं। मगर इस मामले में जन-जागरूकता के लिए भी सरकार की ओर से अपेक्षित प्रयास नहीं किए जाते, ताकि लोग जेनेरिक दवाओं की ओर रुख करें। यह सरकारों की इच्छाशक्ति में कमी का नतीजा है जिसके पीछे कई बार शायद दवा लॉबी का दबाव भी काम करता होगा! विडंबना यह है कि भारत जेनेरिक दवाओं का उत्पादन करने वाले देशों में अग्रणी है, जो अमेरिका तक को इनकी आपूर्ति करता है, पर अपने यहां इन दवाओं की आम उपलब्धता अब तक सुनिश्चित क्यों नहीं की जा सकी है?
सौजन्य – जनसत्ता।

सौजन्य – पत्रिका।

इरादा नेक, दवा आपूर्ति भी सुनिश्चित हो (पत्रिका)

डॉ.संजीव गुप्ता
भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद के मुताबिक अब सभी डॉक्टरों को मरीजों के लिए जेनेरिक दवाइयां ही लिखनी होंगी। जेनेरिक दवाइयां ब्रांडेड दवाइयों के मुकाबले सस्ती तो होती हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या ये दवाइयां सरलता से उपलब्ध हो पाती हैं? ऐसे निर्देशों से पहले क्या जेनेरिक दवाइयों के वितरण की पुख्ता व्यवस्था कर ली गई है?
भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद यानी मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) ने सर्कुलर जारी कर चेतावनी दी है कि जो भी डॉक्टर मरीजों के लिए सस्ती जेनेरिक दवाएं बड़े और साफ अक्षरों में नहीं लिखेगा, उसके खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। डॉक्टरों का लाइसेंस भी रद्द किया जा सकता है। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यह मरीजों के हित में लिया गया बहुत ही अच्छा फैसला है और सभी डॉक्टरों को ऐसा ही करना होगा, चाहे वे सरकारी हों या गैर सरकारी।
आखिर, सभी एमसीआई में पंजीकृत होते हैं और इसीलिए उन्हें उसके नियमों के मुताबिक ही काम करना चाहिए। लेकिन, सवाल उठता है कि क्या उद्देश्य अच्छा होना ही काफी है? एमसीआई ने जेनेरिक दवाओं को लिखने से संबंधित बाध्यकारी फैसला काफी पहले ही दे दिया था। वर्तमान आदेश तो पूर्व के आदेश को क्रियान्वित करने से संबंधित चेतावनी है।
ऐसे में यह समझना जरूरी है कि एमसीआई के पूर्व आदेश की अनुपालना क्यों नहीं हो पा रही और एमसीआई को कुछ वर्षों बाद चेतावनी क्यों देनी पड़ी? लेकिन, इससे पहले यह समझना जरूरी है कि जेनेरिक दवाएं होती क्या हैं। वास्तव में ये वे दवाएं हैं जो किसी मान्यता प्राप्त शोध के बाद तैयार होती हैं और बाजार में बिकने को आती हैं।
जिस कंपनी के पास दवा का पेटेंट होता है, वही वह विशिष्ट दवा बेचती है। आमतौर पर पेटेंटे 10 वर्ष का होता है या किसी-किसी दवा के मामले में यह 20 वर्ष का भी होता है। भारत के संदर्भ में बात करें तो पेटेंट की समय सीमा समाप्ति के बाद पेटेंट प्राप्त कंपनी विशिष्ट रॉयल्टी लेकर अन्य दवा निर्माताओं को अपनी दवा बनाने की अनुमति दे देती है।
यदि पेटेंट दवा को आधारभूत सूत्र के मुताबिक ही बनाया जाए तो वह जेनेरिक ही कहलाती है। कई बार बहुत सी दवा निर्माता कंपनियां आधारभूत सूत्र में कुछ अतिरिक्त तत्व जोड़़कर अपनी दवा बाजार में पेश करती हैं। ये विशिष्ट ब्रांड की दवाएं जेनेरिक दवाओं के मुकाबले काफी महंगी मिलती हैं।
आमतौर पर यदि जेनेरिक दवा का मूल्य 10 रुपए है तो ये विशेष ब्रांड की दवा 100 रुपए या इससे भी अधिक दाम पर मिलती हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि भिन्न-भिन्न दवा निर्माता कंपनियां जेनेरिक दवाएं बनाती हैं और उनकी एक ही जेनेरिक दवा की गुणवत्ता में भी अंतर आ जाता है। गुणवत्ता का यह अंतर बहुत ही मामूली हो सकता है लेकिन, इसका यह अर्थ नहीं कि जेनेरिक दवा असरहीन या कम असरदार होती हैं। तो फिर ऐसे में होना यह चाहिए कि बाजार में बिकने वाली दवाओं पर ब्रांड का नाम छोटे अक्षरों में लिखा जाए और जेनेरिक नाम या दवा का आधारभूत सूत्र या तत्व का नाम मोटे अक्षरों में लिखा जाए। वास्तविकता में ऐसा होता नहीं है।
कल्पना कीजिए कि यदि किसी डॉक्टर ने मरीज के लिए जेनेरिक दवाई लिखी और उसे मेडिकल स्टोर वाले ने जानी-मानी कंपनी की महंगी दवा दी तो क्या होगा। मरीज यही समझेगा कि डॉक्टर महंगी दवाई लिखते हैं, जरूर डॉक्टर और दवा कंपनी के बीच सांठ-गांठ होगी। यदि मरीज को डॉक्टर की पर्ची पर लिखी हुई जेनेरिक दवा नहीं मिली तो भी मरीज यही सोचेगा, डॉक्टर जानबूझ ऐसी दवाई लिखते हैं जो उनकी पसंद की कंपनी की हो।
यानी मरीज, डॉक्टर पर हर हाल में संदेह ही करता है। अब तक ज्यादातर मामले इसी तरह के रहे हैं। डॉक्टर मरीज के लिए दवाई लिखते हैं या तो वे जन औषधि केंद्र पर ही मिलती हैं और सीमित संख्या होने के कारण जन औषधि केंद्रों पर भारी भीड़ होती है। यह स्थिति कुछ ऐसी ही है कि सस्ती दर पर मिलने के कारण राशन की सरकारी दुकानों पर भारी भीड़ रहती है लेकिन जिनकी क्रय क्षमता बेहतर है यदि उन्हें भी सरकारी राशन की दुकान से ही सस्ता सामान खरीदने का विकल्प मिले तो क्या भीड़ के बावजूद उसी दुकान से सामान खरीदेंगे?
संभवत: बेहतर क्रय क्षमता वाले कम भीड़ वाली निजी दुकान पर जाना पसंद करेंगे। तो, प्रश्न यह उठता है कि निजी दुकानों को भी तो जेनेरिक दवाएं बेचने के लिए बाध्य होना चाहिए लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। मामला मांग और आपूर्ति के बीच आकर फंस जाता है। जितनी दवाओं की मांग है तो क्या उतनी जेनेरिक दवाएं उपलब्ध हैं? मांग को नियंत्रित करने के लिए या जेनेरिक दवाएं वितरित करने के लिए पर्याप्त संख्या में जन औषधि केंद्र भी होने चाहिए।
मरीज को दवा की तत्काल आवश्यकता होती है, ऐसे में भीड़ की परवाह कौन करेगा? आखिरकार, निजी मेडिकल स्टोर पर ही मरीज के लिए दवा लेने को बाध्य होना पड़ेगा। मरीज के इलाज की जरूरत के आगे दवा के मूल्य की चिंता कितने लोग करेंगे? फिर, एक प्रश्न यह भी सामने रहता है कि आखिर डॉक्टर ही क्यों तय करे मरीज को जेनेरिक दवा लेनी चाहिए या नहीं। उपभोक्ता तो मरीज या उसके परिजन हैं, यह उनका अधिकार है कि वे तय करें कि उन्हें क्या चाहिए।
सबसे बड़ी बात तो यही है कि डॉक्टर जेनेरिक दवा का नाम पर्ची पर लिख भी दें तो पहले जेनेरिक दवा ही उपलब्ध हो, इस पर ध्यान दिया जाए। जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक आम जनता के हित में शुरू की गई सख्ती में व्यवहारिक कठिनाइयां जरूर आएंगी।
सौजन्य – पत्रिका।

बिजनेस स्टैंडर्ड।

भूपेश भन्डारी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सप्ताह के प्रारंभ में गुजरात के सूरत में कहा था कि सरकार ऐसे नियम बनाएगी, जिनसे डॉक्टर पर्ची पर केवल जेनेरिक दवाएं ही लिख सकेंगे। इस समय वे परामर्श पर्ची पर दवा के ब्रांड का नाम लिखते हैं, लेकिन भविष्य में वे केवल सॉल्ट का नाम लिखेंगे। इसमें मरीज दवा की दुकान पर जाकर अपनी पसंद का ब्रांड चुन सकता है। इसके पीछे मकसद आम आदमी के लिए दवाओं की सस्ती उपलब्धता तथा दवा कंपनियों और डॉक्टरों के गठजोड़ को खत्म करना है।
इससे किसी बाहरी व्यक्ति को यह लगेगा कि भारतीय बाजार में ऊंची कीमतों की पेटेंट वाली दवाओं का दबदबा है। मगर हकीकत यह है कि भारतीय बाजार में ऐसी दवाओं का हिस्सा महज 5 फीसदी है, शेष जेनेरिक दवाओं का है। हालांकि भारत उन गिने-चुने बाजारों में से एक है, जहां ब्रांडेड जेनेरिक यानी किसी ब्रांड के तहत बिकने वाली पेटेंट रहित दवाओं का दबदबा है। देश में बिकने वाली प्रत्येक 100 रुपये की जेनेरिक दवाओं में करीब 95 रुपये की दवाएं ब्रांडेड होती हैं और शेष जेनेरिक जेनेरिक्स (बिना ब्रांड की जेनेरिक दवा) होती हैं। इसके साथ ही एक ही सॉल्ट के ब्रांडों में बहुत अधिक अंतर होता है।
यह बात जगजाहिर है कि दवा कंपनियां अपनी दवाएं लिखने के लिए डॉक्टरों को हर तरह के प्रलोभन देती हैं। उनके इस अनुचित कार्य का शिकार भोले-भाले मरीज बनते हैं। स्पष्टï है कि प्रधानमंत्री मोदी खुद के फायदे लिए चल रही इस शृंखला को तोडऩा चाहते हैं। डॉक्टरों का कहना है कि वे जब दवाएं लिखते हैं तो मरीज की वित्तीय हैसियत को ध्यान में रखते हैं। किसी गरीब मरीज को देखने के बाद डॉक्टर संभवतया सॉल्ट का सस्ता ब्रांड पर्ची पर लिखेगा। लेकिन इसमें यह मानकर चला जाता है कि डॉक्टर थोड़े समय में ही मरीज की आमदनी का आकलन करने की योग्यता रखता है। इस तर्क का यह भी मतलब है कि डॉक्टर जिन लोगों को महंगी दवाओं का भार वहन करने में सक्षम मानता है, उन्हें सस्ता दवा का विकल्प मुहैया नहीं कराया जाता। यह भी एक गलत फैसला हो सकता है। अगर डॉक्टरों को केवल सॉल्ट ही लिखना होगा तो सभी मरीज संभïवतया सबसे सस्ता विकल्प खरीद सकते हैं।
लेकिन मोदी की योजना में दो कमियां हैं। पहली यह कि इससे ब्रांड चुनने की ताकत डॉक्टर के स्थान पर दवा दुकानदार के हाथ में आ जाएगी और यह मरीज के पास नहीं होगी। ऐसी स्थिति के बारे में विचार कीजिए, जहां मरीज परामर्श का पर्चा लेकर आएगा। ऐसी स्थिति में ज्यादा फायदा देने वाले ब्रांडों का ही स्टॉक करने से दवा दुकानकार को कौन रोकेगा? ऐसे में कंपनी-डॉक्टर गठजोड़ की जगह कंपनी-दवा दुकानदारों का गठजोड़ ले लेगा। यह भी संभव है कि दवा दुकानदार किसी प्रतिष्ठित विनिर्माता के बजाय अनैतिक विनिर्माताओं की दवाओं की बिक्री को केवल इसलिए बढ़ावा दें क्योंकि इसमें उन्हें ज्यादा लाभ मिलता है। इससे मरीज के स्वास्थ्य पर जोखिम बढ़ जाएगा।
दूसरी कमी तकनीकी है। वर्तमान नियमों के तहत किसी दवा का पेटेंट खत्म होने के बाद पहले चार वर्षों में जेनेरिक संस्करण शुरू करने की मंजूरी केंद्र देता है और कंपनियों को बायो-इक्विवैलेंस अध्ययन करना होता है और स्टैबिलिटी डाटा सौंपना होता है। चार साल बाद यह जिम्मा राज्यों के कंधों पर आ जाता है और कंपनियों को बायो-इक्विवैलेंस और स्टैबिलिटी स्थापित करने की दरकार नहीं होती है। उद्योग लंबे समय से कह रहा है कि इन दोनों श्रेणियों को अलग-अलग देखा जाना चाहिए। पहली को असल में जेनेरिक्स कहा जा सकता है, लेकिन अन्य वास्तव में ‘नकल’ हैं। अगर बाजार में किसी सॉल्ट के 100 ब्रांड हैं तो यह संभव है कि केवल 15 ही जेनेरिक संस्करण हों, शेष नकल हो सकते हैं। डॉक्टरों को केवल सॉल्ट ही लिखने और ब्रांड न लिखने का निर्देश देने से इन दोनों में कोई विभेद नहीं होगा, जो गलत होगा। मरीज यह मानकर चलेगा कि उसने जेनेरिक दवा खरीदी है, लेकिन उसके हाथ में आई दवा नकल हो सकती है, जो कम प्रभावी हो सकती है। इस बात की मांग की गई है कि सभी जेनेरिक्स के लिए बायो-इक्विवैलेंस अध्ययन अनिवार्य बनाया जाए, लेकिन इस प्रस्ताव के आड़े राज्य आ गए हैं, जिनका कहना है कि सभी सूचनाओं की जांच-पड़ताल के लिए उनके पास पैसा नहीं है।
भारत में कीमत नियंत्रण बहुत सख्त है। कंपनियां इससे बचने के लिए बहुत सा समय और पैसा खर्च करती हैं। अगर किसी लोकप्रिय सॉल्ट को कीमत नियंत्रण के दायरे में लाया जाता है तो वे किसी तरह इसमें बदलाव की कोशिश करेंगी ताकि वे कीमत की आजादी बनाए रख सकें। बहुत सी भारतीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियां खुले तौर पर कहती हैं कि इस वजह से उनके लिए भारत में कारोबार करना विश्व में सबसे ज्यादा मुश्किल हो गया है। इस नए नियम से कंपनियों का उत्साह और ठंडा पड़ेगा। इसे इस स्वीकारोक्ति के रूप में भी देखा जा सकता है कि कीमत नियंत्रण आम आदमी को सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने के मकसद में असफल रहा है।
गौरतलब है कि भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद ने पिछले साल अक्टूबर में डॉक्टरों के लिए जेनेरिक दवाएं लिखना अनिवार्य किया था, लेकिन इस फैसले पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया है। सरकार ने दवा विपणन संहिता बनाई है, जिससे कंपनी-डॉक्टर गठजोड़ पर अंकुश लगने की उम्मीद की गई थी। लेकिन इससे पिछले दो साल में कोई बदलाव नहीं दिखा है। अगर इसे ठीक ढंग से लागू किया जाता तो हो सकता है कि जेनेरिक के लिए दोषपूर्ण कदम नहीं उठाने पड़ते।
सौजन्य – बिजनेस स्टैंडर्ड।