Wednesday, 31 May 2017

जनसत्ता।

दवा की कीमत (जनसत्ता)


केंद्र सरकार ने एक बार फिर ऐसे कानून पर विचार करने की बात कही है, जिसके बाद डॉक्टर किसी मरीज के लिए केवल जेनेरिक दवाइयां लिखेंगे। निश्चित रूप से यह एक अच्छी पहल साबित हो सकती है, अगर यह अपने घोषित मकसद के साथ कानूनन भी जमीन पर उतरे। मुश्किल यह है कि काफी समय से सरकारें ब्रांडेड दवाओं के मुकाबले जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने की बात कहती रही हैं लेकिन उस पर अमल करना अब तक जरूरी नहीं समझा गया। जिनकी आर्थिक हैसियत ठीक है, वे किसी बीमारी की हालत में अच्छी चिकित्सा हासिल कर पाते हैं। लेकिन गरीब तबकों को उन सरकारी अस्पतालों पर निर्भर रहना पड़ता है, जिनकी बदहाली किसी से छिपी नहीं है। ऐसे मामले आम हैं कि किसी मरीज या उसके परिवार के लिए इलाज कराना सिर्फ इसलिए संभव नहीं हो पाता कि उस पर होने वाला खर्च वहन कर सकने में वह सक्षम नहीं है। कई बार डॉक्टर मरीज की जांच करने के बाद जो दवाइयां लेने की सलाह देते हैं, उनकी कीमत बहुत-से लोगों के लिए भारी पड़ती है।
इसकी मुख्य वजह यह है कि नामी-गिरामी कंपनियों की दवाओं की कीमत काफी अधिक होती हैं। जबकि उन्हीं रासायनिक सम्मिश्रणों वाली दवाएं अगर जेनेरिक श्रेणी की हों तो वे काफी कम कीमत में मिल सकती हैं। ये दवाएं वैसा ही असर करती हैं जैसा ब्रांडेड दवाएं। समान कंपोजीशन यानी समान रासायनिक सम्मिश्रण होने के बावजूद इनके निर्माण पर बहुत कम खर्च आता है। इनके प्रचार-प्रसार पर बेहिसाब धन भी नहीं खर्च किया जाता, इसलिए भी इनकी कीमतें काफी कम होती हैं। लेकिन दवा बाजार पर निजी कंपनियों के कब्जे का जो पूरा संजाल है, उसमें जेनेरिक दवाओं की उपलब्धता इतनी कम है कि उसका लाभ बहुत-से जरूरतमंद लोग नहीं उठा पाते। दूसरी ओर, ब्रांडेड दवाओं के विज्ञापन से लेकर डॉक्टरों आदि को प्रभावित करने पर खर्च की गई रकम को भी कंपनियां दवा की कीमत में जोड़ देती हैं। ऐसे आंकड़े कई बार आ चुके हैं कि दवा की लागत के मुकाबले बाजार में उसकी कीमत कई सौ प्रतिशत ज्यादा रहती है। मगर आम लोग समान असर वाली सस्ती जेनेरिक दवाएं इसलिए भी नहीं ले पाते कि या तो उन्हें इनके बारे में जानकारी नहीं होती या फिर डॉक्टरी सलाह पर चलते हुए उन्हें ब्रांडेड दवाएं खरीदनी पड़ती हैं।
सरकार की ओर से समय-समय पर ऐसी घोषणाएं सामने आती रही हैं, जिनमें अस्पतालों से लेकर आम पहुंच वाली जगहों पर जेनेरिक दवाएं मुहैया कराने वाले केंद्रों की व्यवस्था करने की बातें कही जाती हैं। मगर इस मामले में जन-जागरूकता के लिए भी सरकार की ओर से अपेक्षित प्रयास नहीं किए जाते, ताकि लोग जेनेरिक दवाओं की ओर रुख करें। यह सरकारों की इच्छाशक्ति में कमी का नतीजा है जिसके पीछे कई बार शायद दवा लॉबी का दबाव भी काम करता होगा! विडंबना यह है कि भारत जेनेरिक दवाओं का उत्पादन करने वाले देशों में अग्रणी है, जो अमेरिका तक को इनकी आपूर्ति करता है, पर अपने यहां इन दवाओं की आम उपलब्धता अब तक सुनिश्चित क्यों नहीं की जा सकी है?
सौजन्य – जनसत्ता।

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