क्या हैं जेनेरिक दवाएं ?
जेनेरिक दवाएं दरअसल, महंगी और ब्रांडेड दवाओं का सस्ता विकल्प हैं। इनका इस्तेमाल, असर और साइड इफेक्ट्स सब कुछ ब्रांडेड दवाओं जैसा ही होता है। इनका कंपोज़िशन भी वही होता है। ये बहुत सस्ती इसलिए होती हैं क्योंकि इनके निर्माण और मार्केटिंग पर बड़ी कंपनियों और बड़े ब्रांड की तरह बेहिसाब पैसे ख़र्च नहीं किए जाते। रोगों पर इनका असर उसी तरह होता है, जैसा नामी कंपनी व ब्रांडेड दवाओं का, परंतु ग़लत धारणा बना दी गई है कि महंगी दवाओं का प्रभाव जेनेरिक दवाओं के मुक़ाबले अधिक होता है।
1. देश में ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर(डीपीसीओ) के तहत नेशनल फार्मास्युटिकल प्राइसिंग अथॉरिटी (एनपीपीए) रिटेल मार्केट की शेडयूल्ड दवाओं की क़ीमत तय और नियंत्रित करती है। यह उन दवाओं की क़ीमत पर भी नज़र रखता है, जो डीपीसीओ लिस्टेड नही हैं, ताकि उनकी क़ीमत साल में 10 फ़ीसदी से अधिक न बढ़ने पाए।
2. दवाओं की क़ीमत कम और नियंत्रित रखने के लिए महज 4 फ़ीसदी वैट लगाया जाता है। इसके बावजूद सच्चाई यहा है कि दवा ख़रीदने में असक्षमता की वजह से ग़रीब की जान चली जाती है।
3. डब्लूएचओ के अनुसार भारत में आज भी 65 फ़ीसदी आबादी आवश्यक दवाओं से वंचित रह जाती है.
4. दवाओं की वास्तविक क़ीमते बहुत कम होती हैं, लेकिन उन्हें 5 से 50 गुना बढ़ाकर बेचा जाता है, इसकी मुख्य वजह है, हमारा सिस्टम, जिसमें हर कोई कमीशन खाता है। कमीशन की चाह में डॉक्टर ब्रांडेड दवाएं ही लिखते हैं। बड़ी कंपनियां अधिक कमीशन का लालच देकर उन्हे मैनेज कर लेती हैं। ड्रग कंपनीज़ पर भी क़ानूनी तौर पर कोई रोक नहीं है। ये डॉक्टर्स को कमीशन क्यों ऑफर करती है? इस पर सवाल नहीं उठाया जाता है। डॉक्टर इस मायाजाल में न सिर्फ़ फंस जाते हैं, बल्कि इस कुचक्र का हिस्सा भी बन जाते हैं.
5. जेनेरिक दवाओं को अधिक से अधिक लोगों, ख़ासकर ग़रीबों तक पहुंचाने का प्रयास होना चाहिए। आजादी के इतने साल बाद भी दवा न ख़रीद पाना शर्मनाक है ।
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