भूपेश भन्डारी
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सप्ताह के प्रारंभ में गुजरात के सूरत में कहा था कि सरकार ऐसे नियम बनाएगी, जिनसे डॉक्टर पर्ची पर केवल जेनेरिक दवाएं ही लिख सकेंगे। इस समय वे परामर्श पर्ची पर दवा के ब्रांड का नाम लिखते हैं, लेकिन भविष्य में वे केवल सॉल्ट का नाम लिखेंगे। इसमें मरीज दवा की दुकान पर जाकर अपनी पसंद का ब्रांड चुन सकता है। इसके पीछे मकसद आम आदमी के लिए दवाओं की सस्ती उपलब्धता तथा दवा कंपनियों और डॉक्टरों के गठजोड़ को खत्म करना है।
इससे किसी बाहरी व्यक्ति को यह लगेगा कि भारतीय बाजार में ऊंची कीमतों की पेटेंट वाली दवाओं का दबदबा है। मगर हकीकत यह है कि भारतीय बाजार में ऐसी दवाओं का हिस्सा महज 5 फीसदी है, शेष जेनेरिक दवाओं का है। हालांकि भारत उन गिने-चुने बाजारों में से एक है, जहां ब्रांडेड जेनेरिक यानी किसी ब्रांड के तहत बिकने वाली पेटेंट रहित दवाओं का दबदबा है। देश में बिकने वाली प्रत्येक 100 रुपये की जेनेरिक दवाओं में करीब 95 रुपये की दवाएं ब्रांडेड होती हैं और शेष जेनेरिक जेनेरिक्स (बिना ब्रांड की जेनेरिक दवा) होती हैं। इसके साथ ही एक ही सॉल्ट के ब्रांडों में बहुत अधिक अंतर होता है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस सप्ताह के प्रारंभ में गुजरात के सूरत में कहा था कि सरकार ऐसे नियम बनाएगी, जिनसे डॉक्टर पर्ची पर केवल जेनेरिक दवाएं ही लिख सकेंगे। इस समय वे परामर्श पर्ची पर दवा के ब्रांड का नाम लिखते हैं, लेकिन भविष्य में वे केवल सॉल्ट का नाम लिखेंगे। इसमें मरीज दवा की दुकान पर जाकर अपनी पसंद का ब्रांड चुन सकता है। इसके पीछे मकसद आम आदमी के लिए दवाओं की सस्ती उपलब्धता तथा दवा कंपनियों और डॉक्टरों के गठजोड़ को खत्म करना है।
इससे किसी बाहरी व्यक्ति को यह लगेगा कि भारतीय बाजार में ऊंची कीमतों की पेटेंट वाली दवाओं का दबदबा है। मगर हकीकत यह है कि भारतीय बाजार में ऐसी दवाओं का हिस्सा महज 5 फीसदी है, शेष जेनेरिक दवाओं का है। हालांकि भारत उन गिने-चुने बाजारों में से एक है, जहां ब्रांडेड जेनेरिक यानी किसी ब्रांड के तहत बिकने वाली पेटेंट रहित दवाओं का दबदबा है। देश में बिकने वाली प्रत्येक 100 रुपये की जेनेरिक दवाओं में करीब 95 रुपये की दवाएं ब्रांडेड होती हैं और शेष जेनेरिक जेनेरिक्स (बिना ब्रांड की जेनेरिक दवा) होती हैं। इसके साथ ही एक ही सॉल्ट के ब्रांडों में बहुत अधिक अंतर होता है।
यह बात जगजाहिर है कि दवा कंपनियां अपनी दवाएं लिखने के लिए डॉक्टरों को हर तरह के प्रलोभन देती हैं। उनके इस अनुचित कार्य का शिकार भोले-भाले मरीज बनते हैं। स्पष्टï है कि प्रधानमंत्री मोदी खुद के फायदे लिए चल रही इस शृंखला को तोडऩा चाहते हैं। डॉक्टरों का कहना है कि वे जब दवाएं लिखते हैं तो मरीज की वित्तीय हैसियत को ध्यान में रखते हैं। किसी गरीब मरीज को देखने के बाद डॉक्टर संभवतया सॉल्ट का सस्ता ब्रांड पर्ची पर लिखेगा। लेकिन इसमें यह मानकर चला जाता है कि डॉक्टर थोड़े समय में ही मरीज की आमदनी का आकलन करने की योग्यता रखता है। इस तर्क का यह भी मतलब है कि डॉक्टर जिन लोगों को महंगी दवाओं का भार वहन करने में सक्षम मानता है, उन्हें सस्ता दवा का विकल्प मुहैया नहीं कराया जाता। यह भी एक गलत फैसला हो सकता है। अगर डॉक्टरों को केवल सॉल्ट ही लिखना होगा तो सभी मरीज संभïवतया सबसे सस्ता विकल्प खरीद सकते हैं।
लेकिन मोदी की योजना में दो कमियां हैं। पहली यह कि इससे ब्रांड चुनने की ताकत डॉक्टर के स्थान पर दवा दुकानदार के हाथ में आ जाएगी और यह मरीज के पास नहीं होगी। ऐसी स्थिति के बारे में विचार कीजिए, जहां मरीज परामर्श का पर्चा लेकर आएगा। ऐसी स्थिति में ज्यादा फायदा देने वाले ब्रांडों का ही स्टॉक करने से दवा दुकानकार को कौन रोकेगा? ऐसे में कंपनी-डॉक्टर गठजोड़ की जगह कंपनी-दवा दुकानदारों का गठजोड़ ले लेगा। यह भी संभव है कि दवा दुकानदार किसी प्रतिष्ठित विनिर्माता के बजाय अनैतिक विनिर्माताओं की दवाओं की बिक्री को केवल इसलिए बढ़ावा दें क्योंकि इसमें उन्हें ज्यादा लाभ मिलता है। इससे मरीज के स्वास्थ्य पर जोखिम बढ़ जाएगा।
दूसरी कमी तकनीकी है। वर्तमान नियमों के तहत किसी दवा का पेटेंट खत्म होने के बाद पहले चार वर्षों में जेनेरिक संस्करण शुरू करने की मंजूरी केंद्र देता है और कंपनियों को बायो-इक्विवैलेंस अध्ययन करना होता है और स्टैबिलिटी डाटा सौंपना होता है। चार साल बाद यह जिम्मा राज्यों के कंधों पर आ जाता है और कंपनियों को बायो-इक्विवैलेंस और स्टैबिलिटी स्थापित करने की दरकार नहीं होती है। उद्योग लंबे समय से कह रहा है कि इन दोनों श्रेणियों को अलग-अलग देखा जाना चाहिए। पहली को असल में जेनेरिक्स कहा जा सकता है, लेकिन अन्य वास्तव में ‘नकल’ हैं। अगर बाजार में किसी सॉल्ट के 100 ब्रांड हैं तो यह संभव है कि केवल 15 ही जेनेरिक संस्करण हों, शेष नकल हो सकते हैं। डॉक्टरों को केवल सॉल्ट ही लिखने और ब्रांड न लिखने का निर्देश देने से इन दोनों में कोई विभेद नहीं होगा, जो गलत होगा। मरीज यह मानकर चलेगा कि उसने जेनेरिक दवा खरीदी है, लेकिन उसके हाथ में आई दवा नकल हो सकती है, जो कम प्रभावी हो सकती है। इस बात की मांग की गई है कि सभी जेनेरिक्स के लिए बायो-इक्विवैलेंस अध्ययन अनिवार्य बनाया जाए, लेकिन इस प्रस्ताव के आड़े राज्य आ गए हैं, जिनका कहना है कि सभी सूचनाओं की जांच-पड़ताल के लिए उनके पास पैसा नहीं है।
भारत में कीमत नियंत्रण बहुत सख्त है। कंपनियां इससे बचने के लिए बहुत सा समय और पैसा खर्च करती हैं। अगर किसी लोकप्रिय सॉल्ट को कीमत नियंत्रण के दायरे में लाया जाता है तो वे किसी तरह इसमें बदलाव की कोशिश करेंगी ताकि वे कीमत की आजादी बनाए रख सकें। बहुत सी भारतीय और बहुराष्ट्रीय कंपनियां खुले तौर पर कहती हैं कि इस वजह से उनके लिए भारत में कारोबार करना विश्व में सबसे ज्यादा मुश्किल हो गया है। इस नए नियम से कंपनियों का उत्साह और ठंडा पड़ेगा। इसे इस स्वीकारोक्ति के रूप में भी देखा जा सकता है कि कीमत नियंत्रण आम आदमी को सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने के मकसद में असफल रहा है।
गौरतलब है कि भारतीय आयुर्विज्ञान परिषद ने पिछले साल अक्टूबर में डॉक्टरों के लिए जेनेरिक दवाएं लिखना अनिवार्य किया था, लेकिन इस फैसले पर क्रियान्वयन नहीं हो पाया है। सरकार ने दवा विपणन संहिता बनाई है, जिससे कंपनी-डॉक्टर गठजोड़ पर अंकुश लगने की उम्मीद की गई थी। लेकिन इससे पिछले दो साल में कोई बदलाव नहीं दिखा है। अगर इसे ठीक ढंग से लागू किया जाता तो हो सकता है कि जेनेरिक के लिए दोषपूर्ण कदम नहीं उठाने पड़ते।
सौजन्य – बिजनेस स्टैंडर्ड।
सौजन्य – बिजनेस स्टैंडर्ड।
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