Monday, 18 May 2020

भारत में निजी चिकित्सा सहायता का कुरूप चेहरा----

भारत में निजी चिकित्सा सहायता का कुरूप चेहरा----
सात वर्षीय आद्या ने अपने जीवन के अंतिम दो हफ्ते एक आधुनिकतम निजी अस्पताल में गुजारे थे। उनका जीवन एक कृतम वेंटिलेटर के ही सहारे चल रहा था । उसके मस्तिष्क ने तो शायद उसकी मृत्यु से कई दिन पहले ही काम करना बंद कर दिया था , हालाँकि इसके संबन्ध में निश्चित रूप से हम कभी नहीं जान पाएंगे ।
          कारपोरेट की लूट खसोट***
यह छोटी सी बच्ची तो ख़ामोशी से ही सारी पीड़ा सह रही थी क्योंकि वह रोने की क्षमता खो चुकी थी, पर गुड़गांव का फोर्टिस अस्पताल , जो एक कारपोरेट संचालित दानव है - इसके मंसूबे बनाने में लगा हुआ था कि आद्या के बदहवास मां- बाप से कैसे ज्यादा से ज्यादा पैसा वसूल किया जाए। दो हफ्ते तक अस्पताल द्वारा विभिन्न मदों में की जा रही वसूली भरते रहने के बाद ,आद्या के मां बाप को इसका अहसास हो गया कि उनकी बच्ची तो जा चुकी थी , और अब वक्त आ गया था कि उसे शांति से विदा होने दिया जाये । इस बीच में अस्पताल बार बार  इस बात का पता लगाने के लिए स्कैन करने को टालता रहा था कि क्या बच्ची का मस्तिष्क काम कर भी रहा था ? आद्या के मां - बाप ने अस्पताल से अनुरोध किया कि बच्ची को वैंटीलेटर से हटा दिया जाये । लेकिन अस्पताल ने ऐसा करने से इंकार कर दिया और कहा कि वे बच्ची को एक फार्म दस्तखत करने के बाद वहां से लेजा सकते हैं कि वे "डॉक्टरी सलाह के खिलाफ " उसे ले जा रहे हैं ।
        बहरहाल , परेशान परिवार की पीड़ा का इतने पर भी अंत नहीं हुआ । अस्पताल ने बच्ची को ले जाने के लिए एम्बुलैंस मुहैया कराने से इंकार कर दिया और कहा कि वैंटीलेटर तो पीड़ित परिवार द्वारा मंगवाई गयी निजी एम्बुलैंस में , अस्पताल से बाहर ही निकाला जायेगा । वैंटीलेटर हटाने के बाद बच्ची की मौत हो गयी और मृत्यु सर्टिफिकेट लेने के लिए एक और अस्पताल ले जाना पड़ा । इससे पहले , जब वे 15.79 लाख रूपये का पूरा बिल भरने के बाद वे लोग अस्पताल से निकल रहे थे , उन्हें रोक लिया गया और बच्ची ने अस्पताल का जो गाउन पहन रखा था , उसका भुगतान करने के लिए कहा गया । बच्ची का सारा शरीर इतना फूल गया था कि उसे उसके कपड़े नहीं पहनाये जा सकते थे ।
          दुखी परिवार को अगले धक्का तब लगा जब बाद में उन्होंने अस्पताल के बिल पर गौर किया। इस बिल में अन्य चीजों के अलावा 661 सिरिंजों तथा 1,546 जोड़ी दस्तानों के उपयोग का खर्चा भी लगा हुआ था। इस हिसाब से इस लाचार बच्ची के अस्पताल में रहने के हरेक घण्टे में दो से ज्यादा सिरिंजों तथा पांच जोड़ा दस्तानों के इस्तेमाल का दावा किया जा रहा था । सरकार द्वारा करवाई गई जाँच में पता चला कि इस अस्पताल में प्रयोग की वाई दवाओं पर 108 फीसद और अन्य उपयोग सामग्री पर 1,737 फीसद अतिरिक्त पैसा वसूल किया था। याद रहे कि किसी भी चिकित्सा सुविधान को कानूनन संबंधित दवा के अधिकतम खुदरा मूल्य से एक पैसा भी ज्यादा वसूल करने का अधिकार नहीं है । प्रयोग की गयी दवाओं की दोगुनी कीमत वसूल करने के जरिये ही इस अस्पताल ने अपने बिल असली कीमत से काफी रूपये ज्यादा लगा दिए थे । 
         फोर्टिस कांड के दो हफ्ते के अंदर अंदर , एक और दहशतनाक खबर सामने आ चुकी थी । इस बार खबर, दिल्ली के शालीमार बाग में स्थित मैक्स अस्पताल से आयी थी । इस अस्पताल में पूरे  समय से पहले पैदा हुए जुड़वां बच्चों के मां- बाप ने बताया कि शालीमार बाग में मैक्स अस्पताल में दोनों बच्चों को मृत घोषित कर दिया , जबकि एक जिन्दा था । माँ- बाप जुड़वां बच्चों को अंतिम संस्कार के लिए ले जा रहे थे , तभी उन्हें अहसास कि दो में से एक बच्चा तो जीवित था। बच्चे को एक स्थानीय नर्सिंग होम में ले जाया गया , जहाँ चंद दिन के बाद उसकी मौत हो गयी । इस बच्चे के बचने के की जो भी थोड़ी बहुत सम्भावना रही भी होगी , उसे मृत मानकर प्लास्टिक में लपेट कर रखे जाने और दिल्ली की कड़ी सर्दी का सामना करने ने खत्म कर दिया । 
     स्वास्थ्य रक्षा उद्योग के अगुवा कौन ?
गुड़गांव के फोर्टिस अस्पताल , फोर्टिस हेल्थ केयर लिमिटेड का हिस्सा है। इस कम्पनी की वैब साईट पर दावा किया गया है कि वह ' 45 स्वास्थ्य रक्षा सुविधाओं ( जिसमें विकासाधीन परियोजनाएं भी शामिल हैं) और लगभग
10,000 रोगी शैयाओं  तथा 314  
डाईग्नोस्टिक केंद्रों के साथ भारत, दुबई, मॉरिशस, तथा श्री लंका में अपनी स्वास्थ्य रक्षा सेवाएं चला रही हैं । ' इस कम्पनी के प्रोमोटर , रैनबैक्सी के पूर्व मालिकान हैं । रैनबैक्सी एक समय में भारत की सबसे बड़ी दवा कम्पनी थी । रैनबैक्सी के अपने शेयर बेचने के बाद इस परिवार ने , फोर्टिस हैल्थ केयर लिमिटेड की स्थापना करने में अपना पैसा लगाया था । इस कम्पनी की मिल्कियत अब दो भाईयों , मलविंदर सिंह तथा शिवेंदर सिंह के पास है, जिन्हें यह कम्पनी रैनबैक्सी फार्मास्युटिकल के सीईओ तथा प्रमुख शेयर धारक परविंदर सिंह से विरासत में मिली है । ये भाई इस समय रेली गेयर एंटरप्राइजेज लिमिटेड ( आर ई एस) के प्रमुख निवेश कर्ताओं में से है । रेली गेयर का अपनी वैब साईट के अनुसार दावा है कि यह ' भारत के प्रमुख बहुविविध वितीय सेवा समूहों में से एक की होल्डिंग कम्पनी है । आई ई एल अपनी अंतर्निहित सब्सीडरियों तथा
ऑपरेटिंग एंटिटीज  के जरिये , वित्तीय सेवाओं का एकीकृत सूट मुहैया कराती हैं , जिनमें लघु तथा मंझोले उद्यमों के लिए ऋण , अफोर्डेबिल आवासान के लिए वित्त, स्वास्थ्य बीमा और पूँजी बाजार शामिल हैं । ' बेशक यह कोई संयोग नहीं है कि हम यहाँ दवाओं, 
तृतीयक स्वास्थ्य रक्षा और स्वास्थ्य बीमा को , एक जगह मिलता हुआ देखते हैं । याद रहे कि यही तीन प्रमुख क्षेत्र हैं जो भारत के बढते स्वास्थ्य रक्षा बाजार से सुपर मुनाफा बटौर रहे हैं ।
       मैक्स अस्पताल भी किसी से पीछे नहीं है। मैक्स हैल्थ केयर इंस्टिट्यूट , मैक्स इंडिया लिमिटेड की पूर्ण स्वामित्व वाली सब्सिडियरी कम्पनी है ।उसकी कारपोरेट वैबसाईट पर दावा किया गया है कि यह, ' चौतरफा , समग्र, तथा पूर्ण विश्व स्तरीय स्वास्थ्य रक्षा सेवाओं के भारत के अग्रणी प्रदाताओं में से है। 14 अस्पतालों के नेट वर्क के साथ ।' और यह भी कि वे ' सभी 29 स्पेशिएलिटीज में उपचार मुहैया कराते हैं ------(और)----2300 से ज्यादा अग्रणी डॉक्टर हैं, अंतराष्ट्रीय स्तर के अनुभव के साथ, जो अंतराष्ट्रीय लागतों के एक छोटे से अंश पर ही , चिकित्सकीय उत्कृष्टता के उच्चतम मानक मुहैया कराने के लिए वचनबद्ध हैं । मैक्स इंडिया लिमिटेड का संस्थापक तथा चैयरमैन एमेरिटिस , अनलजीत सिंह , मैक्स लाइफ इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड, मैक्स हैल्थ केयर इंस्टिट्यूट लिमिटेड तथा मैक्स बूपा हैल्थ इंश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड का चेयरमैन है । इस मामले में भी तृतीयक रक्षा क्षेत्र और स्वास्थ्य बीमा क्षेत्र का योग गौर करने वाला है ।
      अकेली घटनाएं नहीं हैं ***
जिन दो घटनाओं का यहाँ हमने जिक्र किया है , स्पष्ट रूप से कोई अलग थलग घटनाएं नहीं हैं । ये घटनाएं भारत में कार्पोेरटीकृत अस्पताल आधारित स्वास्थ्य रक्षा का असली चेहरा दिखाती हैं । यह चिकित्सकीय कदाचार , आपराधिक लापरवाही ( कम से कम मैक्स प्रकरण में ) और प्रक्रियाओं व उपभोग्यों के लिए अनाप सनाप वसूली की मिशालें हैं । देश भर में कारपोरेट संचालित अस्पताल श्रंख्लाओं में ऐसी घटनाएं हर घण्टे , हर रोज तथा साल भर होती हैं । इनमें से शायद ही कोई घटना खबर में आ पाती है । ये दो दशक से चले आ रहे उस रूझान की ही अभिव्यक्तियाँ हैं जिनकी शुरुआत भारत में बढते तृतीयक स्वास्थ्य रक्षा के बाजार में , मुनाफे की अपनी हवस के लिए नए नए रास्तों की तलाश कर रहे कार्पोरिटों के घुस पड़ने से हुई थी । वे जमाने लद गए जब ज्यादातर निजी अस्पताल सच्ची परोपकारी संस्थाओं या दकरों के समूहों द्वारा चलाये जाते थे । आज के कारपोरेट अस्पतालों में तो ज्यादातर डॉक्टर महज मोहरे हैं , जिन्हें कारपोरेट नियंत्रित प्रबन्धन के इशारे पर नाचना होता है । इस आशय की अनेक रिपोर्ट हैं जो इसकी ओर इशारा करती हैं कि इन संस्थाओं में डॉक्टरों के लिए निश्चित लक्ष्य दिए जाते हैं , जो उन्हें पूरे करके दिखाना होता है। याद रहे की यहाँ लक्ष्यों से अर्थ मरीजों पर गैर जरूरी प्रक्रियाएं करने , निदान परीक्षा करने, तथा ऊंची कीमत की दवाओं जैसे उपभोग्यों का इस्तेमाल करने के लक्ष्य तय कर दिए जाने से है । यह ऐसी व्यवस्था है जो अपनी जड़ों तक भ्रष्ट हो चुकी है और इस समय तो करीब करीब पूरी ही तरह से किसी भी प्रभावी नियमनकारी तंत्र के विचार क्षेत्र से बाहर ही है ।
     जाहिर है कि लोग तब सबसे लाचार होते हैं जब वे या उनके निकट सम्बन्धी बीमार होते हैं और कारपोरेट अस्पताल इसे , परेशान परिजनों से आखिरी बूँद तक निचौड़ लेने के मौके के तौर पर देखते हैं । दूसरे सभी कारोबारों की तरह , उनका एकमात्र लक्ष्य अपने मुनाफे अधिकतम करने होता है । इस उद्योग के अपने अनुमान बताते हैं कि भारत में स्वास्थ्य रक्षा उद्योग के 2020 तक 238.76 अरब डॉलर का उद्योग बन जाने की उम्मीद की जाती है । जब वर्तमान व्यवस्था कारपोरेट अस्पतालों को सुपर मुनाफे बटोरने के अधिकतम मौके देती है, वे भी बेरोक टोक ऐसा करते हैं । जैसा कि मार्क्स ने एक जगह लिखा है :' पूँजी कोई मुनाफा या बहुत छोटा मुनाफा भी नहीं छोड़ती है , वैसे ही जैसे प्रकृति के बारे में कहा जाता है कि वह शून्य को सख्त नापसन्द करती है । पर्याप्त मुनाफे के साथ पूँजी बहुत ही दुस्साहसी हो जाती है । निश्चित 10 फीसद मुनाफे पर वह अपना खिन भी लगना सुनिश्चित करेगी ; सुनिश्चित 20 फीसद पर वह उद्विग्निता पैदा करेगी , 50 फीसद पर पक्की दुस्साहसिकता; 100 फीसद के लिए वह तमाम इंसानी कानूनों को रौंदने के लिए तैयार हो जायेगी ; 300 फीसद मुनाफे पर कोई अपराध नहीं है जिसे करने से वह हिचकेगी , कोई जोखिम नहीं है जो लेने के लिए वह तैयार नहीं होगी, यहाँ तक कि अपने मालिक के फांसी चढ़ाये जाने का जोखिम भी ।'
        दोष किसका है ?***
      हाल की घटनाओं पर उभरे जनाक्रोष को देखते हुए , हरियाणा तथा दिल्ली की सरकारों ने , संबंधित अस्पतालों पर गम्भीर आरोप लगाए हैं । नेशनल फार्मास्युटिकल  प्राइसिंग अथॉरिटी ने भी दवाओं के लिए ज्यादा दाम वसूल करने के लिए फोर्टिस को नोटिस भेजा है । बेशक ये कदम जरूरी हैं , लेकिन उनमें से कोई भी असली मुद्दों से दो चार नहीं होता । आखिर क्या वजह है कि इन राक्षसों को बढ़ने तथा फलने फूलने का मौका दिया है ? वे ऐसे राक्षस हैं जो डॉक्टरों द्वारा ली जाने वाली हिप्पो क्रेटिक कसम का ही मजाक उड़ाते हैं । इस किस्म का पहला ही पैरा है ' सबसे पहले कोई नुकसान मत करो ' ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के उद्देश्य पर टिकी हुई कोई भी व्यवस्था , कायम रहने के लिए गलत काम किये बिना नहीं रह ही नहीं  सकती है ।
      भारतीय स्वास्थ्य रक्षा व्यवस्था दशकों की उपेक्षा की शिकार है । स्वास्थ्य पर  सार्वजनिक खर्च दशकों से सकल घरेलू उत्पाद के करीब 1 फीसद पर ही अटका हुआ है । यह वैश्विक औसत के , जिसकी सिफारिस विश्व स्वास्थ्य संगठन न्यूनतम के रूप में करता है , उसके पांचवे हिस्से के बराबर है । सार्वजनिक स्वास्थ्य रक्षा तथा सार्वजनिक अस्पताल आज बुरे हाल में हैं । गोरखपुर के अस्पताल में बच्चों की मौतें इन अस्पतालों की दयनीय स्थिति का ही सबूत दे रही हैं । दशकों को अपेक्षा ने इन संस्थाओं को , सार्वजनिक स्वास्थ्य रक्षा का जैसा होना चाहिए , उसका व्यंगचित्र बनाकर रख दिया है । आज यह बहुत ही आसान हो गया है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य रक्षा को अकुशल तथा नाकारा करार दे दिया जाये । लेकिन उसका ऐसा ही होना कोई जरूरी तो नहीं है। सच तो यही है कि स्वास्थ्य रक्षा की सफलता की सारी मिसालें साधन सम्पन्न सार्वजनिक स्वास्थ्य रक्षा व्यवस्थाओं की ही है -- क्यूबा, कोस्टारिका, थाईलैंड ,श्रीलंका, यूनाइटेड किंगडम, फ़्रांस आदि। 
        इसके बावजूद , नवउदारवाद का तर्क हमारी सरकारों की दृष्टि को एक तंग पाइप में बंद कर देता है है, जहाँ निजी में ही गुणों की खोज की जा रही होती है । जहाँ ऐसे कोई गुण ही नहीं हैं । हर कुछ महीनों पर केंद्र तथा राज्य, दोनों ही स्तरों पर सरकारें निजी क्षेत्र के साथ ' साझेदारी' के ऊंचे ऊंचे मंसूबों की घोषणाएं करती हैं , जो जादूई तरीके से भारत की स्वास्थ्य रक्षा व्यवस्था को उसकी वर्तमान दुरावस्था से उबारने जा रहे हैं । कुछ महीने पहले ही नीति आयोग ने सरकार द्वारा संचालित जिला अस्पताल, निजी क्षेत्र के हाथों आउटसोर्स करने की एक ' शानदार ' योजना पेश की थी । इसी प्रकार दिल्ली सरकार ने एक और शानदार योजना का ऐलान किया था , जिसका मकसद सरकारी अस्पतालों से मरीज को रैफर करके निजी अस्पतालों में भेजा जाना बहुत सुगम बनाना था, असली मुद्दा यह है कि कभी इसकी सुनियोजित कोशिशें क्यों नहीं की जाती है कि स्वास्थ्य रक्षा की सार्वजनिक व्यवस्था को खड़ा किया जाये, सम्भाला जाये तथा मजबूत किया जाये । 
      नियमन का सवाल ***
     सार्वजनिक व्यवस्था को विफल हो जाने को देखते हुए लोगों को अपनी घर की तमाम जमा पूंजी झोंक कर भी और जिंदगी भर के लिए कर्ज के बोझ के नीचे दब जाने की कीमत पर भी , निजी स्वास्थ्य रक्षा व्यवस्था की ओर दौड़ना पड़ता है । वर्षों से हमारे यहाँ निजी स्वास्थ्य रक्षा उद्योग का नियमन करने की सिर्फ बातें ही की जाती रही हैं । 2010 में भारतीय संसद ने ' क्लिनिकल एस्टैब्लिशमेंट एक्ट ' पारित किया था । चिकित्सा सुविधाओं के नियमन के लिए बनाये गए इस कानून पर अमल के लिए जरूरी था कि राज्य सरकारों द्वारा इस संबन्ध में कानून बनाये जाएँ क्योंकि भारत में स्वास्थ्य राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आता है । तब से पूरे सैक्ट साल बीत चुके हैं , लेकिन देश में शायद ही ऐसा कोई राज्य हो जहाँ इस प्रकार का कोई कानून काम कर रहा हो । उधर मूल कानून को पहले ही जान बूझकर नख-दन्त हीन बनाया गया था और उपचार की लागतों की कोई अधिकतम सीमा रखी ही नहीं गई थी। फिर भी केंद्रीय कानून ने तो सिर्फ शरुआत की थी ,राज्यों के लिए इसका मौका था कि वे कानून में नख-दन्त जोड़ सकते थे । लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। ऐसा करने की यदा कदा जो कोशिशें भी की गई हैं, मिशाल के तौर पर पश्चिम बंगाल और कर्नाटक में पीछे की गई कोशिशें , उन्हें कार्पोरेट प्रायोजित चिकित्सा व्यवस्था का प्रतिनिधत्व करने वाली लॉबी के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा है। इस तरह का चिकित्सा का चिकित्सा प्रतिष्ठान भारत में दकरों के अल्पमत का ही प्रतिनिधित्व करता है , फिर भी यही देश के चिकित्सा समुदाय का सबसे दिखाई देने वाला चेहरा है।
          मनुष्यों की यह स्वाभाविक प्रकृति होती है कि एक साथ आएं। यह बात आज चिकित्सा के पेशे में लगे लोगों पर भी लागू होती है । दहशत की अनेकानेक कहानियों के सामने वे हठपूर्वक नकार की मुद्रा अपनाये हुए हैं । चिकित्सा पेशे के लोगों को इस सच्चाई को पहचानना होगा कि उनमें से ज्यादातर एक भ्रष्ट तथा सड़ी गली व्यवस्था के शिकार हो गए हैं । फोर्टिस में आद्या तथा मैक्स में नवजात शिशु , शायद सबसे नैतिक चिकित्सा सुविधाओं में भी बच नहीं पाये होते। आद्या डेंगू से जुडी जटिलताओं का शिकार थी , जिनमें जोखिम बहुत ज्यादा रहता है।
       मैक्स में नवजात शिशुओं ने 22 महीने के बाद ही जन्म ले लिया था और उनके बचने की संभावनाएं बहुत कम थी । फिर भी वे इस दुनिया से कम से कम कहीं गरिमापूर्ण तथा पीड़ा रहित विदाई के हकदार तो थे ही । अपने पेशे के लिए कल्पित खतरे के बारे में सोचकर उतेजित हो रहे डॉक्टरों को याद रखना चाहिए - सबसे पहले कोई नुकसान मत करो। 
    ' मॉडल कन्सेशनर समझौता' नीति आयोग । दिल, फेफड़ों के रोगों , कैंसर के मामलों में स्वास्थ्य रक्षा मुहैया कराने का काम ,निजी क्षेत्र के हवाले करने का नक्शा है।
   अस्पतालीय चिकित्सा निजी क्षेत्र के हाथों में पकड़ा देने के प्रस्तावों को , इस दलील के साथ सही ठहराने की कोशिश की जाती है कि सार्वजनिक सेवाओं के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं हैं और उन्हें प्रशिक्षित मानव संसाधनों की भारी तंगी का सामना करना पड़ता है । इसका आसान उपचार तो यही है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य रक्षा सेवाओं में निवेश में बढ़ोतरी की जाये और इसमें स्वास्थ्य कर्मियों के प्रशिक्षण में निवेश भी शामिल है। इस समय भारत में स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्च सकल घरेलू उत्पाद के 1.2 फीसद के स्तर से भी कम है। इस मामले में भारत दुनिया के 200 से ज्यादा देशों में से सबसे नीचे के दस देशों में आता है। 

(भावानुवाद डॉ अमित सेन गुप्ता के अंग्रेजी आर्टिकल से रणबीर सिंह दहिया के द्वारा )

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