Sunday, 19 April 2020

ग्रामीण संकट में कोरोना वायरस महामारी ने जोड़े नये आयाम

ग्रामीण संकट में कोरोना वायरस महामारी ने जोड़े नये आयाम
आज भारत एक अचानक दौर से गुजर रहा है। 25 मार्च 2020 से लागू तीन सप्ताह का राष्ट्रव्यापी
लॉकडाउन 3 मई तक के लिए आगे बढ़ गया है। भयानक कोविड-19 (कोरोना महामारी) को फैलने से रोकने के लिए निश्चय ही लॉकडाउन आवश्यक था। देश का समूचा आर्थिक कार्यकलाप लगभग पूरी तरह बंद है। इससे देश के लोगों की जिन्दगी और रोजी-रोटी पर अत्यन्त कष्टदायक प्रभाव पड़ा है। देश पहले ही आर्थिक गिरावट, बेरोजगारी, जनता की कम आमदनी, गरीबी, कुपोषण, ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट और चिन्ताजनक आर्थिक असमानता जैसी गंभीर समस्याओं का शिकार था। कोविड-19 ने इन तमाम संकटों एवं समस्याओं से और भी विकराल बना दिया है।
        कोविड-19 ग्रामीण अर्थव्यवस्था के संकट में नये आयाम जोड़ रहा है। इस साल मानसून अच्छा रहा। इतना अच्छा कि देश के विभिन्न भागों में भूजल-स्तर भी ऊपर उठा। अच्छे मानसून के कारण अपनी लहराती हुई फसलों को देखकर किसानों को बड़ी उम्मीदें थी कि पैदावार अधिक होगी--इस साल उनकी आमदनी में अच्छी वृद्धि  होगी। कोविड-19 ने देशभर के किसानों की इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया। फसलों को काटने-गहाने का समय आते-आते देश में लॉक-डाउन घोषित हो गया। अन्य राज्यों से आये जो मजदूर फसलों की कटाई-गहाई में मदद किया करते थे, जो यहां आ चुके थे, वे लॉकडाउन के कारण वापस चले गये और जो आने को तैयार बैठे थे, उनका आना रूक गया। अब फसलों की कटाई-गहाई हो तो कैसे हो? जिस समय फसल पककर खेतों में तैयार खड़ी थी। कटाई-गहाई का काम अस्तव्यस्त हो गया। न केवल कटाई-गहाई का काम अस्तव्यस्त हुआ, बल्कि यह समस्या
भी पैदा हो गयी कि यदि किसी तरह फसल काट ली गयी, अनाज निकाल लिया गया तो लॉकडाउन के कारण उसकी बिक्री कैसे होगी। गांवों के लोगों के सामने एक ऐसी अन्य समस्या भी आ गयी है जो पहले
कभी नहीं देखी गयी। बड़ी संख्या में गांवों के लोग शहरों में जाकर छोटी-मोटी मजदूरी करते हैं, असंगठित/अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। उन पर लॉकडाउन का सबसे खराब असर पड़ा है। इसका ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर तुरन्त ही असर पड़ रहा है।
देश की लगभग 46.5 करोड़ की श्रमशक्ति (2017-18) में से लगभग 42.2 करोड़ लोग ग्रामीण संकट में कोरोना वायरस महामारी ने जोड़े नये आयाम अनौपचारिक/असंगठित क्षेत्र में काम करते हैं। यह संख्या भारत की कुल श्रमशक्ति का लगभग 91 प्रतिशत है। समुचित आकलन की कोई व्यवस्था न होने के कारण विभिन्न आकलनों में थोड़ा अंतर मिलता है। परन्तु हरेक आकलन से यह स्पष्ट होता है कि कुल श्रमशक्ति में  अनौपचारिक/ असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों की संख्या 90-91 प्रतिशत से अधिक
ही है, कम नहीं। अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों को नियमित वेतन नहीं मिलता। उनकी आमदनी नियमित नहीं। उनकी आमदनी बहुत कम है। अनौपचारिक क्षेत्र के इन मजदूरों के दो-तिहाई हिस्से को (अर्थात कुल श्रमशक्ति के लगभग 60 प्रतिशत को) (375 रू. की राष्ट्रीय न्यूनतम मजदूरी
(जिसकी श्रम एवं रोजगार मंत्रालय द्वारा नियुकत एक समिति ने 2017-18 में घरेलू जरूरतों को पूरा करने के लिए मानकर जनवरी 2019 में सिफारिश की थी, नहीं मिलती )(जो लोग स्वरोजगार में लगे हैं
उनके मामले में उनकी दैनिक आमदनी 375 रूपये से कम है।) (अप्रैल 2020 के ईपीडब्लू में के. पी. कन्नन के लेख ‘‘कोविड-19 लॉकडाउनः प्रोटेक्रिंग द पुअर मीन्स कीपिंग द
इंडियन इकॉनोमी एफ्लॉट’’ से उद्धत ।)
             खेत मजदूर, दिहाड़ी मजदूर, स्वरोजगार जैसे कि रिक्शा चालन या बूट पालिश करने वाले एवं अन्य छोटे-मोटे काम पर गुजर-बसर करने वाले मजदूर, निर्माण मजदूर, छोटे-बड़े औद्योगिक ध्व्यावसायिक प्रतिष्ठानों, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम औद्योगिक प्रतिष्ठानों आदि में काम करने वाले कैजुअल/ठेका/अस्थायी मजदूर, दुकानों-खुदरा व्यापार क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर, खानों, चायबागानों
में काम करने वाले मजदूर, घरेलू मजदूर आदि औपचारिक क्षेत्र के मजदूरों में शामिल हैं। जैसे ही राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन की घोषणा हुई पहले ही दिन से इन मजदूरों को भूखमरी और चरम कंगाली का डर सताने लगा। ट्रेनों एवं बसों के बंद हो जाने और लॉकडान की घोषण होते ही रोजगार खत्म हो जाने पर ये लाखों मजदूर अपने बाल-बच्चों समेत पैदल ही सैकड़ों मील दूर अपने गांवों के लिए निकल पड़े। इससे उनकी चरम दयनीय कमजोर आर्थिक स्थिति का पता चलता
है।
            रिपोर्टों के अनुसार, 24 मार्च की रात अचानक तीन सप्ताह के लॉकडाउन की घोषणा के फलस्वरूप लाखों प्रवासी मजदूर देश भर में राहत शिविरों/शेल्टर आदि में शरण लिए हुए है। केन्द्र द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल एक शपथपत्र के अनुसार देश में केन्द्र सरकार द्वारा 22,567 और विभिन्न
एनजीओ द्वारा संचालित 3309 शरण केन्द्रों में 10.36 लाख लोग अलग-अलग स्थानों पर अटके पड़े हैं
यह उन खाद्य केन्द्रों के अतिरिक्त है जिनमें लगभग 74 लाख लोग खाना खा रहे हैं। इनके अलावा विभिन्न
जानकारियों के अनुसार लगभग 15 लाख लोग उन फैक्टरियों या कार्यस्थलों के परिसरों में शरण लिए हुए हैं जहां वे काम किया करते थे। यह घटनाक्रम अचानक एवं अप्रत्याशित था, सब कुछ अस्तव्यस्त है। ऐसे में यह जानकारी प्रोविजनल ;अस्थायीद्ध ही मानी जा सकती है। वास्तविक संख्या इससे कहीं
अधिक हो सकती है। कहा जा रहा है कि इन लोगों के ठहरने, खाने-पीने की समुचित व्यवसथा की गयी है। इस पर कैसे यकीन किया जा सकता है? सरकार के पास कौनसा विभाग है जो अचानक इतनी बड़ी
व्यवस्था कर सके? अपने गांवों की तरफ पैदल जाते हुए इन लाखों लोगों  को पुलिस धकेल कर किसी
केन्द्र/स्कूल/राहत शिविर में ले जा सकती है परन्तु ठहरने-खाने-पीने की समुचित व्यवसथा कर सके इसके लिए सरकार के पास कोई तंत्र ही नहीं जैसे-तैसे व्यवस्था की गयी है। अनेक स्थानों पर तो पुलिस ही खाना बांटती देखी गयी है। अतः रिपोर्टें आ रही हैं कि जिन स्थानों पर इन लोगों को रखा गया है। (द इंडियन एक्सप्रेस ;12 अप्रैल 2020) 10 अप्रैल को सूरत में तो 20,000 मजदूर लॉकडाउन के बावजूद सड़कों पर उतर पड़े। तोड़फोड़ हुई। आगजनी हुई। गिरफ्तारियां हुई। पुलिस की लाठियां चली। राजधानी दिल्ली में ही तीन शेल्टर होमों को आग लगा दी गयी जहां खाने के संबंध में कुछ बवाल
चल रहा था। ये अशुभ संकेत हैं।
            11 अप्रैल को प्रधानमंत्री ने मुख्यमंत्रियों के साथ वीडियो कांफ्रेंस की। राज्य सरकारों ने चिन्ता व्यक्त की कि अपने गांव पैदल जाते जिन मजदूरों को रोक कर राहत शिविरों में रखा गया उनकी व्यवस्था करना एक विकट कार्य है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने अपने राज्य में ऐसे 6 लाख मजदूरों का मुद्दा
उठाया। लॉकडाउन के कारण करोड़ों मजदूरों के अपने कार्यस्थानों से इस बड़ी संख्या में विस्थापन ने गांवों में चल रहे आर्थिक संकट में एक नया आयाम जोड़ दिया हैं अपनी बेहद कम आमदनी के बावजूद ये मजदूर अपना पेट काटकर अपने परिवार की मदद के लिए कुछ बचत करते थे। हर महीने-दो महीने बाद अपने गांव में रह रहे परिवार को पैसा भेजते थे। उनका यह पैसा ग्रामीण आमदनी में अच्छा खासा योगदान करता है। गांवों में पैसा पहुंचने का यह सिलसिला अचानक बंद हो गया है।
        किसानों और कृषि पर प्रभाव संयोगवश लॉकडाउन की घोषणा ऐसे समय हुई जब रबी की फसले
खेतों में पक कर तैयार हो रही थी। खासतौर पर भारत के उत्तर पश्चिम एवं मध्य क्षेत्रों में गेहूं और दालों की फसल तैयार थी। राज्यों ने लॉकडाउन के दौरान कृषि के लिए कुछ छूटों की घोषणा की है। परन्तु इसके बावजूद मजदूर लॉकडाउन के कारण एक इलाके से दूसरे इलाकों को नहीं जा सकते। कृषि उत्पादों की परिवहन एवं आपूर्ति श्रृंखला छिन्न-भिन्न हो गयी है। इसका कारण संतोषजनक समाधान सामने नजर नहीं आता। फसलों की कटाई-गहाई के काम में भारी मुश्किल पैदा हो गयी है।
फसलों की कटाई-गहाई की समस्या के साथ उनकी बिक्री की समस्या हैं प्रवासी मजदूर चले गये हैं।
मंडियों में मजदूर कम हैं कौन बिक्री के लिए आये गेहूं को उतारेगा, कौन साफ करेगा, कौन बोरों में भरेगा और कौन उन्हें ट्रकों में भरेगा? परिवहन की व्यवस्था कमजोर पड़ गयी है। पर्याप्त
संख्या में ड्राइवर ही नहीं हैं तो मंडियों में आया यह अनाज गोदामों तक कैसे पहुंचेगा और गोदाम में पहुंचा तो वहां कौन उसे उतारेगा? ऐसे में सरकारी एजेंसिया यह निजी व्यापारी क्या
किसानों के पूरे खाद्यान्ना को खरीद पायेंगे? मुश्किल ही नजर आता है। सरकार विश्वास दिलाने की कोशिश कर रही है। पर उस पर विश्वास नहीं होता। जब सामान्य समय में ही सरकार पूरा अनाज नहीं खरीदती या नहीं खरीद पाती तो आज के असामान्य हालात में जब न पर्याप्त मजदूर हैं और न पर्याप्त
परिवहन-कैसे भरोसा हो सकता है कि सरकारी एजेंसियां निर्धारित अवधि में किसानों से उनका पूरा अनाज खरीद लेंगी। जब सरकारी एजेंसियां अनाज नहीं खरीद पायेंगी और खरीद का निर्धारित समय खत्म हो जायेगा, तो मजबूरन किसानों को अनाज को औने-पौने भाव-न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम भाव पर बेचना पड़ेगा। अभी भी खबरें आ रही है कि सरकारी खरीद शुरू न होने के कारण किसान न्यूनतम
समर्थन मूलय से कम पर बेचने को मजबूर हो रहे हैं। कपास के किसानों के सामने भी भारी नुकसान का खतरा मंडरा रहा है। अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कपास के भाव में भारी गिरावट आ गयी है। कपास के
किसानों के सामने भारी नुकसान से बचने का कोई रास्ता नहीं। परिवहन, मांग एवं भंडारण के अभाव में शीघ्र खराब हो जाने वाले कृषि उत्पाद-फल, सब्जी, फूल और दूध-खराब हो रहे हैं। पहले कभी ऐसा नहीं हुआ कि पेड़ों पर फल पक गये हैं, परन्तु उन्हें तोड़ने वाले नहीं हैं। कुछ किसानों ने फल तोड़ भी लिए तो
उन्हें न वह कहीं ले जा सकते है, न बेच सकते हैं। यही हाल सब्जी उगाने वाले किसानों का है। खेत में सब्जी तैयार है। उसे कहां ले जायें? कैसे ले जाएं? कैसे बेचें? कोई रास्ता नहीं। सब्जी सूख रही है, सड़ रही है। उन्होंने जितना पैसा लगाया था और मेहनत की थी, सब कुछ बर्बाद हो गयी। कुछ किसान किसी तरह सब्जी को मंडी ले जाते हैं तो मंडी के व्यापारी कहते हैं कि लॉकडाउन के कारण यह बिकेगी कैसे? वह किसान को बेहद कम दाम देते हैं परन्तु जब वही सब्जी उपभोक्ता को मिलती है तो ऊंचे दाम पर। और कारण फिर वही कि लॉकडाउन चल रहा है।
      मुर्गीपालन उद्योग से जुड़े किसान तो लॉकडाउन से पहले ही तबाह हो गये। अफवाह फैल गयी कि अंडे और मुर्गे-मुर्गियां कोरोना बीमारी को फैला सकते हैं। एक अफवाह मात्र से मुर्गी पालन उद्योग तबाह हो गया। कश्मीर और भारत के अन्य हिस्सों के फूल उत्पादन करने वाले किसानों को भी लॉकडाउन की भारी चोट पहुंच रही है। खेतों में  फूल खिले हैं। इन्हें तोड़कर कहां ले जाएं? बाजार बंद हैं। फूल कुम्हला रहे हैं, सूख रहे हैं। यही हाल दूध-उत्पादन करने वालों किसानों का है। मिठाई की दुकानों और होटल-रेस्टोरेंट बंद हैं जहां काफी दूध की खपत होती है। केला उत्पादक किसान हों, या अंगूर या अन्य फलों के
उत्पादन किसान हों, सब्जी पैदा करने वाले किसान हो या फूल उत्पादक किसान-सभी का सभी राज्यों में कमोबेशी एक जेसा हाल है। सब के सब किसान बेहाल हैं।
देश के किसान पहले ही बड़े पैमाने पर कर्जग्रस्त हैं। सभी कृषि उत्पादों की आपूर्ति श्रृंखला के अस्तव्यवस्था हो जाने के कारण किसानों की आमदनी में अप्रत्याशित रूप से भारी कमी आ गयी
है। इससे ग्रामीण कर्ज ग्रस्तता के नये ऊंचाई पर पहुंचने का खतरा पैदा हो गया है।
आर एस यादव 
मुक्ति संघर्ष 

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