संकट के घने बादलों की परतों से ही उम्मीद की किरण चमकती है, यह विश्वास ही वह ताकत देती है जिसके साथ हम हर चुनौती का सामना करते हैं। आज भूख, अभाव और एक भयानक महामारी की ही सिर्फ विकराल छाया हमें घेरे हुए नहीं हे, बल्कि आने वाले दिनों में जिन्दगी कगार पर ही होगी। विशाल जनसमूह, सैकड़ों किलोमीटर दूर, अपने घरों की ओर चले जा रहे हैं, बाल बच्चों और परिवार समेत ये सिर्फ महामारी से नहीं भाग रहे, ये उस भयानक गरीबी और अभाव से भी दूर जाने की कोशिश में है जो शहर में फैलती बेरोजगारी के साथ आ रहा है। यह अभी तक चल रही परिस्थितियों की विषमताओं से भी अधिक बढ़ने वाला है। 2016 के आर्थिक सर्वे के अनुसार 77 प्रतिशत लोग किसी तरह जिन्दा रहने की कोशिश में रहते रहे हैं, प्रतिदिन की दिहाड़ी से सिर्फ भूख से छुटकारा पाने की कोशिश करते हैं-बचता कुछ भी नहीं है। पैसे बच पाने की कोई संभावना ही नहीं रहती, कैशलेस, यानी बिना पैसे के ही होती है उनकी जिन्दगी। उन्हें बैंक से कोई कर्ज भी नहीं मिल सकता। किसी भी बड़ी जरूरत को पूरा करने के लिये वे साहूकार या महाजन से ही उधार लेते हैं और मनमाने ब्याज को ही चुकाने में जिन्दगी बीत जाती है। आज भविष्य भी अंधकार में ही डूबा दीख रहा है, कयोंकि लॉकडाउन के बाद वापस आने पर उनके वेतन में तो कटौती होगी ही, जो वेतन मिला नहीं, उसकी भी उम्मीद खत्म हो चुकी है। आज 1.3 बिलियन की जनसंख्या में, पूरा एक बिलियन, जो असंगठित क्षेत्र में है, सिर्फ जिन्दा रहने के लिये संघर्ष करते हैं, अगर उनके पास रोजगार भी है, उसमें भी वेतन में कोई बढ़ोतरी नहीं होती, काम करने की समुचित
सुविधाएं भी नहीं मिलती। ऐसी स्थिति में महामारी और उसके साथ तालाबंदी से आर्थिक स्तर तो कगार पर आ ही चुका है, उत्पादन के सारे क्षेत्रों में भी ठहराव है, आपूर्ति की व्यवस्था, मांग और बुनियादी जरूरतों को पूरा करने वाली सारी व्यवस्था भी संकट से घिरी है। सरकार को आज पूरी ताकत से अपनी सारी श्रम शक्ति, गहराते संकट में परिवर्तन का नया दौर यानी मेहनतकश जनता को बचाना होगा। आज पूरी व्यवस्था के सामने जो चुनौती है उसे सिर्फ वही मजदूर पराजित कर सकता है, जो समाज में अपनी हर जरूरत के लिये मोहताज रहता है। यह आज सिर्फ हमारी ही नहीं पूरे विश्व की स्थिति है। इसलिये सरकार को, अभाव से जूझती इस जनता को कैश देना होगा, अलाउन्सेज देने होंगे, अगर वे बेरोजगार हैं समुचित स्वास्थ्य सुविधा, आर्थिक सहयोग और टैक्सों में छूट देनी होगी। यह सब
जनता की क्रयशक्ति, को फिर से जीवित करने के लिये भी जरूरी है। लघु और मध्यम स्तर के उद्योग जो पिछले कई वर्षों से विषम कठिनाईयों से जूझते रहे हैं, बिखर भी चुके हैं, इन सबको फिर से जीवित करना होगा। उन्हें समुचित आर्थिक आपूर्ति करनी होगी। अब तक आर्थिक प्रगति के विषय में आंकड़े
भी पूरी परसिथति को बयान नहीं करते रहे हैं। जैसे वृद्धि दर को सिर्फ उत्पादन से जोड़ा जाता रहा है, जिसमें काम के घंटे, उनमें की गई कड़ी मेहनत, इन सबों को नहीं जोड़ा जाता है। ऐसा प्रायः असंगठित क्षेत्रों में देखा गया है। इसमें कृषि क्षेत्र भी है, जिसमें किसान की आय को जोड़ा नहीं जाता। विकासदर की बुनियादी रेखा वहां से शुरू होती है, जब किसी संकट में उत्पादन दर नीचे गिर चुका रहता है। जैसे जब लगातार दो साल सूखा पड़ा, इस अकाल में जमीन पर कुछ भी उगाया न जा सका। इस भयानक
सूखे के बाद ही कृषि क्षेत्र में काम शुरू हुआ। जो कुछ हुआ वह बढ़ोतरी ही थी, इसे ही वृ(िदर या ‘ग्रोथ’ मान लिया गया। यही औद्योगिक क्षेत्र में भी लागू होता है। यह संकट की सचाई और उसे दूर रखने के लिये आवश्यक उपायों से बचने के लिये किया जाता है, पर इससे भयानक आर्थिक क्षति होती है-और यह
आज इस महामारी के संकट में उजागर होकर सामने आ गया है।
इस संकट में सबसे बड़ी समस्या भूख की है-और भोजन जुटाने के लिये कृषि व्यवस्था को उबारना होगा। जन वितरण व्यवस्था से राशन का वितरण भी होता है। फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के पास 77 मिलियन टन अनाज भरा पड़ा है, आमतौर पर इसमें 42 मिलियन टन से भी काम चलता है। इसलिये इस अनाज को जनता में बांटने के लिये एफसीआई के गोदामों को खोल देना चाहिये। लेकिन वास्तविकता यह है कि जो छह किलोग्राम अनाज राशन में मुफ्त में बांटने का निर्णय है, उसके लिये भी राज्यों से पैसा मांगा जा रहा है। आर्थिक संकट की लगातार उपेक्षा के नतीजे भी सामने आ रहे हैं। 22 मार्च के बाद से बेरोजगारी में तिगुनी बढ़ोतरी हुई है। यह 8.7 प्रतिशत से 23.4 प्रतिशत तक और फिर 5 अप्रैल तक 30.9 तक पहुंच चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह आज 20.2 प्रतिशत है। इस तरह पूरे देश में यह बेरोजगारी,
सेन्टर फॉर मॉनिटरिंग इकोनोमी की रिपोर्ट के अनुसार 23. 4 तक पहुंच चुकी है। हमारे देश में वेतनभोगी मजदूरों की संख्या बहुत ही कम है, सिर्फ 22.1 प्रतिशत। ये भी वो वेतन है जो यूनिट को मिलने वाले रेवेन्यू से नहीं जुड़ा है। बाकी के 78 प्रतिशत अमानवीय परिस्थितियों में, बिना किसी सामाजिक
सुरक्षा के काम करते हैं यही वह मजदूरों की विशाल जमात है, जो अपने घरों की ओर, सैकड़ों मील पैदले चले जा रहे हैं, जहां भूख और बेरोजगारी का एक नया दौर उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। बेरोजगार, बेसहारा और भूखी यह जनता ही देश की वह ताकत है जो देश को समृ(ता देती है, ओर समाज को आगे
ले जाती है। आज यह सत्य क्रमशः विश्व के सामने उजागर हो रहा है, जिसे किसी भी तरह अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस संकट ने पूरी व्यवस्था को एक नया आयाम दिया है, जो दक्षिणपंथी सोच की निरर्थकता को सामने ला रही है।
सुविधाएं भी नहीं मिलती। ऐसी स्थिति में महामारी और उसके साथ तालाबंदी से आर्थिक स्तर तो कगार पर आ ही चुका है, उत्पादन के सारे क्षेत्रों में भी ठहराव है, आपूर्ति की व्यवस्था, मांग और बुनियादी जरूरतों को पूरा करने वाली सारी व्यवस्था भी संकट से घिरी है। सरकार को आज पूरी ताकत से अपनी सारी श्रम शक्ति, गहराते संकट में परिवर्तन का नया दौर यानी मेहनतकश जनता को बचाना होगा। आज पूरी व्यवस्था के सामने जो चुनौती है उसे सिर्फ वही मजदूर पराजित कर सकता है, जो समाज में अपनी हर जरूरत के लिये मोहताज रहता है। यह आज सिर्फ हमारी ही नहीं पूरे विश्व की स्थिति है। इसलिये सरकार को, अभाव से जूझती इस जनता को कैश देना होगा, अलाउन्सेज देने होंगे, अगर वे बेरोजगार हैं समुचित स्वास्थ्य सुविधा, आर्थिक सहयोग और टैक्सों में छूट देनी होगी। यह सब
जनता की क्रयशक्ति, को फिर से जीवित करने के लिये भी जरूरी है। लघु और मध्यम स्तर के उद्योग जो पिछले कई वर्षों से विषम कठिनाईयों से जूझते रहे हैं, बिखर भी चुके हैं, इन सबको फिर से जीवित करना होगा। उन्हें समुचित आर्थिक आपूर्ति करनी होगी। अब तक आर्थिक प्रगति के विषय में आंकड़े
भी पूरी परसिथति को बयान नहीं करते रहे हैं। जैसे वृद्धि दर को सिर्फ उत्पादन से जोड़ा जाता रहा है, जिसमें काम के घंटे, उनमें की गई कड़ी मेहनत, इन सबों को नहीं जोड़ा जाता है। ऐसा प्रायः असंगठित क्षेत्रों में देखा गया है। इसमें कृषि क्षेत्र भी है, जिसमें किसान की आय को जोड़ा नहीं जाता। विकासदर की बुनियादी रेखा वहां से शुरू होती है, जब किसी संकट में उत्पादन दर नीचे गिर चुका रहता है। जैसे जब लगातार दो साल सूखा पड़ा, इस अकाल में जमीन पर कुछ भी उगाया न जा सका। इस भयानक
सूखे के बाद ही कृषि क्षेत्र में काम शुरू हुआ। जो कुछ हुआ वह बढ़ोतरी ही थी, इसे ही वृ(िदर या ‘ग्रोथ’ मान लिया गया। यही औद्योगिक क्षेत्र में भी लागू होता है। यह संकट की सचाई और उसे दूर रखने के लिये आवश्यक उपायों से बचने के लिये किया जाता है, पर इससे भयानक आर्थिक क्षति होती है-और यह
आज इस महामारी के संकट में उजागर होकर सामने आ गया है।
इस संकट में सबसे बड़ी समस्या भूख की है-और भोजन जुटाने के लिये कृषि व्यवस्था को उबारना होगा। जन वितरण व्यवस्था से राशन का वितरण भी होता है। फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के पास 77 मिलियन टन अनाज भरा पड़ा है, आमतौर पर इसमें 42 मिलियन टन से भी काम चलता है। इसलिये इस अनाज को जनता में बांटने के लिये एफसीआई के गोदामों को खोल देना चाहिये। लेकिन वास्तविकता यह है कि जो छह किलोग्राम अनाज राशन में मुफ्त में बांटने का निर्णय है, उसके लिये भी राज्यों से पैसा मांगा जा रहा है। आर्थिक संकट की लगातार उपेक्षा के नतीजे भी सामने आ रहे हैं। 22 मार्च के बाद से बेरोजगारी में तिगुनी बढ़ोतरी हुई है। यह 8.7 प्रतिशत से 23.4 प्रतिशत तक और फिर 5 अप्रैल तक 30.9 तक पहुंच चुकी है। ग्रामीण क्षेत्रों में यह आज 20.2 प्रतिशत है। इस तरह पूरे देश में यह बेरोजगारी,
सेन्टर फॉर मॉनिटरिंग इकोनोमी की रिपोर्ट के अनुसार 23. 4 तक पहुंच चुकी है। हमारे देश में वेतनभोगी मजदूरों की संख्या बहुत ही कम है, सिर्फ 22.1 प्रतिशत। ये भी वो वेतन है जो यूनिट को मिलने वाले रेवेन्यू से नहीं जुड़ा है। बाकी के 78 प्रतिशत अमानवीय परिस्थितियों में, बिना किसी सामाजिक
सुरक्षा के काम करते हैं यही वह मजदूरों की विशाल जमात है, जो अपने घरों की ओर, सैकड़ों मील पैदले चले जा रहे हैं, जहां भूख और बेरोजगारी का एक नया दौर उनकी प्रतीक्षा कर रहा है। बेरोजगार, बेसहारा और भूखी यह जनता ही देश की वह ताकत है जो देश को समृ(ता देती है, ओर समाज को आगे
ले जाती है। आज यह सत्य क्रमशः विश्व के सामने उजागर हो रहा है, जिसे किसी भी तरह अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस संकट ने पूरी व्यवस्था को एक नया आयाम दिया है, जो दक्षिणपंथी सोच की निरर्थकता को सामने ला रही है।
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