कोरोना के बाद विश्व व्यवस्था का पुनर्निमाण
यह एक खण्डों में बंटा हुआ, स्थिर और जमा हुआ स्थान था। एक खामोश लोगों और जमी हुई सडकों का स्थान।
जब फौकाल्ट इस डरावनी लाइनों को लिख रहे थे, तो माइकल फौकाल्ट सतरहवीं शताब्दी में पूरे यूरोप की गलियों में फैले ‘ब्लैक प्लेग‘ से बने फ्रांस के वास्तविक चेहरे का वर्णन कर रहे थे। परंतु उनके शब्द आज भी यहां तक कि आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस और न्यूक्लियर युग के दौर में भी भविष्यवाणी की तरह दिखाई पडते हैं। कोरोना वायरस ने एक वैश्विक सदमा दिया है और पूरा संसार खंडों में बंटकर, स्थिर और जमा हुआ बन गया है।
युद्ध के साथ महामारी भी इंसानी नस्ल और सभ्यता के रूपांतरण में एक अखण्ड भूमिका अदा करही है। 14वीं
सदी में जब यूरोप में प्लेग फैला और उसकी एक तिहाई आबादी को चपेट में ले लिया, इसने चमत्कारिक ढंग से
सामंतवाद को ध्वस्त कर दिया था। ठीक उसी प्रकार 1918 में जब दुनिया में बेहद अभूतपूर्व सघन तरीके और तेज गति से स्पेनिश फ्लू फैला तो वास्तव में वह जन स्वास्थ्य सेवा की अवधारणा को नये तरीके से परिभाषित करने वाला क्षण था। उसके बाद से जन स्वास्थ्य वैश्विक नीति निर्धारण के पूरे परिदृश्य में जन स्वास्थ्य एक केन्द्रीय स्तंभ बन गया था। अब मानवाता फिर से एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रही है। कोरोना वायरस धरती पर 7.8 अरब लोगों के जीवन के लिए खतरा बन रहा है। अभी तक यह मारक वायरस दुनियाभर में 88 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले चुका है और 15 लाख से ज्यादा लोग इससे संक्रमित हैं। जीन और स्वास्थ्य के अलावा महामारी के दूरगामी परिणाम होंगे और यह मौजूदा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य को नयी शक्ल दे देगा। हालांकि यूरोपीय और अमेरिकी राजनीति प्रणाली दुनिया को एक सर्वमान्य नेतृत्व देने में बुरी तरह से नाकाम रही है, मानवीय भावना की ताकत हजारों डाक्टरो, नर्सों, स्वास्थ्य सेवा स्टॉफ और सामान्य जनों से परिलक्षित हो रही है। निसंदेह, महामारी मानवीय लचीलेपन, हमारी जन स्वास्थ्य सेवा प्रणाली, और सबसे पहले इंसानी नस्ल में दुलर्भ चुनौतियों से जीत जाने की अन्तर्निहित भावना के लिटमस टेस्ट की तरह है। प्रसिद्ध इतिहासकार और बेस्ट सेलर लेखक युवल नोएह हरारी ने इसे हमारी पीढी का सबसे बडा संकट बताया है।
बुहान से शुरू होकर विभिन्न महाद्वीपों में फैल जाने वाली महामारी के उभरते हुए व्यापक खतरे के खिलाफ
आइये उन प्रमुख कारकों को खोजने और विश्लेशण करने का एक उदारवादी कोरोना के बाद विश्व व्यवस्था का पुनर्निमाण प्रयास करें जो भविष्य की वैश्विक प्रणाली को आकार दे सकें। कोरोना वायरस के फैलाव ने वैश्विक
पूंजीवाद के अनंत सपनों को चकनाचूर कर दिया है। कम्युनिज्म के ढहने के बाद, हम निर्बाध पूंजीवाद के साक्षी
रहे हैं, जिसने अपने व्यवसायिक और नव साम्राज्यवादी हितों को साधने के लिए देशीय सीमाओं का भी पार कर
लिया था। जिसका बडे पैमाने पर भूमंडलीकरण, उदारवाद और और नव उदारवादी फ्रेमवर्क की ताकतों ने
समर्थन किया। यह व्यापक आर्थिक और राजनीतिक ढांचा जिसे नवउदारवादी नीतियों की बुनियाद पर खडा किया गया था वह आज वित्त पंूजीवाद की सबसे बडी तबाही का सामना कर रहा है। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला जो काफी हद तक चीन पर निर्भर थी वह आज चरमरा गयी है। इसे अब भूमंडलीकरण के बारे में नयी सोच की आवश्यकता है। इसका नतीजा अब सख्त राष्ट्रीय नियंत्रण और स्थानीयकृत उत्पादन और सख्त प्रवासी कानूनों के रूप में सामने आयेगा। जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री पॉल मेसन ने ठीक ही कहा है कि भूमंडलीकरण का पुराना मॉडल जिसमें अमेरिका और बहुपक्षीय संगठनों जिसमें आईएमएफ, विश्व बैंक और डब्ल्यूटीओं का वर्चस्व था वो अब दूसरे देशों में अपनी वैधानिकता खो चुका है।
इसीलिए, उभरते हुई वैश्विक व्यवस्था में भूमंडलीकरण और वैश्विक वित्त पूंजीवाद एक व्यापक और सघन रूपांतरण से होकर गुजरेगा। यह एक छुद्र बदलाव नही होगा। बर्लिन की दीवार और सोवित संघ के ढहने के बाद फुकुयामा, हंटिंगटन और मेकफर्सन जैसे विद्वानों ने नवउदारवादी वैश्विक अर्थप्रणाली की व्याख्या करते हुए इसे ‘इतिहास के अंत‘ और पूंजीवाद की अंतिम जीत‘ का नाम दिया था। अब एक नन्हे से वायरस ने वैश्विक अर्थप्रणाली के ढांचे को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया है। कोरोना के बाद के घटनाक्रम में एक रोचक सकारात्मक बदलाव समाज के नजरिये में मजदूरों और उनके अन्तर्निहित आत्मसम्मान को लेकर आयेगा। पूरी दुनिया में, चाहे वह चीन, ताइवान, इटली और अमेरिका हो हम हर कहीं मजदूरों की कमी में कारखानों और दफ्तरों के बंद होने के गवाह हैं। कईं देशों में, कृषि गतिविधियां गंभीर संकट का सामना कर रही हैं कि कृषि
मजदूरों ने सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों के कारण काम करने से इंकार कर दिया है। इस रूझान ने पंूजी के वर्चस्व को खारिज कर दिया है, जबकि अभी तक केन्द्रीय भूमिका में मानव श्रम से उपर पूंजी और उद्यम को रखा जाता था। समाज ने महसूस कर लिया है कि एक निश्चित सीमा से आगे मशन मानव श्रम की जगह नही ले सकती है। मानव श्रम पर कार्ल मार्क्स के भविष्य सूचक शब्द एकबार फिर से प्रासंगिक हो रहे हैं। मौजूदा संकट हमें श्रम के सम्मान की याद दिलाता है। आजकल के समाज में एक कूडा बीनने वाले अथवा एक स्वास्थ्यकर्मी का महत्व एक फण्ड मैनेजर अथवा एक प्रबंधन विशेषज्ञ से अधिक है। यदि हम आने वाले कल में एक गंभीर खाद्य संकट का सामना करते हैं, एक कृषि मजदूर समाज में सबसे अघिक महत्वपूर्ण पेशेवर हो जायेगा क्योंकि मानवता का अस्तित्व उसके उत्पादक श्रम पर निर्भर करेगा। उसके आंतरिक मूल्य को व्हाइट कॉलर मजदूर
से बदला नही जा सकता है। सटीक होने के लिए हमें कुदरत की दी गयी अनिश्चितताओं को देखते हुए यह
महसूस करना चाहिए कि प्रत्येक पेशे की अपनी स्वाभाविक योग्यता है। श्रम के मूल्य का आंकलन उससे किया जाना जिस सेवा की वह मजदूर समाज के लिए पेशकश करता है, बजाये उसके कि जो सामाजिक सुविधाएं उसके पासउस श्रेणीबद्ध सत्ता वाले समाज में उसके पास हैं। भविष्य की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में शायद जन स्वास्थ्य सेवा नीति निर्धारक बहस की आधारशिला के अरूप में उभरेगा। हम पहले से ही स्वास्थ्य सेवाओं के बाजार मॉडल की अवधारणा के ध्वस्त हो जाने के गवाह हैं। जैसा कि नोअम चोस्की मानते हैं कि यह नव उदारवादी प्लेग है जिसने पूरी दुनिया में जन स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है। पिछले कुछ दशकों में अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था स्वास्थ्य सोवा ढांचे के छोटा होने, विनिवेश होने और नीजिकरण की साक्षी है जिसने कि स्वास्थ्य सेवाओं के व्यवसायिकरण की राह प्रशस्त की। महामारी के इस संकट में जब वो देश जिसके पास मजबूत स्वास्थ्य सेवा प्रणाली है जिसमें चीन, सिंगापुर और ताइवान शामिल हैं ने महामारी पर प्रभावी तरीके से काबू पा लिया तो वहीं जिनकी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली बाजार आधारित थी जैसे अमेरिका और यूरोपीय यूनियन वे बुरी तरह से तबाह हो गये। यहीं पर केरल की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली वैश्विक रूप से प्रासंगिक हुई है। केरल ने महामारी पर प्रभावी तरीके से काबू किया है, सक्षमता से सार्वजनिक एक्शन के उपयोग, जन केन्द्रीत स्थानीय प्रशासन, और व्यापक राजनीतिक चेतना के माध्यम से जिसने राज्य के सामाजिक परदिृश्य को परिभाषित किया है। भविष्य की वैश्विक व्यवस्था में स्वास्थ्य को एक बुनियादी अधिकार और एक वैश्विक सार्वजनिक वस्तु की तरह लिया जायेगा। इसीलिए स्वास्थ्य का उत्पादन नही किया जा सकता है और उसे कामेडिटी की तरह बेचा भी नही जा सकता है। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य को एक सार्वजनिक वस्तु की अवधारणा को मान्यता दी है और विश्व बैंक उससे पहले ही ऐस कर चुका है, फिर भी मौजूदा संकट फिर से पूरी दुनिया में इस अवधारणा को जिंदा कर रहा है। स्वास्थ्य के एक सार्वजनिक वस्तु की अवधारणा के साथ ही इसमें राष्ट्र राज्य की भूमिका पर और इसकी नैतिक जिम्मेदारी भी पुनर्विचार होगा। इस उभरते हुए रूझान के दो आयाम हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान, प्रोद्यौगिकी और सामाजिक सुरक्षा में अधिक निवेश के साथ एक कल्याण राज्य के मॉडल को
पुनर्जीवित करना। हम फैलती हुई महामारी को प्रभावी तरीके से नियंत्रित करने में बाजार राज्य के मॉडल की
नाकामी को देख चुके हैं। पॉल मेसोन के अनुसार यह एक ऐसे कल्याण राज्य की जरूरत को बना सकता है जिसका फोकस सामाजिक न्याय, समानता और सार्वजनिक वस्तुओं के समान वितरण पर होगा सकता है। इसका दूसरा महत्वपूर्ण पहलू एक अधिनायकवादी राज्य का पुनरूत्थान है। कोरोना संकट एक व्यापक राष्ट्रवाद, निगरानी और राज्य तंत्र की मजबूती की तरफ ले जायेगा। राज्य संकट से निपटने के लिए सख्त उपायों का सहारा लेगा और उसमें से अधिकतर उपाय संकट के निपट जाने के बाद भी जारी रहेंगे, इस प्रकार यह राज्य और उसके संस्थानों के चरित्र में एक स्थायी बदलाव लेकर आयेगा। जनता हो सकता है कि स्वैच्छा से इस अधिकनायकवादी निगरानी राज्य को स्वीकार करेगा, कि वे महामारी के सामाज में फैलने से पहले से ही
लोकतांत्रिक व्यवस्था की विफलता से मायूस हैं। यदि जनता से स्वास्थ्य और निजता में चयन के बारे में पूछा जाता
है तो स्वभाविक ही वे स्वास्थ्य का ही चयन करेंगे। इस बारे में युवल नोएहा हरारी दो बुनियादी पसंदों की पहचान
करते हैं जिन्हें मनुष्यों को करना है। एक अधिनायकवाद और नागरिक सशक्तिकरण में चुनाव। दूसरी पसंद
राष्ट्रीय अलगाव और वैश्विक एकजुटता के बीच चुनाव। दूसरा गंभीर मसला जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में उठेगा वह है भोजन की कमी और और व्यापार रूकावटें। समानों की आवाजाही पर रोक के साथ मजूदरों की कमी और निर्यात पर रोक से पूरी दुनिया में गंभीर खाद्य संकट पैदा होगा। कजाखिस्तान ने पहले ही गेंहू, आटे और सब्जियों के निर्यात पर रोक लगा दी है। वियतनाम चावल का तीसरा बडा निर्यात है, उसने चावल के निर्यात को सस्पेंड कर दिया है। गेंहू के बडा निर्यातक रूस भी शीघ्र ही निर्यात रोकने जा रहा है। फलों और सब्जियों में भारी संख्या में मजदूर लगते हैं और मजदूरों की कमी आपूर्ति और निर्यात पर असर डालेगी। इस प्रकार विकासशील देशों में श्रम के आर्थिक शोषण पर आधारित एक भूमंडलीकृत अर्थप्रणाली को इस संकट के बाद प्राकृतिक रूप से ध्वस्त होगी। यह आपसी सम्मान, सहयोग और मानवात के प्रति सम्मान पर आधारित नयी वैश्विक सोच की जरूरत बना रहा है। वैश्विक महामारी इस अहसास की तरफ ले जाती है कि मानवता के पास एक वैधानिक और नैतिक वैश्विक नेतृत्व नही है। अमेरिका महामारी के तुरंत समाजिक फैलाव को रोकने का समाधान डिजायन देने और प्रभावी समस्या निवारक रणनीति की पेशकश करने में विफल रहा है। पश्चिम का औरा घट रहा है और इस तरह यह पूर्वी देशों के उदय का गवाह बन सकता है। जब अमेरिका और फ्रांस इटली की सहायता करने में विफल हो गये, तो क्युबा जैसा एक छोटा देश जो कि कईं दशकों से मजबूती से अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना कर रहा है, ने अपनी मेडिकल टीम कोरोना पीडित देशों की सहायता के लिए भेजी। यह साफ तौर पर उभरती हुई विश्व व्यवस्था में सैनिक ताकत पर नैतिक ताकत की प्रासंगिकता को जाहिर करता है। संक्षेप में, कोरोना संकट के बाद फिर से आकार लेती हमारी विश्व व्यवस्था दो महत्वपूर्ण कारकों पर निर्भर करती हैः पहला इस बैचेनी, क्वारंटीन और आइसोलेशन के संक्रमण के बीच हम ठीक प्रकार का विकल्प चुनते हैं। और दूसरा इन विकल्पों के डिजायन और क्रियान्वयन में विज्ञान, स्वास्थ्य और मानवता की अनिवार्य भूमिका।
भविष्य की वैश्विक व्यवस्था में मानवता का अस्तित्व सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक वस्तुओं के रूप में विज्ञान, मानवता और स्वास्थ्य को फिर से वापस लाने पर निर्भर करेगा। परस्पर निर्भरता, परस्पर संबध और हमारी सामूहिक चेतना में विश्वास के आधार पर बना विश्व दृष्टिकोण मानवता पर आधारित नई विश्व व्यवस्था के निर्माण की जरूरत है। हमें आपसी विश्वास, सहयोग और मानवता के अस्तित्व के सिद्धांतों पर आधारित न्यायप्रिय, समतामूलक और मानवीय विश्व व्यवस्था बनाने के लिए विभिन्न पसंदों के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है। एक ठीक प्रकार का संतुलन मूल्यों और हितों, व्यक्तिवाद और सामूहिक मानवीय भावना, राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रीयवाद, निजीकरण और सार्वजनिक कल्याण के बीच और सबसे पहले सभी नीतियों के आगे बढने की
भावना सबकी अच्छाई की अवस्थिति हो। इस गतिशील प्रक्रिया में सामाजिक और राजनीतिक रूप से चेतनशील
नागरिक निसंदेह एक उतप्रेरक भूमिका अदा करेंगे जैसा केरल के मामले में देखा गया है।
पी संदोष कुमार
मुक्ति संघर्ष
यह एक खण्डों में बंटा हुआ, स्थिर और जमा हुआ स्थान था। एक खामोश लोगों और जमी हुई सडकों का स्थान।
जब फौकाल्ट इस डरावनी लाइनों को लिख रहे थे, तो माइकल फौकाल्ट सतरहवीं शताब्दी में पूरे यूरोप की गलियों में फैले ‘ब्लैक प्लेग‘ से बने फ्रांस के वास्तविक चेहरे का वर्णन कर रहे थे। परंतु उनके शब्द आज भी यहां तक कि आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस और न्यूक्लियर युग के दौर में भी भविष्यवाणी की तरह दिखाई पडते हैं। कोरोना वायरस ने एक वैश्विक सदमा दिया है और पूरा संसार खंडों में बंटकर, स्थिर और जमा हुआ बन गया है।
युद्ध के साथ महामारी भी इंसानी नस्ल और सभ्यता के रूपांतरण में एक अखण्ड भूमिका अदा करही है। 14वीं
सदी में जब यूरोप में प्लेग फैला और उसकी एक तिहाई आबादी को चपेट में ले लिया, इसने चमत्कारिक ढंग से
सामंतवाद को ध्वस्त कर दिया था। ठीक उसी प्रकार 1918 में जब दुनिया में बेहद अभूतपूर्व सघन तरीके और तेज गति से स्पेनिश फ्लू फैला तो वास्तव में वह जन स्वास्थ्य सेवा की अवधारणा को नये तरीके से परिभाषित करने वाला क्षण था। उसके बाद से जन स्वास्थ्य वैश्विक नीति निर्धारण के पूरे परिदृश्य में जन स्वास्थ्य एक केन्द्रीय स्तंभ बन गया था। अब मानवाता फिर से एक अभूतपूर्व संकट का सामना कर रही है। कोरोना वायरस धरती पर 7.8 अरब लोगों के जीवन के लिए खतरा बन रहा है। अभी तक यह मारक वायरस दुनियाभर में 88 हजार से ज्यादा लोगों की जान ले चुका है और 15 लाख से ज्यादा लोग इससे संक्रमित हैं। जीन और स्वास्थ्य के अलावा महामारी के दूरगामी परिणाम होंगे और यह मौजूदा अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था के सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिदृश्य को नयी शक्ल दे देगा। हालांकि यूरोपीय और अमेरिकी राजनीति प्रणाली दुनिया को एक सर्वमान्य नेतृत्व देने में बुरी तरह से नाकाम रही है, मानवीय भावना की ताकत हजारों डाक्टरो, नर्सों, स्वास्थ्य सेवा स्टॉफ और सामान्य जनों से परिलक्षित हो रही है। निसंदेह, महामारी मानवीय लचीलेपन, हमारी जन स्वास्थ्य सेवा प्रणाली, और सबसे पहले इंसानी नस्ल में दुलर्भ चुनौतियों से जीत जाने की अन्तर्निहित भावना के लिटमस टेस्ट की तरह है। प्रसिद्ध इतिहासकार और बेस्ट सेलर लेखक युवल नोएह हरारी ने इसे हमारी पीढी का सबसे बडा संकट बताया है।
बुहान से शुरू होकर विभिन्न महाद्वीपों में फैल जाने वाली महामारी के उभरते हुए व्यापक खतरे के खिलाफ
आइये उन प्रमुख कारकों को खोजने और विश्लेशण करने का एक उदारवादी कोरोना के बाद विश्व व्यवस्था का पुनर्निमाण प्रयास करें जो भविष्य की वैश्विक प्रणाली को आकार दे सकें। कोरोना वायरस के फैलाव ने वैश्विक
पूंजीवाद के अनंत सपनों को चकनाचूर कर दिया है। कम्युनिज्म के ढहने के बाद, हम निर्बाध पूंजीवाद के साक्षी
रहे हैं, जिसने अपने व्यवसायिक और नव साम्राज्यवादी हितों को साधने के लिए देशीय सीमाओं का भी पार कर
लिया था। जिसका बडे पैमाने पर भूमंडलीकरण, उदारवाद और और नव उदारवादी फ्रेमवर्क की ताकतों ने
समर्थन किया। यह व्यापक आर्थिक और राजनीतिक ढांचा जिसे नवउदारवादी नीतियों की बुनियाद पर खडा किया गया था वह आज वित्त पंूजीवाद की सबसे बडी तबाही का सामना कर रहा है। वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला जो काफी हद तक चीन पर निर्भर थी वह आज चरमरा गयी है। इसे अब भूमंडलीकरण के बारे में नयी सोच की आवश्यकता है। इसका नतीजा अब सख्त राष्ट्रीय नियंत्रण और स्थानीयकृत उत्पादन और सख्त प्रवासी कानूनों के रूप में सामने आयेगा। जैसा कि प्रसिद्ध अर्थशास्त्री पॉल मेसन ने ठीक ही कहा है कि भूमंडलीकरण का पुराना मॉडल जिसमें अमेरिका और बहुपक्षीय संगठनों जिसमें आईएमएफ, विश्व बैंक और डब्ल्यूटीओं का वर्चस्व था वो अब दूसरे देशों में अपनी वैधानिकता खो चुका है।
इसीलिए, उभरते हुई वैश्विक व्यवस्था में भूमंडलीकरण और वैश्विक वित्त पूंजीवाद एक व्यापक और सघन रूपांतरण से होकर गुजरेगा। यह एक छुद्र बदलाव नही होगा। बर्लिन की दीवार और सोवित संघ के ढहने के बाद फुकुयामा, हंटिंगटन और मेकफर्सन जैसे विद्वानों ने नवउदारवादी वैश्विक अर्थप्रणाली की व्याख्या करते हुए इसे ‘इतिहास के अंत‘ और पूंजीवाद की अंतिम जीत‘ का नाम दिया था। अब एक नन्हे से वायरस ने वैश्विक अर्थप्रणाली के ढांचे को पूरी तरह से हिलाकर रख दिया है। कोरोना के बाद के घटनाक्रम में एक रोचक सकारात्मक बदलाव समाज के नजरिये में मजदूरों और उनके अन्तर्निहित आत्मसम्मान को लेकर आयेगा। पूरी दुनिया में, चाहे वह चीन, ताइवान, इटली और अमेरिका हो हम हर कहीं मजदूरों की कमी में कारखानों और दफ्तरों के बंद होने के गवाह हैं। कईं देशों में, कृषि गतिविधियां गंभीर संकट का सामना कर रही हैं कि कृषि
मजदूरों ने सोशल डिस्टेंसिंग के नियमों के कारण काम करने से इंकार कर दिया है। इस रूझान ने पंूजी के वर्चस्व को खारिज कर दिया है, जबकि अभी तक केन्द्रीय भूमिका में मानव श्रम से उपर पूंजी और उद्यम को रखा जाता था। समाज ने महसूस कर लिया है कि एक निश्चित सीमा से आगे मशन मानव श्रम की जगह नही ले सकती है। मानव श्रम पर कार्ल मार्क्स के भविष्य सूचक शब्द एकबार फिर से प्रासंगिक हो रहे हैं। मौजूदा संकट हमें श्रम के सम्मान की याद दिलाता है। आजकल के समाज में एक कूडा बीनने वाले अथवा एक स्वास्थ्यकर्मी का महत्व एक फण्ड मैनेजर अथवा एक प्रबंधन विशेषज्ञ से अधिक है। यदि हम आने वाले कल में एक गंभीर खाद्य संकट का सामना करते हैं, एक कृषि मजदूर समाज में सबसे अघिक महत्वपूर्ण पेशेवर हो जायेगा क्योंकि मानवता का अस्तित्व उसके उत्पादक श्रम पर निर्भर करेगा। उसके आंतरिक मूल्य को व्हाइट कॉलर मजदूर
से बदला नही जा सकता है। सटीक होने के लिए हमें कुदरत की दी गयी अनिश्चितताओं को देखते हुए यह
महसूस करना चाहिए कि प्रत्येक पेशे की अपनी स्वाभाविक योग्यता है। श्रम के मूल्य का आंकलन उससे किया जाना जिस सेवा की वह मजदूर समाज के लिए पेशकश करता है, बजाये उसके कि जो सामाजिक सुविधाएं उसके पासउस श्रेणीबद्ध सत्ता वाले समाज में उसके पास हैं। भविष्य की अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में शायद जन स्वास्थ्य सेवा नीति निर्धारक बहस की आधारशिला के अरूप में उभरेगा। हम पहले से ही स्वास्थ्य सेवाओं के बाजार मॉडल की अवधारणा के ध्वस्त हो जाने के गवाह हैं। जैसा कि नोअम चोस्की मानते हैं कि यह नव उदारवादी प्लेग है जिसने पूरी दुनिया में जन स्वास्थ्य सेवा प्रणाली को पूरी तरह से बर्बाद कर दिया है। पिछले कुछ दशकों में अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था स्वास्थ्य सोवा ढांचे के छोटा होने, विनिवेश होने और नीजिकरण की साक्षी है जिसने कि स्वास्थ्य सेवाओं के व्यवसायिकरण की राह प्रशस्त की। महामारी के इस संकट में जब वो देश जिसके पास मजबूत स्वास्थ्य सेवा प्रणाली है जिसमें चीन, सिंगापुर और ताइवान शामिल हैं ने महामारी पर प्रभावी तरीके से काबू पा लिया तो वहीं जिनकी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली बाजार आधारित थी जैसे अमेरिका और यूरोपीय यूनियन वे बुरी तरह से तबाह हो गये। यहीं पर केरल की स्वास्थ्य सेवा प्रणाली वैश्विक रूप से प्रासंगिक हुई है। केरल ने महामारी पर प्रभावी तरीके से काबू किया है, सक्षमता से सार्वजनिक एक्शन के उपयोग, जन केन्द्रीत स्थानीय प्रशासन, और व्यापक राजनीतिक चेतना के माध्यम से जिसने राज्य के सामाजिक परदिृश्य को परिभाषित किया है। भविष्य की वैश्विक व्यवस्था में स्वास्थ्य को एक बुनियादी अधिकार और एक वैश्विक सार्वजनिक वस्तु की तरह लिया जायेगा। इसीलिए स्वास्थ्य का उत्पादन नही किया जा सकता है और उसे कामेडिटी की तरह बेचा भी नही जा सकता है। हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्वास्थ्य को एक सार्वजनिक वस्तु की अवधारणा को मान्यता दी है और विश्व बैंक उससे पहले ही ऐस कर चुका है, फिर भी मौजूदा संकट फिर से पूरी दुनिया में इस अवधारणा को जिंदा कर रहा है। स्वास्थ्य के एक सार्वजनिक वस्तु की अवधारणा के साथ ही इसमें राष्ट्र राज्य की भूमिका पर और इसकी नैतिक जिम्मेदारी भी पुनर्विचार होगा। इस उभरते हुए रूझान के दो आयाम हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, विज्ञान, प्रोद्यौगिकी और सामाजिक सुरक्षा में अधिक निवेश के साथ एक कल्याण राज्य के मॉडल को
पुनर्जीवित करना। हम फैलती हुई महामारी को प्रभावी तरीके से नियंत्रित करने में बाजार राज्य के मॉडल की
नाकामी को देख चुके हैं। पॉल मेसोन के अनुसार यह एक ऐसे कल्याण राज्य की जरूरत को बना सकता है जिसका फोकस सामाजिक न्याय, समानता और सार्वजनिक वस्तुओं के समान वितरण पर होगा सकता है। इसका दूसरा महत्वपूर्ण पहलू एक अधिनायकवादी राज्य का पुनरूत्थान है। कोरोना संकट एक व्यापक राष्ट्रवाद, निगरानी और राज्य तंत्र की मजबूती की तरफ ले जायेगा। राज्य संकट से निपटने के लिए सख्त उपायों का सहारा लेगा और उसमें से अधिकतर उपाय संकट के निपट जाने के बाद भी जारी रहेंगे, इस प्रकार यह राज्य और उसके संस्थानों के चरित्र में एक स्थायी बदलाव लेकर आयेगा। जनता हो सकता है कि स्वैच्छा से इस अधिकनायकवादी निगरानी राज्य को स्वीकार करेगा, कि वे महामारी के सामाज में फैलने से पहले से ही
लोकतांत्रिक व्यवस्था की विफलता से मायूस हैं। यदि जनता से स्वास्थ्य और निजता में चयन के बारे में पूछा जाता
है तो स्वभाविक ही वे स्वास्थ्य का ही चयन करेंगे। इस बारे में युवल नोएहा हरारी दो बुनियादी पसंदों की पहचान
करते हैं जिन्हें मनुष्यों को करना है। एक अधिनायकवाद और नागरिक सशक्तिकरण में चुनाव। दूसरी पसंद
राष्ट्रीय अलगाव और वैश्विक एकजुटता के बीच चुनाव। दूसरा गंभीर मसला जो अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में उठेगा वह है भोजन की कमी और और व्यापार रूकावटें। समानों की आवाजाही पर रोक के साथ मजूदरों की कमी और निर्यात पर रोक से पूरी दुनिया में गंभीर खाद्य संकट पैदा होगा। कजाखिस्तान ने पहले ही गेंहू, आटे और सब्जियों के निर्यात पर रोक लगा दी है। वियतनाम चावल का तीसरा बडा निर्यात है, उसने चावल के निर्यात को सस्पेंड कर दिया है। गेंहू के बडा निर्यातक रूस भी शीघ्र ही निर्यात रोकने जा रहा है। फलों और सब्जियों में भारी संख्या में मजदूर लगते हैं और मजदूरों की कमी आपूर्ति और निर्यात पर असर डालेगी। इस प्रकार विकासशील देशों में श्रम के आर्थिक शोषण पर आधारित एक भूमंडलीकृत अर्थप्रणाली को इस संकट के बाद प्राकृतिक रूप से ध्वस्त होगी। यह आपसी सम्मान, सहयोग और मानवात के प्रति सम्मान पर आधारित नयी वैश्विक सोच की जरूरत बना रहा है। वैश्विक महामारी इस अहसास की तरफ ले जाती है कि मानवता के पास एक वैधानिक और नैतिक वैश्विक नेतृत्व नही है। अमेरिका महामारी के तुरंत समाजिक फैलाव को रोकने का समाधान डिजायन देने और प्रभावी समस्या निवारक रणनीति की पेशकश करने में विफल रहा है। पश्चिम का औरा घट रहा है और इस तरह यह पूर्वी देशों के उदय का गवाह बन सकता है। जब अमेरिका और फ्रांस इटली की सहायता करने में विफल हो गये, तो क्युबा जैसा एक छोटा देश जो कि कईं दशकों से मजबूती से अमेरिकी प्रतिबंधों का सामना कर रहा है, ने अपनी मेडिकल टीम कोरोना पीडित देशों की सहायता के लिए भेजी। यह साफ तौर पर उभरती हुई विश्व व्यवस्था में सैनिक ताकत पर नैतिक ताकत की प्रासंगिकता को जाहिर करता है। संक्षेप में, कोरोना संकट के बाद फिर से आकार लेती हमारी विश्व व्यवस्था दो महत्वपूर्ण कारकों पर निर्भर करती हैः पहला इस बैचेनी, क्वारंटीन और आइसोलेशन के संक्रमण के बीच हम ठीक प्रकार का विकल्प चुनते हैं। और दूसरा इन विकल्पों के डिजायन और क्रियान्वयन में विज्ञान, स्वास्थ्य और मानवता की अनिवार्य भूमिका।
भविष्य की वैश्विक व्यवस्था में मानवता का अस्तित्व सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक वस्तुओं के रूप में विज्ञान, मानवता और स्वास्थ्य को फिर से वापस लाने पर निर्भर करेगा। परस्पर निर्भरता, परस्पर संबध और हमारी सामूहिक चेतना में विश्वास के आधार पर बना विश्व दृष्टिकोण मानवता पर आधारित नई विश्व व्यवस्था के निर्माण की जरूरत है। हमें आपसी विश्वास, सहयोग और मानवता के अस्तित्व के सिद्धांतों पर आधारित न्यायप्रिय, समतामूलक और मानवीय विश्व व्यवस्था बनाने के लिए विभिन्न पसंदों के बीच संतुलन बनाने की जरूरत है। एक ठीक प्रकार का संतुलन मूल्यों और हितों, व्यक्तिवाद और सामूहिक मानवीय भावना, राष्ट्रवाद और अन्तर्राष्ट्रीयवाद, निजीकरण और सार्वजनिक कल्याण के बीच और सबसे पहले सभी नीतियों के आगे बढने की
भावना सबकी अच्छाई की अवस्थिति हो। इस गतिशील प्रक्रिया में सामाजिक और राजनीतिक रूप से चेतनशील
नागरिक निसंदेह एक उतप्रेरक भूमिका अदा करेंगे जैसा केरल के मामले में देखा गया है।
पी संदोष कुमार
मुक्ति संघर्ष
No comments:
Post a Comment