हरियाणा की स्वास्थ्य व्यवस्थाः एक पृष्ठभूमि*
पिछले कुछ वर्षों के दौरान हरियाणा में स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनेक ढांचागत व नीतिगत बदलाव के साथ उद्देश्यों के स्तर पर भी बदलाव हुए हैं। पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान तीन नए राजकीय मेडिकल कॉलेज खुले व पीजीआईएमएस रोहतक को हेल्थ यूनिवर्सिटी के तौर पर अपग्रेड किया गया। लेकिन मौजूदा स्वास्थ्य ढांचे की सुध कम ली गई। वो चाहे पीएचसी हों, सीएचसी या फिर नागरिक अस्पताल। चिकित्सकों के साथ-साथ अन्य स्वास्थ्य कर्मचारियों जैसे लैब तकनीशियन, फार्मासिस्ट, स्टाफ नर्स, बहुउद्देशीय स्वास्थ्य कार्यकर्ता इत्यादि की कमी ज्यों की त्यों बनी हुई है। जो स्वास्थ्य कर्मचारी पहले से काम कर रहे हैं उनके शिक्षण व प्रशिक्षण की हालत भी बहुत अच्छी नहीं है। डॉक्टरों सहित अलग-अलग स्वास्थ्य कर्मचारियों, वो चाहे फार्मासिस्ट हों, स्टाफ नर्स हों, बहुउद्देशीय स्वास्थ्य कर्मचारी हों या अन्य कोई कर्मचारी, सभी पक्ष सरकार की मौजूदा नीतियों से परेशान हैं। स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं जैसे आशा वर्कर्स, आंगनवाड़ी वर्कर आदि की स्थिति भी बाकी कर्मचारियों जैसी ही है। पिछले कुछ वर्षों में इन तमाम तबकों ने अनेक हड़तालें व प्रदर्शन इन्ही मांगो को लेकर किए हैं।
हेल्थ यूनिवर्सिटी रोहतक में ‘‘ट्रामा सेंटर‘‘ बनने के करीब 6 साल बाद शुरू हो पाया है। मातृत्व एवं जच्चा-बच्चा केंद्र तो अभी तक शुरू नहीं हो पाया है। मरीजों व बीमारियों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। गर्भवती महिलाओं व छोटी बच्चियों में खून की कमी हरियाणा की पहचान बनी हुई है। अस्पतालों में दवाइयों की उपलब्धता ना के बराबर है। जांच सेवाएं उपलब्ध कराने के नाम पर निजी कंपनियों को पीपीपी के तहत ठेके दिए गए हैं। इससे लोगों के एक तबके को कुछ फौरी राहत तो मिली है, लेकिन निजीकरण की मुहिम ज्यादा तेज हो गई है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना भी पिछले करीब 4 साल से बजट उपलब्धता के बावजूद ठप्प पड़ी है। विकास के नाम पर सिर्फ बड़ी-बड़ी बिल्डिंग ही बनी हैं। यह सारी परिस्थितियां स्वास्थ्य ढांचे व सेवाओं के प्रति राज्य सरकार की उदासीनता को ही दर्शाती हैं।
हमारे देश व प्रदेश की वर्तमान सरकारों के सारे दावों के बावजूद हमारे देश के स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर ज्यादा ठीक दिखाई नहीं देती है। साल में प्रति व्यक्ति सिर्फ 1112 रुपये के साथ भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी ताजा नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट ने भी इन हालातों के ठीक न होने की बात को ही एक तरह से सही ठहराया लगता है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 11082 लोगों पर सिर्फ एक एलौपैथिक डॉक्टर ही है। स्वास्थ्य पर किया जाने वाला खर्च भी भारत में जीडीपी का महज एक फीसदी ही है। जो स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च किया जाता है। यह स्वास्थ्य पर किया जाने वाला खर्च पड़ोसी देशों मालदीव, भूटान, श्रीलंका और नेपाल के मुकाबले भी कम ही है। देश के सरकारी ढांचे में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर एक सर्जन, एक शिशु रोग विशेषज्ञ, एक स्त्री रोग विशेषज्ञ और एक फिजिसियन आदि स्पेस्लिस्ट सहित 7 चिकित्सा अधिकारी अवष्य होने चाहिएं। लेकिन ये चारों स्पेस्लिस्ट व चिकित्सा अधिकारी शायद ही हरियाणा के किसी सामुदायिक केंद्र में उपलब्ध हों। इस प्रकार प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र पर कम से कम दो चिकित्सा अधिकारी व डैंटल सर्जन का होना अनिवार्य है लेकिन तस्वीर एकदम उल्टी है। प्राथमिक और सैकण्डरी स्तर की स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे का यह हाल है तो टर्सरी स्तर के पीजीआईएमएस रोहतक और दूसरे मैडीकल कॉलेजों की हालात समझी जा सकती हैं।
देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हर साल प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन कहें तो तीन रुपए खर्च किए जाते हैं। हरियाणा की जनसंख्या (2011) में करीब 2.54 करोड़ है। ग्रामीण जनसंख्या 16508356 है। 5 हजार पर एक उप स्वास्थ्य केंद्र, 30,000 पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र और एक लाख पर एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र ग्रामीण क्षेत्र का प्रारूप माना गया है। जिसके अनुसार हरियाणा में उप स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 3301 होनी चाहिए, जबकि उपलब्धता 2630 (कमी-671) की है। प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 550 होनी चाहिए, जबकि उपलब्धता 486(कमी-64) की है। सामु0 स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या 165 होनी चाहिए, जबकि उपलब्धता 119(कमी-46) की है। स्वास्थ्य की स्थिति के कुछ आंकड़ों पर नजर डालें तो 6-59 महीनों के बीच के 71.1%बच्चे खून की कमी के शिकार हैं। 15-49 साल के बीच की 60% महिलाएं और लड़कियां खून की कमी की शिकार हैं। 15-19 साल की 62.7% किशोर लड़कियों में खून की कमी है। इसी उम्र के 29.7% लड़कों में खून की कमी पाई गई। 15-19 साल की 36.6% किशोरियां कुपोषण की शिकार हैं। इसी उम्र के 30.6% लड़कों में कुपोषण है। यदि 2020 की अनुमानित जनसंख्या (2.86 करोड़) पर सोचा जाये तो और भी ज्यादा स्वास्थ्य ढांचा होना चाहिए। ठेकेदारी प्रथा और निजीकरण से रोजी-रोटी पर गंभीर हमला किया जा रहा है। एक तरफ जहाँ सार्वजानिक स्वास्थ्य ढांचा लोगों की स्वास्थ्य संबंधी जरूरतों को संबोधित करने में नाकाफी सिद्ध हो रहा है, वहीं दूसरी तरफ स्वास्थ्य के क्षेत्र में आउटसोर्सिंग की नीति के चलते प्रदेष के स्वास्थ्य ढ़ांचे में ठेकेदारों के माध्यम से विभिन्न कैडर के करीब 11 हजार कच्चे कर्मचारियों को भर्ती किया गया है। जिन्हें न तो समान काम के लिए समान वेतन मिलता है और न ही नियमित किया जा रहा है। इन्हें रविवार और गैजटिड अवकाष में भी छुट्टियां तक नहीं मिलती बल्कि माह में केवल चार रैस्ट मिलते हैं। जो संबंधित अधिकारियों की मर्जी पर निर्भर करते हैं।
इसलिए यह अत्यंत ज़रूरी हो जाता है कि इस समय सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्र को मजबूत करने व सार्वजनिक सेवाओं के तेजी से हो रहे निजीकरण के खिलाफ लोग अपनी आवाज बुलंद करें। इस समय अनेक अन्य चुनौतियां भी खड़ी हो गई हैं। मसलन धार्मिक कट्टरवाद, बहुसंख्यकवाद, संवैधानिक मूल्यों पर आक्रमण, महिला, दलित, आदिवासी एवं अल्पसंख्यकों के हकों पर लगातार हमले आदि। इन सब चुनौतियां से पार पाने के लिए लगातार जागरूकता अभियान और एक मजबूत व सतत आंदोलन समय की माँग है। यह सब चुनौतियां जन स्वास्थ्य अभियान की भूमिका को अहम बना रही हैं। ऐसे हालातों में सर्व कर्मचारी संघ हरियाणा और सीटू जैसे लड़ाकू संगठन ‘‘स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्य सेवाओं को मौलिक अधिकार बनाने तथा रोजगार बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।" इसके लिए आप सभी से अपील करते हैं कि प्रदेश में चलाए जा रहे आंदोलन में बढ़चढ़ कर सहयोग करते हुए *"स्वास्थ्य बचाओ-रोजगार बचाओ’’* की लड़ाई को मजबूत करें।
*मुख्य मांगेः*
1) सार्वजनिक स्वास्थ्य तंत्रका सशक्तिकरण।
2) निजीकरण पर रोक और स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार।
3) जेंडर और स्वास्थ्य।
4) दवाइयों और जाँच सेवाओं की सबके लिए उपलब्धता।
5) स्वास्थ्य के सामजिक कारकों पर ध्यान देना।
*निवेदकः*
जन स्वास्थ्य अभियान हरियाणा
No comments:
Post a Comment