भारत
की स्वास्थ्य सेवाओं की चिंताजनक स्थिति
हमारे
देश की वर्तमान सरकार
के सारे दावों
के बावजूद हमारे देश के स्वास्थ्य
क्षेत्र की तस्वीर ज्यादा
ठीक दिखाई नहीं देती है | साल
में प्रति व्यक्ति सिर्फ 1,112 रुपये के साथ भारत
सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे कम
खर्च करने वाले देशों में है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से
जारी ताजा नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट ने भी इन
हालातों के ठीक न
होने की बात को
ही एक तरह से
सही ठहराया लगता है | इस
रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत
में 11,082 लोगों पर सिर्फ एक एलौपैथिक डॉक्टर
ही है। स्वास्थ्य पर किया जाने
वाला खर्च भी भारत में जीडीपी
का महज एक फीसदी ही
है जो स्वास्थय के
क्षेत्र में खर्च किया जाता है| यह
स्वास्थय पर किया जाने
वाला खर्च पड़ोसी
देशों मालदीव, भूटान, श्रीलंका और नेपाल के
मुकाबले भी कम ही है।
देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हर साल
प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन कहें तो तीन
रुपए खर्च किए जाते हैं।
केंद्रीय
स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो
आफ हेल्थ इंटेलिजेंस द्वारा यह रिपोर्ट जारी
की गई है| कुछ बातें रिपोर्ट में हैं जिनका यहाँ पर जिक्र करना
प्रासंगिक होगा | रिपोर्ट
बताती है
कि
* वर्ष
2017 में सरकार
के राष्ट्रीय परीक्षण कार्यक्रम के तहत जांच
से मधुमेह और हाइपरटेंशन की
मरीजों की तादाद महज
एक साल में दोगुनी होने का खुलासा हुआ
है।
*
एक साल के दौरान कैंसर
के मामले भी 36 फीसदी बढ़ गए हैं।
* रिपोर्ट
के मुताबिक, देश में डॉक्टरों की भारी कमी
है जिसका
खामियाजा मरीजों को भुगतना पड़
रहा है । फिलहाल
प्रति 11,082 आबादी पर महज एक
डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों
के मुताबिक यह अनुपात एक
डाक्टर प्रति
एक हजार की आबादी पर
(1:1000) होना चाहिए यानी देश में यह अनुपात तय
मानकों के मुकाबले 11 गुना
कम है। बिहार जैसे गरीब राज्यों में तो तस्वीर और
भी मायुश करने वाली है | वहां प्रति 28,391 लोगों पर महज एक
एलोपैथिक डॉक्टर है। । उत्तर
प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी तस्वीर बेहतर
नहीं है।हरयाणा जैसे आर्थिक स्तर पर आगे बढे
प्रान्त में भी डाक्टरों की
कमी अखरने वाली ही है
मेडिकल
काउंसिल आफ इंडिया के
पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख
डॉक्टर पंजीकृत थे। सरकारी अस्पतालों में इन डाक्टरों में
से महज 1.2 लाख
डॉक्टर ही हैं। बीते
साल सरकार ने संसद में
बताया था कि निजी
और सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले लगभग 8.18 लाख डाक्टरों को ध्यान में
रखें तो देश में
डॉक्टर और मरीजों का
अनुपात 1:1,612 हो सकता है।
लेकिन यह तादाद भी
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के
मुकाबले तो कम ही
है। यह अनुमान लगाया
जा सकता है कि तय
मानक पर खरा उतरने
के लिए भारत को
फिलहाल पांच
लाख डॉक्टरों की और जरूरत
है। धयान देने वाली बात है कि हर
साल यह मांग और
बढ़ जाती है ।
हमारे
देश में स्वास्थ्य सेवाएं अत्याधिक
महंगी हैं जो गरीबों की
पहुंच से काफी दूर
हो गई हैं। स्वास्थ्य,
शिक्षा, भोजन व आवास जीवन
की मूलभूत आवश्यकताएं हैं। गौरतलब है कि हमारे
संविधान में इस बात का
प्रावधान होते हुए भी कि नागरिकों
को स्वास्थ्य व शिक्षा प्रदान
करना हमारी प्राथमिकता है, हम एक राष्ट्र
के रूप में इस लक्ष्य की
प्राप्ति में असफल रहे हैं । स्वास्थ्य सेवाओं
का निजीकरण जारी है ।जिससे आम
लोगों को परेशानी का
सामना करना पड़ रहा है ।
भारत
की स्वास्थ्य चिंताएं
भारत संक्रामक रोगों का पसंदीदा स्थल
तो है ही साथ
में गैर संक्रामक रोगों से ग्रस्त लोगों
की संख्या में भी उल्लेखनीय वृद्धि
हुई है। प्रत्येक वर्ष लगभग 5.8 भारतीय हृदय और फेफड़ों से
संबंधित बीमारियों के
कारण काल के गाल में
समा जाते हैं। प्रत्येक 4 में
से एक भारतीय हृदय
संबंधी रोगों के कारण 70 वर्ष
की आयु तक पहुंचने से
पहले ही मर जाता
है।
स्वास्थ्य
सुविधाओं की उपलब्धता में
विषमता का मुद्दा भी
काफी गंभीर है । शहरी
क्षेत्रों के मुकाबले ग्रामीण
क्षेत्रों की स्थिति ज्यादा
बदतर है। इसके अलावा बड़े निजी अस्पतालों के मुकाबले सरकारी
अस्पतालों में सुविधाओं का काफी
अभाव है। उन राज्यों में
भी जहां समग्र औसत में सुधार देखा गया है, उनके अनेक जनजातीय बहुल क्षेत्रों में स्थिति नाजुक बनी हुई है। निजी अस्पतालों की वजह से
बड़े शहरों में स्वास्थ्य सेवाओं की गुणवत्ता संतोषजनक
है, लेकिन चिंताजनक पहलू यह है कि
इस तक केवल संपन्न
तबके की पहुंच है।
तीव्र
और अनियोजित शहरीकरण के कारण शहरी
निर्धन आबादी और विशेषकर झोपड़ियों
में रहने वालों की संख्या में
तेजी से वृद्धि हुई
है। आबादी का यह हिस्सा
सरकारी और निजी अस्पतालों
के समीप रहने के बावजूद, स्वास्थ्य
सुविधाओं को पर्याप्त रूप
में नहीं प्राप्त कर पाता है।
सरकारी घोषणाओं में तो राष्ट्रीय कार्यक्रमों
के तहत सभी चिकित्सा सेवाएं सभी व्यक्तियों को निशुल्क उपलब्ध
हैं और इन सेवाओं
का विस्तार भी काफी व्यापक
है । हालांकि जमीनी
सच्चाई यही है कि सरकारी
स्वास्थ्य सुविधाएं आवश्यकताओं के विभिन्न आयामों
को संबोधित करने में विफल रही हैं।
महंगी
होती चिकित्सा सुविधाओं और चिकित्सा शिक्षा
के कारण आम आदमी द्वारा
स्वास्थ्य पर किए जाने
वाले खर्च में बेतहाशा वृद्धि हुई है। एक अध्ययन के
आधार पर आकलन किया
गया है कि केवल
इलाज पर खर्च के
कारण प्रतिवर्ष करोड़ों की संख्या में
लोग निर्धनता का शिकार हो
रहे हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है
क्योंकि समाज के जिस तबके
को इन सेवाओं की
आवश्यकता है उसके लिए
सरकार की ओर से
पर्याप्त संरक्षण उपलब्ध नहीं है । और
जो कुछ उपलब्ध है वो उनकी
पहुंच से बाहर है।
क्या
हो आगे का रास्ता:
1 क्योंकि
भारत दुनिया की दूसरी सबसे
बड़ी जनसंख्या वाला देश है और इसकी
वजह से स्वास्थ्य सेवाओं
पर अत्यधिक दबाव है। मृत्यु दर कुछ घटी
है लेकिन जन्म दर दुनिया के
ज्यादातर देशों से अधिक है
। जन्म दर और मृत्यु
दर के संबंध में
आदर्श है कि दोनों
में ही कमी आनी
चाहिए। 2 . देश में एक विशाल स्वास्थ्य
सुविधा उद्योग पनप रहा है जो 15% की
दर से बढ़ रहा
है। यदि अन्य क्षेत्रों की बात करें
तो स्वास्थ्य सेवाओं में वृद्धि भारत के विकास दर
की दुगनी है
। हालांकि इस सुनहरी तस्वीर
का एक स्याह सच
यह भी है कि
देश में मौजूद इन सुविधाओं का
उपभोग आर्थिक कारणों से आम आदमी
नहीं कर पाता है
। इसलिए इस क्षेत्र के
विकास की रूपरेखा जन
हितकारी राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीतियों और उद्देश्यों के
अनुरूप होनी चाहिए ।
3. भारत
में स्वास्थ्य सेवाओं में बेहतरी के लिए यह
भी सुनिश्चित करना होगा कि निजी चिकित्सा
उद्योग सरकारी स्वास्थ्य ढांचे के सहायक के
रूप में विकसित हो । स्वास्थ्य सुविधा लागत के कारण आपातिक
व्यय में बढ़ोतरी हो रही है
और अब इसे गरीबी
बढ़ने का एक प्रमुख
कारण माना जाने लगा है। स्वास्थ्य सेवा लागत में बढ़ोतरी , परिवार की बढ़ती हुई
आए और गरीबी कम
करने वाली सरकारी योजनाओं को निष्प्रभावी कर
रही है। अतः चिकित्सीय लागत और गरीबी को
ध्यान में रखते हुए हमें अपने लक्ष्य निर्धारित करने होंगे और सरकारी स्वास्थ्य
सेवाओं को और मजबूत
करना होगा ।
4.आर्थिक
विकास के कारण उपलब्ध
राजकोषीय क्षमता में भी वृद्धि हुई
है। इसी के अनुरूप
सरकार के बजट में
बढ़ोतरी भी होनी चाहिए।
लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं का बेहतर प्रबंधकीय
मामला भी है ताकि वांछित
परिणाम मिल
सकें ।इसके लिए देश
को एक नई जनपक्षीय
स्वास्थ्य नीति की आवश्यकता है
जो इन प्रश्नों के
प्रति संवेदनशील उत्तरदाई हो।
निष्कर्ष
:
हमें
बचपन से ही सिखाया
जाता है कि स्वास्थ्य
जीवन की सफलता की
कुंजी है । किसी
भी व्यक्ति को अगर जीवन
में सफल होना है तो इसके
लिए सबसे पहले उसके शरीर का स्वस्थ होना
आवश्यक है । व्यक्ति
से इत्तर एक राष्ट्र पर
भी यही सिद्धांत लागू होता है ।
किसी
देश के नागरिक जितने
स्वस्थ होंगे , देश विकास सूचकांक की कसौटी ऊपर
उतना ही अच्छा प्रदर्शन
करेगा । उदारीकरण के
बाद आर्थिक क्षेत्र में हमारी महत्वाकांक्षाएं आसमान छू रही हैं
बेशक मंदी का दौर अपने
चरम पर हो। कहने को भारत दुनिया
की सबसे तेजी से बढ़ती हुई
अर्थव्यवस्था बनने का क्लेम कर
रहा है लेकिन जब
बात देश में स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति की
आती है तो हमारा
सारा उत्साह ठंडा पड़ जाता है ।
बीमारियों
की रोकथाम और उपचार के
लिए आज हमारे पास
जिस स्तर की सुविधाएं ,
संसाधन एवं तकनीक हैं, उन्हें देखते हुए देश में व्याप्त असमय मृत्यु, अनावश्यक
बीमारियां और अस्वस्थ परिस्थितियों
को एक विडंबना
कहना ही ठीक होगा।
अतः हमें अपनी प्रौद्योगिकियों और ज्ञान के
भंडार का
भरपूर उपयोग करना चाहिए
बहुत
से आंकड़े यह दिखाते हैं
कि भारत में लोग बीमारियों को लेकर उतने
सजग नहीँ रहते किंतु बीमार पड़ने के बाद
कहीं ज्यादा खर्च कर डालते हैं
। हमें अपनी नीतियों में इस बात का
समावेशन करना होगा हमारा खर्च रोगों के इलाज में
कम रहे जबकि रोगों की रोकथाम में
अधिक।
रणबीर
सिंह दहिया
रिटायर्ड
सीनियर प्रोफेसर सर्जरी
पी
जीआई एम एस रोहतक
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