53 वें हरियाणा दिवस के मौके पर
हरियाणा में स्वास्थ्य सेवाओं का चरमराता सरकारी ढांचा
हरियाणा में स्वास्थ्य सेवाओं का चरमराता सरकारी ढांचा
देश के और हरियाणा के आर्थिक विकास का आम जनता के जीवन पर इसका शायद ही कोई असर पड़ा है और आज महत्व पूर्ण मानव विकास सूचकांकों के मामले में भारत , पड़ौसी नेपाल तथा बंग्लादेश जैसे अनेक सबसे कम विकसित देशों से भी पीछे चला गया है।
पिछले कई सालों में हरियाणा में और पूरे देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में जो भी सुधार हुए हैं , विश्व बैंक जैसी एजेंसिंयों द्वारा सुझाए गये कदमों के अनुसार ही हुए हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए इन एजेंसिंयों द्वारा पेश किए नुस्खों में निम्नलिखित कदम शामिल रहे हैंः सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्चों की हदबंदी करना; सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में लागत उगाही; उपयोक्ता शुल्क लागू करना; स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली को अलग अलग खानों में बांटना; गरीबों के लिए ‘बेसिक’ स्वास्थ्य सेवा और अमीरों के लिए निजी स्वास्थ्य सेवा ; और, निजी क्षेत्र के लिए विभिन्न कामों की आडटसोर्सिंग करना। इस सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को, जो पहले ही फंड की भारी कमी की मारी हुई थी, 1991 में नवउदारवादी सुधारों की शुरुआत के साथ बहुत भारी कटौतियों की मार झेलनी पड़ी। मिसाल के तौर पर 1992-1993 के केन्द्रीय बजट में स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए आंवटन में करीब 40 फीसद की कटौती कर दी गई । इतना ही नहीं राज्यों के बजटों पर भी ‘ ‘राजकोषीय अनुशासन’ का मंत्र थोंप दिया गया। 2004-2005 तक आते आते स्वास्थ्य पर प्रतिव्यक्ति सार्वजनिक खर्च 242 रुपये ही रह गया, जबकि निजी खर्चा इसका करीब चार गुणा हो गया यानी प्रतिव्यक्ति 959 रुपये। ; ये आंकड़े राष्ट्रीय स्वास्थ्य एकाउंटस से उपलब्ध,पृथक्कृत आंकड़ों पर आधारित हैं।
स्वास्थ्य पर जेब खर्च के चलते गरीबी की रेखा के नीचे धकेले लोगों की संख्या जहां 1993 -94 में करीब 2 करोड़ साठ लाख थी , 2004-2005 तक यह संख्या बढ़कर 3 करोड़ 90 लाख हो गयी और 2012-2013 तक आते आते 7 से 9 करोड़ के बीच। इसमें भी ग्रामीण परिवारों को अपनी पारिवारिक आय का, शहरी परिवारों के मुकाबले कहीं ज्यादा बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना पड़ रहा था क्योंकि गांव के लोगों को स्वास्थ्य सुविधाओं तक और भी कम पहुंच हासिल थी। आज बाहर रह कर इलाज कराने वालों में से करीब 20 फीसद और अस्पताल में भरती होकर इलाज कराने वालों में 40 फीसद से कम का इलाज , सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में होता है। शेष मरीज निजी स्वास्थ्य सेवाओं के रहमो करम पर हैं,जिनका उपचार अक्सर महंगा है और उटपटांग । यू पी ए सरकार के राज में एक बहुत ही कमजोर क्लीनिकल एस्टब्लिशमैंट एक्ट पारित किया गया था, कि वह तमाम स्वास्थ्य रक्षा सुचिवधाओं के नियम की जिम्मेदारी संभालेगा। लेकिन , ज्यादातर राज्यों में तो अब तक इस ढीले ढाले कानून के बहुत ही सीमित प्रावधानों को भी अधिसूचित नहीं किया गया है। हरियाणा में भी यह अधर में लटक रहा हे। आज भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था दुनिया की सबसे ज्यादा निजीकृत स्वास्थ्य व्यवस्थाओं में से है और स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्चे दुनिया में सबसे निचले स्तर पर है। यहां स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में से 36 फीसद सार्वजनिक खर्चा होता है। विश्व बैंक के डॉटा बेस के मुताबिक , इस मामले में भारत दुनिया के 190 देशों में सबसे नीचे से 16 वें नम्बर पर है।
स्वास्थ्य रक्षा के संबंध में भाजपा की जो दृष्टि है उसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की शायद ही कोई भूमिका है। उनके तथा कथित ‘ स्वास्थ्य आश्वस्ति’ माडल की धुरी , स्वास्थ्य बीमा की व्यवस्था है न कि स्वास्थ्य रक्षा का सार्वजनिक क्षेत्र में प्रावधान करना । आने वाले दिनों में हम इस परिकल्पना का और खुलकर अमल में उतारा जाना देखेंगे, जिसकी एक पहचान यह है कि सिर्फ प्रथमिक स्वास्थ्य रक्षा स्तर पर, बुनियादी स्वास्थ्य रक्षा की व्यव्स्था रहेगी न कि सार्वजनिक चौतरफा स्वास्थ्य व्यवस्था। भाजपा के सिद्धान्त कार बेशक इससे खुश होंगे कि इस तरह से निजी चिकित्सा सहायता का ताना बाना और बढ़ेगा और इसमें भी निजी अस्पतालों की कार्पोरेट कंपनियों द्वारा संचालित श्रंखलाएं खूब फल फूल रही होंगी ।
आज जब हम एक तरफ तो अर्न्तराष्ट्रीय स्तर के टेलेंटेड डाक्टरों की बहुतायत हमारे पास है तो क्या हम उन तथकथित सब स्टैंडर्ड लाइसैंसियेट डाक्टरों की गरीबों के इलाज के लिए बात कर सकते हैं? जब हमने हमारी जनता के हिसाब से सफिसियैंट संख्या डाक्टरों की तैयार कर ली है तो हम रोजाना डाक्टरों की कमी का बहाना करके रोजाना और मैडीकल किस लिए खोले जा रहे हैं? विश्व बैंक 1993 जिसने हमारे देश के स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे को दिशा निर्देश दिये वह सरप्लस डाक्टरों के बारे चुप्पी क्यों साधे हुए है? दूसरी तरफ सच्चाई यह है कि कई पश्चिमी देशों में भारत के डाक्टर बड़ी संख्या में मौजूद हैं । हमारे देश की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति इस पर चुप क्यों है? उपनिवेशवाद की लिगेसी इसका जवाब नहीं हो सकती क्योंकि इसको पलटने के लिए हमारे पास 69 साल का समय रहा है। महज इतना भर कह देना काफी नहीं है कि ‘पब्लिक हैल्थ केयर सिस्टम ’ पर हमला बोला जा रहा है या इसे डिसमैंटल किया जा रहा है। बल्कि इसे परिभाषित करना बहुत आवश्यक हो गया है। असल में किस चीज पर हमला किया जा रहा है और क्या डिसमैंटल किया जा रहा है इसे व्याख्यायित किया जाना बहुत जरुरी हो गया है। साथ ही यह भी देखना है कि किस तरह से यह सब गरीब लोगों के स्वास्थ्य को प्रभवित करेगा हालांकि गरीब लोग इन सब प्रक्रियाओं को एक इनडिफरैंस, क्रोध और बेचौनी के साथ देख रहे हैं। जब टूटी फूटी बिखरी उपस्वास्थ्य केन्द्रों की इमारतों से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की इमारतों तक; स्वास्थ्य क्षेत्र के उपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार के चलते, गरीब विरोधी, जातिगत,लिंगभेद वाला मैडीकल प्रोफैसन और खासकर डाक्टर बतौर टीम लीडर के व्यवहार के कारण, दवाओं की कमी के कारण; उपकरणों की कमी,उपकरण हैं भी तो उनके इस्तेमाल करने वाले विषेशज्ञों की कमी, पी एच सी , सी एच सी और जिला अस्पतालों में ढीली स्वास्थ्य सेवाओं के चलते, गरीब विरोधी और महिला विरोधी जनसंख्या नियन्त्रण विभाग के हमलों के चलते- गरीब लोग जमीनी स्तर पर मौजूद स्वास्थ्य सेवाओं के भ्रष्टीकरण के गरीब चश्मदीद गवाह हैं और उनपर इस बात का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ने वाला जब उनको बताया जाता है कि यह सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा खत्म किया जा रहा है क्योंकि उसके लिए तो एक तरह से यह पहले से ही बन्द हो चुका है। आगे क्या आने वाला है इस बात पर उन लोगों के बीच में भी जो इस स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे के बारे में गम्भीरता से सोचते हैं एक चुप सहमति सी लगती है। और इस बात पर भी चुप सहमति लगती है कि अब इन बााजार की ताकतों को आगे बढ़ने से नहीं रोका जा सकता है। किसी भी व्यक्ति द्वारा उसके व्यक्गित विश्व दृृष्टिकोन के हिसाब से सरकार की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में बदलाव के लिए जो सोचा जाता है वह कुछ इस प्रकार कि विश्व बैंक और ट्रांसनेशनल पूंजी ने जो ढांचा और जगह देशों की सरकारों के माध्यम से बनाया है उसी में गरीब मरीजों की जगह कैसे बनाई जाए और साथ ही इस ढांचे को कोई चुनौती भी न दी जा सके। असल में मूलभूत ढंग से इन कमजोर तबकों की नजर से देखकर वैकल्पिक स्वास्थ्य ढांचे की परिकल्पना करना एक रणनीतिक काम है ताकि स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच इन तबकों तक हो सके।
हरियाणा की कुल जनसंख्या 30 सितम्बर 2018 में 27388,008 है
। 5000 पर एक उपकेन्द्र, 30000 पर एक पी एच सी और 100000 पर एक सी एच सी होनी चाहिये।
इस हिसाब से 5477 उपस्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए मगर हैं 2630, 912 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए मगर हैं 486, 273 सामुदायिक केंद्र होने चाहिए मगर हैं 119। इसके साथ ही एक सामुदायिक केन्द्र में 1 सर्जन,1 स्त्री रोग विशेषज्ञ, 1 फिजीसियन, 1 शिशु रोग विशेषज्ञ चाहिये मगर शायद ही कोई सामुदायिक केन्द्र हो जिसमें ये चारों स्पेशलिस्ट हों। इसी प्रकार मैडीकल आफिसरों की भी काफी कमी है। कहीं डाक्टर नही, कहीं दवा नहीं , कहीं दूसरा स्टाफ नहीं। पूरा ढांचा चरमरा गया है राजनैतिक कारणों के कारण। आम जनता का इलाज इसी ढांचे को पुर्नजीवित करके ही संभव हो पायेगा।
एक नजर इकलौते पी जी आई एम एस पर भी डाल कर देंखें- सबसे अहम विभाग है बेहोशी का विभाग वह सीनियर रैजीडैंटों की 50 से ऊपर पोस्टों पर सिर्फ 10 सीनियर रेजीडेन्ट काम कर रहे हैं। और फैकल्टी के भी 15 से बीस पद खाली के चलते और 12 से ज्यादा मशीनों की कमी के चलते बिल्कुल मुर्छा की हालत में काम कर रहा है जिसके कारण आंख कान, आंख, स्त्री रोग विभाग, जनरल सर्जरी, शिशु शल्य चिकित्सा, कार्डियक सर्जरी , युरोलॉजी, न्यूरोसर्जरी, ओंको सर्जरी,बर्न एण्ड पलास्टिक सर्जरी,एमर्जेंसी सर्जरी आदि विभाग जो इस बेहोशी विभाग पर पूरी तरह निर्भर हैं , अर्ध मुर्छित अवस्था में ही काम कर रहे हैं। इसी प्रकार सर्जरी विभाग में 16 सीनियर रेजीडेन्ट में से 5 या 6 ही हैं बाकी सीटें खाली पड़ी हैं । बिस्तरों के हिसाब से 3100 नर्सिज की जरूरत है जबकि 800 के लगभग ही नर्सिज हैं पीजीआईएमएस रोहतक में मैरिट और सीनियरटी का ख्याल नहीं। इसके चलते पी जी आई की छवि जान पहचान और पैसे बिना इलाज न होने वाले अस्पताल की बनना इसी का हिस्सा है। आंखों में लगने वाले लैंजों में, हड्डीयों में लगने वाले इम्पलांटस में, सर्जरी के लिए मंगाने वाले सामान में बड़े पैमाने पर लूट मरीजों की हो रही कहते हैं। चिकित्सा शिक्षा का भयंकर व्यापारीकरण भी जिसमें 1 करोड़ फीस एम बी बी एस की और दो या तीन करोड़ में एम डी या एम एस की डिग्री पर खर्च हो तो कैसे कोई डाक्टर मानवीय नजर से मरीज का इलाज कर सकता है। और फिर सरकार की नीतियां और घी में आग डालने वाली हों तो आम मरीज के इलाज की अपेक्षा करना ही अनहोनी सी बात लगती है।
डॉ रणबीर सिंह
पिछले कई सालों में हरियाणा में और पूरे देश में स्वास्थ्य क्षेत्र में जो भी सुधार हुए हैं , विश्व बैंक जैसी एजेंसिंयों द्वारा सुझाए गये कदमों के अनुसार ही हुए हैं। स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए इन एजेंसिंयों द्वारा पेश किए नुस्खों में निम्नलिखित कदम शामिल रहे हैंः सार्वजनिक स्वास्थ्य पर खर्चों की हदबंदी करना; सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं में लागत उगाही; उपयोक्ता शुल्क लागू करना; स्वास्थ्य रक्षा प्रणाली को अलग अलग खानों में बांटना; गरीबों के लिए ‘बेसिक’ स्वास्थ्य सेवा और अमीरों के लिए निजी स्वास्थ्य सेवा ; और, निजी क्षेत्र के लिए विभिन्न कामों की आडटसोर्सिंग करना। इस सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली को, जो पहले ही फंड की भारी कमी की मारी हुई थी, 1991 में नवउदारवादी सुधारों की शुरुआत के साथ बहुत भारी कटौतियों की मार झेलनी पड़ी। मिसाल के तौर पर 1992-1993 के केन्द्रीय बजट में स्वास्थ्य के क्षेत्र के लिए आंवटन में करीब 40 फीसद की कटौती कर दी गई । इतना ही नहीं राज्यों के बजटों पर भी ‘ ‘राजकोषीय अनुशासन’ का मंत्र थोंप दिया गया। 2004-2005 तक आते आते स्वास्थ्य पर प्रतिव्यक्ति सार्वजनिक खर्च 242 रुपये ही रह गया, जबकि निजी खर्चा इसका करीब चार गुणा हो गया यानी प्रतिव्यक्ति 959 रुपये। ; ये आंकड़े राष्ट्रीय स्वास्थ्य एकाउंटस से उपलब्ध,पृथक्कृत आंकड़ों पर आधारित हैं।
स्वास्थ्य पर जेब खर्च के चलते गरीबी की रेखा के नीचे धकेले लोगों की संख्या जहां 1993 -94 में करीब 2 करोड़ साठ लाख थी , 2004-2005 तक यह संख्या बढ़कर 3 करोड़ 90 लाख हो गयी और 2012-2013 तक आते आते 7 से 9 करोड़ के बीच। इसमें भी ग्रामीण परिवारों को अपनी पारिवारिक आय का, शहरी परिवारों के मुकाबले कहीं ज्यादा बड़ा हिस्सा स्वास्थ्य पर खर्च करना पड़ रहा था क्योंकि गांव के लोगों को स्वास्थ्य सुविधाओं तक और भी कम पहुंच हासिल थी। आज बाहर रह कर इलाज कराने वालों में से करीब 20 फीसद और अस्पताल में भरती होकर इलाज कराने वालों में 40 फीसद से कम का इलाज , सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाओं में होता है। शेष मरीज निजी स्वास्थ्य सेवाओं के रहमो करम पर हैं,जिनका उपचार अक्सर महंगा है और उटपटांग । यू पी ए सरकार के राज में एक बहुत ही कमजोर क्लीनिकल एस्टब्लिशमैंट एक्ट पारित किया गया था, कि वह तमाम स्वास्थ्य रक्षा सुचिवधाओं के नियम की जिम्मेदारी संभालेगा। लेकिन , ज्यादातर राज्यों में तो अब तक इस ढीले ढाले कानून के बहुत ही सीमित प्रावधानों को भी अधिसूचित नहीं किया गया है। हरियाणा में भी यह अधर में लटक रहा हे। आज भारत की स्वास्थ्य व्यवस्था दुनिया की सबसे ज्यादा निजीकृत स्वास्थ्य व्यवस्थाओं में से है और स्वास्थ्य पर सार्वजनिक खर्चे दुनिया में सबसे निचले स्तर पर है। यहां स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च में से 36 फीसद सार्वजनिक खर्चा होता है। विश्व बैंक के डॉटा बेस के मुताबिक , इस मामले में भारत दुनिया के 190 देशों में सबसे नीचे से 16 वें नम्बर पर है।
स्वास्थ्य रक्षा के संबंध में भाजपा की जो दृष्टि है उसमें सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की शायद ही कोई भूमिका है। उनके तथा कथित ‘ स्वास्थ्य आश्वस्ति’ माडल की धुरी , स्वास्थ्य बीमा की व्यवस्था है न कि स्वास्थ्य रक्षा का सार्वजनिक क्षेत्र में प्रावधान करना । आने वाले दिनों में हम इस परिकल्पना का और खुलकर अमल में उतारा जाना देखेंगे, जिसकी एक पहचान यह है कि सिर्फ प्रथमिक स्वास्थ्य रक्षा स्तर पर, बुनियादी स्वास्थ्य रक्षा की व्यव्स्था रहेगी न कि सार्वजनिक चौतरफा स्वास्थ्य व्यवस्था। भाजपा के सिद्धान्त कार बेशक इससे खुश होंगे कि इस तरह से निजी चिकित्सा सहायता का ताना बाना और बढ़ेगा और इसमें भी निजी अस्पतालों की कार्पोरेट कंपनियों द्वारा संचालित श्रंखलाएं खूब फल फूल रही होंगी ।
आज जब हम एक तरफ तो अर्न्तराष्ट्रीय स्तर के टेलेंटेड डाक्टरों की बहुतायत हमारे पास है तो क्या हम उन तथकथित सब स्टैंडर्ड लाइसैंसियेट डाक्टरों की गरीबों के इलाज के लिए बात कर सकते हैं? जब हमने हमारी जनता के हिसाब से सफिसियैंट संख्या डाक्टरों की तैयार कर ली है तो हम रोजाना डाक्टरों की कमी का बहाना करके रोजाना और मैडीकल किस लिए खोले जा रहे हैं? विश्व बैंक 1993 जिसने हमारे देश के स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे को दिशा निर्देश दिये वह सरप्लस डाक्टरों के बारे चुप्पी क्यों साधे हुए है? दूसरी तरफ सच्चाई यह है कि कई पश्चिमी देशों में भारत के डाक्टर बड़ी संख्या में मौजूद हैं । हमारे देश की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति इस पर चुप क्यों है? उपनिवेशवाद की लिगेसी इसका जवाब नहीं हो सकती क्योंकि इसको पलटने के लिए हमारे पास 69 साल का समय रहा है। महज इतना भर कह देना काफी नहीं है कि ‘पब्लिक हैल्थ केयर सिस्टम ’ पर हमला बोला जा रहा है या इसे डिसमैंटल किया जा रहा है। बल्कि इसे परिभाषित करना बहुत आवश्यक हो गया है। असल में किस चीज पर हमला किया जा रहा है और क्या डिसमैंटल किया जा रहा है इसे व्याख्यायित किया जाना बहुत जरुरी हो गया है। साथ ही यह भी देखना है कि किस तरह से यह सब गरीब लोगों के स्वास्थ्य को प्रभवित करेगा हालांकि गरीब लोग इन सब प्रक्रियाओं को एक इनडिफरैंस, क्रोध और बेचौनी के साथ देख रहे हैं। जब टूटी फूटी बिखरी उपस्वास्थ्य केन्द्रों की इमारतों से लेकर प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की इमारतों तक; स्वास्थ्य क्षेत्र के उपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार के चलते, गरीब विरोधी, जातिगत,लिंगभेद वाला मैडीकल प्रोफैसन और खासकर डाक्टर बतौर टीम लीडर के व्यवहार के कारण, दवाओं की कमी के कारण; उपकरणों की कमी,उपकरण हैं भी तो उनके इस्तेमाल करने वाले विषेशज्ञों की कमी, पी एच सी , सी एच सी और जिला अस्पतालों में ढीली स्वास्थ्य सेवाओं के चलते, गरीब विरोधी और महिला विरोधी जनसंख्या नियन्त्रण विभाग के हमलों के चलते- गरीब लोग जमीनी स्तर पर मौजूद स्वास्थ्य सेवाओं के भ्रष्टीकरण के गरीब चश्मदीद गवाह हैं और उनपर इस बात का ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ने वाला जब उनको बताया जाता है कि यह सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा खत्म किया जा रहा है क्योंकि उसके लिए तो एक तरह से यह पहले से ही बन्द हो चुका है। आगे क्या आने वाला है इस बात पर उन लोगों के बीच में भी जो इस स्वास्थ्य सेवाओं के ढांचे के बारे में गम्भीरता से सोचते हैं एक चुप सहमति सी लगती है। और इस बात पर भी चुप सहमति लगती है कि अब इन बााजार की ताकतों को आगे बढ़ने से नहीं रोका जा सकता है। किसी भी व्यक्ति द्वारा उसके व्यक्गित विश्व दृृष्टिकोन के हिसाब से सरकार की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में बदलाव के लिए जो सोचा जाता है वह कुछ इस प्रकार कि विश्व बैंक और ट्रांसनेशनल पूंजी ने जो ढांचा और जगह देशों की सरकारों के माध्यम से बनाया है उसी में गरीब मरीजों की जगह कैसे बनाई जाए और साथ ही इस ढांचे को कोई चुनौती भी न दी जा सके। असल में मूलभूत ढंग से इन कमजोर तबकों की नजर से देखकर वैकल्पिक स्वास्थ्य ढांचे की परिकल्पना करना एक रणनीतिक काम है ताकि स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच इन तबकों तक हो सके।
हरियाणा की कुल जनसंख्या 30 सितम्बर 2018 में 27388,008 है
। 5000 पर एक उपकेन्द्र, 30000 पर एक पी एच सी और 100000 पर एक सी एच सी होनी चाहिये।
इस हिसाब से 5477 उपस्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए मगर हैं 2630, 912 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र होने चाहिए मगर हैं 486, 273 सामुदायिक केंद्र होने चाहिए मगर हैं 119। इसके साथ ही एक सामुदायिक केन्द्र में 1 सर्जन,1 स्त्री रोग विशेषज्ञ, 1 फिजीसियन, 1 शिशु रोग विशेषज्ञ चाहिये मगर शायद ही कोई सामुदायिक केन्द्र हो जिसमें ये चारों स्पेशलिस्ट हों। इसी प्रकार मैडीकल आफिसरों की भी काफी कमी है। कहीं डाक्टर नही, कहीं दवा नहीं , कहीं दूसरा स्टाफ नहीं। पूरा ढांचा चरमरा गया है राजनैतिक कारणों के कारण। आम जनता का इलाज इसी ढांचे को पुर्नजीवित करके ही संभव हो पायेगा।
एक नजर इकलौते पी जी आई एम एस पर भी डाल कर देंखें- सबसे अहम विभाग है बेहोशी का विभाग वह सीनियर रैजीडैंटों की 50 से ऊपर पोस्टों पर सिर्फ 10 सीनियर रेजीडेन्ट काम कर रहे हैं। और फैकल्टी के भी 15 से बीस पद खाली के चलते और 12 से ज्यादा मशीनों की कमी के चलते बिल्कुल मुर्छा की हालत में काम कर रहा है जिसके कारण आंख कान, आंख, स्त्री रोग विभाग, जनरल सर्जरी, शिशु शल्य चिकित्सा, कार्डियक सर्जरी , युरोलॉजी, न्यूरोसर्जरी, ओंको सर्जरी,बर्न एण्ड पलास्टिक सर्जरी,एमर्जेंसी सर्जरी आदि विभाग जो इस बेहोशी विभाग पर पूरी तरह निर्भर हैं , अर्ध मुर्छित अवस्था में ही काम कर रहे हैं। इसी प्रकार सर्जरी विभाग में 16 सीनियर रेजीडेन्ट में से 5 या 6 ही हैं बाकी सीटें खाली पड़ी हैं । बिस्तरों के हिसाब से 3100 नर्सिज की जरूरत है जबकि 800 के लगभग ही नर्सिज हैं पीजीआईएमएस रोहतक में मैरिट और सीनियरटी का ख्याल नहीं। इसके चलते पी जी आई की छवि जान पहचान और पैसे बिना इलाज न होने वाले अस्पताल की बनना इसी का हिस्सा है। आंखों में लगने वाले लैंजों में, हड्डीयों में लगने वाले इम्पलांटस में, सर्जरी के लिए मंगाने वाले सामान में बड़े पैमाने पर लूट मरीजों की हो रही कहते हैं। चिकित्सा शिक्षा का भयंकर व्यापारीकरण भी जिसमें 1 करोड़ फीस एम बी बी एस की और दो या तीन करोड़ में एम डी या एम एस की डिग्री पर खर्च हो तो कैसे कोई डाक्टर मानवीय नजर से मरीज का इलाज कर सकता है। और फिर सरकार की नीतियां और घी में आग डालने वाली हों तो आम मरीज के इलाज की अपेक्षा करना ही अनहोनी सी बात लगती है।
डॉ रणबीर सिंह
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