Monday, 2 March 2020

ज्यादा ठीक नहीं-

भारत में स्वास्थ्य सेवाओं की हालत ज्यादा ठीक नहीं-

हमारे देश की वर्तमान सरकार के सारे  दावों के बावजूद हमारे देश के  स्वास्थ्य क्षेत्र की तस्वीर ज्यादा ठीक दिखाई नहीं देती है |  साल में प्रति व्यक्ति सिर्फ 1,112 रुपये के साथ भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य पर सबसे कम खर्च करने वाले देशों में है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से जारी ताजा नेशनल हेल्थ प्रोफाइल रिपोर्ट ने भी इन हालातों के ठीक न होने की बात को ही एक तरह से सही ठहराया लगता है |   इस रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में 11,082 लोगों पर सिर्फ  एक एलौपैथिक डॉक्टर ही है। स्वास्थ्य पर किया जाने वाला खर्च भी भारत में  जीडीपी का महज एक फीसदी ही है जो स्वास्थय के क्षेत्र में खर्च किया जाता है|  यह स्वास्थय पर किया जाने वाला खर्च  पड़ोसी देशों मालदीव, भूटान, श्रीलंका और नेपाल के मुकाबले भी कम ही  है। देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य पर हर साल प्रति व्यक्ति रोजाना औसतन कहें तो  तीन रुपए खर्च किए जाते हैं।

रिपोर्ट क्या दर्शाती है -

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के सेंट्रल ब्यूरो आफ हेल्थ इंटेलिजेंस द्वारा यह रिपोर्ट जारी की गई है|  कुछ बातें रिपोर्ट में हैं जिनका यहाँ पर जिक्र करना प्रासंगिक होगा |  रिपोर्ट बताती  है कि 
* वर्ष 2017 में   सरकार के राष्ट्रीय परीक्षण कार्यक्रम के तहत जांच से मधुमेह और हाइपरटेंशन की मरीजों की तादाद महज एक साल में दोगुनी होने का खुलासा हुआ है।
*  एक साल के दौरान कैंसर के मामले भी 36 फीसदी बढ़ गए हैं। 
* रिपोर्ट के मुताबिक, देश में डॉक्टरों की भारी कमी है  जिसका खामियाजा मरीजों को भुगतना पड़ रहा है । फिलहाल प्रति 11,082 आबादी पर महज एक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन के तय मानकों के मुताबिक यह अनुपात एक डाक्टर  प्रति एक हजार की आबादी पर (1:1000) होना चाहिए यानी देश में यह अनुपात तय मानकों के मुकाबले 11 गुना कम है। बिहार जैसे गरीब राज्यों में तो तस्वीर और भी मायुश करने वाली है | वहां प्रति 28,391 लोगों पर महज एक एलोपैथिक डॉक्टर है। ।  उत्तर प्रदेश, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी तस्वीर बेहतर नहीं है।हरयाणा जैसे आर्थिक स्तर पर आगे बढे प्रान्त में भी डाक्टरों की कमी अखरने वाली ही है 
             मेडिकल काउंसिल आफ इंडिया के पास वर्ष 2017 तक कुल 10.41 लाख डॉक्टर पंजीकृत थे। सरकारी अस्पतालों में इन डाक्टरों में से महज  1.2 लाख डॉक्टर ही हैं। बीते साल सरकार ने संसद में बताया था कि निजी और सरकारी अस्पतालों में काम करने वाले लगभग 8.18 लाख डाक्टरों को ध्यान में रखें तो देश में डॉक्टर और मरीजों का अनुपात 1:1,612 हो सकता है। लेकिन यह तादाद भी विश्व स्वास्थ्य संगठन के मानक के मुकाबले तो कम ही है। यह अनुमान लगाया जा सकता है कि तय मानक पर खरा उतरने के लिए भारत  को फिलहाल  पांच लाख डॉक्टरों की और जरूरत है। धयान देने वाली बात है कि हर साल यह मांग और बढ़ जाती है ।
              स्वास्थय के क्षेत्र में काम करने वाले बहुत से गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि स्वास्थ्य के क्षेत्र में ग्रामीण इलाकों की हालत और भी ज्यादा ख़राब है | ग्रामीण क्षेत्र में डॉक्टरों की भारी कमी है। इस कमी के चलते  मरीजों के पास ग्रामीण क्षेत्र में काम  करने वाले अनट्रेंड  के पास इलाज करवाने के लिए जाने  के इलावा कोई विकल्प नहीं बचता | कुछ इलाकों में इन डाकटरों को झोला छाप डाक्टर भी कहा जाता है |  ग्रामीण इलाकों में अंट्रेंड  डॉक्टरों की तादाद काफी  बढ़ी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वर्ष 2016 की अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि भारत में एलोपैथिक डाक्टर के तौर पर प्रैक्टिस करने वाले एक तिहाई लोगों के पास मेडिकल की डिग्री नहीं है। देश में फिलहाल मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की 67 हजार सीटें हैं। इनमें से भी 13 हजार सीटें पिछले चार सालों में बढ़ी हैं। बावजूद इसके डॉक्टरों की तादाद पर्याप्त नहीं है। सामाजिक संगठन मेडिकल एड के प्रवक्ता आशीष नंदी कहते हैं, "केंद्र की आयुष्मान भारत योजना ने कुछ उम्मीदें जरूर जगाई हैं। लेकिन डाक्टरों की कमी दूर नहीं होने तक खासकर ग्रामीण इलाकों में लोगों को इसका खास फायदा मिलने की उम्मीद कम ही है।" जो डाक्टर पास आउट करते हैं उनके लिए नीतिगत आधार बनाये जाने की भी जरूरत है कि वे तीन साल के लिए ग्रामीण इलाकों में सर्विस जरूर करें | 

स्वास्थय के क्षेत्र में होने वाला खर्च -

जहाँ तक स्वास्थ्य के क्षेत्र में खर्च का  मामला  है इस मामले में  भारत अपने आस पास के कई पड़ोसी देशों  से भी पीछे है। हमारे में  इस मद में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का  एक फीसदी ही खर्च किया जाता है। दुसरे सेशों से तुलना करें तो इस मामले में हमारा देश  मालदीव (9.4 फीसदी), भूटान (2.5 फीसदी), श्रीलंका (1.6 फीसदी) और नेपाल (1.1 फीसदी) से भी पीछे है। यह काफी गंभीर बात है कि स्वास्थय पर भारत में इतना कम खरच क्यों किया जा रहा है ? दक्षिण एशिया क्षेत्र के 10 देशों की सूची में भारत सिर्फ बांग्लादेश से पहले नीचे से दूसरे स्थान पर है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति 2017 में स्वास्थ्य के मद में खर्च बढ़ाकर जीडीपी का 2.5 फीसदी करने का प्रस्ताव है। लेकिन भारत अब तक वर्ष 2010 में तय लक्ष्य के मुताबिक यह खर्च दो फीसदी करने का लक्ष्य भी हासिल नहीं कर सका है। ऐसे में ढाई फीसदी का लक्ष्य हासिल करना बेमानी ही लगता है।
            स्वास्थ्य के क्षेत्र में सक्रिय गैर-सरकारी संगठनों का मानना  है कि मौजूदा हालात में स्वास्थ्य के क्षेत्र में तय लक्ष्यों को समय सीमा के भीतर हासिल करना काफी मुश्किल काम है। इसके लिए राजनितिक इच्छा शक्ति की बहुत जरूरत है मगर वह आज के दिन बहुत कम दिखाई देती है |  पीपीपी मोड के माध्यम से स्वास्थय सेवाओं का निजीकरण किया जा रहा है जिसके चलते आम आदमी के लिए गुणवत्ता वाली स्वास्थय सेवाओं तक पहुंच बनाना बहुत ही मुश्किल काम है या कहें तो संभव नहीं है | इन लक्ष्यों में  नवजात शिशुओं की मृत्य-दर घटाने और वर्ष 2025 तक तपेदिक यानी टीबी को पूरी तरह खत्म करने जैसे लक्ष्य शामिल हैं। एक बात और गौर करने लायक है कि उक्त रिपोर्ट में इस बात का खुलासा नहीं किया गया है कि स्वास्थ्य के मद में आम लोग अपनी जेब से कितनी रकम खर्च करते हैं। लेकिन विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बीते साल अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि देश में स्वास्थ्य के मद में होने वाले कुल खर्च का 67.78 फीसदी लोगों की जेब से निकलता है जबकि इस मामले में वैश्विक औसत 18.2 फीसदी है। कुछ रिपोर्ट इससे भी ज्यादा जेब पॉकेट स्वास्थय खर्च बताती हैं | गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि स्वास्थ्य पर होने वाले भारी-भरकम खर्च के चलते हर साल औसतन चार करोड़ भारतीय परिवार गरीबी रेखा के नीचे चले जाते हैं। यह बहुत ही सोचनीय और गंभीर मामला है |  इस सब के बावजूद सरकार पीपीपी मोड को बढ़ावा दे रही है | इन  निजीकरण के तरीकों से हालत और ख़राब ही होंगे |  

कल  की स्वास्थ्य सेवाएं 

कहने को , इस बदहाली के बावजूद केंद्र सरकार ने हालात में सुधार करने का भरोसा जताया है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा कहते हैं, "राष्ट्रीय स्वास्थ्य सुरक्षा योजना आयुष्मान भारत शुरू होने के बाद लोगों की जेब से होने वाले खर्चों में कमी आएगी।" इसके तहत दस करोड़ गरीब परिवारों को प्रति परिवार पांच लाख का सालाना स्वास्थ्य बीमा मिलेगा। वर्ष 2016-17 के दौरान देश में महज 43 करोड़ लोगों ने किसी न किसी तरह का स्वास्थ्य बीमा कराया था. यह कुल आबादी का 34 फीसदी है।जन स्वास्थय अभियान ने पहले ही कहा है कि ऐसी प्राइवेट कंपनियों द्वारा संचालित बीमा योजनाओं से पूरी तरह पीछे हटा जाये और विकल्प में सरकारी स्वास्थय सेवाओं को मजबूत किया जाये सरकार द्वारा ही न कि सभी प्राथमिक , द्वितीय तथा तृतीय सेवाओं की आउट सोर्सिंग करके |  सरकारी सेवाओं के सहायक के रूप में हो निजी क्षेत्र न कि विकल्प के रूप में हो निजी क्षेत्र | 
सरकारी स्वास्थ्य   सेवाएं ही जरूरी हैं बड़ी आबादी के लिए--  
              मेडिकल एड के आशीष नंदी कहते हैं, "सरकारी दावों के बावजूद स्वास्थ्य के क्षेत्र में तस्वीर निकट भविष्य में सुधरने की खास उम्मीद नहीं है। स्वास्थ्य क्षेत्र को सुधारने के लिए केंद्र व राज्य सरकारों को साझा प्रयास करने होंगे।" पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन के अध्यक्ष श्रीनाथ रेड्डी कहते हैं, "स्वास्थ्य के क्षेत्र में आवंटन नहीं बढ़ाने की वजह से ही निजी क्षेत्र मरीजों को मनमाने तरीके से लूट रहे हैं।" उनका कहना है कि मौजूदा हालात की वजह से सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं से लोगों का भरोसा धीरे-धीरे खत्म हो रहा है और वह भारी-भरकम रकम चुकाकर बीमारियों के इलाज के लिए निजी क्षेत्र की शरण में जा रहे हैं। इन संगठनों का कहना है कि सरकार को ही एक ऐसी सरकारी व्यवस्था बनानी होगी, जैसा जन स्वास्थय अभियान ने भी कहा है, जिसमें स्वास्थ्य सेवाओं तक सबकी आसान पहुंच हो और कम खर्च में इलाज हो सके।
रणबीर सिंह दहिया 
रिटायर्ड सीनियर प्रोफेसर सर्जरी 
पी जीआई एम एस रोहतक 

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