Monday, 13 February 2023

स्वास्थ्य का हक

 स्वास्थ्य का हक

प्रस्तावना
भारत में स्वास्थ्य की स्थिति की दयनीयता हम सबके सामने है। हमारा देश और हम यानी नागरिक हमेशा दो अतियों पर खड़े दिखाई देते हैं। स्वास्थ्य चिकित्सा का क्षेत्र भी इससे अछूता नहीं है। एक और हम यह दावा करते हैं कि हमारे यहां विश्व स्तरीय चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध हैं और मेडिकल टूरिज्म को बढ़ावा देने की बात भी करते हैं । हमारे व्यापारिक व वाणिज्यिक संस्थाएं जैसे सीआईआई ,फिक्की या एसोचौम,  इस क्षेत्र को सर्वाधिक तेजी से बढ़ने वाला उद्योग बता रही हैं और भारत सरकार सारे विश्व में डंका पीट कर अपने यहां दुनिया भर के मरीजों को न्यौत रही है, वहीं दूसरी ओर भारत की अधिकांश यानी 80% आबादी है, जिसके पास अपने जीवन के लिए पौष्टिक भोजन तक नहीं है। इसके बावजूद उसे अब तक उपलब्ध सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं से भी वंचित किया गया है । उनके साथ हमेशा दोयम दर्जे के नागरिक जैसा व्यवहार होता है, यहां तक कि उपचार में भी हम छत्तीसगढ़  में नसबंदी में बड़ी लापरवाही के बाद दर्जनों महिलाओं की मृत्यु के समाचार अब भी सुनते हैं, कभी मध्य प्रदेश ,पंजाब, हरियाणा जैसे तमाम प्रदेशों में मोतियाबिंद के बाद फैले संक्रमण से लोगों के अंधे होने की करूण दास्तां सुनते हैं । किसी प्रदेश में हजारों महिलाओं के गर्भाशय बिना वाजिब कारणों के निकाले जाते हैं, तो कहीं (इंसेफेलाइटिस)  कालाजार से होने वाली मौतें लगातार बढ़ती जा रही हैं।
     कहावत है 'कोढ़ में खाज' कुछ ऐसा ही हमारे देश में हो रहा है । एक और उपचार में लापरवाही तो दूसरी ओर इस पेशे में कदाचार/ दुराचार के उदाहरण, चिकित्सकों द्वारा ड्रग ट्रायल , दवा कंपनियों के खर्चों पर देश- विदेश की यात्रा, पैथोलॉजी"कट" (कमीशन), अवैध रूप से अंग प्रत्यारोपण, अवांछित दवाइयां लिखना या गैर जरूरी शल्य चिकित्सा करने के रूप में सामने आ रहे हैं । इतना ही नहीं इस पेशे से जुड़े कतिपय  चिकित्सकों ने तो कन्या भ्रूण हत्या के माध्यम से भारत की जनसंख्या के आंकड़े ही बदल दिए हैं । तमाम और भी बातें हैं जिनका लेखा-जोखा किया जाना जरूरी है। जैसे भारत की आबादी का करीब 4.5% हिस्सा प्रतिवर्ष लोक स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच न होने की वजह से गरीबी रेखा से नीचे जा रहा है और भारत की ग्रामीण और शहरी संपत्ति की एक तिहाई से अधिक बिक्री स्वास्थ्य सेवाओं को प्राप्त करने के लिए होती है।
     यह पुस्तिका मूलत: चिकित्सा के क्षेत्र में हो रही लापरवाही को पहचानने के उद्देश्य से तैयार की गई है। इसमें  इस बात को भी सामने लाने का प्रयास किया गया है कि भारतीय पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में पुरातन काल से निगरानी व दंड की व्यवस्था मौजूद रही है। साथ ही यह भी बताने का प्रयास किया गया है कि ब्रिटिश
उपनिवेश के पूरी तरह से भारत पर छा जाने के पहले हम एक स्वस्थ व समृद्ध  राष्ट्र थे । इस पुस्तिका के पहले भाग में चिकित्सकीय लापरवाही से लेकर स्वास्थ्य के बाजार और कानूनी व्यवस्था तक के तमाम ऐसे पहलू जिसे हम  अक्सर वंचित रह जाते हैं, का समावेश है। पुस्तिका में हम चिकित्सा निगरानी के इतिहास से लेकर वर्तमान तक की यात्रा में बहुत ही संक्षिप्त विवेचना प्रस्तुत कर पाए हैं। पुस्तिका के दूसरे भाग में उन चुनिंदा कानूनों का संक्षिप्त विवरण है जिनके माध्यम से न्यायालय या प्रशासन से मरीज या उसके परिजन अपने स्वास्थ्य अधिकार प्राप्त कर सकते हैं।
      इस कार्य में हमें अमूल्य निधि का अविस्मरणीय सहयोग मिला है। साथ ही राकेश मालवीय के असीम धैर्य से भी परिचय हुआ, जिन्होंने इसे लिखवाकर ही दम लिया। हमेशा की तरह सचिन अपने मौन से कोंचते रहे। बहरहाल यह पुस्तिका आपके सामने है। कोशिश रहेगी कि इस यात्रा को और आगे बढ़ाया जाए।
चिन्मय मिश्र

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