अंतरालीय फुफ्फुस रोगः फेफड़ों में दाग
यतीश अग्रवाल email dryatish@yahoo.com
हमारे फेफड़े दिन रात जीवनदायी ऑक्सीजन ग्रहण करते और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहते हैं। यह आदान.प्रदान हमारे फेफड़ों के भीतर छोटे.छोटे वायु के थैलों जो एलवियोली कहलाते हैं, में चलता रहता है। एलवियोली ऊतकों की लेस जैसी जाली से संबल पाते हैं, जिन्हें ‘इंटरस्टिसियम’ कहा जाता है। इंटरस्टिसियम में छोटी.छोटी रुधिर वाहिकाएं विद्यमान रहती हैं जो वायु से फेफड़ों में ऑक्सीजन भरती हैं और उसे रुधिर संचार के माध्यम से शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाती हैं। कुछ लोगों में विभिन्न कारणों से यह इंटरस्टिसियम क्षतिग्रस्त हो जाता है और उसमें शोथ आ जाता है। ऐसा होने पर एलवियोली (वायु कोश) एवं रुधिर संचार के बीच ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का सहज प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है - परिणामस्वरूप सांस फूलने लगती है। रोग की जड़ में इंटरस्टिसियम होने के कारण ही इस व्याधि को इंटरस्टिसियल लंग डिजीज़ (अंतरालीय फुफ्फुस रोग) कहा जाता है।
फेफड़ों के अनेक रोगों का व्यंजक यह रोग उपचार की दृष्टि से कठिन है। शुरुआत में, रोग से संबल देने वाले ऊतकों में क्षति होती रहती है और अंततः यह व्यक्ति की श्वसन क्षमता को भी प्रभावित कर देता है तथा साथ ही रुधिर संचार में ऑक्सीजन की आपूर्ति को भी।
इंटरस्टिसियल लंग डिजीज़ -
जिसे अक्सर संक्षिप्त नाम आइ. एल. डी. भी कह दिया जाता है - लंबे समय तक घातक पदार्थों जैसे एसबेस्टॉस के संपर्क में रहने से होना संभव है। प्रतिरक्षा प्रणाली से संबंधित कुछ रोगों जैसे कि र्ह्यूमेटॉयड आर्थराइटिस से भी फेफड़े विक्षत हो सकते हैं, हालांकि अधिकांश मामलों में रोग का कारण पता लग पाना संभव नहीं होता।
फेफड़ों की इस व्याधि के कुछ प्रकार थोड़े समय तक ही रहते हैं; अन्य जीर्ण रोग में बदल जाते हैं और उन्हें सामान्य अवस्था में लौटा पाना संभव नहीं हो पाता। वस्तुतः एक बार फेफड़ों के दागी हो जाने के बाद वह स्थिति सामान्यतः स्थायी हो जाती है। औषधियां इस क्षति को मंद अवश्य कर सकती हैं किंतु कई लोग अपने
फेफड़ों का पूरा इस्तेमाल कर पाने में कभी सक्षम नहीं हो पाते। फुफ्फुस प्रत्यारोपण, ऐसे कुछ रोगियों को कष्ट से निजात दिलाने का विकल्प हो सकता है।
रोग होता क्यों है?
ऐसा प्रतीत होता है कि अंतरालीय फुफ्फुस रोग फेफड़ों को क्षति पहुँचने पर स्वास्थ्य लाभ की अपसामान्य प्रतिक्रिया से जन्म लेता है। सामान्यतः व्यक्ति का शरीर क्षतिपूर्ति के लिए सुसंगत अनुपात में ऊतकों का उपयोग करता है किंतु इस रोग में सुधार प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है तथा वायु कोशों (एलवियोली) के आस.पास के ऊतक विक्षत होकर कड़े पड़ जाते हैं - ऐसा होने पर रुधिर संचार के अंतर्गत ऑक्सीजन प्रसारित होने में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। अंतरालीय फुफ्फुस रोग के आरंभिक रोगलक्षण एवं संकेत इसी बदलाव से जुड़े हैं, और विश्राम की स्थिति में भी सांस फूलने अथवा शारीरिक परिश्रम से और भी उग्र होने तथा सूखी खांसी के रूप में प्रकट होते हैं।
अंतराली फुफ्फुस रोग के विभिन्न प्रकार जिन स्थितियों और जिन चीज़ों से यह रोग होता है उनकी फेहरिस्त काफी लंबी है, साथ ही अधिकांश मामलों में मूल कारण का पता ही नहीं चल पाता। जिन विकारों के कारण का संज्ञान नहीं हो पाता उन्हें ‘इडियोपैथिक इंटरस्टिसियल निमोनिया वर्ग’ के अंतर्गत स्वीकार कर लिया जाता है। इस वर्ग के रोगों में सर्वाधिक सामान्य एवं घातक स्थिति है ‘इडियोपैथिक पल्मोनरी फ़ाइब्रोसिस’ (अज्ञान हेतुक फुफ्फुस तंतुमयता)।
अनेक ऐसी स्थितियां हैं जो वायु कोश के कड़े पड़ जाने का कारण बनती हैं और अंतरालीय फुफ्फुस रोग को जन्म देती हैं। यह कड़ापन, सूजन से क्षतिग्रस्त होने से या फिर अतिरिक्त द्रव (एडीमा) के कारण हो सकता है। अंतरालीय फुफ्फुस रोग के आम प्रकार निम्न हैंः
इंटरस्टिसियल न्यूमोनिया-----
फेफड़ों के वायु कोश, जीवाणु, वायरसों या फफूंद के कारण संक्रमित हो जाते हैं। ‘मायकोप्लाज़्मा न्यूमोनिया’ नामक जीवाणु इंटरस्टिसियल न्यूमोनिया का मुख्य कारक है।
इडियोपैथिक पल्मोनरी फायब्रोसिस------
यह वायु कोश की जीर्ण एवं वर्द्धमान विक्षत अवस्था है। इस रोग का कारण अज्ञात है।
नॉनस्पेसिफिक इंटरस्टिसियल न्यूमोनाइटिस-----
यह कष्ट व्यक्ति को सामान्यतः प्रतिरक्षा प्रणाली से संबंधित रोग जैसे कि र्ह्यूमेटॉयड आर्थराइटिस या स्क्लेरोडर्मा (त्वचा काठिन्य) ग्रस्त होने पर होता है।
हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस-------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग का यह प्रकार निरंतर धूल, फफूंदी या अन्य विक्षोभकों के संपर्क में रहने पर हो जाता है।
क्रिप्टोजेनिक ऑर्गेनाइज़िंग न्यूमोनिया (COP )-----
यह रोग अंतरालीय फुफ्फुस रोग के समान ही होता है किंतु किसी संक्रमण के कारण नहीं। क्रिप्टोजेनिक ऑर्गेनाइज़िंग न्यूमोनिया (COP ) को ब्रांकियोलाइटिस ऑव्लिटरेंस विद ऑर्गेनाइज़िंग न्यूमोनिया (BOOP) भी कहा जाता है।
एक्यूट इंटरस्टिसियल न्यूमोनाइटिस------
इस प्रकार का अंतरालीय फुफ्फुस रोग धूम्रपान के कारण हो जाता है।
सार्काइडोसिस--------
ऐसा अंतरालीय फुफ्फुस रोग जिसमें लसिका पर्वों (लिम्फ़ नोड्स) में सूजन आ जाती है तथा कभी.कभी हृदय, त्वचा, स्नायु या आंखें भी प्रभावित हो जाती हैं।
एस्बेस्टॉसिस--------
एस्बेस्टॉस के संपर्क में काफी समय रहने से भी अंतरालीय फुफ्फुस रोग हो
जाता है।
रोग के विविध उद्दीपक:::
कुछेक ऐसे कारक हैं जो व्यक्ति को रोगग्रस्त करने के कारण बन जाते हैंः
आयु*
सामान्यतः अंतरालीय फुफ्फुस रोग वयस्क लोगों को ही प्रभावित करता है किंतु कभी.कभार शिशु एवं किशोर भी इसकी चपेट में आ जाते हैं।
गैस्ट्रो इसोफ़ेगस रिफ्लक्स डिजीज़-----
व्यक्ति का पाचनतंत्र ठीक न होने या फिर अनियंत्रित अम्ल प्रतिवाह (एसिड रिफ्लक्स) की शिकायत रहने पर भी अंतरालीय फुफ्फुस रोग होने की आशंका बनी रहती है।
धूम्रपान*
पूर्व में धूम्रपान करते रहे लोगों को धूम्रपान त्याग देने के बाद भी अंतरालीय फुफ्फुस रोग होने की आशंका बनी रहती है और वर्तमान में धूम्रपान के अभ्यस्त लोगों की स्थिति तो और भी बदतर होती है, खास तौर पर तब जब साथ में वातस्फीति (एम्फ़ीसेमा) भी हो।
ऑक्सीजन
बहुत उच्च स्तरीय निरंतर ऑक्सीजन, रोगी को दिए जाने पर भी फेफड़ों को नुकसान पहुँच सकता है।
व्यावसायिक एवं पर्यावरण संबंधी विषाक्तताओं का संपर्क खनन, खेती बाड़ी या फिर भवन, इत्यादि निर्माण कार्यों में लगे हुए लोगों या फिर किसी अन्य कारण वश ऐसे प्रदूषण उत्पन्न करने वाली स्थितियों के संपर्क में बने रहने वाले व्यक्तियों में अंतरालीय फुफ्फुस रोग का खतरा बढ़ जाता है। लंबे समय तक व्यवसाय या पर्यावरण संबंधी आविषों (टॉक्सिनों) और प्रदूषणजनक स्थितियों के संपर्क में रहने पर भी फेफड़ों को नुकसान पहुँचता है, इनमें सम्मिलित हैं - सिलिका धूल, एस्बेस्टॉस के रेशे, चिड़ियों और पशुओं का मल और घर के गुसलख़ानों के हॉट टब।
आरोग्य संबंधी स्थितियां--------
सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथेमेटॉसस (दैहिक ल्यूपस त्वगशक्तिमा), र्ह्यूमेटॉयड आर्थराइटिस, स्क्लेरोडर्मा (त्वचा काठिन्य) तथा सार्काइडोसिस (मांसार्बुद) जैसे रोग होने पर भी फेफड़ों को नुकसान पहुँच सकता है जो अंततः अंतरालीय फुफ्फुस रोग में बदल जाता है।
औषधियां---------
इस प्रकार के अनेक औषधि.उपचार भी हैं जिनसे फेफड़ों को क्षति पहंुचती है, जिनमें
निम्न विशेष रूप से उत्तरदाई हैंः
कैंसर रोधी दवाएं:
कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए दी जाने वाली दवाएं भी फेफड़ों के ऊतकों के लिए घातक होती हैं, जैसे कि - मेथोट्रैक्सेट एवं साइक्लोफॉस्फेमाइड।
हृदय रोग की औषधियां: ----
हृदय की अनियमित धड़कनों के उपचार के लिए दी जाने वाली दवाएं फेफड़ों के ऊतकों को नुकसान पहुंचाने में सक्षम हैं, जैसे कि - एमियोडेरोन या प्रौपेनोलोल।
एंटीबॉयोटिक्सः---
कुछ एंटीबॉयोटिक्स भी फेफड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं, जैसे
कि - नाइट्रोफ्यूरेंटोनिन तथा सल्फ़ासेलेज़ाइन।
रेडियोथेरैपी उपचार----
कुछ लोगों के फेफड़ों या वक्ष के कैंसर में रेडियोथेरैपी की जाती है और उन्हें कई बार प्रारंभिक उपचार के महीनों या वर्षों बाद भी फेफड़ों के क्षतिग्रस्त होने की शिकायत हो जाती है। क्षति की गंभीरता इस बात पर निर्भर करती है कि फेफड़ों का कितना भाग रेडिएशन के संपर्क में आया था, कितनी मात्रा में रेडिएशन किया गया, उपचार से पूर्व क्या फेफड़ों का रोग था, जिसकी पहचान नहीं की गई थी और क्या साथ में कीमोथेरैपी भी हुई थी।
जटिलताएं---------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कारण अनेक प्राणघातक जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं,
जिनमें सम्मिलित हैं-
फेफड़ों का उच्च रक्तचाप (पल्मोनरी हाइपरटेंशन)----
सिस्टेमिक उच्च रक्तचाप के विपरीत इस स्थिति में केवल फेफड़ों की धमनियां प्रभावित होती हैं। इसकी शुरुआत ऊतकों की क्षति या ऑक्सीजन स्तर की कमी से, सबसे छोटी रुधिर वाहिकाओं के अवरूद्ध होने पर होती है, जिससे फेफड़ों तक पूरा रुधिर प्रवाह नहीं हो पाता। इसी वजह से पल्मोनरी धमनियों में रक्तदाब बढ़ जाता है। यह एक गंभीर रोग है जो आगे चलकर घातक रूप ले लेता है।
दाहिने हिस्से का हृदयाघात (कॉर पल्मोनेल)------
यह गंभीर स्थिति तब जन्म लेती है जब हृदय का निचला दाहिना प्रकोष्ठ (दायां निलय) जो बाएं की अपेक्षा कम पेशीयुक्त होता है - अवरुद्ध फुफ्फुसी धमनियों से रुधिर संचार के लिए सामान्य स्थितियों की अपेक्षा अधिक परिश्रम से रुधिर पंप करने लगता है। अंततः यह दाहिना निलय अतिरिक्त परिश्रम से पस्त पड़ जाता है। ऐसा प्रायः फुफ्फुसी रक्तदाब के परिणामस्वरूप ही होता है
श्वासगति बंद हो जाना------
जीर्ण अंतरालीय फुफ्फुस रोग की अंतिम अवस्था में, ऑक्सीजन वायु का स्तर अत्यंत निम्न हो जाता है और साथ ही फुफ्फुसी धमनियों एवं दाहिने निलय का रक्तदाब बढ़ जाता है - यही स्थिति श्वासगति रुक जाने के रूप में बदल जाती है। रोगलक्षणों की पहचान अंतरालीय फुफ्फुस रोगों के सभी प्रकारों का सामान्य रोगलक्षण है - सांस फूलना। लगभग ऐसे सभी रोगी सांस फूलने की शिकायत करते हैं जो समय के साथ बदतर
हो जाती है।
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के अन्य लक्षण हैंः
* खांसी जो आमतौर पर सूखी और बलगम रहित होती है।
* वज़न में कमी, खासतौर पर COP या BOOP के रोगियों में।
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के अधिकांश प्रकारों में सांस फूलने की शिकायत धीरे.धीरे, आमतौर पर महीनों में, बढ़ती है। अंतरालीय न्यूमोनिया या उग्र अंतरालीय न्यूमोनाइटिस में अलबत्ता रोगलक्षण त्वरित रूप में कुछ घंटों या दिनों में उभर आते हैं।
चिकित्सक से परामर्श----------
आमतौर पर रोगलक्षणों के उभर पाने तक फेफड़ों की क्षति हो चुकी होती है, फिर भी जैसे ही सांस की समस्या दिखाई दे तुरंत चिकित्सक से परामर्श किया जाना चाहिए। सही उपचार के लिए शुरुआत में ही सुस्पष्ट रोगनिदान किया जाना ज़रूरी है। आमतौर पर ऐसी स्थितियों में लोग पहले अपने पारिवारिक चिकित्सक की ही सलाह लेते हैं। चिकित्सक उन्हें ‘पल्मोनोलॉजिस्ट’ - फेफड़ों से संबंधित विशेषज्ञ - के पास जाने की सलाह देता है। विशेषज्ञ द्वारा उन्हें कई प्रकार के परीक्षण करवाने का परामर्श दिया जाता है, जैसे - रुधिर से संबद्ध परीक्षण, वक्ष का एक्स.रे, छाती की सी.टी. स्कैन एवं फुफ्फुसीय कार्य प्रणाली आदि।
परीक्षण एवं स्कैन--------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कारणों का संज्ञान अत्यधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है। पहली बात, अनेक असामान्य विकार इस बृहत श्रेणी के अंतर्गत सम्मिलित हैं। दूसरे, ऐसे रोगों की फेहरिस्त काफी लंबी है जिनमें अंतरालीय फुफ्फुस रोग जैसे ही लक्षण व्यक्त होते हैं। इसीलिए चिकित्सक पहले अन्य सभी संबंधित रोगों की वर्जना कर लेते हैं ताकि रोग का सुनिश्चित निदान संभव हो सके।
निम्न परीक्षण रोगनिदान में सहायक होते हैंः
ऑक्ज़ीमीट्री------
यह सरल परीक्षण, एक छोटे से उपकरण को रोगी की किसी अंगुली में लगाकर, रुधिर में ऑक्सीजन सांद्रता के मापन के लिए किया जाता है। ऑक्ज़ीमीट्री रोग की स्थिति जांचने की एक सरल विधि है जो कई बार वक्ष के एक्स.रे से भी अधिक सटीक सिद्ध होती है।
स्पाइरोमीट्री एवं विस्तारण क्षमताः इस परीक्षण के अंतर्गत, व्यक्ति को मशीन से जुड़ी एक नलिका के माध्यम से, तेजी से जोर लगाकर सांस लेने को कहा जाता है। मशीन व्यक्ति द्वारा ली जाने वाली सांस का मापन कर फेफड़ों की क्षमता निर्धारित करती है, साथ ही यह भी कि व्यक्ति कितनी शीघ्रता से फेफड़ों से सांस निष्कासित कर पाता है। इस प्रक्रिया में यह भी देखा जाता है कि व्यक्ति के फेफड़ों से ऑक्सीजन कितनी शीघ्रता से रुधिर प्रवाह में पहुंच जाता है।
इमेजिंग (प्रतिबिंबन) परीक्षण------
वक्ष का एक्स.रेः छाती का एक्स.रे लेने पर अंतरालीय फुफ्फुस रोग के विभिन्न प्रकारों के कारण होने वाली फेफड़ों की क्षति अभिलक्षणीय प्रतिरूपों में दिखाई देती है। इस प्रकार का एक्स.रे रोग की प्रगति को भी दर्शाता है। फेफड़ों के विशेषज्ञ (पल्मोनोलोजिस्ट) के पास जाने से पूर्व यदि एक्स.रे लिया गया हो तो उसे ले जाना चाहिए। एक्स.रे देख कर और नया एक्स.रे लेने पर विशेषज्ञ रोग का सही निदान करने में सक्षम हो पाता है। विशेषज्ञ के लिए एक्स.रे के साथ दी गई रिपोर्ट ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक महत्वपूर्ण वास्तविक एक्स.रे होता है।
कंप्यूटराइज़ड टोमोग्राफी (सी.टी.) स्कैन परीक्षणः सी.टी. स्कैन करते समय कंप्यूटर की सहायता से, विभिन्न कोणों से लिए एक्स.रे प्रतिबिंबों का संयोजन किया जाता है और शरीर के अवयवों की आंतरिक संरचना के अंतर्विभागीय प्रतिबिंब तैयार किए जाते हैं। एक उच्च स्तरीय वियोजित सी. टी. स्कैन, अंतरालीय फुफ्फुस रोग
में फेफड़ों की क्षति सुनिश्चित करने में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होता है। इस प्रकार के प्रतिबिंबों में तंतु आर्ति (फायब्रोसिस) की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है और रोगनिदान सुनिश्चित कर पाना संभव होता है।
इकोकार्डियोग्रामः इकोकार्डियोग्राम, हृदय का सोनो ग्राम है जिसमें ध्वनि तरंगों का उपयोग कर हृदय की जांच की जाती है। इस तकनीक में हृदय की संरचना के स्थिर प्रतिबिंब भी लिए जाते हैं तथा हृदय की कार्यप्रणाली के वीडियो भी बनाए जा सकते हैं। इस परीक्षण से हृदय के दाहिने हिस्से के दाब का आकलन संभव है।
फेफड़ों का ऊतक विश्लेषण सामान्यतः फुफ्फुसीय फायब्रोसिस का सुनिश्चित निदान, प्रयोगशाला में, फेफड़ों के
ऊतकों के छोटे से अंश की बायोप्सी द्वारा किया जाता है। ऐसे ऊतक निम्न तरीकों से प्राप्त किए जा सकते हैंः
ब्रांकोस्कोपीःइस प्रक्रिया के अंतर्गत, चिकित्सक एक छोटी सी, आमतौर पर पिन के सिरे जितनी, लचीली नलिका (ब्रांकोस्कोप) को रोगी के मुख या नाक के माध्यम से प्रविष्ट कराके फेफड़ों का बहुत छोटा ऊतक का नमूना निकाल लिया जाता है। ब्रांकोस्कोपी के जोख़िम काफी कम हैं - गले में अस्थायी खराश और ब्रोंकोस्कोप
के कारण भारी आवाज़ - पर कभी.कभार निकाले गए ऊतक इतने छोटे होते हैं कि सुसंगत रोगनिदान में कठिनाई होती है। ब्रोंकोएल्वियोलर लावेजः इस प्रक्रिया के अंतर्गत, चिकित्सक लगभग एक बड़ा चम्मच लवणयुक्त जल ब्रोंकोस्कोप के माध्यम से फेफड़ों के एक हिस्से तक इंजेक्शन द्वारा पहुंचाता है और फिर तुरंत ही उसे वापस निकाल लेता है। बाहर निकाले गए द्रव के साथ वायुकोशों के ऊतक भी होते हैं। हालांकि ब्रोंकोएल्वियोलर लावेज अन्य पद्धतियों की अपेक्षा फेफड़ों के पर्याप्त विस्तृत भाग के नमूने लेने में सक्षम होता है
किंतु इस प्रविधि द्वारा प्राप्त जानकारी पल्मोनरी फायब्रोसिस के सुस्पष्ट रोगनिदान के लिए पर्याप्त नहीं होती।
सर्जिकल बायोप्सीः हालांकि यह प्रक्रिया सर्जरी द्वारा संपादित की जाती है और इसमें काफी जटिलताएं रहती हैं, किंतु यही एकमात्र ऐसी प्रविधि है जिसमें सुसंगत रोगनिदान के लिए पर्याप्त बड़ा, ऊतकों का नमूना ले सकना संभव होता है। इस प्रक्रिया में सामान्य एनेस्थेसिया दिया जाता है एवं सर्जरी के उपकरणों की तथा एक छोटे कैमरा की जरूरत पड़ती है। यह कैमरा, पसलियों के बीच दो या तीन छोटे से छिद्र कर फेफड़ों में प्रविष्ट करा दिया जाता है। कैमरे के माध्यम से सर्जन एक वीडियो मॉनीटर पर फेफड़ों की स्थिति जांचता है और साथ ही उनसे जरूरत के मुताबिक ऊतक बाहर निकाल लेता है।
स्वयं क्या करें ------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के साथ जीने के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति अपने उपचार के प्रति सक्रिय व सजग हो तथा यथासंभव स्वस्थ रहने का प्रयास करे। इसके लिए जरूरी हैः
धूम्रपान त्यागेंः फेफड़ों से संबंधित रोग होने पर धूम्रपान त्याग देना पहला कदम है। इस संबंध में विकल्प चयन हेतु चिकित्सक की राय लें - विकल्प में धूम्रपान मुक्ति कार्यक्रम भी सम्मिलित हैं जिनमें धूम्रपान त्यागने की कई प्रविधियां समझाई जाती हैं। धूम्रपान करने वाले लोगों के साथ से भी बचें क्योंकि वह उतना ही नुकसानदेह
है जितना स्वयं धूम्रपान करना।
पौष्टिक आहार अपनाएंः फेफड़ों के रोगियों का वज़न प्रायः गिरने लगता है - एक तो वे आराम से भोजन नहीं कर पाते, दूसरे उन्हें सांस लेने में कष्ट होता है। ऐसे लोगों को पौष्टिक आहार लेने की जरूरत होती है जिसमें पर्याप्त कैलोरीज़ हों। आहार विशेषज्ञ की इस संदर्भ में राय ली जानी चाहिए।
समय पर टीका लगवाएंः अंतरालीय फुफ्फुस रोग में श्वास नली का संक्रमण इसे और अधिक घातक बना सकता है। ध्यान रखें कि समय पर न्यूमोनिया का टीका और हर साल फ्लू का टीका लगवा लें।
हिम्मत से सामना करेंः फेफड़ों की पुरानी तकलीफ़ के साथ जीना एक बड़ी भावनात्मक और शारीरिक चुनौती बन जाता है। व्यक्ति को, दिनचर्या और रोजमर्रा के कामकाज के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है, कभी.कभी तो आमूल बदलाव लाना पड़ जाता है, क्योंकि सांस की बढ़ती तकलीफ़ या फेफड़ों की गिरती हालत में सेहत की देखभाल प्राथमिकता बन जाती है। ऐसे में, डर, गुस्सा या उदासी की भावनाएं उभरना स्वाभाविक है क्योंकि व्यक्ति अपनी पिछली स्वस्थ जिंदगी छूट जाने से खिन्न रहता है और साथ ही अपने व परिजनों के भविष्य के लिए चिंतित भी। अपनी भावनाएं नज़दीकी लोगों से भी बांटें और चिकित्सक से भी। खुलकर बात करने से रोग की भावनापरक तकलीफों से राहत मिलती है और उनका सामना करने की ताकत भी।
आरोग्यपरक उपचार-----
कुछ उपचारों द्वारा अस्थायी रूप से रोगलक्षणों में सुधार लाया जा सकता है या फिर रोग वृद्धि की गति मंद करना भी संभव हो पाता है। अन्य कुछ उपचार जीवन की गुणवत्ता बढ़ाते हैं। चिकित्सक द्वारा निम्न उपचार पद्धतियों में से चयन करना संभव है, जिनके विविध परिणाम हैंः
कॉर्टेकॉस्टेरॉयड्सः अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कुछ प्रकारों में लगातार रहने वाले शोथ से फेफड़ों को नुकसान पहहुँचता है और वे विक्षत हो जाते हैं। प्रेड्नीज़ोन तथा मिथाइलप्रेड़नीज़ोलोन जैसी कॉर्टेकॉस्टेरॉयड दवाएं प्रतिरक्षा प्रणाली पर अंकुश बनाए रखती हैं। ऐसा होने पर फेफड़ों और पूरे शरीर की सूजन कम होती है।
एन. ऐसिटाइलसिस्टीनः यह सशक्त एंटी.ऑक्सीडेंट, अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कुछ प्रकारों में फुफ्फुस.ह्रास को मंद कर देता है, किंतु रोग से व्यक्ति का पूर्णतः बचाव करने में सक्षम नहीं होता।
एज़ाथियोप्रीनः यह औषधि प्रतिरक्षा प्रणाली को शमित करती है। अंतरालीय फुफ्फुस रोग के उपचार में यह प्रभावी सिद्ध नहीं हो सकी है किंतु कुछ अध्ययनों के अनुसार यह कारगर हो सकती है।
ऑक्सीजन थेरैपी:
ऑक्सीजन का आठों पहर उपचार लाभकारी हो सकता है। ऑक्सीजन, बाहरी माध्यम से रोगी को दिया जाना, हालांकि फेफड़ों की क्षति को रोक नहीं पाता किंतु ऐसा करने पर निम्न प्रभाव मिल सकते हैंः
* सांस लेना और श्रमयुक्त गतिविधियों में मदद मिल जाती है।
* शरीर में ऑक्सीजन स्तर कम होने की स्थिति में जटिलताओं से बचाव होता है या वे कम हो जाती हैं।
* हृदय के दाहिने निलय में रक्तदाब नहीं बढ़ता
ऽ नींद में सुधार होता है और व्यक्ति स्वस्थ महसूस करता है।
पल्मोनरी रिहैबिलिटेशन (फुफ्फुसीय पुनर्स्थापन)-----
फुफ्फुसीय पुनर्स्थापन से दैनंदिन कार्यकलापों में ही सुधार नहीं आता बल्कि ऐसे रोगी पूर्ण संतुष्ट जीवन जीना सीखते हैं। ऐसे पुनर्स्थापन कार्यक्रमों में लक्ष्य प्राप्ति के लिए निम्न विधियां अपनाई जाती हैंः
~ शारीरिक व्यायाम ताकि व्यक्ति की सहनशक्ति बढ़ सके।
~ श्वासविधियां जिनसे फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है।
~ भावनात्मक संबल
~ पोषण संबंधी हिदायतें
सर्जरी-----
अंतरालीय फुफ्फुस रोग की बढ़ी हुई अवस्था जिसमें गंभीर स्तर पर नुकसान हो चुका होता है, फेफड़ों का ट्रांसप्लांट करवाना अंतिम श्रेष्ठ उपाय है। ऐसा आपरेशन करवाने वाले रोगियों की जीवन की गुणवत्ता में भी बहुत सुधार होता है और कार्यक्षमता में भी.
अनुवाद ---कुंकुम जोशी
साभार --ड्रीम 2047
यतीश अग्रवाल email dryatish@yahoo.com
हमारे फेफड़े दिन रात जीवनदायी ऑक्सीजन ग्रहण करते और कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते रहते हैं। यह आदान.प्रदान हमारे फेफड़ों के भीतर छोटे.छोटे वायु के थैलों जो एलवियोली कहलाते हैं, में चलता रहता है। एलवियोली ऊतकों की लेस जैसी जाली से संबल पाते हैं, जिन्हें ‘इंटरस्टिसियम’ कहा जाता है। इंटरस्टिसियम में छोटी.छोटी रुधिर वाहिकाएं विद्यमान रहती हैं जो वायु से फेफड़ों में ऑक्सीजन भरती हैं और उसे रुधिर संचार के माध्यम से शरीर के विभिन्न भागों तक पहुंचाती हैं। कुछ लोगों में विभिन्न कारणों से यह इंटरस्टिसियम क्षतिग्रस्त हो जाता है और उसमें शोथ आ जाता है। ऐसा होने पर एलवियोली (वायु कोश) एवं रुधिर संचार के बीच ऑक्सीजन तथा कार्बन डाइऑक्साइड का सहज प्रवाह अवरुद्ध हो जाता है - परिणामस्वरूप सांस फूलने लगती है। रोग की जड़ में इंटरस्टिसियम होने के कारण ही इस व्याधि को इंटरस्टिसियल लंग डिजीज़ (अंतरालीय फुफ्फुस रोग) कहा जाता है।
फेफड़ों के अनेक रोगों का व्यंजक यह रोग उपचार की दृष्टि से कठिन है। शुरुआत में, रोग से संबल देने वाले ऊतकों में क्षति होती रहती है और अंततः यह व्यक्ति की श्वसन क्षमता को भी प्रभावित कर देता है तथा साथ ही रुधिर संचार में ऑक्सीजन की आपूर्ति को भी।
इंटरस्टिसियल लंग डिजीज़ -
जिसे अक्सर संक्षिप्त नाम आइ. एल. डी. भी कह दिया जाता है - लंबे समय तक घातक पदार्थों जैसे एसबेस्टॉस के संपर्क में रहने से होना संभव है। प्रतिरक्षा प्रणाली से संबंधित कुछ रोगों जैसे कि र्ह्यूमेटॉयड आर्थराइटिस से भी फेफड़े विक्षत हो सकते हैं, हालांकि अधिकांश मामलों में रोग का कारण पता लग पाना संभव नहीं होता।
फेफड़ों की इस व्याधि के कुछ प्रकार थोड़े समय तक ही रहते हैं; अन्य जीर्ण रोग में बदल जाते हैं और उन्हें सामान्य अवस्था में लौटा पाना संभव नहीं हो पाता। वस्तुतः एक बार फेफड़ों के दागी हो जाने के बाद वह स्थिति सामान्यतः स्थायी हो जाती है। औषधियां इस क्षति को मंद अवश्य कर सकती हैं किंतु कई लोग अपने
फेफड़ों का पूरा इस्तेमाल कर पाने में कभी सक्षम नहीं हो पाते। फुफ्फुस प्रत्यारोपण, ऐसे कुछ रोगियों को कष्ट से निजात दिलाने का विकल्प हो सकता है।
रोग होता क्यों है?
ऐसा प्रतीत होता है कि अंतरालीय फुफ्फुस रोग फेफड़ों को क्षति पहुँचने पर स्वास्थ्य लाभ की अपसामान्य प्रतिक्रिया से जन्म लेता है। सामान्यतः व्यक्ति का शरीर क्षतिपूर्ति के लिए सुसंगत अनुपात में ऊतकों का उपयोग करता है किंतु इस रोग में सुधार प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है तथा वायु कोशों (एलवियोली) के आस.पास के ऊतक विक्षत होकर कड़े पड़ जाते हैं - ऐसा होने पर रुधिर संचार के अंतर्गत ऑक्सीजन प्रसारित होने में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। अंतरालीय फुफ्फुस रोग के आरंभिक रोगलक्षण एवं संकेत इसी बदलाव से जुड़े हैं, और विश्राम की स्थिति में भी सांस फूलने अथवा शारीरिक परिश्रम से और भी उग्र होने तथा सूखी खांसी के रूप में प्रकट होते हैं।
अंतराली फुफ्फुस रोग के विभिन्न प्रकार जिन स्थितियों और जिन चीज़ों से यह रोग होता है उनकी फेहरिस्त काफी लंबी है, साथ ही अधिकांश मामलों में मूल कारण का पता ही नहीं चल पाता। जिन विकारों के कारण का संज्ञान नहीं हो पाता उन्हें ‘इडियोपैथिक इंटरस्टिसियल निमोनिया वर्ग’ के अंतर्गत स्वीकार कर लिया जाता है। इस वर्ग के रोगों में सर्वाधिक सामान्य एवं घातक स्थिति है ‘इडियोपैथिक पल्मोनरी फ़ाइब्रोसिस’ (अज्ञान हेतुक फुफ्फुस तंतुमयता)।
अनेक ऐसी स्थितियां हैं जो वायु कोश के कड़े पड़ जाने का कारण बनती हैं और अंतरालीय फुफ्फुस रोग को जन्म देती हैं। यह कड़ापन, सूजन से क्षतिग्रस्त होने से या फिर अतिरिक्त द्रव (एडीमा) के कारण हो सकता है। अंतरालीय फुफ्फुस रोग के आम प्रकार निम्न हैंः
इंटरस्टिसियल न्यूमोनिया-----
फेफड़ों के वायु कोश, जीवाणु, वायरसों या फफूंद के कारण संक्रमित हो जाते हैं। ‘मायकोप्लाज़्मा न्यूमोनिया’ नामक जीवाणु इंटरस्टिसियल न्यूमोनिया का मुख्य कारक है।
इडियोपैथिक पल्मोनरी फायब्रोसिस------
यह वायु कोश की जीर्ण एवं वर्द्धमान विक्षत अवस्था है। इस रोग का कारण अज्ञात है।
नॉनस्पेसिफिक इंटरस्टिसियल न्यूमोनाइटिस-----
यह कष्ट व्यक्ति को सामान्यतः प्रतिरक्षा प्रणाली से संबंधित रोग जैसे कि र्ह्यूमेटॉयड आर्थराइटिस या स्क्लेरोडर्मा (त्वचा काठिन्य) ग्रस्त होने पर होता है।
हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस-------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग का यह प्रकार निरंतर धूल, फफूंदी या अन्य विक्षोभकों के संपर्क में रहने पर हो जाता है।
क्रिप्टोजेनिक ऑर्गेनाइज़िंग न्यूमोनिया (COP )-----
यह रोग अंतरालीय फुफ्फुस रोग के समान ही होता है किंतु किसी संक्रमण के कारण नहीं। क्रिप्टोजेनिक ऑर्गेनाइज़िंग न्यूमोनिया (COP ) को ब्रांकियोलाइटिस ऑव्लिटरेंस विद ऑर्गेनाइज़िंग न्यूमोनिया (BOOP) भी कहा जाता है।
एक्यूट इंटरस्टिसियल न्यूमोनाइटिस------
इस प्रकार का अंतरालीय फुफ्फुस रोग धूम्रपान के कारण हो जाता है।
सार्काइडोसिस--------
ऐसा अंतरालीय फुफ्फुस रोग जिसमें लसिका पर्वों (लिम्फ़ नोड्स) में सूजन आ जाती है तथा कभी.कभी हृदय, त्वचा, स्नायु या आंखें भी प्रभावित हो जाती हैं।
एस्बेस्टॉसिस--------
एस्बेस्टॉस के संपर्क में काफी समय रहने से भी अंतरालीय फुफ्फुस रोग हो
जाता है।
रोग के विविध उद्दीपक:::
कुछेक ऐसे कारक हैं जो व्यक्ति को रोगग्रस्त करने के कारण बन जाते हैंः
आयु*
सामान्यतः अंतरालीय फुफ्फुस रोग वयस्क लोगों को ही प्रभावित करता है किंतु कभी.कभार शिशु एवं किशोर भी इसकी चपेट में आ जाते हैं।
गैस्ट्रो इसोफ़ेगस रिफ्लक्स डिजीज़-----
व्यक्ति का पाचनतंत्र ठीक न होने या फिर अनियंत्रित अम्ल प्रतिवाह (एसिड रिफ्लक्स) की शिकायत रहने पर भी अंतरालीय फुफ्फुस रोग होने की आशंका बनी रहती है।
धूम्रपान*
पूर्व में धूम्रपान करते रहे लोगों को धूम्रपान त्याग देने के बाद भी अंतरालीय फुफ्फुस रोग होने की आशंका बनी रहती है और वर्तमान में धूम्रपान के अभ्यस्त लोगों की स्थिति तो और भी बदतर होती है, खास तौर पर तब जब साथ में वातस्फीति (एम्फ़ीसेमा) भी हो।
ऑक्सीजन
बहुत उच्च स्तरीय निरंतर ऑक्सीजन, रोगी को दिए जाने पर भी फेफड़ों को नुकसान पहुँच सकता है।
व्यावसायिक एवं पर्यावरण संबंधी विषाक्तताओं का संपर्क खनन, खेती बाड़ी या फिर भवन, इत्यादि निर्माण कार्यों में लगे हुए लोगों या फिर किसी अन्य कारण वश ऐसे प्रदूषण उत्पन्न करने वाली स्थितियों के संपर्क में बने रहने वाले व्यक्तियों में अंतरालीय फुफ्फुस रोग का खतरा बढ़ जाता है। लंबे समय तक व्यवसाय या पर्यावरण संबंधी आविषों (टॉक्सिनों) और प्रदूषणजनक स्थितियों के संपर्क में रहने पर भी फेफड़ों को नुकसान पहुँचता है, इनमें सम्मिलित हैं - सिलिका धूल, एस्बेस्टॉस के रेशे, चिड़ियों और पशुओं का मल और घर के गुसलख़ानों के हॉट टब।
आरोग्य संबंधी स्थितियां--------
सिस्टेमिक ल्यूपस एरिथेमेटॉसस (दैहिक ल्यूपस त्वगशक्तिमा), र्ह्यूमेटॉयड आर्थराइटिस, स्क्लेरोडर्मा (त्वचा काठिन्य) तथा सार्काइडोसिस (मांसार्बुद) जैसे रोग होने पर भी फेफड़ों को नुकसान पहुँच सकता है जो अंततः अंतरालीय फुफ्फुस रोग में बदल जाता है।
औषधियां---------
इस प्रकार के अनेक औषधि.उपचार भी हैं जिनसे फेफड़ों को क्षति पहंुचती है, जिनमें
निम्न विशेष रूप से उत्तरदाई हैंः
कैंसर रोधी दवाएं:
कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए दी जाने वाली दवाएं भी फेफड़ों के ऊतकों के लिए घातक होती हैं, जैसे कि - मेथोट्रैक्सेट एवं साइक्लोफॉस्फेमाइड।
हृदय रोग की औषधियां: ----
हृदय की अनियमित धड़कनों के उपचार के लिए दी जाने वाली दवाएं फेफड़ों के ऊतकों को नुकसान पहुंचाने में सक्षम हैं, जैसे कि - एमियोडेरोन या प्रौपेनोलोल।
एंटीबॉयोटिक्सः---
कुछ एंटीबॉयोटिक्स भी फेफड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं, जैसे
कि - नाइट्रोफ्यूरेंटोनिन तथा सल्फ़ासेलेज़ाइन।
रेडियोथेरैपी उपचार----
कुछ लोगों के फेफड़ों या वक्ष के कैंसर में रेडियोथेरैपी की जाती है और उन्हें कई बार प्रारंभिक उपचार के महीनों या वर्षों बाद भी फेफड़ों के क्षतिग्रस्त होने की शिकायत हो जाती है। क्षति की गंभीरता इस बात पर निर्भर करती है कि फेफड़ों का कितना भाग रेडिएशन के संपर्क में आया था, कितनी मात्रा में रेडिएशन किया गया, उपचार से पूर्व क्या फेफड़ों का रोग था, जिसकी पहचान नहीं की गई थी और क्या साथ में कीमोथेरैपी भी हुई थी।
जटिलताएं---------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कारण अनेक प्राणघातक जटिलताएं उत्पन्न हो जाती हैं,
जिनमें सम्मिलित हैं-
फेफड़ों का उच्च रक्तचाप (पल्मोनरी हाइपरटेंशन)----
सिस्टेमिक उच्च रक्तचाप के विपरीत इस स्थिति में केवल फेफड़ों की धमनियां प्रभावित होती हैं। इसकी शुरुआत ऊतकों की क्षति या ऑक्सीजन स्तर की कमी से, सबसे छोटी रुधिर वाहिकाओं के अवरूद्ध होने पर होती है, जिससे फेफड़ों तक पूरा रुधिर प्रवाह नहीं हो पाता। इसी वजह से पल्मोनरी धमनियों में रक्तदाब बढ़ जाता है। यह एक गंभीर रोग है जो आगे चलकर घातक रूप ले लेता है।
दाहिने हिस्से का हृदयाघात (कॉर पल्मोनेल)------
यह गंभीर स्थिति तब जन्म लेती है जब हृदय का निचला दाहिना प्रकोष्ठ (दायां निलय) जो बाएं की अपेक्षा कम पेशीयुक्त होता है - अवरुद्ध फुफ्फुसी धमनियों से रुधिर संचार के लिए सामान्य स्थितियों की अपेक्षा अधिक परिश्रम से रुधिर पंप करने लगता है। अंततः यह दाहिना निलय अतिरिक्त परिश्रम से पस्त पड़ जाता है। ऐसा प्रायः फुफ्फुसी रक्तदाब के परिणामस्वरूप ही होता है
श्वासगति बंद हो जाना------
जीर्ण अंतरालीय फुफ्फुस रोग की अंतिम अवस्था में, ऑक्सीजन वायु का स्तर अत्यंत निम्न हो जाता है और साथ ही फुफ्फुसी धमनियों एवं दाहिने निलय का रक्तदाब बढ़ जाता है - यही स्थिति श्वासगति रुक जाने के रूप में बदल जाती है। रोगलक्षणों की पहचान अंतरालीय फुफ्फुस रोगों के सभी प्रकारों का सामान्य रोगलक्षण है - सांस फूलना। लगभग ऐसे सभी रोगी सांस फूलने की शिकायत करते हैं जो समय के साथ बदतर
हो जाती है।
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के अन्य लक्षण हैंः
* खांसी जो आमतौर पर सूखी और बलगम रहित होती है।
* वज़न में कमी, खासतौर पर COP या BOOP के रोगियों में।
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के अधिकांश प्रकारों में सांस फूलने की शिकायत धीरे.धीरे, आमतौर पर महीनों में, बढ़ती है। अंतरालीय न्यूमोनिया या उग्र अंतरालीय न्यूमोनाइटिस में अलबत्ता रोगलक्षण त्वरित रूप में कुछ घंटों या दिनों में उभर आते हैं।
चिकित्सक से परामर्श----------
आमतौर पर रोगलक्षणों के उभर पाने तक फेफड़ों की क्षति हो चुकी होती है, फिर भी जैसे ही सांस की समस्या दिखाई दे तुरंत चिकित्सक से परामर्श किया जाना चाहिए। सही उपचार के लिए शुरुआत में ही सुस्पष्ट रोगनिदान किया जाना ज़रूरी है। आमतौर पर ऐसी स्थितियों में लोग पहले अपने पारिवारिक चिकित्सक की ही सलाह लेते हैं। चिकित्सक उन्हें ‘पल्मोनोलॉजिस्ट’ - फेफड़ों से संबंधित विशेषज्ञ - के पास जाने की सलाह देता है। विशेषज्ञ द्वारा उन्हें कई प्रकार के परीक्षण करवाने का परामर्श दिया जाता है, जैसे - रुधिर से संबद्ध परीक्षण, वक्ष का एक्स.रे, छाती की सी.टी. स्कैन एवं फुफ्फुसीय कार्य प्रणाली आदि।
परीक्षण एवं स्कैन--------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कारणों का संज्ञान अत्यधिक चुनौतीपूर्ण हो सकता है। पहली बात, अनेक असामान्य विकार इस बृहत श्रेणी के अंतर्गत सम्मिलित हैं। दूसरे, ऐसे रोगों की फेहरिस्त काफी लंबी है जिनमें अंतरालीय फुफ्फुस रोग जैसे ही लक्षण व्यक्त होते हैं। इसीलिए चिकित्सक पहले अन्य सभी संबंधित रोगों की वर्जना कर लेते हैं ताकि रोग का सुनिश्चित निदान संभव हो सके।
निम्न परीक्षण रोगनिदान में सहायक होते हैंः
ऑक्ज़ीमीट्री------
यह सरल परीक्षण, एक छोटे से उपकरण को रोगी की किसी अंगुली में लगाकर, रुधिर में ऑक्सीजन सांद्रता के मापन के लिए किया जाता है। ऑक्ज़ीमीट्री रोग की स्थिति जांचने की एक सरल विधि है जो कई बार वक्ष के एक्स.रे से भी अधिक सटीक सिद्ध होती है।
स्पाइरोमीट्री एवं विस्तारण क्षमताः इस परीक्षण के अंतर्गत, व्यक्ति को मशीन से जुड़ी एक नलिका के माध्यम से, तेजी से जोर लगाकर सांस लेने को कहा जाता है। मशीन व्यक्ति द्वारा ली जाने वाली सांस का मापन कर फेफड़ों की क्षमता निर्धारित करती है, साथ ही यह भी कि व्यक्ति कितनी शीघ्रता से फेफड़ों से सांस निष्कासित कर पाता है। इस प्रक्रिया में यह भी देखा जाता है कि व्यक्ति के फेफड़ों से ऑक्सीजन कितनी शीघ्रता से रुधिर प्रवाह में पहुंच जाता है।
इमेजिंग (प्रतिबिंबन) परीक्षण------
वक्ष का एक्स.रेः छाती का एक्स.रे लेने पर अंतरालीय फुफ्फुस रोग के विभिन्न प्रकारों के कारण होने वाली फेफड़ों की क्षति अभिलक्षणीय प्रतिरूपों में दिखाई देती है। इस प्रकार का एक्स.रे रोग की प्रगति को भी दर्शाता है। फेफड़ों के विशेषज्ञ (पल्मोनोलोजिस्ट) के पास जाने से पूर्व यदि एक्स.रे लिया गया हो तो उसे ले जाना चाहिए। एक्स.रे देख कर और नया एक्स.रे लेने पर विशेषज्ञ रोग का सही निदान करने में सक्षम हो पाता है। विशेषज्ञ के लिए एक्स.रे के साथ दी गई रिपोर्ट ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक महत्वपूर्ण वास्तविक एक्स.रे होता है।
कंप्यूटराइज़ड टोमोग्राफी (सी.टी.) स्कैन परीक्षणः सी.टी. स्कैन करते समय कंप्यूटर की सहायता से, विभिन्न कोणों से लिए एक्स.रे प्रतिबिंबों का संयोजन किया जाता है और शरीर के अवयवों की आंतरिक संरचना के अंतर्विभागीय प्रतिबिंब तैयार किए जाते हैं। एक उच्च स्तरीय वियोजित सी. टी. स्कैन, अंतरालीय फुफ्फुस रोग
में फेफड़ों की क्षति सुनिश्चित करने में विशेष रूप से सहायक सिद्ध होता है। इस प्रकार के प्रतिबिंबों में तंतु आर्ति (फायब्रोसिस) की विस्तृत जानकारी प्राप्त होती है और रोगनिदान सुनिश्चित कर पाना संभव होता है।
इकोकार्डियोग्रामः इकोकार्डियोग्राम, हृदय का सोनो ग्राम है जिसमें ध्वनि तरंगों का उपयोग कर हृदय की जांच की जाती है। इस तकनीक में हृदय की संरचना के स्थिर प्रतिबिंब भी लिए जाते हैं तथा हृदय की कार्यप्रणाली के वीडियो भी बनाए जा सकते हैं। इस परीक्षण से हृदय के दाहिने हिस्से के दाब का आकलन संभव है।
फेफड़ों का ऊतक विश्लेषण सामान्यतः फुफ्फुसीय फायब्रोसिस का सुनिश्चित निदान, प्रयोगशाला में, फेफड़ों के
ऊतकों के छोटे से अंश की बायोप्सी द्वारा किया जाता है। ऐसे ऊतक निम्न तरीकों से प्राप्त किए जा सकते हैंः
ब्रांकोस्कोपीःइस प्रक्रिया के अंतर्गत, चिकित्सक एक छोटी सी, आमतौर पर पिन के सिरे जितनी, लचीली नलिका (ब्रांकोस्कोप) को रोगी के मुख या नाक के माध्यम से प्रविष्ट कराके फेफड़ों का बहुत छोटा ऊतक का नमूना निकाल लिया जाता है। ब्रांकोस्कोपी के जोख़िम काफी कम हैं - गले में अस्थायी खराश और ब्रोंकोस्कोप
के कारण भारी आवाज़ - पर कभी.कभार निकाले गए ऊतक इतने छोटे होते हैं कि सुसंगत रोगनिदान में कठिनाई होती है। ब्रोंकोएल्वियोलर लावेजः इस प्रक्रिया के अंतर्गत, चिकित्सक लगभग एक बड़ा चम्मच लवणयुक्त जल ब्रोंकोस्कोप के माध्यम से फेफड़ों के एक हिस्से तक इंजेक्शन द्वारा पहुंचाता है और फिर तुरंत ही उसे वापस निकाल लेता है। बाहर निकाले गए द्रव के साथ वायुकोशों के ऊतक भी होते हैं। हालांकि ब्रोंकोएल्वियोलर लावेज अन्य पद्धतियों की अपेक्षा फेफड़ों के पर्याप्त विस्तृत भाग के नमूने लेने में सक्षम होता है
किंतु इस प्रविधि द्वारा प्राप्त जानकारी पल्मोनरी फायब्रोसिस के सुस्पष्ट रोगनिदान के लिए पर्याप्त नहीं होती।
सर्जिकल बायोप्सीः हालांकि यह प्रक्रिया सर्जरी द्वारा संपादित की जाती है और इसमें काफी जटिलताएं रहती हैं, किंतु यही एकमात्र ऐसी प्रविधि है जिसमें सुसंगत रोगनिदान के लिए पर्याप्त बड़ा, ऊतकों का नमूना ले सकना संभव होता है। इस प्रक्रिया में सामान्य एनेस्थेसिया दिया जाता है एवं सर्जरी के उपकरणों की तथा एक छोटे कैमरा की जरूरत पड़ती है। यह कैमरा, पसलियों के बीच दो या तीन छोटे से छिद्र कर फेफड़ों में प्रविष्ट करा दिया जाता है। कैमरे के माध्यम से सर्जन एक वीडियो मॉनीटर पर फेफड़ों की स्थिति जांचता है और साथ ही उनसे जरूरत के मुताबिक ऊतक बाहर निकाल लेता है।
स्वयं क्या करें ------
अंतरालीय फुफ्फुस रोग के साथ जीने के लिए यह जरूरी है कि व्यक्ति अपने उपचार के प्रति सक्रिय व सजग हो तथा यथासंभव स्वस्थ रहने का प्रयास करे। इसके लिए जरूरी हैः
धूम्रपान त्यागेंः फेफड़ों से संबंधित रोग होने पर धूम्रपान त्याग देना पहला कदम है। इस संबंध में विकल्प चयन हेतु चिकित्सक की राय लें - विकल्प में धूम्रपान मुक्ति कार्यक्रम भी सम्मिलित हैं जिनमें धूम्रपान त्यागने की कई प्रविधियां समझाई जाती हैं। धूम्रपान करने वाले लोगों के साथ से भी बचें क्योंकि वह उतना ही नुकसानदेह
है जितना स्वयं धूम्रपान करना।
पौष्टिक आहार अपनाएंः फेफड़ों के रोगियों का वज़न प्रायः गिरने लगता है - एक तो वे आराम से भोजन नहीं कर पाते, दूसरे उन्हें सांस लेने में कष्ट होता है। ऐसे लोगों को पौष्टिक आहार लेने की जरूरत होती है जिसमें पर्याप्त कैलोरीज़ हों। आहार विशेषज्ञ की इस संदर्भ में राय ली जानी चाहिए।
समय पर टीका लगवाएंः अंतरालीय फुफ्फुस रोग में श्वास नली का संक्रमण इसे और अधिक घातक बना सकता है। ध्यान रखें कि समय पर न्यूमोनिया का टीका और हर साल फ्लू का टीका लगवा लें।
हिम्मत से सामना करेंः फेफड़ों की पुरानी तकलीफ़ के साथ जीना एक बड़ी भावनात्मक और शारीरिक चुनौती बन जाता है। व्यक्ति को, दिनचर्या और रोजमर्रा के कामकाज के साथ तालमेल बिठाना पड़ता है, कभी.कभी तो आमूल बदलाव लाना पड़ जाता है, क्योंकि सांस की बढ़ती तकलीफ़ या फेफड़ों की गिरती हालत में सेहत की देखभाल प्राथमिकता बन जाती है। ऐसे में, डर, गुस्सा या उदासी की भावनाएं उभरना स्वाभाविक है क्योंकि व्यक्ति अपनी पिछली स्वस्थ जिंदगी छूट जाने से खिन्न रहता है और साथ ही अपने व परिजनों के भविष्य के लिए चिंतित भी। अपनी भावनाएं नज़दीकी लोगों से भी बांटें और चिकित्सक से भी। खुलकर बात करने से रोग की भावनापरक तकलीफों से राहत मिलती है और उनका सामना करने की ताकत भी।
आरोग्यपरक उपचार-----
कुछ उपचारों द्वारा अस्थायी रूप से रोगलक्षणों में सुधार लाया जा सकता है या फिर रोग वृद्धि की गति मंद करना भी संभव हो पाता है। अन्य कुछ उपचार जीवन की गुणवत्ता बढ़ाते हैं। चिकित्सक द्वारा निम्न उपचार पद्धतियों में से चयन करना संभव है, जिनके विविध परिणाम हैंः
कॉर्टेकॉस्टेरॉयड्सः अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कुछ प्रकारों में लगातार रहने वाले शोथ से फेफड़ों को नुकसान पहहुँचता है और वे विक्षत हो जाते हैं। प्रेड्नीज़ोन तथा मिथाइलप्रेड़नीज़ोलोन जैसी कॉर्टेकॉस्टेरॉयड दवाएं प्रतिरक्षा प्रणाली पर अंकुश बनाए रखती हैं। ऐसा होने पर फेफड़ों और पूरे शरीर की सूजन कम होती है।
एन. ऐसिटाइलसिस्टीनः यह सशक्त एंटी.ऑक्सीडेंट, अंतरालीय फुफ्फुस रोग के कुछ प्रकारों में फुफ्फुस.ह्रास को मंद कर देता है, किंतु रोग से व्यक्ति का पूर्णतः बचाव करने में सक्षम नहीं होता।
एज़ाथियोप्रीनः यह औषधि प्रतिरक्षा प्रणाली को शमित करती है। अंतरालीय फुफ्फुस रोग के उपचार में यह प्रभावी सिद्ध नहीं हो सकी है किंतु कुछ अध्ययनों के अनुसार यह कारगर हो सकती है।
ऑक्सीजन थेरैपी:
ऑक्सीजन का आठों पहर उपचार लाभकारी हो सकता है। ऑक्सीजन, बाहरी माध्यम से रोगी को दिया जाना, हालांकि फेफड़ों की क्षति को रोक नहीं पाता किंतु ऐसा करने पर निम्न प्रभाव मिल सकते हैंः
* सांस लेना और श्रमयुक्त गतिविधियों में मदद मिल जाती है।
* शरीर में ऑक्सीजन स्तर कम होने की स्थिति में जटिलताओं से बचाव होता है या वे कम हो जाती हैं।
* हृदय के दाहिने निलय में रक्तदाब नहीं बढ़ता
ऽ नींद में सुधार होता है और व्यक्ति स्वस्थ महसूस करता है।
पल्मोनरी रिहैबिलिटेशन (फुफ्फुसीय पुनर्स्थापन)-----
फुफ्फुसीय पुनर्स्थापन से दैनंदिन कार्यकलापों में ही सुधार नहीं आता बल्कि ऐसे रोगी पूर्ण संतुष्ट जीवन जीना सीखते हैं। ऐसे पुनर्स्थापन कार्यक्रमों में लक्ष्य प्राप्ति के लिए निम्न विधियां अपनाई जाती हैंः
~ शारीरिक व्यायाम ताकि व्यक्ति की सहनशक्ति बढ़ सके।
~ श्वासविधियां जिनसे फेफड़ों की कार्यक्षमता बढ़ती है।
~ भावनात्मक संबल
~ पोषण संबंधी हिदायतें
सर्जरी-----
अंतरालीय फुफ्फुस रोग की बढ़ी हुई अवस्था जिसमें गंभीर स्तर पर नुकसान हो चुका होता है, फेफड़ों का ट्रांसप्लांट करवाना अंतिम श्रेष्ठ उपाय है। ऐसा आपरेशन करवाने वाले रोगियों की जीवन की गुणवत्ता में भी बहुत सुधार होता है और कार्यक्षमता में भी.
अनुवाद ---कुंकुम जोशी
साभार --ड्रीम 2047
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