कीट
पाठ्यक्रम चर्चा हेतु।
Dharam Singh <dharamsingh141963@gmail.com> to you & others
Mon, 24 May 2021 11:11:32 GMT+0530
पाठ्यक्रम चर्चा हेतु। संभावित और प्रस्तावित कुछ बिंदु। डॉ सुरेंद्र दलाल कीट पाठशाला (कृषि क्षेत्र ) संभावित वार्षिक पाठ्यक्रम का प्रस्ताव। साथियों नमस्कार। आप की सलामती के साथ खुश रहने की उम्मीद करता हूं ।आप सब सकुशल होंगे। इन दौरान पाठ्यक्रम को लेकर मोटे तौर पर यह विचार हुआ कि सस्ती ,टिकाऊ और वैज्ञानिक खेती के विचार को फलीभूत करने के लिए पाठ्यक्रम का विस्तार किया जाए । निरंतर संवाद का एक जरिया बने इस पर कुछ विचार और काम भी गत वर्ष किया गया। उसका अच्छा परिणाम रहा ।जानकारियां, रोचकता और उत्पादन में गुणवत्ता पूर्वक बढ़ोतरी ,यह फीडबैक आया है। इसके विस्तार में ही समग्रता से सभी आयामों को पाठ्यक्रम का हिस्सा स्थानीय जरूरतों के हिसाब से बनाया जाए। ऐसा माना गया कि लक्ष्य हासिल करने के लिए मूल विचार को बल मिलेगा और संगठन की दृष्टि से विस्तार भी होगा। पिछला अनुभव कीट पाठशालाओं में कपास के खेत में कीटों की पहचान और उसका नुकसान पहुंचाने का स्तर देखकर निर्णय करना रहा ।अगर नुकसान हो गया तो फसल नुकसान की भरपाई का सस्ते विकल्प तक हम पहुंच चुके हैं। इसके बाद इसी क्रम में पौधों की बीमारियों से लड़ने की क्षमता को ज्यादा बढ़ाया जा सकता है उन विधियों पर बातचीत की गई। जिसमें जमीन कि उर्वरक शक्ति का बढ़ाया जाना मुख्य विषय रहा है। समझने के लिए विस्तार से क्लासों में इसका प्रस्तुतीकरण बहुत बढ़िया तरीके से किया गया ।यह भी विचार आया कि वैज्ञानिक तरीका जमीन और पानी की जांच पर आधारित होना चाहिए । इस काम को व्यवहारिक रूप में लागू करके सही और तथ्य आधारित जानकारी उपलब्ध हो, फिर हम पोषक तत्वों की पूर्ति का काम करें ।ठीक वही तरीका कीट की पहचान और ईटीएल के बाद निर्णय । इसमें आगे हमने वैज्ञानिक मानसिकता का प्रशन भी इस पाठशाला में रखा था , क्योंकि वैज्ञानिक समझ के बिना खेती ना तो सस्ती हो सकती और ना ही टिकाऊ बन सकती है। अतः समानांतर रूप से विज्ञान विषयों पर बातचीत क्रमबद्ध तरीकों से रखी गई, लेकिन किसानों के साथ इस तरह पाठ्यक्रम के साथ यह पहला अनुभव था तो कीट पाठशाला में प्रतिभागियों का जीवन ,शिक्षा और विज्ञान के प्रति जिज्ञासा का अनुमान लगाना कठिन कार्य रहा। विज्ञान विषय के प्रस्तुतीकरण में कहानी हो, किस्से हो, कोई गीत या भजन हो ,वीडियो हो, ठीक ठीक पहली क्लास में शुरुआत कहां से की जाए, किस रूप में की जाए ,पाठशाला के कुल समय में कहां रखी जाए ,किस तरह का विषय कीटों की पहचान और अन्य विकल्पों को समझने में क्षमता का विकास कर सकता है। अब तक जो अनुभव हुआ है उसमें किसान के जीवन की कहानी का ही सहारा लेकर वैज्ञानिक और परंपरागत तरीकों का तुलनात्मक अध्ययन बताया गया है। इसके कारणों पर रोशनी डाली गई है। लिखित सामग्री हमारे पास नहीं थी, तो उपलब्ध भी नहीं करवाई जा सकती थी। और ना ही रिकॉर्डिंग का प्रबंध था जिससे क्लास के बाद भी कोई सुन सके। सर्वप्रथम उपरोक्त दोनों पर ही विस्तार से जानकारियां लिखित में उपलब्ध करवाने की चुनौतियां हैं। क्रमबद्ध तरीकों से सारा साल कैसे प्रस्तुत किया जाए। नए और अनुभवी किसानों में भी अलग अलग कैसे प्रबंध करें यह विचारणीय कार्य है। प्रस्तुतीकरण के अन्य विकल्पों पर भी बात की जाए। जैसे लाइव कास्ट में फेसबुक, गूगल मीट, कॉलिंग कान्फ्रेंस ,वीडियो ऑडियो रिकॉर्डिंग और खास समय में प्रस्तुतीकरण या कोई अन्य विकल्प इसकी समीक्षा की जाए। अनुभव और नई जानकारियां व फीडबैक, प्रबंधन आदि के बारे में रिपोर्ट आती है तो उसके आधार पर आवश्यकतानुसार फेरबदल किया जा सकता है । मोटे तौर पर कृषि उत्पादन खरीफ और रबी की फसलों के रूप में ही होता है अभी हम केवल कपास पर या थोड़ा जीरी ,बागवानी और सब्जियों पर बात करते हैं ।अब हमें दोनों रबी और खरीफ फसलों सभी बारे बातचीत करने की जरूरत है । जमीनी स्वास्थ्य ,पानी की उपलब्धता ,बीज की गुणवत्ता पूर्वक उपलब्धता ,बिजाई, देखभाल, कटाई कटाई और भंडारण पर पाठ्यक्रम तैयार करना चाहिए ।इन सभी कामों के लिए विषय विशेषज्ञ और लिखित सामग्री तैयार की जा सकती है। क्रमवार तरीके से एक-एक बिंदु को कवर किया जाए । जमीन -- ज़मीनी जांच में उसके आधार पर पोषण तत्वों का प्रबंधन और उसके सस्ते स्रोत क्या होंगे । फसल चक्र और फसल विविधीकरण आदि हो सकते हैं ।साथ में ही पानी की जांच और उपलब्धता । वैकल्पिक स्रोत और कम पानी की लागत वाली तकनीक। बरसाती पानी का इस्तेमाल करने हेतु तकनीक आदि आदि । सस्ती खेती के लिए स्लोगन के साथ अंतर्संबंध बताए जाएं । बीज -- बीजों की वैरायटी और गुणवत्ता की जांच परख। विश्वसनीय स्रोत ।सस्ते और पूरी मात्रा में उपलब्धता। यहां सार्वजनिक क्षेत्र और निजी क्षेत्र की भूमिका को विस्तार से क्लास का हिस्सा बनाया जाए और विकल्पों पर भी बातचीत की जाए। खाद
जमीनी स्वास्थ्य पर बात करते हुए हालांकि बातचीत रखी जाती है लेकिन संतुलित पोषक तत्वों को फसलों को उपलब्ध करवाने के लिए सस्ते और वैज्ञानिक तौर तरीके स्पष्ट तौर पर क्लासों में बताने की जरूरत है। क्योंकि सोशल मीडिया या अन्य मीडिया द्वारा भ्रामक प्रचार भी खूब जोर शोर से किया जा रहा है। अंधविश्वास के स्तर तक पहुंच गया है ।सोशल मीडिया पर निजी क्षेत्र का कब्जा है। विज्ञापन उनके अनुसार दिए जाते हैं। हकीकत से अवगत करवाया जाना और व्यवहार में लागू करवाना हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा होना चाहिए ।फसलों का चुनाव महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है ।सस्ती, टिकाऊ और वैज्ञानिक खेती की अवधारणा को लागू करने में फसलें जैसे मोटे अनाज, दालें ,सब्जियां, बागवानी का कुछ हिस्सा और छायादार पेड़ भी इसका हिस्सा बनाए जाएं जैसे पेड़ों में अगर जांटी का पेड़ लगाया जाए तो वह लाभ ही लाभ देता है। खाद ,चारा, लकड़ी और वाटर रिचार्जिंग का कुदरती साधन बनता है। गर्मी में छाया और सर्दियों में इंधन देता ।है तापमान संतुलित करता है। आदि आदि । इस प्रकार विस्तृत जानकारियों के साथ फसली चक्कर और विविधीकरण तथा अनाज, दाल फल, सब्जी और पेड़ पौधों के साथ पर्यावरण की दृष्टि से एक समझ बनाई जाए। जो हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा हो। ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को संबोधित करना हमारे लक्ष्य का केंद्रीय बिंदु है। तकनीकी क्षेत्र में खूब सारे प्रयासों से गुणवत्ता पूर्वक उत्पादन का लक्ष्य हमने प्राप्त कर लिया, एक बार यह मानकर चलते हैं तो क्या कृषि संकट का हल निकल पाएगा ।खेती (टिकाऊ) (वहनीय) सस्टेनेबल मॉडल बन पाएगा ,यह सवाल मूल विचार से गहरे से जुड़ा हुआ है ।तो क्या किया जाए? नीतिगत सवाल -- इस प्रश्न को संबोधित करने के लिए भी पिछले वर्ष नीतिगत (सरकारी नीतियों /)मामलों का प्रभावों पर भी बात अपने क्लासों में की, जब कृषि अध्यादेश लाया गया और 3 नए कृषि कानून पास हो गए। क्योंकि अनाजों, सब्जियों और फलों के गुणवत्ता पूर्वक अच्छा उत्पादन होने के बाद भी वही ढाक के तीन पात यानी वही लांडा ढाई का । कहने का मतलब स्पष्ट है कि जो कानूनी तौर पर सरकारी खरीद भंडारण और सार्वजनिक वितरण प्रणाली( कोटा व्यवस्था )(पीडीएस) सरकारी व्यवस्था के तहत नियंत्रण में थी जो अब इसको उल्टकर निजी हाथों में यानी बड़ा पूंजी वाला है वही सब कुछ खरीद कर पाएगा और बेचने को स्वतंत्र होगा। क्योंकि किसी तरह का नियंत्रण सरकार रखना ही नहीं चाहती तो फिर मुट्ठी भर लोगों का कृषि उत्पादों पर सस्ती खरीद और मनचाहे दामों पर बेचना तय हो जाएगा। अतः खेती को खाद्य सुरक्षा की गारंटी का मूल आधार माना जाता है। यह आम आदमी को हक है कि वह भरपेट खाना खा सके। इस प्रश्न को दो तरह से संबोधित करके पाठ्यक्रम का हिसाब बनाया जा सकता है। पहला सवाल नीतिगत मामलों की विस्तृत जानकारियां देना। उसके प्रभाव आदि पर । दूसरा संगठन निर्माण कार्य करना क्योंकि यह जरूरी है कि किस प्रकार यह हस्तक्षेप करता है इसका संचालन कैसे होगा अभी तक के अनुभव क्या है क्या सबक उनसे लिया जाए कौन-कौन सी बाधाएंऔर चुनौतियां पेश आई हैं। इनका हल क्या हो सकता है? अन्य तबकों और संगठनों व संस्थाओं के साथ नेटवर्किंग हो सकती है या नहीं ? यह क्यों जरूरी है? अगर हो सकती है तो क्योंकि ?व्यक्ति ,संगठन या संस्था अपनी परिस्थितियों व जरूरतों के हिसाब से विशेष क्षेत्र में कार्य का अनुभव रखते हैं जैसे जल- जगंल संरक्षण जमीन बचाओ बीज बचाओ खाद्य सुरक्षा का सवाल आदि मुद्दों पर आंदोलनात्मक कार्रवाई में शामिल रहते हैं ।दूसरे उत्पादन करने की तकनीकी हस्तक्षेप करते हैं और जनसाधारण के लिए काम करते हैं। सरकारी अनुसंधान और शैक्षणिक कार्य किए जाते हैं। विस्तार कार्य करने और फीडबैक लेने के लिए भी विभाग काम कर रहे हैं ।निजी करण के वर्तमान दौर में नीति पूंजी पूरा दखल बनाए हुए हैं
निर्णायक भूमिका में निजी क्षेत्र आ गया है इसका संज्ञान लिए बिना यदि हम उन्नत तकनीक और मजबूत संगठन के विचार को हमारी पाठशालाओं का हिस्सा नहीं बनाते हैं तो समस्याओं के हल की तरफ नहीं बढ़ा जा सकता है अतः निरंतर नीतिगत मसलों और तकनीकी हस्तक्षेप के विषयों को क्लास में नियमित पाठ्यक्रम का हिसाब बनाया जाना चाहिए अगर हम व्यापक एकता नेट वर्किंग के तहत बना लेते हैं जिसमें वैचारिक और सांगठनिक क्षमताओं का विकास संभव है तो हम सस्ती टिकाऊ और वैज्ञानिक खेती की अवधारणा के नजदीक पहुंच जाते हैं। इन सब प्रश्नों के अलावा अलग 2 परंपरागत कारणों से किसान और खेत मजदूरों के पास समय बचा रहता है । पहली बात औद्योगिक खेती का मॉडल मशीनीकरण का सघन उपयोग अपनाने से दोनों ही बेरोजगार हो गए हैं। साल भर में कुछ दिन ही काम मिलता है इस सवाल को जरूर संबोधित किया जाए। वैकल्पिक रास्तों की तलाश की जाए देश दुनिया और स्थानीय पहल कदमियों का अध्ययन किया जाए ।चौतरफा कोशिशों से ही शायद वर्तमान संकट और चुनौतियों से पार पाया जा सकता है। सस्ती तकनीकी प्रयोग जो मानव आधारित काम को तवज्जो दे ऐसी कोशिशों से मॉडल विकसित करें ।संघर्षों का हिस्सा बने और सकारात्मक- सहयोगात्मक रुख अपनाएं । इस प्रकार आम आदमी की मूलभूत आवश्यकता (संतुलित पेट भर खाना पीना और उसका सामाजिक सांस्कृतिक जीवन समृद्ध बन सके)पूरी होसके। समाज के अमन चैन और शांति व मुक्ति का रास्ता इसी तरह निकल सकता है। लक्ष्य-- जीवन में शांति चाहिए ।संकटों से मुक्ति चाहिए। रास्ता -- सस्ती ,वैज्ञानिक और टिकाऊ खेती जब अपना लेंगे हम।
हो सकता है वर्षों बाद यह प्रयास सफल हो क्योंकि कानूनी पक्ष जनहित में बन जाए ,यह लंबे समय का सामाजिक राजनीतिक संघर्ष ही तय करेगा हम वैचारिक भूमिका जरुर निभाएंगे। प्रयोगात्मक कार्यों में हम शीघ्र अपना योगदान दे सकते हैं। दोनों की संगति में ही फल मिलेगा। विचार करने हेतु।
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